Category Archives: Religion and Sciece

इवाॅल्यूशन

क्या इंसान बन्दर से इवाॅल्व हुआ है

मैंने कई लोगों को बड़ी शान से यह सवाल उठाते देखा है कि अगर आदमी बंदर से इवाॅल्व हुआ है तो अब तक दुनिया में बंदर क्यों हैं? यह सवाल पूछने वाला अपनी धार्मिक आस्था से बंधा होता है और उसे पूरा यकीन होता है कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इंसान को तो सीधे ईश्वर ने उसके आधुनिक रूप में धरती पर उतारा है।

ऐसा करते हुए न सिर्फ वह इंसानी विकास के पुरातत्विक प्रमाणों को दरकिनार कर रहा होता है बल्कि अपनी समझ में बड़ी बुद्धिमता दिखाने की कोशिश कर रहा होता है जबकि हकीकत में यह ख्याल इस हद तक अहमकाना है कि इस पर सिर्फ हंसा जा सकता है।

सवाल यह नहीं है कि इंसान किसी बंदर से इवाॅल्व हुआ या नहीं.. वह हर किसी की अपनी आस्था और मान्यता है। कोई मान ले कि पत्थर में भगवान है तो यह उसकी अपनी आस्था है और किसी दूसरे को इससे परेशानी नहीं होनी चाहिये। परेशानी तब खड़ी होती है जब आस्था को फैक्ट मान कर उसे साबित करने की जिद पाल ली जाती है।

इवाॅल्यूशन थ्योरी नहीं है, यह फैक्ट है.. यह सभी जीवों, पेड़-पौधों और जमीन तक में होता है। कभी समुद्र में डूबा रहने वाला किनारा आज हिमालय के रूप में सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला है.. यह जमीन का इवाॅल्यूशन ही तो है। आप यहाँ कहेंगे कि अगर समुद्री किनारे से हिमालय बन गया तो दुनिया में अभी तक दूसरे समुद्री किनारे क्यों मौजूद हैं।

मुर्गियां, शुतुरमुर्ग, कीवी आदि देखे हैं.. उनके पास पंख होते हैं लेकिन वे उड़ते नहीं बल्कि चलते, दौड़ते हैं, मानेंगे कि इन्हें बनाने वाले ने गलत डिजाइनिंग कर दी पंख दे कर, जिनकी जरूरत नहीं थी। यह उसी इवाॅल्यूशन का हिस्सा हैं जो बताते हैं कि कभी इनके पुरखे उड़ते थे लेकिन फिर जरूरत नहीं रह गयी तो उड़ना छूट गया लेकिन अवशेषी अंगों के रूप में पंख रह गये। अब आप कहेंगे कि ऐसा था तो कव्वे, कबूतर, चील, बाज क्यों नहीं उड़ना छोड़ कर जमीन पर चलने लगे। वे अभी भी क्यों उड़ रहे है?

आपने व्हेल देखी है.. पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी उम्र पानी में रहती है लेकिन बाकी जलचरों की तरह गलफड़े न होने की वजह से पानी से ऑक्सीजन नहीं ले पाती बल्कि सांस लेने के लिये उसे ऊपर आना पड़ता है। इनकी अस्थियां मैमल्स की तरह भारी होती हैं, इसके पिंजर में पिछले पैरों की अवशेषी अस्थियां होती हैं और पानी में जलचरों की तरह तैरने के लिये दुम को दायें-बायें न करके थलचरों की तरह ऊपर-नीचे करती हैं। आप मानेंगे कि यह गलत डिजाइनिंग हैं क्रियेटर की?

नहीं, यह इवाॅल्यूशन का हिस्सा है जो बताता है कि कभी उसके पुरखे जमीन पर रहा करते थे जिन्होंने बाद में पानी को अपना घर बना लिया। आप पूछेंगे अब कि ऐसा था तो सारी मछलियां सांस लेने क्यों नहीं ऊपर आतीं।

खुद को देखिये.. कभी इंसान जानवर जैसा था, बिना पका मांस या कच्ची वनस्पति ही खाता था, खतरों भरा असुरक्षित जीवन जीता था तो उस हिसाब से शरीर था लेकिन आग, खेती और स्थाई आवास के आविष्कार के बाद उसके जीने का ढंग बदल गया लेकिन अपेंडिक्स, इरेक्टर पिल्ली, अक्कल दाढ़, साईनस, टाॅन्सिल्स, कान को हिलाने वाली मांसपेशी,आंखों के कोनों पर पाई जाने वाली झिल्ली और छः माह के बच्चे में पाया जाने वाला ग्रास्प रिफ्लेक्स जैसे कई अवशेषी अंग और आदतें उसके पुराने वजूद की गवाही देते हैं। यही इवाॅल्यूशन है।

होमो फ्लोरेसिएंसिस इवाॅल्यूशन की स्पष्ट गवाही देते हैं

इवाॅल्यूशन का मतलब यह कदापि नहीं कि बंदर से आदमी बना है तो सारे बंदरों को आदमी बन जाना चाहिये। यह कहना ही गलत है कि बंदर से इंसान बना.. डार्विन की इवाॅल्यूशन थ्योरी का अर्थ यह कभी था ही नहीं बल्कि यह था कि कोई मानवाकार कपि इंसान और बंदर दोनों का ही पूर्वज हो सकता है।

यानि इसे यूं समझिये कि एक चिम्प ग्रुप था जिसकी अगली पीढ़ी में दो ग्रुप्स बने और दोनों अलग-अलग निकल गये, दोनों को पनपने के लिये एकदम विपरीत परिस्थितियां मिलीं और दोनों ही अलग-अलग रूप में अपने आसपास की स्थितियों के अनुरूप इवाॅल्व हुए। एक को आप इंसान कह लीजिये और दूसरे को बंदर कह लीजिये। बंदर हमारा चचाजाद भाई हो सकता है लेकिन वह हमारा पूर्वज नहीं है।

इसे एक दूसरे उदाहरण से समझिये कि जब पृथ्वी पर होमो सेपियंस के अतिरिक्त इंसानों की दूसरी प्रजातियाँ भी मौजूद थीं, तब इंडोनेशिया के ही एक अन्य द्वीप फ्लोरेंस पर बसे मनुष्य बौने होने की प्रक्रिया से गुजरे और आगे चल कर वे होमो फ्लोरेसिएंसिस के रूप में जाने गये।

वस्तुतः वे वहां तब पहुंचे थे जब समुद्र का स्तर असाधारण रूप से निचला था और वे वहां जमीनी रास्ते से पहुंचे थे लेकिन बाद में जलस्तर बढ़ने से वे वहीं फंसे रह गये, जो जगह संसाधनों की दृष्टि से कमजोर थी और तब वहां जो अगली पीढ़ियां उत्पन्न हुईं वे कम ऊर्जा के उपभोग पर जिंदा रह पाने की बाध्यता के चलते आकार में छोटे होते गये। उनकी लंबाई अधिकतम एक मीटर और वजन 25 किलो तक होता था। इसके बावजूद वे हाथियों का शिकार तक करने में सक्षम थे.. यह बात और है कि अनुकूलन की दृष्टि से हाथी भी बौने ही होते थे।

अब उन्हें ले कर क्या यह दावा किया जा सकता है कि अगर वे बौने होमो फ्लोरेसिएंसिस हमारे ही भाई बंधु थे तो दुनिया में अब लंबे चौड़े इंसान क्यों हैं.. दुनिया के सारे ही इंसान उनके जैसे बौने क्यों न हो गये?

इवाॅल्यूशन कैसे होता है

इसे एक और उदाहरण से समझिये.. मान लीजिये कि एक कबूतर है, जिसके बारे में आपको पता है कि वह उड़ता है जिससे न सिर्फ वह भोजन हासिल करता है बल्कि शिकारी पक्षियों से भी बचता है। अब सपोज वह किसी ऐसे आईलैंड पर पहुंच जाता है जहां कोई दूसरा प्रतियोगी नहीं है और न ही उसका कोई प्राकृतिक शिकारी है। खाना बेशुमार उपलब्ध है और उसके लिये उड़ने की जरूरत ही नहीं। अब उसके लिये उड़ने की जरूरत खत्म हो जायेगी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह इनफार्मेशन जेनेटिकली उसके डीएनए के जरिये आगे कैरी होती रहेगी कि अब खतरों से बचने या भोजन पाने के लिये उड़ने की जरूरत ही नहीं।

तो इस दशा में कुछ सौ साल में उसकी काया ही बदल जायेगी। भरपूर खुराक और सुरक्षित जीवन उसे बेहतर ढंग से पनपने का मौका देगा और वह आकार प्रकार में कबूतर से काफी बड़ा और कुछ हद तक अलग हो जायेगा। उसके पंख उड़ने लायक नहीं रहेंगे बल्कि मुर्गी या शुतुरमुर्ग जैसी अवस्था में पहुंच जायेंगे। तब कोई खोजी अगर यह कहेगा कि वह कबूतर है तो आप क्या उससे यह कहेंगे कि चूंकि आपकी धार्मिक किताबों में ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता तो आप ऐसा नहीं मानते। अगर ऐसा होता तो बाकी कबूतर अब तक वैसे उड़ने वाले क्यों हैं, सारे कबूतर वैसे ही लोंदे क्यों न हो गये।

तो कुल मिलाकर आपकी धार्मिक किताबों में क्या लिखा है, उस पर आपकी कितनी आस्था है.. वह आपका अपना निजी विषय है लेकिन उन चीजों को आधार बना कर जब आप किसी स्थापित फैक्ट का मजाक उड़ा रहे होते हैं तो दरअसल आप खुद अपना ही मजाक उड़ा रहे होते हैं।

इंसान और पिरामिड

अगर इंसान खत्म हो जाये तो क्या होगा

आज हम इंसान संख्या में इतने हैं कि हमने पृथ्वी के चप्पे-चप्पे को कवर कर रखा है और इतना वैज्ञानिक विकास कर चुके हैं कि जमीन से ले कर अंतरिक्ष तक अपने एग्ज़िस्टेंस के निशान छोड़ रखे हैं लेकिन यूनिवर्स के टाईम स्केल पर क्या यह काफी है? आइये इसे कुछ संभावनाओं के आधार पर परखते हैं।

