तो जो पीछे आपने पढ़ा था वह इस हाइपोथेसिस का पहला स्केल था, अब दूसरे स्केल पर चलते हैं.. अभी तक आप उस सुपर यूनिवर्स रूपी ब्राह्मांड के बाहर खड़े हो कर चीजों को देख कर इस माॅडल को समझ रहे थे, अब इसके अंदर उतर कर आगे बढ़िये.. इनमें से किसी भी एक यूनिवर्स के अंदर, उसका ही एक पार्ट बन कर। यहां आपको लग रहा है कि यही अकेला ब्राह्मांड है.. जिस बिगबैंग से यह बना, वह पहला और अकेला बिगबैंग था और आगे यह बिग फ्रीज या बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म हो जायेगा। हकीकत यह हो सकती है कि इस शुरु होने और खत्म होने की लगातार चलती प्रक्रिया में आप कहीं बीच में खड़े हों, जहां पहले भी यह घट चुका हो और अभी आगे भी जाने कितनी बार घटना बाकी हो।
और यह जो कुछ लोग फनी सा सवाल करते हैं कि स्पेस अगर अब फैल रहा है तो जो पहले से मौजूद है, वह क्या है या फिर यह स्पेस फैल कहाँ रहा है.. तो समझो भई, कि स्पेस जगह के रूप में पहले से ही मौजूद है और जो फैल रहा है, यह आपका वाला ब्राह्मांड है जिसका मटेरियल दूर तक छितरा रहा है.. तो उस छितराने वाले मटेरियल के अंदर बैठ कर देखोगे तो यही कहा जायेगा कि स्पेस फैल रहा है। तकनीकी रूप से स्पेस नहीं बल्कि वह यूनिवर्स जिसमें आप हैं, वह फैल रहा है जबकि इसके साथ ही ठीक इसी जगह कोई दूसरा ब्राह्मांड सिकुड़ कर बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म भी हो रहा हो सकता है, जो आपके लिये डिटेक्टेबल नहीं।
अब यहां से यह खत्म होने और बनने की प्रक्रिया को अपने ही यूनिवर्स से समझिये.. हम एक कई करोड़ प्रकाशवर्ष में फैले केबीसी वायड में हैं। वायड यूनिवर्स में मौजूद ऐसी खाली जगह को कहते हैं जहां नाम मात्र की गैलेक्सी हों। अब अपने आसपास के स्पेस को देख कर हमें लगता है कि यूनिवर्स में हर जगह इतनी ही दूरी पर गैलेक्सीज होती हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हम खुद यूनिवर्स के बंजर हिस्से में हैं जबकि ज्यादातर जगहों पर गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी है।
तो चूंकि आपको पता है कि बड़े आकार का कोई तारा जब अपनी सारी हाइड्रोजन फ्यूज करके अपनी ग्रैविटी पर कोलैप्स होता है तो वह ब्लैकहोल बन जाता है। अब कल्पना कीजिये कि गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी वाले किसी हिस्से में कोई यूवाई स्कूटी के साईज का तारा खत्म हो कर ब्लैकहोल में बदलता है। एक चीज यह भी समझिये कि ब्लैकहोल मैटर का रीसाइकिल सेंटर होते हैं और आगे फर्स्ट जनरेशन स्टार्स उस मैटर को और प्रोसेस और मोडिफाई करते हैं।
अब हम उस नये बने ब्लैकहोल को देखते हैं जो अपने आसपास मौजूद मैटर को निगलना और ताकतवर होना शुरू कर देगा। गतिशीलता के नियम के चलते, उसके हैवी गुरुत्वाकर्षण की वजह से खुद उसकी गैलेक्सी समेत आसपास की गैलेक्सी तक उसके अंदर समाने लगेंगी और पता चलेगा कि एक मैसिव ब्लैकहोल आसपास की कई सारी गैलेक्सीज तक खा गया।
वैज्ञानिक जो यूनिवर्स के अंत की एक थ्योरी बिग क्रश के रूप में देते हैं, वह भी कुछ यूं ही घटेगी। यह प्रक्रिया हालांकि हमारे टाईम स्केल पर करोड़ों साल में पूरी होगी पर आप मान लीजिये कि अभी आपके सामने ही उसने अपने करोड़ों साल के अस्तित्व के दौरान ढेरों गैलेक्सीज निगल चुकने के बाद अभी एक लास्ट पिंड को निगला है और अपनी सिंगुलैरिटी पर बढ़ते वजन के कारण कोलैप्स हो गया है और एक झटके से उसने अब तक निगला सारा मटेरियल रिलीज कर दिया है।
यह हमारे अपने ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स में ही घटने वाला एक नया बिगबैंग है और इसके फेंके छितराये मैटर से एक नये ब्राह्मांड का जन्म हुआ है। वह ब्राह्मांड जो रिलीज होते ही बेतहाशा गर्म था लेकिन जैसे जैसे वह छितराते हुए दूर तक फैलता जा रहा है, वैसे-वैसे यह ठंडा होता जा रहा है और इसका उगला मैटर अब एक शक्ल ले रहा है।
मान लीजिये कि वह शक्ल आपकी जानी पहचानी शक्ल से अलग है तो आपके सारे फिजिक्स के नियम उस नये बनते ब्राह्मांड में धराशाई हो जायेंगे और हो सकता है कि उस यूनिवर्स की तमाम चीजें आपके सेंसेज से ही परे हों.. यानि न आप उन्हें देख पायें और न समझ पायें। या हो सकता है कि वह नया ब्राह्मांड ठीक डार्क मैटर और डार्क एनर्जी की तरह आपके लिये सिरे से अनडिटेक्टेबल हो और आप बस उसके प्रभाव को ही महसूस कर पायें। वेल.. यूनिवर्स के सुदूर हिस्सों में इस तरह की प्रक्रियाएँ आलरेडी चल रही हैं।
सामान्यतः मैं रियेक्ट नहीं करता, पर कभी-कभी मुझे कुछ बातें बुरी तरह खीज से भर देती हैं जिनमें एक तो यह होती है कि जब मैं बात कर रहा होता हूँ प्रैक्टिकल विज्ञान की और लोग उसमें दर्शन और अध्यात्म घुसा के मोअम्मा हल करने लग जाते हैं.. ऐसा है भाई, यह आप जैसे लोगों की ही मेहरबानी है कि भारत आज पिछड़ा देश कहलाता है और अमेरिका योरप वैज्ञानिक तरक्की के नाम पर हमसे कहीं आगे हैं.. खुद तो इन बहलावों के आगे दिमाग बंद कर रखे हैं और दूसरों के चिंतनशील, खोजी दिमाग भी बंद करने में लगे रहते हैं।
दूसरे मुझे वह स्टीरियो टाईप बातें भी खिजाती हैं जो पीछे वालों ने आपको पकड़ा दी हैं और आप रोबोट की तरह वही दोहराने में लगे हैं, उससे आगे बढ़ना नहीं चाहते.. स्पेस फैल रहा है, उसकी सीमायें अंतहीन हैं.. ब्ला-ब्ला। देखो भाई, अंतहीन जैसा कुछ नहीं होता, यह हमारी सीमित क्षमताओं के चलते सब्र करा देने लायक बस एक शब्द भर है। हर उस चीज का अंत होता है जो शुरू होती है और किसी भी चीज के अस्तित्व की शर्त शुरूआत है.. अंत उससे ऑटोमेटिक जुड़ा होता है। तो अगर कोई आपको किसी नये विचार की तरफ बढ़ा रहा है तो उस पर दिमाग लगाइये, संभावनाएं तलाशिये.. बजाय इसके कि पीछे सैकड़ों बार कही गई बातों को रोबोट की तरह दोहराते रहें।
अब आते हैं मूल सब्जेक्ट पर.. हालांकि मैंने अपनी कहानी मिरोव में काफी कुछ नया लिखा था, पर यहाँ एक थ्योरी दे रहा हूं जो शायद ही आपने पहले पढ़ा सुना हो.. पर थोड़ी बहुत भी पृथ्वी से बाहर की दुनिया की जानकारी हो तो समझिये इसे और चिंतन कीजिये, बजाय दर्शन, अध्यात्म का चूरन परोसने के या ब्राह्मांड अंतहीन है जैसी स्टीरियोटाईप बातें करने के। हालांकि इस तरह की बातें किताब में ही ठीक रहती हैं क्योंकि यहां से तो कोई भी उड़ा कर वाॅल/ब्लाॅग/वीडियो में चेंप देता है अपनी बता कर लेकिन फिर भी…