दो तरह की संभावनाओं की कल्पना कीजिये.. पहली कि किसी अनकंट्रोल्ड वायरस का शिकार हो कर दो तीन साल में सारी इंसानी आबादी खत्म हो जाती है तो आगे क्या होगा। सबसे पहला प्रभाव यह होगा कि मनुष्य के नियंत्रण में चलने वाली सभी चीजें बेलगाम हो जायेंगी, धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी से कृत्रिम लाईट गायब हो जायेगी, उसके सोर्स ढह जायेंगे.. इनमें ढह कर पूरी तरह खत्म होने में सबसे ज्यादा समय न्युक्लीअर पाॅवर प्लांट और उसका कचरा लेंगे, लेकिन पचास हजार साल में इस तकनीक की हर पहचान मिट जायेगी।

insan aur Pyramid

जो भी जानवर इंसान ने पालतू बनाये थे, वह भूख और शिकारी जानवरों के हाथ मारे जायेंगे और जो गिने चुने बचे रह सके वे इवाॅल्व हो कर अपने जंगली पूर्वजों के रूप में ढल जायेंगे। हमारी पहचान बताने वाली प्लास्टिक भले डीकम्पोज हो कर मिट्टी, पानी बनने में पचास हजार साल ले ले लेकिन वह भी मिट जायेगी। साधारण घर, गलियां, सड़कें सौ सालों में ही पेड़ पौधों के आगे सरेंडर कर के प्रकृति का हिस्सा हो जायेंगे। बड़े आलीशान निर्माण भले तीन सौ साल ले लें लेकिन अंततः वे भी इस परिणति को प्राप्त होंगे। मेटल से सम्बंधित निर्माण भी हजार साल के अंदर प्रकृति का हिस्सा हो जायेंगे और गीजा के पिरामिड जैसे पत्थरों वाले निर्माण भले पचास हजार साल से ज्यादा वक्त ले लें लेकिन एक दिन वे भी अपनी पहचान खो देंगे। सिर्फ एक लाख साल में वह सबकुछ मिट जायेगा जो इस प्लेनेट पर हमारे होने की पहचान है।

इंसान के न रहने से कार्बन उत्सर्जन एकदम बंद हो जायेगा जिसका प्रभाव यह होगा कि देर सवेर बनने वाली स्थितियों से आइस एज शुरू हो जायेगी और वन्य जीवन खत्म होने लगेगा.. अब हमारा नजदीकी रिश्तेदार एप्स चूंकि अक्ल रखता है तो वह हो सकता है कि आग को पैदा करना और साधना सीख ले और बर्फ की दुनिया में सर्वाइव कर सकने वाले जीवों को शिकार कर के खुद को पालना शुरू कर दे और जब लाखों साल बाद यह आईस एज खत्म हो तो वह इवाॅल्व हो कर प्री ह्यूमन की स्टेज तक पहुंच चुका हो और फिर अगले पच्चीस तीस लाख सालों में इंसान बनने तक का सफर तय करे और उस वक्त के इंसान ठीक वही सोचेंगे जो हम सोचते हैं यानि कि हम ही पृथ्वी की पहली इंटेलिजेंट सिविलाइजेशन हैं।

अगर पृथ्वी से जीवन ही खत्म हो जाये तो क्या होगा

जबकि इंसानों के खत्म होने की दूसरी संभावना यह है कि अगर किसी नजदीक के तारे के सुपरनोवा से पैदा कास्मिक वेव पूरी पृथ्वी को जला दे, या कोई एस्टेराईड सीधा धरती से आ टकराये तो उस इम्पैक्ट से पैदा प्रभाव खुश्की के सारे जीवन को खत्म कर देगा। इस थ्रस्ट से जगह-जगह क्रस्ट टूटेगा और ज्वालामुखी भी उबल पड़ेंगे और फिर इस जमीन पर ऐसा कुछ भी नहीं बचेगा जो हमारी पहचान है और अगले एक दो करोड़ साल तक पृथ्वी एक बेजान, बंजर ग्रह बन के रह जायेगी और फिर भी अगर हैबिटेबल जोन में बनी रही तो एक दो करोड़ साल बाद समुद्रों के जरिये एक कांपलेक्स लाईफ इवाॅल्व होगी जो इंटेलिजेंट लाईफ में कनवर्ट होने के बाद यही सोचेगी कि हम इस ग्रह की पहली बुद्धिमान सभ्यता हैं जबकि यह सच नहीं होगा।

Insan aur Pyramid

यह तब की बात है जब हम इतने आधुनिक हो चुके लेकिन सोचिये कि इंसान अगर दस-बीस हजार साल पहले की अवस्था में होता और उसने सभी जरूरी खोजें कर ली होतीं और फिर कोई वायरस या कोई रेडियेशन टाईप इफेक्ट उस सिविलाइजेशन को 99% खत्म कर देता और बस एक पर्सेंट वह लोग बचते जो कहीं ऐसे दूर दराज के इलाकों में रह रहे होते जो अप्रभावित रहता और फिर आगे उनसे दूसरी नस्लें पनपतीं जो वैज्ञानिक ज्ञान में जीरो होतीं तो दस हजार साल बाद हम यही सोचते कि हम तो आदिमानवों से यहाँ तक पहुंचे हैं, भला अतीत में हमारे ही पूर्वज हमसे ज्यादा चतुर और ज्ञानी कैसे हो सकते थे, यह जरूर किन्हीं एलियन का प्रभाव होगा जबकि यह सच नहीं होता।

पिरामिड ऐसी ही किसी सभ्यता की पहचान हो सकते हैं जिसने वायरलेस इलेक्ट्रिसिटी के उत्पादन के लिये पाॅवर प्लांट के रूप में इन्हें बनाया था और यह सिर्फ मिस्र में नहीं थे बल्कि अमेरिका से ले कर अंटार्कटिक तक में थे जो तब साउथ पोल पर नहीं था.. फिर वह सभ्यता लुप्त हो गयी। पिरामिड के जिन विशाल पत्थरों को ले कर हम सोचते हैं कि वे उस जमाने में बिना क्रेन की मदद कैसे इतने ऊपर ले जाये गये होंगे तो हो सकता है वे सिर्फ मटेरियल ले जाते रहे हों और उन्हें उनकी जगह ही सांचे में बनाया गया हो। इस बात के सबूत भी ढूंढे जा चुके हैं।

क्या इंसान पृथ्वी की पहली सभ्यता है

कहने का मतलब यह कि पृथ्वी की उम्र कितनी भी हो लेकिन जीवन पनपने लायक स्थितियां यहाँ करोड़ों सालों से हैं और हम अपने से पहले यहाँ जीवन के सिर्फ एक साइकल को जानते हैं, डायनासोर काल के रूप में जो लगभग सत्रह करोड़ साल तक रहे.. हकीकत यह है कि उससे पहले भी ढेरों सभ्यतायें रही और मिटी हो सकती हैं और उनके बाद भी। हम इंसान का अतीत ढूँढने पच्चीस लाख साल से पहले नहीं जा सकते जबकि डायनासोर युग को खत्म हुए छः करोड़ साल गुजर गये।

Insan and Pyramid

तब पृथ्वी जीवन के लायक नहीं बची थी लेकिन वापस जीवन पनपने लायक स्थितियों के लिये इसने सपोज एक करोड़ साल का भी वक्त लिया था तो भी बीच में साढ़े चार करोड़ साल का बहुत लंबा पीरियड मिसिंग है.. इस पीरियड में भी जाने कितनी सभ्यतायें पनपी और विलुप्त हुई हो सकती हैं। कोई विकास के पैमाने पर वहां तक पहुंची हो सकती है जहां हम दस हजार साल पहले थे तो कोई वहां तक पहुंची हो सकती है जहां हम आज है और कोई वहां तक पहुंची भी हो सकती है जहां हम सौ या हजार साल बाद होंगे।

हमारे पास जमीन में दफन फाॅसिल्स के सिवा यह सब जानने का कोई जरिया भी नहीं लेकिन हर जगह खुदाई तो नहीं की जा सकती और फिर हम एक्टिव ज्योलाॅजी वाले ग्रह पर रहते हैं जहाँ सबकुछ बदलता रहता है। पुरानी जमीन रीसाइक्लिंग के लिये नीचे जाती रहती है और नयी जमीन बनती रहती है। जमीन और समंदर जगह बदलते रहते हैं.. तो इन सबूतों को ढूंढ पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है।

क्या एलियन भी हमारी ही पिछली सभ्यता थे

और हाँ.. यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि सभी सभ्यतायें दिखने में इंसान जैसी ही हों, जैसे कभी छिपकली इवाॅल्व हो कर डायनासोर हो जायेगी तो कभी एप्स इवाॅल्व हो कर इंसान, वैसे ही डाॅल्फिन जो काफी समझदार होती है, वह इवाॅल्व हो कर वैसी हो सकती है जैसी हम एलियन की कल्पना करते हैं या पिरामिड के पास हमें कुछ उकेरे गये चित्र मिले थे। हो सकता है कि वह पिछली एडवांस सभ्यता के वे बचे खुचे लोग सेपियंस के साथ ठीक उसी तरह एग्जिस्ट कर रहे हों जैसे एक ही समय सेपियंस, डेनिसोवा और नियेंडरथल्स एग्जिस्ट कर रहे थे लेकिन आगे उनका वजूद खत्म हो गया हो।

Insan And Pyramid

इसकी तुलना इंसानों के खात्मे की पहली संभावना वाले ट्रैक पर कीजिये जहाँ कुछ इत्तेफाकन बचे रह गये इंसान हिमयुग में सर्वाइव करते एप्स के साथ सह अस्तित्व स्थापित करते हैं, उन्हें आग, शिकार, सुरक्षित निर्माण का ज्ञान देते हैं और कुछ पीढ़ियों के बाद खत्म हो जाते हैं और आगे दो तीन लाख साल बाद इवाॅल्व हुई उन्हीं एप्स की आधुनिक पीढ़ियां सोचती हैं कि सर्वाइवल से सम्बंधित इतने महत्वपूर्ण सिद्धांत उनके एप्स पुरखों ने हासिल किये थे जबकि हकीकतन उस ज्ञान का सोर्स वर्तमान इंसान होंगे।

Written By Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क फाईनल

क्या शरई हुकुमत एक आदर्श व्यवस्था हो सकती है

अगर शरई कानून का उदाहरण कम अपराध दर और सुरक्षित माहौल के उदाहरण के तौर पर देना ही चाहते हैं तो इसपे भी गौर कीजिये कि सबसे लोवेस्ट क्राईम रेट वाले दुनिया के दस देश आईसलैंड, डेन्मार्क, आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल, चेक रिपब्लिक, स्विटजरलैंड, कनाडा, जापान और स्लोवेनिया हैं— तो वहां की व्यवस्था आदर्श क्यों नहीं?

शरई कानून उस दौर में परिभाषित किये गये थे जब अरब में कबीलाई संस्कृति थी— राजशाही निजाम था। उस दौर में जानवरों, औरतों, वर्चस्व और सत्ता विस्तार के लिये अक्सर जंगें होती थीं, जिनमें बड़े पैमाने पर औरतें बेवा होती थीं— उन्हें सहारा देने के लिये ही एक से ज्यादा निकाह या लौंडी बनाने की इजाजत दी गयी थी… अब कौन सी जंगें हो रही हैं?

वहां रहने बसने वाले खुशी या मजबूरी में इसे एक्सेप्ट करें तो करें लेकिन लोकतंत्र में संपूर्ण नागरिक आजादी जीते हुए भी अगर आपको सऊदी की शरई व्यवस्था आकर्षित कर रही है, जहां कदम-कदम पर बंदिशें हैं तो आप धार्मिक बीमार हैं— और आस्था से आगे आप कुछ सोचना नहीं चाहते। यहां तक कि उस व्यवस्था में  मेरी यह बात भी ब्लास्फेमी के अंतर्गत आयेगी क्योंकि मैंने शरीयत पे सवाल उठाये, जिसकी सजा मौत है— आपको ऐसी व्यवस्था चाहिये? मुझे तो हर्गिज नहीं चाहिये। वहां किसी दूसरे धर्म के मानने वाले को नागरिकता नहीं मिल सकती न वह अपनी पूजा पद्धति अपना सकता है।

और भारत में जो शरीयत के पैरोकार इधर-उधर फिरते नजर आते हैं— उनसे एक गुजारिश है कि भले हमारा निजाम जमहूरी है, पर एक सच्चे मोमिन के तौर पर वे खुद पर शरीयत लागू कर लें और कोई ऐसा काम न करें जो शरई एतबार से गलत हो, या गुनाह हो। मसलन—

ब्याजयुक्त बैंकिंग प्रणाली से तौबा कर लें— म्यूचुअल फंड्स, शेयर, एफडी जो भी हो उसे फौरन तोड़ दें। बिजली चोरी से तौबा कर लें, जो मुस्लिमों में सबसे आम रिवाज है। घर में तस्वीरों की मनाही है तो टीवी तोड़ के फेंक दें। मोबाईल पर चूँकि पोर्न भी उपलब्ध रहता है और फेसबुक वगैरह पर पराई ख्वातीन की तस्वीर/वीडियो वगैरह दिख जाते हैं तो स्मार्टफोन का इस्तेमाल छोड़ दें और साधारण बटन वाले मोबाइल रखें। चुस्त कपड़े (जींस टीशर्ट वगैरह) बिलकुल न पहनें। राह चलते, उठते बैठते किसी भी लड़की औरत को न ताकें। शरीयत ने बेटी को संपत्ति में हिस्सेदार बनाया है, तत्काल अपनी बहन या बेटी को उसका वाजिब हक दें। यह तो वह काम हैं जो मोमिन धड़ल्ले से कर रहे हैं— बाकी जो जुए, शराब, गारतगिरी जैसी लानतें हैं, वह तो अलग मसला है।

इतना कर सकते हैं तो कर के देखिये, फिर उसके बाद शरई कानून या शरीयत की बात करेंगे तो वाकई आपकी बात लोगों के लिये मायने रखेगी।

ईश्वर ने इन्सान को बनाया या इंसान ने ईश्वर को

ईश्वर ने इंसान को बनाया या इंसान ने ही ईश्वर को बनाया— यह विवाद तो शायद कभी हल न हो, लेकिन एक अनदेखे ईश्वर का अस्तित्व तब से है जब दुनिया में किसी पहले इंसान को किसी खौफ के बीच कोई पहली उम्मीद बंधी होगी। डर और उम्मीद— यहीं से शुरू होता है ईश्वर और तब भले उसे किसी खास रूप में न जाना गया हो, लेकिन जैसे-जैसे इंसान समझदार होता गया, ईश्वर भी अलग-अलग रूपों में मान्य होता गया और यूँ उसका अलग-अलग होना ही वर्तमान में प्रचलित ‘धर्म’ है।

धर्म का वास्तविक अर्थ यह नहीं जो आज दुनिया में सबके सामने है, पर व्यवहारिक अर्थ जरूर यही है— तुम हिंदू, मैं मुसलमान, वह सिख, वह इसाई, वह यहूदी।

तो थोड़ी देर के लिये खुद को इस तिलक, टोपी, क्रास, पग से मुक्त कर लीजिये— और खोजिये कि धर्म क्या है? इसका वास्तविक रूप क्या है— क्यों है यह और इसने आपको आखिर दिया क्या है? क्या हासिल कर रहे हैं आखिर आप इस धर्म से?

अतीत को अतीत में छोड़ दीजिये, उन किताबों में जो भी लिखा था वह उस वक्त की परिस्थितियों के हिसाब से, उस वक्त के इंसानों को संभालने के लिये लिखा गया था। वर्तमान में आइये और सोचिये कि किसी को गाली देना धर्म हो सकता है, या किसी से प्यार के दो मीठे बोल धर्म होना चाहिये? किसी से नफरत करना धर्म हो सकता है या किसी से प्यार करना धर्म होना चाहिये? किसी की जान ले लेना धर्म हो सकता है या किसी की जान बचा लेना? किसी का हक छीन लेना धर्म हो सकता है या किसी मजलूम को हक देना/दिलाना? किसी पर अन्याय करना धर्म हो सकता है या किसी को न्याय देना/दिलाना? किसी को विपरीत विचारधारा के नाम पर प्रताड़ित करना धर्म हो सकता है या दूसरी  विचारधारा के लोगों को सम्मान देना?

ऐसे जितने भी सवाल सोच सकते हैं, बंद आंखों के साथ उन सवालों को सोचिये और ईमानदारी से खुद को खंगालिये। अपने जवाबों को उस धर्म की कसौटी पर परखिये, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आप ढोते चले आ रहे हैं। सोचिये, मंथन कीजिये कि धर्म किसलिये था— क्यों जरूरत थी धर्म की और आप किस तरह उस धर्म को निभा रहे हैं।

हिंदुओं में भी ‘ध्यान’ द्वारा ईश्वर को तलाशने और उससे खुद को जोड़ने का मार्ग बताया गया है और हमारे यहां भी उसे ‘सलात’ कहा गया है। सलात का अर्थ ध्यान ही है, यानि ईश्वर से खुद को जोड़ना— पैगम्बर ने इस सलात को ‘नमाज’ के रूप में अपनाया था, सूफियों ने किसी और रूप में— लेकिन बाद के लोगों ने नमाज को ही नियम के रूप में अपना लिया और आज इसका अर्थ ही कहीं खो कर रह गया है। यह सवाल मुझसे नहीं, अपने आप से कीजियेगा कि क्या आप नमाज में ‘ध्यान’ की उस अवस्था तक पंहुच पाते हैं कि खुद का जुड़ाव अल्लाह से महसूस कर सकें या आपका मन दुनियाबी जोड़ घटाव में भटकता रहता है? ऊंचे पायजामे या खड़ी टोपी में अटका रहता है? क्या वाकई में आप खुद को ‘सलात’ के अरीब-करीब भी पाते हैं? अगर नहीं तो उसकी वजह भी तलाशिये।

बहरहाल, इतना मंथन करने से आपको कम से कम ज्ञान का यह मोती अगर नहीं मिल पाया कि किसी इंसान को तकलीफ पंहुचाना धर्म नहीं, बल्कि किसी की तकलीफ में काम आना, उसकी तकलीफ को दूर करना ही धर्म है— तो तय मानिये कि आपके इंसान होने में  ही कमी है।

आखिर हमारे ग्रह से बाहर ब्रह्माण्ड में कौन कौन सी संभावनायें हैं

धर्म अधर्म आपद्धर्म

यहाँ लोग अक्सर यह सवाल पूछते पाये जाते हैं कि धर्म क्या है? तो सवाल अपनी जगह सही होता है लेकिन सामने वाले के जवाब भिन्न हो सकते हैं… असल में जब आप अंग्रेजी में रिलीजन या उर्दू में मजहब कहते हैं तो उसका सीधा और एकमात्र अर्थ होता है— ईश्वर को मानने वाली विशेष विचारधारा, पंथ, एकरूपता के नियम से बंधा बाड़ा— लेकिन जब आप हिंदी में कहते हैं धर्म, तो इसके दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ जो आमतौर पर प्रचलित है, वह रिलीजन और मजहब ही है—

लेकिन जो इसका दूसरा अर्थ है, असल में वही ‘धर्म’ शब्द का वास्तविक अर्थ है। आपके सद्कर्म— आपका वह आचरण जो मानव कल्याण के अनुरूप हो, वही असल में धर्म है। अब इसे विस्तृत व्याख्या में समझिये—

आपकी समूची जिंदगी के हर छोटे बड़े अमल को सिर्फ तीन भागों में बांटा गया है— धर्म, अधर्म और आपद्धर्म। आप कभी इसपे ध्यान दिये हों न दिये हों— लेकिन आपका हर छोटा बड़ा काम, आपका जिंदगी के हर कदम पर लिया गया हर छोटा बड़ा फैसला इन्हीं तीन नियमों के अंतर्गत ही आता है।

सच बोलना, सच का साथ देना, ईमानदारी से जीवन यापन करना, झूठ फरेब धोखेबाजी से परहेज करना, न्याय करना, न्याय का साथ देना, मजलूम के हक में खड़े होना, जालिम के खिलाफ खड़ा होना, अन्याय न करना, दूसरों के काम आना, अवैध, समाज द्वारा बहिष्कृत, स्वार्थपरक कार्य से परहेज रखना, कहने का मतलब यह कि आपका हर वह कार्य जो मानव की बेहतरी और कल्याण के लिये हो… असल में धर्म है।

और ठीक इसके विपरीत जो भी कार्य होगा, जिसके परिणाम किसी इंसान के लिये अहितकारी, परेशानी पैदा करने वाले, तकलीफ देने वाले हों… वह अधर्म के दायरे में आयेगा।