मैं इस पूरे सिस्टम को तीन स्केल पर समझने की कोशिश करता हूँ, जहाँ आप लगातार छोटे होते माॅडल से इसे समझिये। साईज, शेप और टाईम सबको एक मिनिमम लेवल पर संकुचित करके हम अपना एक छोटा माॅडल बनाते हैं जहां समय समझ लीजिये कि एक घंटे में एक अरब साल गुजर रहे हैं.. ध्यान रहे कि समय की अवधारणा आपके हिसाब से है.. बाहरी दुनिया में इसकी गति और परिभाषा दोनों बिलकुल अलग है तो इस पूरे माॅडल में जबरन वह प्वाइंट न घुसाइयेगा.. यह आपकी सहूलियत के लिये आपके हिसाब से समझना है।
एक बड़ा सा हाॅल है, हर तरफ से बंद मानिये… इसमें तमाम तरह का कबाड़ पड़ा है। मान लीजिये किसी तरह से खुद बखुद या अगर कोई इस हाॅल का मालिक है तो उसने जानबूझकर इस हाॅल में किसी तरह से प्रेशर पैदा कर दिया। इस प्रेशर ने हाॅल के अंदर स्थितियों को बदल दिया और वहां पड़ा सारा कबाड़, जिसे आप मैटर कह सकते हैं.. वह गतिशील हो गया। इस गतिशीलता के चलते कई भंवर टाईप ब्लैक होल बन गये जिन्होंने अपने आसपास का मैटर खींच लिया और उसे क्रश करते एक सिंगुलैरिटी पर पहुंचा दिया। फिर इस सिंगुलैरिटी पर जमा मटेरियल ने प्रेशर के चलते बिगबैंग के रूप में खुद को उड़ा लिया और उसी कबाड़ से नये किस्म के पदार्थ का निर्माण हुआ और एक ब्राह्मांड बना।
अब यहां दो बातें समझिये, पहली कि उस हाॅल के अंदर यह इकलौती प्रक्रिया नहीं हुई, बल्कि इस तरह की प्रक्रियाओं का सिलसिला चल पड़ा और एक साईकल बन गई। दूसरे कि अब बिखरा हुआ मटेरियल उसी हाल में दूर तक फैलता है, अपनी ग्रेविटी को लूज कर जाता है और बिग फ्रीज/रीप का शिकार हो कर खत्म हो जाता है.. जबकि इसी दौरान कोई एक और ब्लैकहोल के द्वारा उसका तमाम मटेरियल निगल लिया जाता है और वह उसकी सिंगुलैरिटी पर जमा होते-होते एक दिन फूट कर नये ब्राह्मांड की शुरुआत कर देता है। अब यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि उस ब्लैकहोल ने बस एक ही ब्राह्मांड का छितराया मटेरियल निगला हो, बल्कि उसने अपने आसपास के और भी ब्राह्मांडों का मटेरियल निगला हो सकता है और सबको क्रश करके, एटम्स को तोड़ कर, उनकी प्रापर्टी बदल कर उन्हें रिलीज किया हो। यह कुछ ऐसा खेल हुआ कि चार अलग-अलग रंगों को ले कर, उन्हें मिला कर पांचवां नया रंग बना दिया गया हो।
बस इसी तरह एक बार स्विच होने के बाद यह शुरू होने और खत्म होने का सिलसिला लगातार चल रहा है और उस हाॅल के अंदर मौजूद सैकड़ों यूनिवर्स में हर रोज कोई एक खत्म हो रहा है तो कोई एक शुरु हो रहा है। इन्हीं में से एक यूनिवर्स के अंदर मौजूद गैलैक्सी के एक सोलर सिस्टम में मौजूद एक ग्रह पर बैठ कर हम सोच रहे हैं कि यह इस सृष्टि का इकलौता ब्राह्मांड है और यह जिस बिगबैंग से शुरू हुआ, वह बस पहली बार हुआ इकलौता बिगबैंग था।
अपनी सीमित क्षमताओं के चलते हम बैठ कर बड़े इत्मीनान से कह लेते हैं कि ब्राह्मांड अंतहीन है, इसकी कोई सीमा नहीं है.. क्यों? क्योंकि हम अपने सबसे पड़ोस के सोलर सिस्टम में मौजूद अपने जैसे ग्रह को देख पाने की औकात नहीं रखते, अपने ही सोलर सिस्टम के सबसे आखिर में मौजूद ग्रह तक जाने की या इसकी सीमाओं को पार कर जाने की हैसियत नहीं रखते तो ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है.. लेकिन यह सच नहीं होता। यहीं पे पैदा होते ही सबकुछ ‘मान लेने’ वाला बंदा सवाल उठा देता है कि स्पेस अब फैल रहा है तो फैलने के लिये पहले से जगह कैसे मौजूद थी.. इसका मतलब बिगबैंग की थ्योरी झूठी है.. क्यों? क्योंकि वह मान चुका है, उसकी जानने में कोई दिलचस्पी नहीं तो उसे छोड़िये और आगे बढ़िये।
अब यहां पे एक कारीगरी और समझिये कि जब ब्लैकहोल मैटर को क्रश करके वापस रिलीज करता है और शुरुआती प्रोसेस में ही मैटर की प्रापर्टी चेंज हो जाती है, तो जरूरी नहीं कि वह हर बार एक जैसा हो, बल्कि वह एक दूसरे से इतना अलग हो सकता है कि एक दूसरे के लिये अनडिटेक्टेबल हो.. यानि एक साथ चार ब्राह्मांड ठीक एक जगह एग्जिस्ट कर रहे हैं लेकिन एक दूसरे को न देख सकते हैं न फील कर सकते हैं और न ही किसी तरह डिटेक्ट कर सकते हैं।
यानि जहां आप अपने कमरे में पड़े सो रहे हैं, ठीक उसी जगह एक ब्राह्मांड के एक ठंडे ग्रह की गुफा मौजूद है, जहां तापमान माईनस हजार डिग्री है, लेकिन उस ठंड को आप नहीं महसूस कर सकते। इसी तरह वहीं मौजूद तीसरे ब्राह्मांड के एक सोलर सिस्टम के एक तारे का कोर मौजूद है जहां का तापमान इतना ज्यादा है कि एटम तक टूट जाता है लेकिन उस भीषण तापमान का आप पर कोई असर नहीं क्योंकि आप दोनों की प्रापर्टीज ही एक दूसरे के लिये अनडिटेक्टेबल हैं। इन्हीं एक साथ एग्जिस्ट करते, पर एक दूसरे के लिये लगभग अनडिटेक्टेबल रहते ब्राह्मांडों को आप अलग-अलग आयाम के रूप में समझ सकते हैं। क्रमशः
मैक्समूलर की भारत पर आर्यों के आक्रमण वाली थ्योरी गलत हो सकती है, लेकिन उसका मतलब यह भी नहीं कि आर्य सिरे से कोई नस्ल नहीं थी या वे भारतीय भूभाग के ही लोग थे.. यह आज से चार पांच हजार साल पहले आम तौर पर होने वाला प्रवास था, जो इधर से उधर होता रहता था। किसी दौर में कैस्पियन सागर के उत्तर में (वर्तमान के रूस और कजाकिस्तान समझ लीजिये) एक कबीले के लोग रहते थे जो एंड्रोनोवो संस्कृति के रूप में विकसित हुए और अलग-अलग दिशाओं में फैले.. पहचान के लिये इन्हें ही आर्य कहा जाता है। अगर 1850 से पहले किसी ने ऐसा नहीं कहा तो वजह यह भी है कि पुरातत्व के लिहाज से खोजों का सफर भी बस डेढ़-दो सौ साल ही पुराना है। जैसे-जैसे चीजें सामने आयेंगी, वैसे ही उनके बारे में मत बनाया जायेगा।
इस श्रंखला की पहली पोस्ट पर कुछ पाठकों ने करेक्ट करने की कोशिश की थी कि आर्य एक भाषाई परिवार को कहते हैं न कि नस्ल को, और हालांकि इसे सही ठहराने के लिये इस सम्बंध में कई उदाहरण (मैक्समूलर समेत) भी दिये जा सकते हैं लेकिन मेरा विचार यह है कि भाषाई परिवार एक अलग पहचान हुई और नस्लीय पहचान अलग.. आर्यों के सम्बन्ध में भी इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है न कि किसी संकुचित अर्थ के साथ। इसे एक महत्वपूर्ण उदाहरण के साथ समझिये।
एक बात तो तय है कि इंसान का ओरिजिन भारत नहीं है बल्कि अब तक उपलब्ध साक्ष्यों के हिसाब से अफ्रीका है तो कभी वहां से निकल कर जब लोग छोटी-छोटी टोलियों में फैले होंगे तो वे भले एक या कुछ फैमिली ट्री से ही सम्बंधित हों लेकिन अलग-अलग उनकी पहचान निर्धारित करने से ही चीजें समझने में आसानी होती है। अब असम के वनों में आ बसी एक टोली को लीजिये.. यह समझिये कि वे एक पिता की औलाद नहीं हैं बल्कि लोगों का समूह हैं जिनमें वे भी होंगे जो अतीत में अपने मूल स्थान से चले होंगे और वे भी होंगे जो उनके प्रवास में अपने मूल दलों से अलग हो कर उनसे आ मिले होंगे। ज्यादा डीप में न जा कर बस इतना समझिये कि एक पिता की संतान न होते हुए भी वह टोली एक परिवार है जिसे हम नाम देते हैं.. नाग।
इस नाग परिवार की अपनी ईश्वरीय मान्यता, संस्कृति और भाषा है.. अब जब इनकी आबादी उस जगह उपलब्ध संसाधनों के अनुपात में बढ़ जाती है तब परंपरा के मुताबिक उनमें से एक दल निकल कर अलग किसी जगह जा बसता है और नाग होने के साथ अपनी ‘क्राथ’ के रूप में अलग पहचान बनाता है। इसी तरह दलों में से दल निकलते रहे और चारों तरफ फैलते रहे।
कहीं उन्हें मार कर अपने में मिला लिया गया तो कहीं उन्होंने किसी को मार कर अपने में मिला लिया, सामने वाले भी अपनी कुछ अलग पहचान लिये थे जो उनकी स्त्रियों के साथ इनमें आ घुसी। इस अंतर्भुक्तिकरण से दोनों की भाषाई पहचान और संस्कृति मिक्स भी हुई और वे अपने मूल कुनबे की एग्जेक्ट काॅपी न रहे। दूसरे शब्दों में भाषा में काफी समानता होते हुए भी उनकी खुद की भाषा भी हो गयी और जिनके साथ उनका सम्मिश्रण हुआ वे भी उस भाषाई परिवार का हिस्सा हो गये।
अब ऐसे में आप उस मूल कबीले को और उससे जुड़े लोगों को अलग से पहचान क्या देंगे जिससे उन्हें अलग इकाई के रूप में जाना जा सके? जाहिर है कि नाग ही कहना पड़ेगा.. आगे इस परिवार को चाहे वंश कह लें, या नस्ल कह लें लेकिन अर्थ वही परिवार आयेगा.. भाषाई पहचान के सहारे उस परिवार को अलग चिन्हित करना ठीक नहीं क्योंकि इससे सही परिणाम निकल कर सामने नहीं आयेंगे।
इसके सिवा दो बातें और भी गौर तलब हैं, जिनमें एक तो यह गर्व ग्रंथि है कि हम श्रेष्ठ और हमारा श्रेष्ठ, हम हम हैं और बाकी सब पानी कम हैं, हमने ही दुनिया को सारा ज्ञान दिया है और हमसे ही लोग दुनिया में जा कर बसे हैं जहां उन्होंने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं.. खास कर आर्यों के सम्बंध में। यह एक तरह का मनोविकार है जो इतिहास को सही नजरिये से देखने में बहुत बड़ी अड़चन पैदा करता है। आप संस्कृत को सबसे प्राचीन बताओगे, अपनी सभ्यता को सबसे प्राचीन बताओगे लेकिन साबित करने में फेल हो जाओगे। सबूतों के मद्देनजर संस्कृत से प्राचीन तमिल साबित हो जायेगी और मजे की बात यह है कि यहाँ से हजारों किलोमीटर दूर सीरिया में 1380 ईसापूर्व हुई मितन्नी संधि में संस्कृत के शब्द मिल जायेंगे लेकिन भारत में ऐसे प्राचीन प्रमाण नहीं मिलते बल्कि शिलालेखों के रूप में या हड़प्पा में जो भाषा मिलती है वह संस्कृत नहीं है।
न पुरातात्विक महत्व का ऐसा कोई स्ट्रक्चर ही मौजूद है जो साबित कर सके कि हड़प्पा काल से पहले भारतीय भूभाग में कोई आधुनिक नगरीय सभ्यता थी जबकि मिस्र या मेसोपोटामिया में आपको आठ-दस हजार साल तक पुराने भी ऐसे स्ट्रक्चर मिल जायेंगे और हड़प्पा सभ्यता किसकी थी, यह अब तक साबित नहीं हो सका.. तो अपनी प्राचीनता या श्रेष्ठता आप साबित कैसे करोगे? सिर्फ जुबानी जमां खर्च के सहारे? आप ग्रंथों की बातों का हवाला दोगे तो वे बातें मान्य नहीं, उस ग्रंथ की कोई ऐसी काॅपी या किसी और माध्यम पर लिखे उसके श्लोक मान्य होंगे जो उसके कालखंड को ईसा से पीछे ले जा सकें.. है आपके पास ऐसा कुछ?
दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों की इज्जत होती है, उन्हें अधिकृत इतिहास का हिस्सा बनाया जाता है लेकिन भारत इस मामले में नितांत फिसड्डी है और यहां का पुरातत्विक विभाग शायद सबसे घटिया है। यहां इस विभाग में आपको खरे धार्मिक मिलेंगे जो इस नजर से खोजें कम करते हैं कि उन्हें इतिहास जानना है बल्कि इस नजर से करते हैं कि पहले से सोचे जा चुके को उन प्रमाणों पर फिट कैसे करना है। 2005 में गुजरात के तट पर एक समुद्र में डूबे नगर जैसे कुछ अवशेष मिले थे तो यह कारीगर उसकी हकीकत जानने से ज्यादा उसे द्वारका साबित करने में इंट्रेस्टेड थे। यही वजह है कि यहां न उस स्तर की खोजें होती हैं और न उन खोजों को वह सम्मान मिलता है।
तो यह ‘हम श्रेष्ठ हैं, हम विश्वगुरू हैं, हमसे ही दुनिया चली है’ वाले भाव से किनारा कीजिये और समझिये कि तब जमीन पर कोई राष्ट्रीय सरहद नहीं थी और नाम बस भूभाग की पहचान के लिये ही थे। उस दौर में चीन के पूर्वी तट से लेकर मेडेटेरेनियन के आसपास तक और कैस्पियन सागर से फ्रांस जर्मनी तक अलग-अलग इंसानों की हजारों टोलियाँ फैली हुई थीं और अपनी-अपनी जगह सब अपने तरीके से विकास कर रही थीं। शुरुआती दौर झगड़ों और कब्जे का भी रहा और व्यापार के बहाने मेल-मिलाप का भी रहा जिससे न सिर्फ शब्द, भाषा, संस्कृति आपस में घुसपैठ करते रहे बल्कि देवताओं का भी मिश्रण हुआ और सृष्टि की रचना वाली अवधारणाएं भी प्रभावित हुईं।
यहां एक चीज यह भी समझिये कि भारत से भूमध्यसागर के धुर पश्चिमी किनारे तक यह जो कई धर्मों में कुछ मिलती-जुलती चीजें या नाम नजर आते हैं, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि ऐसा इनके ईश्वरीय होने की वजह से है बल्कि यह व्यापारिक मेलजोल और अंतर्भुक्तिकरण (जंग, समर्पण, विजय और समझौतों से बना मिश्रण समझिये) के कारण हैं जिसे एकदम सटीकता से रोमन और ग्रीक्स (यूनानी) के आपसी गठजोड़ से समझ सकते हैं…
यूनानी उनसे काफी पुराने थे और उनके पास एक सशक्त ईश्वरीय अवधारणा के साथ ज्यूस, पोसाइडन, एथेना, हर्मीस जैसे ढेरों देवी देवता थे, जबकि उनके मुकाबले रोमन का कांसेप्ट थोड़ा अलग भी था और सीमित भी.. बाद में जब उन्होंने ग्रीस को कब्जाया तो उनके देवी देवताओं समेत पूरे कांसेप्ट को अडाप्ट कर लिया और अब दोनों का संयुक्त कांसेप्ट हो गया, और सारे देवी देवता मिल के एक कांसेप्ट का हिस्सा हो गये। कालांतर में यही ईसाइयों ने यहूदियों के साथ और मुसलमानों ने उन दोनों के साथ किया यानि उनके ईष्टों से लेकर उनकी प्रथा-परंपरायें सब इस्लाम का हिस्सा बन गयीं।
भारतीय इतिहास को कुरेदते हुये एक सवाल जहन में आता है कि यह वर्तमान के दलित कैसे बने? हिंदू धर्म के ग्रंथों में कई जगह अपने ही एक वर्ग के खिलाफ इतनी खराब-खराब बातें कैसे लिखी हो सकती हैं? सवाल स्वाभाविक है क्योंकि दुनिया के और किसी समाज में ऐसा विघटन नहीं है जैसा अपने यहां के समाज में देखने को मिलता है। जातियों में ऊंच-नीच मिलती है लेकिन इस तरह का भेदभाव और छुआछूत नहीं मिलता कि जहां अपने ही एक वर्ग को इंसान ही न समझा जाता हो।