अब इनके बीच एक कड़ी होती है आपद्धर्म की— यानि आपके वे कार्य जो दिखने में अधर्म लगें लेकिन उनमें धर्म छुपा हो— वह आपद्धर्म है। इसे दो तीन उदाहरणों से समझ सकते हैं— आप किसी ऐसी जगह झूठ बोलते हैं जहां सच बोलना किसी एक या अधिक इंसानों के लिये अहितकारी हो सकता है— तो आपका वह झूठ आपद्धर्म है। आप कहीं ऐसी जगह चोरी करते हैं जहां चुराई गयी वस्तु के पीछे आपका अपना स्वार्थ न हो कर दूसरों का कल्याण छुपा है, तो वह चोरी आपद्धर्म है। आप किसी ऐसी जगह जालिम के साथ खड़े हो जाते हैं जहां आप किसी तरह मजलूमों की मदद कर सकें तो आपका उस जालिम के साथ खड़ा होना आपद्धर्म है।

आप इसे समझें न समझें लेकिन आपकी हर एक्टिविटी इन्हीं नियमों में बंधी है। और मजे की बात यह है कि सभी मजहबों के मूल में आपको यह चीज मिलेगी। गीता में इसी आधार पर कौरवों को श्रीकृष्ण ने अधर्मी ठहराया था, वर्ना पूजापाठ और भगवान वगैरह को तो वे भी मानते थे— और असल में इस्लामिक माइथॉलाजी में ‘काफिर’ का निर्धारण भी इसी आधार पर किया गया है। किसी नास्तिक या गैरमुस्लिम के रूप मे काफिर का अर्थ लोग अपने हिसाब से निकाल लेते हैं।

जबकि आप एक धार्मिक व्यक्ति के तौर पर जिस पूजा पाठ, आरती, तीर्थ, रोजे नमाज, हज, जकात वगैरह को ही धर्म समझ बैठे हैं— असल में इन्हें ईश्वर की चापलूसी करने वाली पद्धति या कर्मकांड वगैरह कह सकते हैं… लेकिन यह वास्तविक धर्म नहीं है। वास्तविक धर्म आपका सदआचरण है, जिसके साथ अगर आप इन कर्मकांड को करते हैं तो एक तरह से इन्हें धर्म के रूप में देख भी सकते हैं.. लेकिन अफसोस कि व्यवहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है।

असल धर्म इंसानियत है न कि यह पूजा पद्धतियाँ

आइये इसके कई उदाहरण दे के समझाता हूँ— एक सच्चा मोमिन अपने आप में समझता है कि वह नमाज पढ़ के, रोजा रख के, हज करके बहुत नेक अमल कर रहा है और इसका उसे बहुत सवाब मिलेगा— लेकिन वह दुकान पर बैठ कर ग्राहक से झूठ बोल रहा है कि उसके माल की इतने की तो खरीद है, उतने में दे सकता है— जबकि यह सच नहीं है। वह सारे नेक अमल कर रहा है लेकिन किराये पर लिये, या नजूली जमीन पर मकान या दुकान पे कब्जा किये बैठा है। घर में चोरी की लाईट जल रही है और उस चोरी की लाईट से खींच कर हासिल पानी से वजू कर के नमाज पढ़ रहा है। चोरी की लाईट से जलते हीटर पर बनी अफतारी से अफ्तार कर रहा है, खाना खा रहा है।

मस्जिद में लाईट की सीधी चोरी या हेराफेरी से हासिल पानी, पंखे, रोशनी का उपभोग करते हुए वजू कर रहा है, नमाज पढ़ रहा है— रिश्वत, कमीशन, फरेब, हेराफेरी या दूसरे नाजायज तरीके से हासिल रकम से हज कर आता है और हाजी बन जाता है। धर्म कार्य के तौर पर सड़कें घेर कर नमाज पढ़ रहा है.. जुलूस निकाल रहा है, भले सारा ट्रैफिक बधित हो जाये, किसी की ट्रेन, प्लेन, बस छूट जाये.. या एंबुलेंस में किसी की जान निकल जाये।

ठीक इसी तरह एक सच्चा हिंदू माथे पर तिलक लगाये, हाथ में लाल धागा बांधे, दिन रात राम राम कर रहा है, मंदिरों के घंटे बजाता फिर रहा है— लेकिन साथ ही झूठ, फरेब, मक्कारी, धोखेबाजी सब किये जा रहा है।

कमीशन, रिश्वत, कालाबाजारी, टैक्स चोरी सब करके बचाये पैसे से दान पुण्य कर रहा है। चोरी की लाईट से धार्मिक पंडालों को सजा कर जगराते कर रहा है। बड़े-बड़े लाउडस्पीकर, डीजे साउंड लगा कर कथा कर रहा है— भले आसपास बीमार लोग हों, एग्जाम देने वाले बच्चे हों या लोग शोर से पागल हुए जा रहे हों।

गणपति, नवरात्रि, कांवड़ के जुलूस के नाम पर सड़कों पर अपना कब्जा करता फिर रहा है, भले ट्रैफिक व्यवस्था ध्वस्त हो रही हो। जगराते या बड़ा मंगल टाईप धार्मिक आयोजनों के नाम पर सड़कें घेर कर चलते फिरते लोगों के लिये तो मुसीबतें पैदा कर ही रहा है— हैवी साउंड सिस्टम से ध्वनि प्रदूषण करके आसपास के लोगों को बीमार किये दे रहा है— लेकिन समझ रहा है कि बहुत धार्मिक कार्य कर रहा है और इससे उसे बड़ा पुण्य मिलेगा, जिससे मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

धर्म के नाम पे पाखंड, पोंगापंथी करने वाले यह सारे लोग धोखे में हैं— भ्रम में हैं कि यह पुण्य या सवाब के लायक कोई धर्म कार्य कर रहे हैं। असल में यह सब जानते बूझते, आंखें बंद किये धड़ल्ले से अधर्म कार्य में लगे हुए हैं और ऐसा नहीं है कि इन्हें इसका अहसास नहीं होता… होता है और इसी अहसास से पैदा अपराधबोध को मिटाने के लिये यह निजी जिंदगी से ले कर सोशल मीडिया तक पर बहुत शोर शराबा करके, बहुत प्रचंड तरीके से यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि यह बहुत बड़े धार्मिक लोग हैं और दूसरों को तुच्छ साबित करने में लगे रहते हैं।

आपको क्या लगता है कि यह धार्मिक लोग हैं और अगर वाकई कोई ईश्वर अल्लाह है तो वह इनसे खुश होगा? तो आप खुद को उसकी जगह रख के सोच लें कि शायद इनकी नौटंकी पे आप बजाय खुश होने के हंटर से इनकी खाल तब तक उधेड़ेंगे, जब तक यह सही मायने में धर्म अधर्म के बीच का फर्क सही सही न समझ जायें।

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 7

इस्लामिक इतिहास काफी विरोधाभासी रहा है

इस्लामिक इतिहास की तीन तरह की डिटेल उपलब्ध है— एक वह जो सुन्नियों की हदीसों में मिलती है, दूसरी शियाओं की और तीसरी मुस्लिम इतिहासकारों की। कई जगहों पर तीनों समान हैं तो कई जगहों पर दो समान हैं और कई प्वाइंट्स पर तीनों में मतभेद हैं— खासकर हजरत आयेशा से संबंधित हदीसों में ही बड़ा भयानक विरोधाभास है।

हकीकत कुछ भी रही हो, लेकिन यह तय है कि उस वक्त जो भी लिखा गया था, वो नष्ट हो गया या कर दिया गया और फिर जो भी लिखा गया, वह दो सौ साल के बाद लिखा गया। यह बहुत लंबा वक्त होता है— चार से पांच पीढ़ियां गुजर गयीं थीं इस बीच, और सीना ब सीना बातें आगे बढ़ी थीं।

मानवीय क्षमताओं को परखना हो तो अपनी तरफ से एक रसूल से ही जुड़ी हदीस बनाइये, उसे लिख लीजिये और अपने किसी अज़ीज को सुनाइये और उससे कहिये कि न सिर्फ वह इसे दोहराता रहे बल्कि दूसरे तक भी पंहुचाता रहे…

फिर ठीक एक साल बाद जिस तक वह बात पंहुची हो, उनसे वह बात सुनिये और अपने लिखे से मिलाइये— ह्यूमन लिमिटेशन आपके सामने आ जायेगी। इंसान किसी बात को एग्जेक्ट नहीं याद रख सकता, और जिस हिस्से को भूलता है— खाली स्पेस भरने के लिये उस हिस्से में अपनी बनाई वह बात भर देता है जो उसे सही लगे— और इसी तरह चलते-चलते बात अपना मूल स्वरूप खो देती है।

तो दो सौ सालों तक इसी तरह जुबानी खर्च के तौर पर जो बातें आगे बढ़ती रहीं— उनकी कोई गारंटी नहीं कि वे कितनी सच हैं, कितने प्रतिशत सच हैं या किस हद तक झूठ हैं… एक तरह से यह कह सकते हैं कि वे सच भी हो सकती हैं और झूठ भी, लेकिन उनके लिये दावे नहीं कर सकते कि वे सच ही हैं।

क्योंकि दावे करेंगे तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि सुन्नी, शिया और इतिहासकारों में से किसकी, कौन सी बात सच है… सच तो एक ही होगा न, तीन अलग-अलग सच तो नहीं होंगे। मजे की बात है कि इन्हीं किताबों के पीछे नफरत है, कट्टरता है, ऊलजुलूल नियम हैं और खूनखराबा है।

जानिये इंसान के पृथ्वी पर सफ़र को

क्या वाकई लोग खुदा का खौफ खाते हैं

एक चीज़ होती है खुदा का खौफ…अपने आसपास आपने इसे जरूर महसूस किया होगा— खुदा का खौफ, खुदा की मुहब्बत, खुदा के नबी की मुहब्बत! यह वे भंगिमायें हैं जो हर मुसलमान पर गालिब दिखती हैं। इसका असर साफ तौर पर आप अपने आसपास की जिंदगी में या सोशल मीडिया पर महसूस कर सकते हैं— जहां खुदा, खुदा की किताब या खुदा के रसूल को ले कर कोई भी ऐसी बात जो आहत करने की ताकत रखती है, मुस्लिम युवाओं को ऐसे उकसा देती है कि न सिर्फ वे गाली गलौच, ट्रोल पे उतर आते हैं— बल्कि आपकी जान लेने तक के ख्वाहा हो जाते हैं… और दुनिया के दूसरे हिस्सों में— जहां उनकी पेश चल सकती है, उन्होंने ऐसा कर के दिखाया भी है।

अब यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई इस्लाम के इन अलम बरदारों को खुदा का खौफ है, उससे मुहब्बत है— उसके नबी की सीरत से कोई लगाव है? आइये इतिहास से ले कर वर्तमान तक इसके अक्स तलाशते हैं।

चलिये नबी की हयात में जो भी हुआ उसे इस्लाम फैलाने की गरज से ‘खुदा के खौफ’ की परिधि से बाहर मान लेते है, लेकिन उनकी वफात के बाद जो हुआ— उस पर नजर डालिये। बेटी फातिमा के घर हमला हुआ, यहां तक कि उनका हमल भी गिर गया और वालिद के इंतकाल के कुछ महीनों बाद ही वह भी दुनिया से रुख्सत हो गयीं। क्या ऐसा करने वालों को खुदा का खौफ महसूस हुआ होगा? दूसरे खलीफा हजरत उमर पर जानलेवा हमला हुआ— जिसकी परिणति उनकी मौत की सूरत में हुई… तीसरे खलीफा हजरत उस्मान को घर में घेर कर कत्ल कर दिया गया। बचाव में आगे आई उनकी बीवी की उंगलियां काट दी गयीं। चौथे खलीफा हजरत अली को मस्जिद में कत्ल किया गया— क्या कहीं ऐसा करने वालों को खुदा का खौफ महसूस हुआ होगा?

यह सवाल इसलिये कि यह न सिर्फ खलीफा थे बल्कि बुलंद हैसियत के सहाबी भी थे। आज इनके अपमान के नाम पर भी तलवारें निकल आती हैं— तब लोग इन्हें कत्ल होते देखते रहे थे। क्या तब उन देखने वालों को खुदा के इन सिपाहियों से वह मुहब्बत महसूस हुई थी, जो आज के लोग दिखाते हैं?

नबी का मर्तबा क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं— लेकिन उनके भाई और दामाद को कत्ल किया गया। एक नवासे को जहर दे कर मारा गया, दूसरे को कर्बला में परिवार के बाकी लोगों समेत कत्ल किया गया— उनकी लाशों को घोड़ों से रौंदा गया, उनके सर कलम करके भालों पे टांग के घुमाये गये… उनकी औरतों की बेहुरमती की गयी, इसके बाद भी बचे खुचे लोगों को लगातार निशाने पर रखा गया— क्या तब भी लोगों के दिलों में नबी और उनके चहेतों के लिये वह मुहब्बत थी कि वे गम से पागल हो कर मरने मारने पर उतारू हो जाते। क्या ऐसा करने वाले मुसलमानों को खुदा के इंसाफ का इल्म नहीं था— या खौफ नहीं था?

बुलंद हैसियत के मुसलमान खुद आपस में लड़ रहे थे

हजरत अली के खलीफा बनने के फौरन बाद ही हजरत आयशा ने उनके खिलाफ बगावत कर दी थी और फौज तैयार कर के बसरा लड़ने पंहुच गयी थीं जहां जंगे जमल के दौरान दस हजार से ज्यादा लोग मारे गये और वह सारे मुसलमान थे— क्या कहीं किसी को खुदा का खौफ, उसकी मुहब्बत महसूस हुई होगी? इस लड़ाई के बाद एक मार्का फतेह हुआ तो मुआविया के रूप में दूसरा फसाद हजरत अली के सर आ खड़ा हुआ और खिलाफत के मद्देनजर सिफ्फीन में जंग लड़ी गयी जहां फिर हजारों मुसलमान मौत का निवाला बने और इन दोनों ने ही अली के खिलाफ अपनी जंग को ‘जिहाद’ करार दिया था— क्या ऐसा करते वक्त इन्हें खुदा का खौफ रहा होगा? या इस्लाम के रुतबे का ख्याल आया होगा?

इस जंग में हालाँकि मुआविया की हार हुई लेकिन वह फिर भी समझौते से मुकर कर सीरिया में अलग सल्तनत कायम करके अपनी हुकूमत चलाने से पीछे न हटे। मिस्र के गवर्नर हजरत अबू बक्र के बेटे मुहम्मद बिन अबु बक्र को गिरफ्तार करके, गधे की खाल में सिलवा कर जिंदा जलवा दिया गया। अली के शासन में आने वाले हिस्से के रहने वाले अली के अनुयायियों को कत्ल करके उनके कटे सर भालों पे लटकाये गये कि दहशत पैदा हो।

और अली की मौत के बाद हसन से एक समझौता कर के पूरी हुकूमत हथिया ली और बाद में समझौते से फिर कर गद्दी अपने बेटे यजीद को सौंप दी— जिसके साइड इफेक्ट के तौर पर इब्ने जियाद और शिम्र के नेतृत्व में कर्बला अंजाम दिया गया। कर्बला के हादसे के बाद सिर्फ मक्के और मदीने में जो बगावत हुई भी तो वहां मुस्लिम बिन अक़्बा के नेतृत्व में चढ़ाई कर दी गयी और मदीने में कत्लो गारत का बाकायदा खेल खेला गया। ढूंढ-ढूंढ के सहाबी कत्ल किये गये, औरतों की खानाखराबी की गयी— जिसकी वजह से सैकड़ों नाजायज बच्चे वजूद में आये, नबी की मस्जिद को घोड़ों का अस्तबल बना दिया गया।

इसके बाद हसीन बिन नुमैर ने मक्के पर हमला किया। काबे को जलाने की कोशिश की लेकिन यजीद की मौत के बाद उसे पीछे हटना पड़ा। यजीद के बाद उसका बेटा कुछ दिन शासक रहा, फिर उमय्यद खानदान के ही मरवान ने सत्ता हथिया ली। मरवान हजरत उस्मान का वही भतीजा था जिसे अहम जिम्मेदारियाँ सौंप कर वह खुद विवाद में घिरे थे और इसी शख्स ने वलीद के दरबार में बुलावे पर पंहुचे हुसैन को कत्ल करने की सलाह दी थी। जबकि मदीने की सरदारी अब्दुल्ला इब्ने जुबैर के हाथ रहते हुसैन के कत्ल का बदला लेने वाले हजरत मुख्तार, कभी साथ में लगाये गये ‘इंतकाम-ए-खूने हुसैन’ के नारे को भूल कर आपस में ही लड़े और फिर मुसलमानों की ही लाशें गिरीं।

जबकि आगे चल कर मुख्य रूप से उमय्यद सल्तनत के रूप में मरवान के वंश का ही शासन रहा जो कि 750 ई० में अब्बासियों के हाथ खत्म हुआ— और इस पूरे काल को इस्लामिक हुकूमत ही कहा जाता है।

अबू ताहिर अल जन्नबी ने काबे को तहस-नहस किया था

इसके बाद 930 में एक योद्धा अबू ताहिर अल जन्नबी ने मक्का पर अटैक किया और काबे को लूट कर तहस नहस कर दिया। हजारों हाजियों को कत्ल कर के आबे जमजम का कुआं भर दिया। संगे अस्वद को उखाड़ कर अल हिसा ले गया— जहां उसने पत्थर को नापाक किया… बाईस साल तक संगे अस्वद की गैर मौजूदगी की वजह से हज न हो सका। 952 में फातिमी हुकूमत ने भारी उजरत दे कर संगे अस्वद वापस हासिल कर के काबे में स्थापित किया।

यानि रसूल के आंख बंद करने के फौरन बाद से ही मुसलमानों के बीच आपस में ही कत्लो गारत का सिलसिला लगातार चलता रहा और लोग उन बुलंद हैसियत के लोगों की लाशें गिराते रहें जिनके अपमान के नाम पर भी आज के लोग तलवारें निकाल लेते हैं— कहीं दिखता है आपको उनमें खुदा का खौफ, नबी से मुहब्बत… उनके खानदान से मुहब्बत? या दिखता है इस बात का अहसास कि कोई खुदा है जो हर गलत अमल की सजा देगा और वे उस खौफ को महसूस कर पाये हों? जबकि लगातार चले कत्लो गारत के उस दौर में एक मुसलमान ही दूसरे मुसलमान की गर्दन काटता रहा।

इतिहास से निकल कर वर्तमान में आइये— यह जो खुदा के खौफ की दुहाई देते हैं, खुदा और नबी की मुहब्बत का दम भरते हैं… क्या वाकई में सच बोलते हैं? चलिये खुदा या इस्लाम के नाम पर खूनखराबा, आतंकवाद फैलाने वालों को ‘बहका हुआ’ मान कर किनारे कर दीजिये और आम मुसलमानों पर आइये— अगर वाकई में इन्हें खुदा और जहन्नुम का खौफ है, और वे इस बात का यकीन करते हैं कि वाकई कोई खुदा है जो उनके हर बद आमाल की सजा आखिरत में देगा तो फिर सोचिये कि वे लोग कौन हैं जो इस सच को जानने के बाद भी झूठ बोल रहे हैं? खुदा की तरफ से मनाही के बावजूद फरेब, मक्कारी, बेईमानी में लिप्त हैं।

कोई शराब पी रहा है, कोई जुआ खेल रहा है, कोई लड़कियों के साथ फ्लर्ट कर रहा है, कोई मोबाईल पर पोर्न देख रहा है, कोई औरतखोरी कर रहा है, कोई बिजली चोरी, टैक्स चोरी कर रहा है, कोई किसी का मकान कब्जाये बैठा है, कोई किसी की दुकान कब्जाये बैठा है… कितने ऐसे मुस्लिम मिलेंगे आपको, जो इनमें से किसी भी एब से लिप्त न हों? उंगली पे गिनने लायक.. क्यों करते हैं यह ऐसा— जाहिर है कि इन्हें न खुदा से मुहब्बत/खौफ है न नबी की सीरत का लिहाज।

क्योंकि दोनों में से कुछ भी होता तो एक झूठ बोलते इनकी जुबान कांप जाती— किसी गैर लड़की को देखते ही निगाह झुक जाती— पोर्न देखते वक्त शर्म से मर जाते— चोरी करते वक्त हाथ कांप जाते और बदकारी करते वक्त जमीर धिक्कार कर पस्त कर देता— किसी का हक मारते वक्त धड़कनें रुक जातीं… लेकिन कहीं ऐसा होते देखा है आपने? यह सब कुछ अगर धड़ल्ले से हो रहा है तो जाहिर है कि खुदा के खौफ या मुहब्बत, नबी से मुहब्बत और लगाव के इनके दावे झूठे और खोखले हैं।

लेकिन फिर भी शोर मचाना जरूरी है कि यह खुदा और रसूल का इतना पास रखने वाले हैं कि अगर किसी ने उनकी शान में गुस्ताखी की तो उसे गालियां देने, ट्रोल करने, उसकी गर्दन उतारने, गोलियों से छलनी कर देने या खुद बम बन कर फट जाने से पीछे नहीं हटेंगे।