इसे समझने के लिये बहुत पीछे चलना होगा जहां अलग-अलग विश्वासों वाली टोलियाँ किसी न किसी टाॅटेम के अंतर्गत पनप रही थीं। इसे इस तरह भी समझिये कि भूमध्यसागर से ले कर सिंध तक मैदानी भूभाग था जहां आबादियों का विकास अलग तरह से हुआ जबकि अमेरिका, अफ्रीका, भारत, पूर्वी एशिया में यह विकास उस मैदानी विकास के मुकाबले अलग ढंग से हुआ। मैदानी लोग बड़े समाजों और सभ्यताओं में जल्दी ढले जबकि बाकियों के विकास की गति बहुत धीमी रही। शुरुआती दौर में वे छोटे-छोटे समूह हुआ करते थे जो असुरक्षा की भावना के चलते दूसरे समूहों को स्वीकार नहीं कर पाते थे और सामना होने पर लड़ाई होनी तय थी.. या और ज्यादा जमीन, चरागाह, संसाधनों की चाहत में अपने क्षेत्र के विस्तार की भूख के चलते यह लड़ाईयां होती रहती थीं।
अब लड़ाई में कुछ कबीले तो पूरी तरह खत्म कर देने में यकीन रखते थे, कुछ मर्दों को मार कर स्त्रियों को अपने कुनबे में शामिल कर लेते थे। फिर जब उत्पादन क्षमता बढ़ाने की जरूरत पड़ी तब मर्दों को मारने के बजाय कैद किया जाने लगा। कालांतर में इस तरह लोगों को पकड़ कर बेचने की परंपरा भी पनपी जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों बिकते थे और कोई भी विजित मनुष्य एक सामान की तरह ही ट्रीट किया जाता था। यह परंपरा एक साथ थोड़ा आगे पीछे पूरी दुनिया में पनपी थी और उन्नीसवीं सदी तक चली है। चाहें तो माया सभ्यता पर आधारित मेल गिब्सन की हाॅलीवुड मूवी ‘अपोकैलिप्टो’ देख कर इस व्यवस्था को समझ सकते हैं।
उत्तरी योरोप के गोरे लोग भी अपने ही ताकतवर लोगों द्वारा गुलाम बनाये गये, आगे अंग्रेजों ने अफ्रीका को गुलामों की खान बना लिया, भूमध्यसागर के आसपास के ताकतवर लोगों ने अफ्रीका से गुलाम पकड़े और चीन की तरफ मंगोलों ने भी यह किया, अमेरिका में इंका, माया जैसी सभ्यताओं के लोगों ने भी यह किया, भारत में यहाँ के ताकतवर कबीलों ने यही किया जिनमें आर्य बस्तियां आगे चल कर मुख्य हुईं, भले इस परंपरा की शुरूआत उनसे कहीं पहले हो चुकी थी। यह विजित लोग दास-दासी कहलाते थे और इन्हें किसी तरह के कोई अधिकार नहीं होते थे। इन्हें लेकर जो नियम थे, वह भारत से लेकर अमेरिका तक समान थे। साफ शब्दों में कहें तो इन्हें इंसान नहीं समझा जाता था और इन्हें पूरी तरह इंसान कहलाने में हजारों साल लगे हैं और यह सिलसिला पिछली सदी में खत्म हो पाया है।
आपको भले अटपटा लगे लेकिन दासों के मामले में पहली उदारता सातवीं शताब्दी में मुसलमानों की तरफ से ही दिखाई गयी जहाँ यथरिब (अब के मदीना) में इन्हें बराबरी का इंसान माना गया। इसका मतलब यह नहीं था कि पैगम्बर के कह देने भर से दास प्रथा का उन्मूलन हो गया बल्कि यह बहुत बाद तक चलती रही। आप इतिहास में रजिया के साथ उसके गुलाम याकूत को दास के रूप में पा सकते हैं। पूरी तरह तो मुसलमानों में भी पिछली सदी में ही खत्म हुई पर चूंकि इस्लाम ने न सिर्फ इसकी शुरुआत की और धार्मिक रूप से बराबरी दी तो श्रेय उन्हें ही देना पड़ेगा। दास वर्ग के लोगों पर यूं तो पूरी दुनिया में अत्याचार हुए लेकिन सबसे ज्यादा और सबसे देर तक अमेरिका में यह सिलसिला चला, जहां इस भेद को काले गोरे के वर्ग संघर्ष के रूप में चिन्हित किया गया। बाकी जगह इस वर्ग को फिर मुक्ति मिलने के बाद समाज में बराबरी की जगह मिल गई लेकिन भारत में कुछ और हुआ जो सबसे अलग था।
भारत में ताकतवर होते राज्य जिनमें आर्य प्रधानता या वैदिक धर्म वाले मुख्य थे, लगातार दूसरी जातियों पर विजय हासिल करते उन्हें दास बनाते रहे। बहुत पहले जब यह भारत में स्थापित हुए तब यज्ञ (इनकी संसद समझ लीजिये) में सब शामिल होते थे और इनका निर्णय ब्रह्म था लेकिन बाद में एक वर्ग के लोगों को यह अधिकार रह गया और नये इलाके जीतने और उससे उत्पन्न खतरे के मद्देनजर उपजी असुरक्षा के चलते इन्हीं से कुछ लोगों ने सैनिक की भूमिका संभाल ली। अब यह दो ब्राहमण और क्षत्रिय वर्ग हो जाने के बाद बाकी बची आबादी को समाज के लिये भोजन या मनोरंजन आदि के प्रबंधन के लिये आरक्षित कर दिया गया, जिसे विश या वैश्य कहते थे। यह लोग यज्ञ किसी मिशन पर निकलने से पहले भी करते थे और विजय के बाद भी करते थे, जहां लूटा हुआ माल दान के रूप में आपस में बांटा जाता था.. इसी चीज को अरबी संस्कृति में माले गनीमत कहते थे।
तब तीन वर्ग थे समाज के और दासों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी.. उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता था तो समाज में कैसे शामिल करते। यहां दास का मतलब कोई विशेष जाति नहीं थी और न ही सिर्फ वनों में रहने वाले कबीले थे बल्कि वे उन्हीं के जैसे वर्ग वाले भी हो सकते थे जो विजित होने के बाद दास की भूमिका में आ जाते थे। पहले उनकी पहचान कुछ भी रही हो लेकिन एक बार बंदी होने के बाद वे बस दास होते थे। पहले इन्हें समाज के अन्य वर्ग अपने साथ ही रखते थे और तब छुआछूत जैसा मैटर नहीं था। बाद में इनकी आबादी ज्यादा होने पर या खेती, खान में मजदूरी, वन कटाई, या निचले स्तर के काम के आधार पर इन्हें मुख्य आबादी से अलग बसाया/रखा जाने लगा.. कालांतर में यही दलित कहलाये। उस वक्त इन्हें शूद्र की संज्ञा दी गई, हालांकि यह समाज का हिस्सा नहीं थे और बस दास वर्ग को अलग पहचान देने के लिये ही इन्हें शूद्र की पहचान दी गयी थी। छुआछूत की भावना भी शायद तभी पनपी, वर्ना साथ रहने के दौरान तो यही लोग खाना भी बनाते थे।
अब यहां से कुछ मुख्य चीजें समझिये.. जो आप ब्राहमणों के ग्रंथों में और खासकर मनुस्मृति में शूद्र के साथ तमाम आपत्तिजनक और क्रूर नियम पाते हैं दरअसल यह दास वर्ग के लिये थे जो पूरी दुनिया के ही लोगों के बीच आमतौर पर प्रचलित थे, न कि ऐसा सिर्फ भारत में हुआ था। जहां इन्हें बराबरी का सम्मान जैसा दिया जाता दिखे, समझिये कि उस दौर की बात है जब वे साथ रहते थे या दास नहीं बने थे। किसी भी ग्रंथ के क्रोनोलाॅजिकल ऑर्डर में गड़बड़ी की वजह से यह एक क्रम में न दिख कर मिश्रित रूप में भी ऐसा दिख सकता है। दूसरे जिन्हें आज ओबीसी कहते हैं, वे भी कभी मुख्य तीन वर्गों के बाहर मौजूद उसी दास व्यवस्था से निकले हैं जिन्हें उनके काम के हिसाब से कुछ अधिकार तो कुछ सम्मान दिया गया.. मतलब यह शूद्र वर्ण दलित और ओबीसी दोनों पर लागू होता है।