शरीयत क्या है

इसी तर्ज पर शरा है… शरा यानि शरीयत, यानि इस्लामिक क़ानून व्यवस्था, जिसकी पैरोकारी तो हर मुस्लिम करता मिलेगा और इसे दुनिया की सबसे बेहतरीन कानून व्यवस्था ठहरायेगा लेकिन जब अमल खुद पर करने की नौबत आयेगी तो चुपके से कोई न कोई चोर दरवाज़ा ढूंढ लेगा।

चलिये थोड़ा समझते हैं इसे… बहुत लंबी जांच या मुकदमेबाजी की इसमें गुंजाइश नहीं होती। तुरत-फुरत फैसले होते हैं— (जल्दबाजी में गलती की गुंजाइश हमेशा रहती है)… चोरी या लूट की सजा के तौर पर सीधा हाथ काट देते हैं। शादी से पहले सेक्स पर सौ कोड़े हैं, शराबनोशी पर पांच सौ कोड़े— हत्या, ड्रग टैफिकिंग, रेप, ब्लास्फेमी, राजद्रोह, आतंकवाद या सरकार विरोधी प्रदर्शन पर सीधे मौत। समलैंगिकता पर मौत की सजा है, एक्सट्रा मैरिटल रिलेशनशिप पर भी मौत की सजा है— लेकिन यह वाली पुरुषों को शायद ही कभी मिलती हो।

सऊदी के शेख कैसी अय्याशी परस्त जिंदगी जीते हैं— यह बताने की जरूरत नहीं लेकिन महिलाओं की क्या स्थिति है, इसे यूँ समझिये कि महिला की कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं। उसे पूरी तरह हिजाब में रहना होता है, बस हाथ और आंखें खुली हों, बाल तक न दिखने चाहिये। वह बिना घर के किसी पुरुष सदस्य की मर्जी, साथ के न ड्राइव कर सकती है, न कहीं पब्लिक प्लेस पर जा सकती है, न बैंक अकाउंट खुलवा सकती है— यहां तक कि गैरमर्द से मिल भी नहीं सकतीं। उसे वोट डालने का अधिकार भी हाल ही में मिला है।

वहां मैरिटल रेप को रेप नहीं माना जाता। अगर औरत गलत (बदकारी) करती है तो उसे मर्द इस तरह मार सकता है कि उसके चेहरे पर निशान न आयें— मर्द बदकारी करे तो बीवी को यह हक नहीं। अगर औरत का रेप होता है तो दोषी को सजा दिलाने के लिये चार गवाहों की जरूरत पड़ेगी जो कि खुद विक्टिम को अरेंज करने होंगे। अब अगर रेपिस्ट ने अकेले में रेप किया तो वह आराम से बच सकता है।

भारत में आतंकवाद के आरोप में दस-दस साल जेल में बंद लोग बेकसूर साबित हो कर छूटते हैं— अगर उनका फैसला उसी वक्त करके उन्हें मौत की सजा दे दी गयी होती तो क्या इसकी भरपाई की जा सकती थी? दुनिया भर के देशों में लोगों को झूठे इल्जामों में फंसाना आम है, जो कई बार तो जांच में भी झूठे नहीं साबित हो पाते। ऐसे में अगर पहले ही हाथ काट चुके, संगसार करके या गर्दन काट कर मार चुके शख्स के पक्ष में बाद में किसी तरह यह साबित हो जाये कि वह बेकसूर था तो क्या इसकी भरपाई हो सकती है?

शरीयत किसी औरत को जंग में जीत कर बांदी के रूप में किसी भी सामान की तरह उसका इस्तेमाल (बिना निकाह सेक्स करने, बच्चा पैदा करने, गिफ्ट देने) करने की इजाजत देती है— भले आज के परिप्रेक्ष्य में इसकी कोई जरूरत न बची हो लेकिन नियम है तो है, जिसका फायदा आज के दौर में भी तालिबान और आईएस वालों ने भरपूर ढंग से उठाया है। हाँ कहने को आप ढिंढोरा पीट सकते हैं कि इस्लाम ने औरत को आला मकाम दिया है— लेकिन जमीनी हकीकत क्या है, उपरोक्त बातों से आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं।

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 6

क्या पैगम्बर वाकई आसमानों की सैर पर गये थे

इस जन्नत दोज़ख के कांसेप्ट के साथ कई हदीसें भी जुडी हैं जिनमे कुछ तो रसूल की मेराज से जुडी हैं जो यह बताती हैं कि मेराज के सफ़र पे हुज़ूर साहब ने न सिर्फ जन्नत को देखा था बल्कि दोज़ख की सैर भी की थी।

इस किस्से को अगर कुरान में देखेंगे तो कुरान अपनी आयत में बस इतना बताती है— वह जात पाक है जो ले गया अपने बंदे को मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक्सा तक, जिसके इर्द गिर्द हमने बरकतें तय कर रखी हैं… (17:01)। अब इसकी तफ्सीर आपको हदीसों में मिलेंगी जो बताती हैं कि एक रात (ख्वाब जैसी हालत में) जिब्रील उनके घर आये और पैगम्बर को बुर्राक पे बिठा के काबे (मक्का) से मस्जिदे अक्सा (जेरुसलम) ले गये और उसके बाद आस्मानों की सैर कराई।

पहले आस्मान पर पूछताछ (जैसे किसी बंगले या फैक्ट्री के गेट पर एंट्री करते वक्त होती है) के बाद दाखिल हुए, जहां हजरत आदम अलैस्सलाम से मुलाकात और दुआ सलाम हुई। फिर दूसरे आस्मान पर पंहुचे जहां सेम प्रोसीजर के साथ हजरत याहया और ईसा से मुलाकात हुई— तीसरे पर हजरत यूसुफ से, चौथे पर हजरत इदरीस से, पांचवे पर हजरत हारून से, छठे पर हजरत मूसा से और सातवें पर हजरत इब्राहीम से मुलाकात हुई।

इस सातवें आसमान पर उन्होंने बैतुल मामूर के भी दर्शन किये— यह वह आस्मानी पवित्र जगह है जो काबे की एकदम सीध में पड़ती है (तब यह पता नहीं था कि पृथ्वी रोटेशन की वजह से चारों दिशाओं में घूमती है और उसकी कोई एक सीध नहीं— अब पता भी है तो आप कुछ कर नहीं सकते)… बैतुल मामूर का तवाफ सत्तर हजार फरिश्ते करते हैं और जो एक बार कर लेता है तो अगला मौका कयामत तक नहीं मिलता।

यहां दोनों हजरत सिदरतुल मुंतहा पंहुचे— जो सातवें आसमान की आखिरी हद है। यहां हाथी के कान जैसे पत्तों और घड़े जैसे फलों वाला एक पेड़ था जिसकी जड़ों से चार नहरें फूट रही थीं। दो नहरें बातिन हैं जो जन्नत में बहती हैं और दो नील और फरात हैं जो जमीन पर बहती हैं… (गंगा जब स्वर्ग से उतर सकती है तो नील और फरात क्यों नहीं), फिर यहां से जिब्रील आगे नहीं जा सकते थे तो पैगम्बर साहब अकेले गये।

वहां न सिर्फ उन्होंने जन्नत के बाग और नहरे कौसर देखी, बल्कि दोजख की भी सैर की और कुछ लोगों को सजायें भी होते देखीं। यहां उन्हें उम्मत के लिये पचास नमाजों का इनाम मिला जो बाद में वापसी में हजरत मूसा के टोकने, समझाने और वापस भेजने के प्रोसेस के बाद पांच नमाजों तक एडिट हुआ। यह विवरण इब्ने कसीर, अल तबरी, कुरतबी, सही मुस्लिम, सही बुखारी और सुनन हदीसों से लिया गया है।

धर्म आखिर कहाँ से पनपे और विज्ञान की नज़र में कितने खरे हैं

आसमानों की परिकल्पना मल्टी-स्टोरी  बिल्डिंग की तरह की गयी है

यह पूरी परिकल्पना ऐसी है जैसे आस्मान सात माले की बिल्डिंग है जहां आप सीढ़ियों के सहारे एक खंड से दूसरे खंड तक पंहुच सकते हैं— इसे मानना न मानना आपके विवेक पर है, लेकिन आज की जानकारी के हिसाब से हम इस बड़ी सी पृथ्वी से बाहर निकल कर थोड़ी जांच पड़ताल तो कर ही सकते हैं।

पृथ्वी से सबसे नजदीकी पिंड चंद्रमा है, लेकिन इसके बीच भी इतनी दूरी है कि तीस पृथ्वी आ जायेंगी और अगर हम सौ किलोमीटर की गति से चंद्रमा की तरफ चलें तो भी एक सौ साठ दिन लग जायेंगे।

इसके बाद हमारा एक नजदीकी ग्रह मंगल है जो 225 से 400 मिलियन किमी की दूरी (परिक्रमण की भिन्न स्थितियों में) पर है, जहां रोशनी को भी पंहुचने में बीस मिनट लग जाते हैं, स्पेस में रोशनी से तेज और कोई चीज नहीं चल सकती और रोशनी की गति तीन लाख किमी प्रति सेकेंड होती है। स्पेस में अब तक सबसे दूर उड़ने वाला वोयेजर प्रोब, जो 17 किमी प्रति सेकेंड की गति से चल रहा है, हमारे अपने सौर मंडल से ही पूरी तरह बाहर निकलने में इसे सैकड़ों साल लग जायेंगे।

अब अगर हम इस सौरमंडल से बाहर निकलें तो पंहुचेंगे इंटरस्टेलर नेबरहुड में जहां दूसरे सौरमंडल हैं। अपने सोलर सिस्टम में आप दूरी को एस्ट्रोनामिकल यूनिट (पृथ्वी से सूर्य की दूरी) में माप सकते हैं लेकिन बाहर निकलने पर दूरी मापने के लिये प्रकाशवर्ष (9.461 ट्रिलियन किलोमीटर) का प्रयोग करना पड़ता है— यानि उतनी दूरी जितना सफर सूर्य की रोशनी एक साल में करती है।

सूरज के बाद हमारा सबसे नजदीकी तारा प्राक्सिमा सेंटौरी है जो हमसे 4.24 प्रकाशवर्ष दूर है— अगर वोयेजर यान की गति से ही उस तक पंहुचने की कोशिश की जाये तो हजारों साल लग जायेंगे। अब यह सोलर मंडल जिस गैलेक्सी का हिस्सा है, खुद उस गैलेक्सी का फैलाव एक लाख प्रकाशवर्ष का है, जिसमें बीस हजार करोड़ तारे और ग्रह हैं और मजे की बात यह है हम रात में उनका सिर्फ एक प्रतिशत देख पाते हैं।