तीसरे यह समझिये कि शूद्र शब्द के पीछे का भाव अलग-अलग भी रहा है। जब यह शब्द मनुस्मृति में इस्तेमाल होता है तो इसका अर्थ जातीय पहचान नहीं बल्कि दास वर्ग की पहचान है लेकिन जब अकबर के समकालीन तुलसीदास रामचरित मानस में ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी’ करते हैं तब उनका शूद्र दास वर्ग के लिये नहीं बल्कि जातीय/वर्णीय पहचान वाला होता है। इस लाईन के साथ अक्सर लीपापोती की कोशिश होती है लेकिन उस वक्त की परिस्थितियों और शूद्र/स्त्री की सामाजिक स्थिति देखते साफ समझ आता है कि अर्थ वही था जो दलित निकालते हैं न कि वह, जिससे उसे कवर करने की कोशिश की जाती है।
यानि अतीत के दास ही आगे चल कर शूद्र हुए और आगे जा कर ओबीसी और एससी में बंटे जबकि वनों में तमाम ऐसी छोटी आदिवासी प्रजातियाँ भी अस्तित्व में रहीं जो इस पूरे कालखंड में लगभग अछूती रहीं और वही नये दौर में एसटी के रूप में पहचानी गयीं। यह उस चार वर्ण में बंटे समाज से बिलकुल अलग थीं और इसीलिये वे आज भी खुद के हिंदू कहलाने से परहेज करती हैं। एक चीज इससे यह भी समझ में आती है कि इसी तरह के सिस्टम की वजह से एक ही जाति किसी राज्य में किसी वर्ण में है तो किसी राज्य में किसी वर्ण में।
आस्था के चलते आप कुछ भी मान सकते हैं, उसपे कोई रोक नहीं है लेकिन जमीनी सच यह है कि ईश्वरीय आस्मानी जैसा कुछ नहीं होता.. न तनख न कुरान न वेद। सबकुछ यहीं के लोगों ने लिखा है और ऐसा भी नहीं कि इन्हें इनके एक्चुअल वक्त में लिखा गया। कुरान फिर कुछ ही साल बाद लिख लिया गया क्योंकि तब कागज मौजूद था लेकिन बाकी सारे ग्रंथ सैकड़ों हजारों साल बाद लिखे गये। सवाल यह है कि तब तक याद कैसे रखे गये.. तो जवाब है कि उस दौर में गीतों/कविताओं के रूप में बातों को तराशा और बांधा जाता था और गाते हुए याद रखा जाता था।
इस तरह से इतने बड़े-बड़े ग्रंथ जबानी परंपरा से सफर करते दूसरे माध्यमों और फिर कागजों तक पहुंचे। अब कोई यह कहे कि सब कुछ जूं का तूं और क्रोनोलाॅजिकल क्रम में अपरिवर्तित रूप में पहुंचा है तो बस यह उसकी आस्था है.. ऐसा बिलकुल नहीं है। इंसानी क्षमताओं की एक सीमा है और उससे बाहर कोई नहीं। अब फिलहाल भारत का इतिहास परख रहे हैं तो बाकियों को छोड़ सिर्फ वेदों पर फोकस करते हैं। यह कब अस्तित्व में आये.. इस सवाल पर जाते ही आस्थागत व्यक्ति इन्हें इंसानी विकास के शुरुआती दौर में भी पहुंचा सकता है लेकिन इनमें मौजूद कंटेंट की बारीक खुर्दबीनी से इनके कालखंड के विषय में एक मोटा-मोटा अंदाजा तो लगाया जा सकता है।
3000-2500 ईसापूर्व ब्रोंज एज में ऋग्वेद और सामवेद की रचना हुई हो सकती है और यह वह वक्त था जब संगठित होते भारतीय समाज पर ब्राहमण वर्ग का प्रभुत्व था और इस काल को ही सतयुग के रूप में भी परिभाषित किया गया है। इस दौर में मिस्र में राजवंशों का विकास हुआ था। इसके बाद 2500-2000 ईसापूर्व में यजुर्वेद की रचना हुई.. इस काल को त्रेता कहा गया है और रामायण में वर्णित घटना को इसी समय में बताया जाता है। आसपास की दुनिया में मिस्र के पुराने राज्य का अंत हुआ था, ग्रीस की तरफ पूर्व मिनाओन काल का अंत हुआ था और सुमेरियन पुनर्जागरण की शुरुआत हुई थी।
जबकि 2000 से 1500 ईसापूर्व के बीच अथर्ववेद की रचना हुई और इसी दौर में महाभारत का युद्ध बताया जाता है, इसे द्वापर काल कहा गया। इसी काल में भारत की तमामतर जातियों के बीच अंतर्भुक्तिकरण की शुरुआत हुई। आसपास की दुनिया में मिस्र की तरफ हाइक्सस और आगे नया राज्य स्थापित हुए, ग्रीक की तरफ परवर्ती मिनाओन काल रहा, एशिया माइनर में असीरिया के असुरों (गरुड़मुखी देवता के उपासक) का राज्य हुआ, बेबीलोनियन राज्य असीरियनों के आधीन हुआ, फिर खुद स्थापित हुआ, आर्य ग्रीस की तरफ गये और इज्राएल की नींव पड़ी।
अब एक खास प्वाइंट.. हारून अल रशीद के दरबार में मलिक-उस-शअ’रा नाम का एक कवि था जिसने इस्लाम की मक्का विजय से पहले वहां से हटाये गये प्राचीन साहित्य को सहेजा था.. चाहे मितन्नी की संधि की तरह वे किसी भी माध्यम पर हों। उसने उनमें से कुछ रचनायें सम्पादित करके ‘सियारुल’ नाम का संग्रह बनाया था जो बाद में बैरूत पब्लिशिंग कंपनी फिलिस्तीन से छपा भी। इस किताब के 118वें पेज पर ईसा से 1700 वर्ष पूर्व हुए एक अरबी कवि लावी बिन-अख्तब-बिन-तुफी की एक कविता उद्धत की गयी है जो इस तरह है..
Faar aadakal gaaho nazzelaa zikratyn wahal tajalleeyatun ‘ainaane sahabee arba ‘atu; Haazahee yunazzelv vasoolo Zikratun minal hindtun yagoolunallaa yaa ahalaal arze ‘aalameena kullahum; Fattabe ‘oo Zikratul Veda haqqan maalam yunazzelatun wahowa ‘aalum us samawal yujra minallahe tenzuelan Fa ‘ainamaa yaa akheeyo muttabe ‘au yo basshaveeyo naag atun. Wa asnaina hymaa bik wa Atar naasaheena ka akhwatun. Wa asnaata alaa ‘oodan wahowa masha avatun.
तू धन्य है ओ हिंद की धरती, तू सम्मान के योग्य है क्योंकि तुझमें ईश्वर ने अपना असली ज्ञान प्रकाशित किया। ऊषा के आलोक के समान इन चार प्रकट पुस्तकों से कैसा पवित्र प्रकाश निकल कर हमारी आंखों को प्रसन्न करता है, इन चारों को ईश्वर ने अपने पैगम्बरों को हिंद में प्रकट किया। और ‘वह’ इस प्रकार ‘उसको’ पृथ्वी पर रहने वाली हर जाति को उपदेश देता है क्योंकि निश्चय ही परमात्मा ने उन्हें प्रकट किया है। वे खजाने साम और यजुस् (यज्रु-यजुर) हैं, जिन्हें परमात्मा ने प्रकट किया है.. हे मेरे भाइयो, उनका सम्मान करो क्योंकि वे हमें मुक्ति का संदेश देते हैं। बाकी दो इनमें से ऋक् और अथर्व (अतर) हैं जो भाइचारे का पाठ सिखाते हैं.. यह दो (वेद) हमें सावधान करने वाले प्रकाश हैं जो हमें उस लक्ष्य की ओर जाने का इशारा करते हैं।
कुरान सी शब्दावली लगी न.. लेकिन यह उससे बहुत पहले की और तब की है जब सेमेटिक लिटरेचर का नामोनिशान तक नहीं था और सभी ईश्वरीय किताबों की टोन यही मिलेगी। यहां कवि चारों वेदों के बारे में बता रहा है जो हिंद में प्रकट हुए। अब अरब में होते वेदों के इस स्तुतिगान से हमें कुछ बातें पता चलती हैं.. कि इस भूभाग को ‘हिंद’ के नाम से तब भी पुकारते थे, दूसरे उसके टाईम तक चारों वेद वजूद में आ चुके थे और उस दौर में भी अरब के लोग भारत के बारे में और यहां के समाज के बारे में जानते थे। तब समुद्री रास्ते व्यापार के चलते भी मेलमिलाप होता रहता था जिसके बड़े केंद्र आगे डेविड और सोलोमन ने इज्राएल में बसाये थे और दूसरे जमीनी रास्तों से भी इधर-उधर खिसकती आबादियों के बीच संवाद होता था।