अब इससे भी हम थोड़ा और दूर जायें तो हमें मिलेगा लोकल ग्रुप ऑफ गैलेक्सीज— जिसमें 54 गैलेक्सीज हैं और इसका फैलाव (एक सिरे से दूसरे सिरे तक) एक करोड़ प्रकाशवर्ष है।

और जब इस सर्कल को जूमआउट करेंगे तो मिलेगा वर्गो सुपर क्लस्टर— जिसका फैलाव ग्यारह करोड़ प्रकाशवर्ष है, तो सोचिये कि यह सर्कल कितना बड़ा होगा— लेकिन यह बड़ा सा सर्कल भी लैनीकिया सुपर क्लस्टर में मात्र एक राई के दाने बराबर है, जिसमें एक लाख तो गैलेक्सीज हैं और इसका फैलाव 52 करोड़ प्रकाशवर्ष का है।

अब यह भी सबकुछ नहीं है— बल्कि यह टाईटैनिक लैनीकिया सुपर क्लस्टर का एक छोटा सा हिस्सा भर है, और लैनीकिया सुपर क्लस्टर एक छोटा सा हिस्सा भर है उस ऑबजर्वेबल यूनिवर्स का, जिसे हम आज तक देख पाये हैं। जिसमें कुल दो लाख करोड़ गैलेक्सीज हैं, हमारी पृथ्वी से इसके एक सिरे की दूरी 4,650 करोड़ प्रकाशवर्ष है, यानि कुल फैलाव 9,300 करोड़ प्रकाशवर्ष का है।

ब्रह्माण्ड के हिसाब से हमारी स्थिति लगभग नथिंग है

हमारे यूनिवर्स की उम्र 13.7 अरब वर्ष की मानी जाती है, क्योंकि उससे पहले की रोशनी अब तक डिटेक्ट नहीं की जा सकी— कॉस्मिक इन्फ्लेशन थ्योरी के अनुसार इसके पार भी मल्टीवर्स हो सकता है, जिसके एग्जेक्ट फैलाव का कोई सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता और संभव है कि पूरा ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स ही पृथ्वी पर फुटबाल जैसी (पूरे सुपर यूनिवर्स में तुलनात्मक रूप से) हैसियत रखता हो।

बहरहाल 54 गैलेक्सीज वाला इतना बड़ा लोकल ग्रुप, ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स का मात्र 0.00000000001 प्रतिशत है, और इसमें इतने ग्रह हैं जितने पूरी पृथ्वी पर रेत के जर्रे भी नहीं हैं। सोचिये हम यूनिवर्स में कहां एग्जिस्ट करते हैं और हमारी हैसियत क्या है।

किसी एक रेगिस्तान के सामने खड़े हो कर सोचिये कि किसी एक जर्रे पर कुछ माइक्रो बैक्टीरिया चिपके हों तो क्या आप उनके कर्म, उनकी तकदीर लिखेंगे, उनके लिये जन्नत दोजख बनायेंगे— ऐसा कोई धार्मिक बुद्धि वाला शख्स ही सोच सकता है, न कि कोई तार्किक बुद्धि वाला शख्स। बहरहाल, अब पूरे परिदृश्य को सामने रखिये और खुद सोचिये कि पहला, दूसरा वाला आस्मान कहां हैं और उनके बीच क्या दूरी है— और खुदा की दुनिया कहाँ हो सकती है?

आलिम कहे जाने वाले लोगों का व्यवहारिक ज्ञान क्या होता है

अच्छा आपको अपने आसपास ऐसे ढेरों लोग मिल जायेंगे जो हदीसों पुराणों से सम्बंधित डेटा कंठस्थ किये रहते हैं और हर बात पर अपने एक्सपर्ट जैसे व्यू देते रहते हैं लेकिन क्या आपको लगता है कि वे वाकई जानकार लोग होते हैं… ऐसे ही एक दिन एक दिन अपने सर्कल में ही इसी टाईप जानकार लोगों के बीच एक मजहबी मसले पर होती बातचीत में मैंने एक सहज सा सवाल पूछा था— कि जो भी आप कह रहे हैं, वह आपको कैसे पता चला? स्रोत क्या है आपकी जानकारी का?

एक हजरत ने कुछ इस्लामिक किताबों के नाम बताये, अब चूँकि मजमा सुन्नियों का था तो जाहिर है किताबें उन्हीं से रिलेटेड थीं।

मैंने एक वाक्ये के उन्हें तीन रूप बताये— एक उनकी किताब में था, तो दूसरा शिया हजरात की किताब में और तीसरा जाविया मुस्लिम इतिहासकारों का स्वतंत्र जाविया था। मजे की बात यह कि तीनों एक दूसरे से डिफरेंट थे… और फिर पूछा कि क्या गारंटी है कि इसमें से फलाँ या आपका लिखा सही है।

जाहिर है कि इसका कोई जवाब नहीं था। ऐसे मामलों में अपने लिखे पर अटूट आस्था के सिवा और कोई तर्क किसी के पास नहीं होता। ज्यादातर लोगों के साथ तो दिक्कत यह होती है कि उन्होंने वन साइडेड (सिर्फ अपने पंथ से संबंधित) किताबें पढ़ी होती हैं और उन्हें यह अंदाजा भी नहीं होता कि उसी मुद्दे पर सामने वालों ने क्या लिख रखा है।

हाँ बचपन से ही कच्चे दिमागों में यह कूट कूट कर भर दिया जाता है कि बस हमारा लिखा सही है और बाकी सबका लिखा गलत। वे यही मान के बड़े होते हैं और निजी जिंदगी से लेकर सोशल मीडिया की आभासी दुनिया तक लाठी ले के लड़ते नजर आते हैं कि जो उनकी किताबों में लिखा है, जो उन्होंने पढ़ा है— वही असली और आखिरी सच है।

इतना जबरदस्त विश्वास, कि जैसे खुद वे उन बातों के चश्मदीद गवाह रहे हों। एक पल के लिये भी उनमें यह शक नहीं पैदा होता कि उन तक पंहुची बातों में झूठ और मिलावट भी तो हो सकती है।

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 5

झूठी गवाही

ज़ाहिर है कि इसका आपको जवाब नहीं सूझेगा… क्योंकि जिस वक़्त यह सब किताबें लिखी गयी थीं, स्रष्टि भूकेंद्रित हुआ करती थी, ज़मीन एक चपठे चबूतरे जैसी मान्यता रखती थी और ऊपर मतलब एकरुखा आसमान ही होता था… खैर, ठीक इसी तरह एक टर्म है ‘गवाही’। अब यह गवाही क्या चीज़ है इसे समझिये–

अगर आपसे यह पूछा जाये कि गांधी जी को किसने मारा तो आप फौरन कहोगे कि नाथूराम गोडसे ने… हाँ, कुछ नयी पैदा हुई प्रजाति के भी मिलेंगे जो बता सकते हैं कि गोली अपने आप चली थी, जैसे हिट एंड रन केस में सलमान की कार अपने आप चली थी।

लेकिन मोटे तौर पर सब जानते और मानते हैं कि किसने मारा… अब आप कल्पना कीजिये कि एक दिन आपको किसी अदालत से बुलावा आता है, कि चूँकि आप जानते हैं कि गांधी को किसने मारा तो आपको अदालत में आकर इस बात की गवाही देनी है।

तब आप निश्चित ही भौंचक्के रह जायेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है— किसी घटना या किसी बात की गवाही तब ही दी जा सकती है, जब आप चश्मदीद हों, जब आप सशरीर वहां मौजूद हों, सबकुछ अपनी आंख कान से देखा सुना हो… या उस घटना या बात से किसी तरह भी जुड़े रहे हों।

जो कहीं पढ़ा हो, सुना हो— कम से कम उसकी गवाही तो नहीं दे सकते न? लेकिन एक दूसरे केस में ऐसी ही गवाही ईमान की गारंटी मानी जाती है, भले आपको यह बात पढ़ने सुनने में अजीब लगे।

गौर से सुनिये किसी अज़ान को— मुअज्जिन दिन में कई बार यह गवाही देता है। अशहदुअल्ला इलाहा इल्लल्लाह… यानि मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह एक है और कोई उसका माबूद नहीं। अशहदुअन्ना मुहमम्दुर्रसूलल्लाह… यानि मैं गवाही देता हूं कि हजरत मुहम्मद मुस्तफा सलल्लाहो अलैवसल्लम उसके रसूल हैं।

यही गवाही कलमा है— यही गवाही ईमान की बुनियाद है। यहां दो बातें सोचने लायक हैं कि अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं… यह मानना अहम है, या इसकी गवाही देना कि मैं गवाही देता हूं कि ऐसा है— गवाही किस बात की दी जाती है?

मान्यतायें सभी धर्मों की हैं— यहूदियों के हिसाब से यहोवा एक है, ईसाइयों के हिसाब से गॉड एक है, हिंदुओं के हिसाब से ईश्वर एक है… यहूदियों के हिसाब से मूसा यहोवा के दूत हैं, ईसाइयों के हिसाब से जीसस गॉड के बेटे हैं, हिंदुओं के हिसाब से श्रीराम और श्रीकृष्ण भगवान के अवतार हैं… पर इस तरह की गवाहियों की जरूरत उन्हें क्यों नहीं पड़ती?

क्या वाकई लोग ऐसी गवाही देने के लिये एलिजिबल हैं

अगर कोई इसाई कहे कि मैं गवाही देता हूं कि यीशू परमात्मा के बेटे हैं, या यहूदी गवाही दे कि मोजेज यहोवा के दूत हैं, या हिंदू कहे कि मैं गवाही देता हूं कि राम विष्णु के अवतार हैं— तो क्या आप मान लेंगे कि वे गवाही देने के लिये एलिजिबल हैं? नहीं— भले आप उसकी आस्था का ख्याल करते हुए कुछ न कहें मगर मन में हंसेंगे, क्योंकि वह एक व्यवहारिक गलती कर रहा होगा… पर यही आप करते हैं।

इस कलमे या अज़ान का निर्धारण जिस दौरे रसूल में हुआ, तब चूँकि खुद प्रोफेट उनके सामने मौजूद थे और वे खुदा के एक या अनेक होने और अपने नबी होने की गारंटी अपनी जुबान से दे रहे थे, तब टेक्निकली लोगों की शहादत गलत नहीं थी— लेकिन अब?