लावी के करीब दो सौ साल बाद उत्तरी सीरिया में (ईराक, तुर्की और सीरिया के आंशिक भूभाग मिला कर) मितन्नी नाम का एक राज्य हुआ करता था। संस्कृत भाषा और संस्कृति को ठीक भारत की तरह आप यहां भी पा सकते हैं, इनके राजाओं, सामंतों, राजधानी (वसुखन्नी) के नाम संस्कृत में मिलेंगे, यह भारतियों, मिस्रियों की तरह युद्ध में रथ इस्तेमाल करते थे, संस्कृत में घोड़ों की ट्रेनिंग पर ग्रंथ लिख रखे थे और इन्होंने 1380 ईसापूर्व एक प्रतिद्वंद्वी राजा के साथ की संधि में इंद्र, मित्र, नासत्य (अश्विनी कुमार) जैसे वैदिक देवताओं को साक्षी बनाया था। अब यहां संस्कृत से सीधा अर्थ भारत की दी हुई भाषा से मत लगाइये।
इसे ऐसे समझिये कि एक आदिम भाषा थी जिसे आधुनिक दौर में प्रोटो इंडो योरोपियन के नाम से पुकारते हैं, फिर फारस और सिंध की तरफ इसी से एक शाखा और विकसित हुई जिसे प्रोटो इंडो इरानियन के रूप में जाना गया और इसी से आगे वह संस्कृत निकली जिसे वैदिक संस्कृत के रूप में जानते हैं। योरप या भूमध्यसागर के आसपास, फारस में पाये गये इस भाषा के प्रमाणों को आप इसी तरह अलग-अलग रख सकते हैं पर एक चीज फिर भी माननी पड़ेगी कि डेढ़ हजार ईसापूर्व वेद या वैदिक देवता अस्तित्व में आ चुके थे और उनकी खबर अरब और तुर्की सीरिया तक थी। प्रोटो इंडो ईरानियन में अवेस्ता की रचना हुई जो वेदों की तरह चार भागों में है (सेमेटिक में भी तौराह, जबूर, इंजील, कुरान चार किताबें हैं) और वेदों से इनमें काफी साम्य है। वेद का अर्थ अवेस्ता या अवेस्ता का अर्थ वेद भी होता है। एक बात तो तय है कि दोनों ग्रंथ एक ही परिवार के लोगों ने लिखे है।
भाषा विज्ञानी राजेंद्र प्रसाद जी के अनुसार इनमें एक शब्द ‘ल’ की क्रोनालाॅजी के हिसाब से इनकी प्राचीनता तय की जा सकती है। यानि भारत के संपर्क में आने पर इन ग्रंथों में ‘ल’ का इस्तेमाल बढ़ता गया। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के मुकाबले नये मंडलों में ‘ल’ का इस्तेमाल आठ गुना है, जबकि अथर्ववेद में सात गुना है। इससे दो बातों का अंदाजा होता है कि ऋग्वेद के बाद के मंडल अथर्ववेद के काल के हो सकते हैं और इसी आधार पर अथर्ववेद, ऋग्वेद के मुकाबले सबसे नवीन माना गया। अब यही आधार अगर अवेस्ता पर लागू करें तो उसमें ‘ल’ का नितांत अभाव है जिससे यह अंदाजा भी होता है कि उसकी रचना वेदों से पहले हुई होगी।
अक्सर पुराणों या दूसरे ग्रंथों के किस्से पढ़ते वक्त एक चीज आश्चर्यचकित करती है कि कैसे लोग किसी भी स्त्री से सीधे संभोग के लिये डिमांड कर लेते थे और स्त्री मान भी लेती थी, या नजदीकी रिश्ते में ऐसा करके बच्चे भी पैदा कर लेते थे या खीर आदि खा कर महिलायें गर्भवती हो जाती थीं या देवता वरदान में बच्चे दे जाते थे, या कहीं भी उनके वीर्यपात कर देने से बच्चे का जन्म हो जाता था.. यदि आप धर्म में आस्था रखते हैं तो किसी भी घनघोर इल्लाॅजिकल बात को मान लेंगे और नहीं रखते तो शायद खिल्ली उड़ायें लेकिन अगर आप गहराई से इतिहास को खोदेंगे तो आपको यह सब बातें किसी और रूप में नजर आयेंगी।
दरअसल कारण तब की नैतिकता और अब की नैतिकता के बीच आये 360 डिग्री के फर्क का है। उस वक्त जो चीजें सामान्य प्रचलन में थीं, आज वे घनघोर पाप समझी जाती हैं और यही वजह है कि उस दौर की बातों को लिखते वक्त जब बाद के दौर की नैतिकता से सामंजस्य बिठाने में दिक्कत आती है तो ऐसी अतार्किक कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ता है और अब सुनने वाले को वे हंसी के लायक लगती हैं और अगर सच कही जायें तो अब की नैतिकता के हिसाब से सुनने वाला उन्हें अनाचार समझेगा.. पाप समझेगा और इस बात को हजम करना उसके लिये मुश्किल होगा कि उसकी नजर में सम्मानीय रहे लोग इस किस्म का अनैतिक व्यवहार करते थे।
हर चीज को आज की कसौटी पर परखने की वजह से उस इतिहास को समझ पाने में बड़ी अड़चन है जहां लोगों को बच्चे के जन्म का रहस्य नहीं पता था और सिर्फ इस बिना पर कि बच्चे स्त्री की योनि से आते हैं.. वह स्त्री को ही मुख्य समझता था और उसे सारे अधिकार प्राप्त थे। वह दल की मुखिया होती थी, मुख्य पुजारिन होती थी और एक आजाद यूनिट होती थी जिसके साथ संभोग का मतलब देवी को आनंद देना होता था। उस दौर में ज्यादातर समाज मातृसत्तात्मक होते थे और स्त्री योनि उनके लिये पूजनीय थी। आगे इस राज के समझ में आने के बाद कि प्रजनन का सम्बंध पुरुष के वीर्य से है, लिंग को सृजन का केंद्र माना गया और कई समाजों ने लिंग पूजा शुरू की। भारत में शायद पिशाच जाति के लोगों ने इसकी शुरुआत की थी। योनि पूजा का आदिम स्वरूप अभी भी कामाख्या जैसी जगह मिल जायेगा जबकि लिंग पूजा तो आज भी देश भर में हो रही है।
यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं कि यह सब चीजें भारत से लेकर भूमध्यसागर तक हो रही थीं और लिंग पूजा का मतलब शिवलिंग नहीं था। शिव को लिंग के साथ बहुत बाद में जोड़ा गया और वह भी भारत में ही। इसी तरह के प्रतीक अरब भी पूजते थे, जिन्हें वे काबा कहते थे.. अब यह नहीं पता कि उनकी मान्यता भी यही थी या वे किसी और रूप में पूजते थे लेकिन किसी दौर में वहां ढेरों काबा थे, जिन्हें एक काबे को केंद्र बनाने के बाद खत्म कर दिया गया और उस केंद्र में अरब के सभी कबीलों के टाॅटेम ईष्टों की मूर्तियां ला कर स्थापित कर दी गयीं जिससे वहां सालाना तीर्थ यात्रा (हज/उमरा) होने लगी। इसी इतिहास को आधार बना कर ओक ने काबे में शिवलिंग होने की थ्योरी दी थी जो आज भी एक बड़े वर्ग के दिमाग में बैठी हुई है। अपने यहां इन्हीं टाॅटेम ईष्टों को भारत में ब्राहमण धर्म में देवी-देवता या किसी और रूप (जो 33 करोड़ में आते हैं) में पूज्यनीय बना दिया गया।
तो कहने का अर्थ यह था कि प्रजनन में लिंग की उपयोगिता को भले अलग जगह मिली लेकिन जन्म स्त्री ही देती थी तो संभोग के मामले में उसे सारे अधिकार प्राप्त थे। अब एक चीज यह समझिये कि आज संभोग को हम नैतिकता अनैतिकता से जोड़ते हैं लेकिन तब वह इस दायरे से बाहर मात्र आनंद का साधन और प्रजनन का कारक भर था। प्रजनन में भी कोई बाधा नहीं थी, कोई किसी से भी बच्चा पा सकता था और यह इज्जत का सवाल कतई नहीं था जैसा आज समझा जाता है। जब इसे नैतिकता से जोड़ा गया, उसके बाद से ही स्त्री के अधिकार सीमित होते गये।
फरात के किनारे बसे सबसे पुराने नगरों में से एक सुमेरू नगर ‘ऊर’ में बाकी बंदरगाही शहरों की तरह सारी अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापारियों के भरोसे चलती थी (बाद के हजारों साल तक यही चलन रहा), जहां अद्धिशूर का मंदिर उस अर्थव्यवस्था का केंद्र था। वहां देव नर्तकियां विदेशियों का नग्न-नृत्य और संसर्ग से उनका मनोरंजन करती थीं और मंदिर को भारी चढ़ावा आता था। हर साल वहां एक मेला लगता था, जहां हर परिवार अपने घर की ताजी जवान हुई लड़की (तेरह-चौदह साल) को पेश करता था, जिसे विदेशी बोली लगा कर खरीदते थे और उनके हाथों अपना कौमार्य खो कर ही कोई लड़की विवाह की अधिकारी हो पाती थी। जो अनबिकी रह जाती, वह उसका दुर्भाग्य माना जाता और उसे संभोग के अवसर न मिलते।
विवाह का मतलब भी पति से संसर्गीय वफादारी जैसा कुछ नहीं था बल्कि विवाह से पहले और बाद में भी स्त्री किसी भी पुरुष के साथ रमण कर सकती थी। यह भारत से लेकर भूमध्यसागर तक प्रचलन में था। सगे भाई-बहन शादी भी कर सकते थे, बिना शादी संभोग भी कर सकते थे और बच्चा भी पैदा कर सकते थे। कई जगहों पर पिता भी पुत्री के साथ संसर्ग कर सकता था और बच्चा पा सकता था। सेमिटिक में लूत अपनी दोनों बेटियों के साथ, याकूब अपनी बहू के साथ और हिंदू में ब्रम्हा सरस्वती के साथ तो मनु इला के साथ संभोग कर सकते थे हालांकि वे वीर्यजनित बेटियां नहीं थीं लेकिन यह बस बताने के लिये कि ऐसा चलन भी था।
जहां सिवा आनंद या पुत्र प्राप्ति के, किसी भी तरह के स्वार्थवश यही कर्म वेश्यागमन तो हो जाता था लेकिन न उस वक्त यह कर्म बुरा था न ही यह शब्द, वेश्या हो कर भी कोई स्त्री पत्नी भी हो सकती थी और पुजारिनी भी। अद्धिशूर की पुजारिनें वेश्यायें ही होती थीं। ठीक इसी तरह राक्षस, पिशाच, असुर, दानव भी बस जातियों के नाम भर थे न कि बुरे या बुराई का प्रतीक लेकिन बाद की कथाओं में इन्हें आर्यों से लड़ने वाले खलनायकों के तौर पर पेश किया गया और यह शब्द खुद बुराई का प्रतीक बन कर रह गये। हालांकि वे अपने हक की लड़ाई ही लड़ रहे थे लेकिन उन्हें अपना इतिहास लिखने की सुविधा न मिल पाई।
तो कुल मिलाकर पूरी दुनिया की संस्कृतियों में स्त्री पुरुष के बीच का रिश्ता उस दौर तक ऐसा ही रहा जब तक इसे नैतिकता से जोड़ कर नाक का सवाल न बना लिया गया। संभोग के लिये मर्जी स्त्री की चलती थी, वह किसी का भी प्रणय निवेदन स्वीकार/अस्वीकार कर सकती थी, विवाह से पहले या बाद में किसी से भी बच्चा पैदा कर सकती थी, हालांकि बाद के दौर में यह भी धारणा बनी कि बच्चा पैदा कर चुकी स्त्री संभोग में वह आनंद नहीं देती तो शादी से पहले वाले बच्चे छुपाये भी जाने लगे। संभवतः महाभारत का कर्ण इसी का उदाहरण था जबकि शादी के बाद के बच्चे किसी और से पैदा करने में कोई बुराई नहीं थी, जैसे बाकी पांडव थे।
अब जिस चीज में जमीन आस्मान का फर्क आ चुका हो, उसमें लेखकों के लिये भयंकर दिक्कत तो थी ही कि वे उस दौर की सच्चाई लिखते तो लोग हजम न कर पाते, और कल्पनाशीलता के सहारे उन चीजों को कवर करने की कोशिश की गयी तो वे हंसी और अविश्वास का कारण बन गयीं। मैं इसमें लेखकों की गलती नहीं मानता, उनके सामने भयंकर दुविधा थी.. यह शायद हमारी कमी है कि हम आज के चश्मे से हर चीज को देखना चाहते हैं और जो मान्यताएं आज हैं, उनके खिलाफ कुछ भी सुनने में असहज हो जाते हैं। इतिहास पर अपना मत या पूर्वाग्रह न थोप कर उसे उसी देश काल के अनुसार समझने की कोशिश करें तो इतनी मुश्किल भी नहीं है।
दूसरी कल्पना आप ‘इंटरस्टेलर’ से ले सकते हैं— जहां नायक को टेसरेक्ट के माध्यम से अतीत में ले जाया जाता है जहां वह खुद को और अपनी बेटी के बचपन को देख तो सकता है लेकिन सामने दिखते दृश्य में वह कोई चेंज नहीं कर सकता, बस बाईनरी या मोर्स कोड से संदेश देने से ज्यादा और कोई दखल नहीं दे सकता।
अगर हम अतीत में भौतिक रूप से जा सकते हैं या भौतिक दृश्य को देख कर उसमें दखलंदाजी करने की सामर्थ्य रखते हैं तो हम बहुत कुछ ऐसा कर डालेंगे, जिससे बार-बार वर्तमान ही चेंज होता रहेगा। जैसे अगर हम पास्ट में जा कर अपने दादा को खत्म कर दें, उनकी शादी से पहले— तो उनसे संबंधित सारे लोग जो बाद में वजूद में आये, ऑटोमेटिक खत्म होने चाहिये— खुद हमारे समेत, लेकिन यहां सबसे बड़ी व्यवहारिक दिक्कत है फिर उनसे जुड़े लोगों का भविष्य क्या होगा। मतलब दादी का भविष्य, आपके पिता/चाचा/बुआ डिलीट समझिये लेकिन आपकी माता/चाची/फूफा का भविष्य?
या अतीत में जा कर आप किसी ऐसे शख्स को खत्म कर दें जिसका बहुत लंबा चौड़ा वंश वर्तमान में पनप चुका हो तो.. या सीधे स्टोन एज में जा कर शुरुआती मानवों को ही खत्म कर दें तो? फिर तो हर पल एक नया वर्तमान चेंज होगा।
या मान लीजिये आप अतीत में एक मिनट भी पीछे जा सकते हैं तो अगर आप खुद को गोली मार देते हैं तो कौन मरेगा— अगर मरने वाले खुद आप हैं तो आप तो एक मिनट पहले मर चुके हैं, फिर आपने खुद को गोली कैसे मारी? और अगर गोली मारने के बाद हत्यारे के तौर पर आप जिंदा हैं तो गोली आपने किसे मारी? इन्हीं बातों के आधार पर यह कल्पना सिरे से खारिज हो जाती है।
इसीलिये जाती तौर पर मेरा मानना है कि हम समय में कभी यात्रा करने में सक्षम भी हुए, तो पास्ट या फ्युचर में या तो हम खुद आभासी रूप से पंहुचेंगे— जहां वास्तविक घटना में हम खुद कुछ भी छेड़छाड़ करने में असमर्थ हों, या फिर हम भौतिक रूप से पंहुचे तो सामने दिखता अतीत या भविष्य आभासी होगा— जिसे हम देख तो सकते हैं लेकिन उसमें कोई फेरबदल नहीं कर सकते। इस चीज को मैं दूसरे रूप में समझा सकता हूँ।
आप रात में आस्मान देखते हैं— आपका यह देखना असल वर्तमान और अतीत का संगम है। कभी आपने सोचा है कि जब आप आस्मान के सितारे देख रहे होते हैं तब असल में आप वक्त में कुछ मिनट से ले कर कई हजार, लाख, करोड़ साल पीछे तक पंहुच जाते हैं। हम जो पृथ्वी पर बैठ कर दूर दराज के तारे, ग्रह देखते हैं.. वह प्रकाश के माध्यम से संभव हो पाते हैं जिसकी गति लगभग तीन लाख किमी प्रति सेकेंड होती है, लेकिन बावजूद इसके स्पेस में चीजें इतनी दूर-दूर हैं कि उनसे चली रोशनी को हम तक पंहुचने में करोड़ों, अरबों साल तक लग जाते हैं— तो होता यह है, कि किसी तारे, किसी प्लेनेट, किसी गैलेक्सी का जो व्यू हम तक अभी पंहुच रहा है, वह असल में एक घंटे से ले कर एक अरब साल से भी ज्यादा पुराना हो सकता है।
उदाहरणार्थ मान लीजिये किसी गैलेक्सी का व्यु हम तक पंहुचने में हजार साल लग जाते हैं— यानि जो व्यू हम अभी देख रहे हैं वह दरअसल हजार साल पुराना है, और ठीक इस वक्त का जो व्यू होगा, वह पृथ्वी पे हजार साल बाद दिखेगा— और यह भी हो सकता है कि वह गैलेक्सी एक साल पहले, सौ साल पहले, या इस व्यू के तत्काल बाद नष्ट हो गयी हो और हकीकत में एग्जिस्ट ही न करती हो— जबकि अगले हजार साल तक हमें यह इसी तरह दिखती रहेगी।
यही आपकी अतीत में की गयी समय यात्रा है और अगर आप अपनी पृथ्वी का इतिहास ठीक इसी अंदाज में देखना चाहते हैं तो स्पेस ट्रैवल की थ्योरी समझिये। आइंस्टीन की थ्योरी कहती है कि रोशनी की गति से कोई चीज नहीं चल सकती और यह गति इतनी कम है कि आप इस गति से चल कर भी अपने जीवन काल में अपनी गैलेक्सी से ही बाहर नहीं निकल सकते, फिर और कहीं पंहुच पाने की उम्मीद ही बेकार है।
इसके लिये या तो वर्महोल एक विकल्प हो सकता है, या फिर किसी ट्रांसमिशन तकनीक पे जाना होगा— जहां आप पलक झपकते ही एंड्रोमेडा तक की भी दूरी तय कर सकें— यह सुनने में अजीबोगरीब है लेकिन कोई भी सिविलाइजेशन जो अंतरिक्ष यात्रा करने में सक्षम होगी, वह इसी विकल्प से अपनी यात्रा को संभव कर सकेगी।
सपोज कीजिये— आप ऐसी तकनीक विकसित कर लेते हैं तो आप पृथ्वी से अलग-अलग दूरी पर पलक झपकते ही पंहुच कर अतीत की पृथ्वी को देख सकेंगे। इससे आप हीरोशिमा न्युक्लियर अटैक, डायनासोर युग या उनके अंत की वजह अपने सामने देख सकेंगे। हां ऑफकोर्स आपके पास इतनी दूर की चीज साफ तौर पर देखने लायक ऑब्जेक्ट होने चाहिये— लेकिन यहां भी आप आभासी रूप से बस देख सकेंगे, उसमें कोई भी फेरबदल नहीं कर सकेंगे।
यह तो हुई अतीत की यात्रा— भविष्य की यात्रा के लिये आपको यह फैक्ट समझना होगा कि वक्त हर जगह ऐब्सोल्यूट यानि सबके लिये समान नहीं होता, जैसा कभी न्युटन ने दावा किया था या आपको भी लगता होगा क्योंकि जिसकी भी दिलचस्पी विज्ञान में नहीं, वह आज भी यही सोचता है— यानि जितनी देर में हमारा एक घंटा गुजरेगा, उतनी ही देर में स्पेस में कहीं भी एक घंटा ही गुजरेगा— जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है।
हकीकत में किसी चीज की ग्रैविटेशनल फील्ड और विलॉसिटी के अनुपात में वक्त अलग-अलग गुजरता है— जैसे स्पेस में पृथ्वी के मुकाबले वक्त तेज गुजरेगा, जबकि पृथ्वी पर ही गीजा के पिरामिड के आसपास वक्त बाकी जगहों के मुकाबले स्लो गुजरता है— यह फर्क सेकेंड के छोटे से हिस्से का होता है, लेकिन स्पेस में अलग-अलग जगहों पर वक्त बहुत ज्यादा तेज या बहुत धीमा हो सकता है… जैसे बृहस्पति ग्रह के मास के अकार्डिंग वहां की ग्रेविटी बहुत ज्यादा है तो पृथ्वी के मुकाबले वहां वक्त बहुत धीमी गति से गुजरेगा।
इसके सिवा किसी ब्लैक होल के आसपास वक्त बहुत धीमा गुजरता है। इसे आप ‘इंटरस्टेलर’ फिल्म से समझ सकते हैं, जहां गारगेन्टुआ ब्लैकहोल के पास एक प्लेनेट पर गुजरता एक घंटा भी बाहर सात साल के बराबर गुजरता है। या अगर आप ब्लैक होल के अंदर जा सकते हैं तो कुछ घंटे गुजार कर भी वापस जब आप पृथ्वी पर आयेंगे तो यहाँ बहुत कुछ बदल चुका होगा और आप एक झटके से भविष्य में पंहुच जायेंगे— लेकिन एक तरह से यह वन वे है, यहां आप बस फोर्थ आयाम के सहारे आगे तो बढ़ सकते हैं लेकिन फिफ्थ डायमेंशन के सहारे अतीत में वापस नहीं लौट सकते।
इसके सिवा गति भी टाईम पर गहरा प्रभाव डालती है— आप जितनी तेज गति से चल सकते हैं, आपके सामने गुजरने वाला वक्त उतना ही धीमा हो जायेगा। मतलब अगर आप रोशनी की गति से चल पायें तो वक्त आपके लिये लगभग रुक जायेगा। इसे आप ‘क्लाक स्टॉपर’ या ‘एक्समेन’ सीरीज की फिल्म से बेहतर ढंग से समझ सकते हैं जहां फिल्म के ऐसा करने में सक्षम कैरेक्टर इस गति से एक्ट करते हैं कि उनके सामने बाकी चीजें एकदम थमी हुई दिखती हैं— या थोड़ा बहुत आप मच्छर से भी समझ सकते हैं जिसकी गति इंसान के मुकाबले बहुत तेज होती है और उसे मारने के लिये तेज गति से की गयी इंसानी हरकत भी उसे स्लो मोशन में होती हुई दिखती है, जहां वह बड़े आराम से अपना बचाव कर लेता है।
लेकिन इसके साथ ही एक फैक्ट और जुड़ा है कि इतनी तेज गति से हरकत करते ऑब्जेक्ट को आप देख ही नहीं सकते— उदाहरणार्थ चलते सीलिंग फैन के ब्लेड, मच्छर या मक्खी के पंख। चूँकि आपने इन्हें रुकी अवस्था में देखा है तो आप जानते हैं कि यह हैं— अगर स्थिर अवस्था में न देखा होता तो? फिर यह चीजें सिरे से आपके लिये होती ही नहीं— ठीक इसी नियम से हो सकता है कि हमारे आसपास ऐसे प्राणी हों— जिनकी तेज गति की वजह से हम उन्हें देख ही न पाते हों जबकि वे हमें बिलकुल स्लो मोशन में एक्ट करते देखते हों… उसी तर्ज पर स्पेस में ऐसी चीजें हो सकती हैं जिन्हें उनकी गति की वजह से हम देख ही न पाते हों।
अब बात करते हैं भूत, प्रेत, सुपर नैचुरल्स, पैरानार्मल एक्टिविटीज की। आप कहेंगे कि इस लेख में उनकी क्या जरूरत— लेकिन अगर हम एक संभावना के मुताबिक वाकई में एक कंप्यूटराइज्ड प्रोग्राम हैं तो इन्हें आप इस प्रोग्राम में आने वाला एरर समझिये— इसलिये इस पहलू को भी परखते चलिये।
इन्हें ले कर जो आम धारणायें हैं वह दो तरह की हैं— पहली है किसी भटकती आत्मा की और दूसरी मुसलमानों में अस्तित्व रखने वाले जिन्नात की। तो आज हमारे पास आधुनिक उपकरण और तकनीक हैं जिनसे हम किसी भी ऑब्जेक्ट की गर्मी से न सिर्फ उसके वजूद को डिटेक्ट कर सकते हैं, बल्कि उन्हें देख भी सकते हैं और इस वजह से जिन्नात का एग्जिस्टेंस तो सिरे से खारिज हो जाता है, क्योंकि जब आप उन्हें आग से बना बताते हैं तो वे ऊष्मारहित तो नहीं हो सकते।
हां आत्मा वाले टिके रह सकते हैं लेकिन क्या वाकई आत्मा जैसी कोई चीज होती है? असल में इंसान को चलाने वाली ‘चेतना’ है जिसे हम ऊर्जा की एक फॉर्म कह सकते हैं। जब तक यह शरीर में है, शरीर चल रहा है और जैसे ही यह खत्म— जीवन खत्म।
जैसे हम टीवी या कंप्यूटर को देखते हैं, जो दुनिया भर की चीजें हमें दिखाता है, सुनाता है, पढ़ाता है लेकिन उसे चलाने वाली इलेक्ट्रिसिटी के खत्म होते ही वह परफार्म करना बंद कर देता है। उसे चलाने के लिये बिजली मुख्य कारक है, लेकिन उसका कोई स्वतंत्र वजूद नहीं। वह बल्ब, फैन, टीवी, मोबाईल, बैट्री, वायर जैसे किसी सहायक ऑब्जेक्ट के साथ ही परफार्म कर सकती है। बस इसी तरह ही आत्मा को भी समझिये।
इस चीज को रेडियो से भी समझ सकते हैं कि सेल डालते ही वह आपको दुनिया भर के स्टेशन सुनाता है, लेकिन सेल निकालते ही वह डब्बा हो जाता है। वह सेल/बैट्री/इलेक्ट्रिसिटी खुद आपको कुछ नहीं सुना सकती और न उनके बगैर रेडियो कुछ सुना सकता है। दोनों तभी परफार्म करेंगे जब एक दूसरे से जुड़ेंगे। यह बैट्री ही चेतना है जबकि रेडियो आपका शरीर। बिना शरीर न चेतना किसी काम की और न बिना चेतना के शरीर किसी काम का— इसी चेतना या ऊर्जा को हम साधारण भाषा में आत्मा कहते हैं।