जब आप कहते हैं, लाइलाहा इल्लल्ला— तो बात ठीक होती है, क्योंकि यह तो और भी धर्मों की मान्यता है कि ईश्वर एक है। जब आप कहते हैं कि मुहम्मदुर्रसुलल्लाह, तब भी आप ठीक होते हैं कि मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं— हाँ, हो सकते हैं। जैसे सबके विश्वास हैं, वैसे ही आपका भी विश्वास है… उसे कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता।

लेकिन जैसे ही आप उसके साथ अपनी शहादत जोड़ते हैं— टेक्निकली आपकी बात की व्यवहारिकता संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि गवाही की परिभाषा तो कुछ और ही होती है। हाँ एक संभावना यह भी है कि दीन के मामले में आपने गवाही के मायने कुछ और बना लिये हों, क्योंकि हमने तो बचपन से यही रट्टा मारा था कि पहला कलमा तय्यब— तय्यब माने पाक, दूसरा कलमा शहादत, शहादत माने गवाही देना… और मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह तआला एक है और हजरत मुहम्मद मुस्तफा सलल्लाहो अलैवसल्लम उसके रसूल हैं।

सिर्फ मान्यता या आस्था को अपने पक्ष में मत पेश कीजियेगा, क्योंकि मान्यतायें-आस्थायें दूसरों की भी हैं, लेकिन वे गवाही नहीं देते।

इसी तरह एक सवाल कब्र को लेकर भी जूझने पर मजबूर करता है, अगर इंसान सोचने समझने की क्षमता रखता है तो, वर्ना मान लेना ही अगर आपके लिये सबकुछ है तो फिर कोई भी चीज़ आपको परेशान नहीं कर सकती।

मरने के बाद क्या होगा

ज़रा सोचिये कि क्या यह सवाल आपके ज़हन में नहीं आता कि मरने के बाद क्या होगा— इस्लामिक मान्यताओं के हिसाब से कब्र में दफन होने के बाद तीन सवाल पूछे जायेंगे और सही जवाब न दे पाने की सूरत में कब्र की दीवारें सजा की सूरत में उस पर इस कदर सख्त हो जायेंगी कि पसलियां एक दूसरे में घुस जायें— और ताकयामत सांप बिच्छू के रूप में उस पर कब्र का अजाब नाजिल होता रहेगा।

लेकिन इस थ्योरी के साथ एक दिक्कत यह है कि जमीन पर रहने वाला हर इंसान तो खुदा की ही बनाई मखलूक है, और सवाल जवाब का पता तो सिर्फ मुसलमानों को है, तो बाकी गैरमुस्लिम कैसे सवाल जवाब के मरहले से गुजरेंगे? फिर शरीर तो दो महीने में सड़ कर मिट्टी हो जायेगा तो सांप बिच्छू उसका क्या कर लेंगे? या कोई कब्र में ही न दफ़न हो… बॉडी टर्मिनेशन के तो कई तरीके दुनिया में प्रचलित हैं।

बहरहाल, एक बात और कही जाती है कि मरने के बाद की जिंदगी हमेशा हमेश की है— यहां इशारा बाद कयामत के जन्नत दोजख से होता है जहां मौत ही नहीं आनी— लेकिन फिर जो हमसे पहले मर चुके हैं, और चूँकि ज़ाहिर है कि कयामत तो अभी आयी नहीं— तो वे कहां हैं?

कुरान और हदीसों से कई जगह यह साबित होता है कि लोगों को जन्नत या दोजख भेजा गया— उदाहरणार्थ, सूरह या-सीन की 26 नंबर आयत है… जो एक शख्स के विषय में बताती है जिसने अपने सामने मौजूद रसूल का समर्थन किया और उसके लिये खुदा कहता है— प्रवेश करो जन्नत में।

जबकि कुरान में ही साफ तौर पर यह भी कहा गया है कि हश्र के रोज सबका हिसाब किताब होगा और तब सबके आमालों के हिसाब से पुल सरात से गुजर कर जन्नत या दोजख के रूप इनाम या सजा मिलेगी— तो यह पहले से जन्नत या दोजख में लोग कैसे पंहुच गये?

बरज़ख या आलमे बरज़ख क्या है

इन सभी सवालों का जवाब “बरजख” नाम के कांसेप्ट में है, यानि एक एसी आभासी दुनिया जहां अच्छे आमाल वालों के लिये वादियुस्सलाम (सलामती की वादी) और बुरे आमाल वालों के लिये  वादिये बरहूत (भयानक वादी) के रूप में आभासी जन्नत और दोजख मौजूद हैं। यानि वह घर जहां जिस्म छोड़ते ही रूहें मुंतकिल हो जाती हैं और वहां वह तब तक जन्नत का सुख या दोजख का अजाब उठायेंगी, जब तक फाईनली कयामत न आ जाये।

शरीर यहीं सड़ गल जाना है, उसका फिलहाल कुछ नहीं होना और आलमे बरजख, और वास्तविक दोजख जन्नत में फर्क यह है कि बरजख में सजा या ईनाम वर्चुअल रूप में दिया जायेगा और कयामत के बाद उसी शरीर को जिंदा करके सशरीर सजा या ईनाम दिया जायेगा… यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जब सजा या ईनाम की अनुभूतियां वास्तविक होंगी तो इस बात का मतलब क्या रह गया कि वे शरीर के साथ मिली या नहीं? और अनुभूतियां रियल नहीं होंगी तो फिर इस कांसेप्ट का मतलब ही क्या रह जाता है।

दूसरी चीज यह भी ध्यान देने वाली है कि आलमे बरजख के वादियुस्सलाम वाले हिस्से में सिर्फ मुसलमान या पिछले नबियों के लोग ही पाये जायेंगे, जबकि बाकी सभी वादिये बरहूत में। यानि आज की तारिख में डेढ़ सौ करोड़ मुसलमान छोड़ कर (उनमें भी बस नेक अमल वाले), बाकी सभी साढ़े पांच सौ करोड़ लोग वादिये बरहूत के मटेरियल हैं— किसी यूनिवर्स मेकर के लिहाज से क्या यह डिस्क्रिमिनेटिव बिहैवियर नहीं है? लेकिन खैर—

यहां से यह सवाल शुरू होता है— कि इंसानी सभ्यता लाख साल से ज्यादा पुरानी है, और तब से अब तक अरबों पापी, ‘बरहूत मैटेरियल’ मर चुके होंगे और सजायें झेल रहे होंगे, लेकिन कयामत तो अभी आई नहीं— और मान लीजिये दस बीस हजार साल बाद आती है, या कल भी आ जाये तो जो पापी सबसे लास्ट में मरेंगे… वे कयामत तक कुछ भी सजा न झेले कहे जायेंगे और उनका सीधे हिसाब किताब होगा— सजा अपराध के अनुपात में एक ही है… मान लीजिये दो पापियों ने चोरी की थी, अब सौ साल तक दोजख में रह कर कोड़े खाने की सजा मिलती है दोनों को— एक उसे भी, जो कल मरा और एक उसे भी जो लाख साल पहले चोरी करके मरा था और आलमे  बरजख के वादिये बरहूत में लाख साल से कोड़े खा रहा था।


क्या यह एक न्यायप्रिय खुदा के लिहाज से भेदभाव और अन्याय नहीं?

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 4

क्या वाकई जोड़ियाँ ईश्वर बनाता है

ठीक इसी तरह की एक उलझन होती है शादियों को लेकर भी जिस मामले में कहा जाता है की जोड़ियाँ खुदा बनाता है या जोड़ियाँ स्वर्ग में बनती हैं… आप शादी के कार्ड्स पर नजर दौड़ाइये— कहीं न कहीं आपको लिखा मिल ही जायेगा कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं, बाकी धरती पर कहीं कहीं पंडित लोग कुंडलियां मिला कर साकार भी करते हैं तो कहीं बिना पंडित/कुंडली ही जोड़ियां सेट कर दी जाती हैं— तो कहीं सेट हो जाती हैं।

हमारे समाज की आम धारणा और मान्यता भी यही है कि जोड़ियां ईश्वर बनाता है और इसीलिये फिजां में “रब ने बनाया तुझे मेरे लिये, मुझे तेरे लिये” जैसे गीतों की गूँज भी सुनने में आती रहती है।

अब इस बात पर तर्कशील विवेक के साथ थोड़ा गौर करें— क्या वाकई में एसा हो सकता है?

मान लीजिये कि ऐसा ही है तो सबसे पहले तो ईश्वर का जातिवादी चरित्र उभर कर सामने आता है— क्योंकि लगभग सभी धर्मों में ज्यादातर शादियां समान जाति में ही होती हैं, पंडित लोग भी समान जाति की कुंडलियां ही मिलाते पाये जाते हैं।
  

क्यों भाई— यह व्यवस्था तो मानवजनित थी न, इंसानी सभ्यता के शुरूआती दौर में तो ऐसा कुछ था नहीं, सभ्यता के विकास के साथ मानव श्रंखला धर्म और जातियों में बंटती गयी तो शादियां भी उसी तरह सजातीय ही होने लगीं— मतलब इंसानों की देखादेखी ईश्वर भी जातिवादी होता गया। इंसान ईश्वर से है या ईश्वर इंसान से?

फिर ईश्वर/खुदा के मामले में एक मान्यता यह भी है कि वह गलतियाँ नहीं करता। क्या वाकई— दुनिया में कितनी ही शादियां तलाक की देहरी पर खत्म हो जाती हैं। पश्चिमी देशों में तो शादी बमुश्किल कुछ साल टिकती है और इससे थोड़ा ही बेहतर हाल मुस्लिम देशों का है।

पश्चिमी देशों की बात करें तो अपने जीवन में एक पुरुष या महिला कम से कम तीन-चार शादियां तो करते ही हैं— यानि इतने ही तलाक। तो इतने बड़े पैमाने पर कैसे गलत जोड़ियां बन जाती हैं? यानि अगर जोड़ियां ईश्वर ही बनाता है तो इस मामले में उससे भयंकर रूप से गलतियाँ होती हैं।

ईश्वर का पक्षपाती चरित्र चित्रण

फिर इससे ईश्वर का मर्दवादी चेहरा भी सामने आता है— अतीत से ले कर वर्तमान तक, हजारों लाखों एसे पुरुष मिल जायेंगे जिनकी दस बीस पत्नियों से लेकर सोलह हजार रानियां तक मिल जायेंगी… लेकिन ऐसी स्त्री शायद ही मिले जिसके दस बीस पति हों।

मुस्लिम देशों में हजारों उदाहरण मिल जायेंगे जहां एक आदमी एक से ज्यादा बीवियां रखे है— लेकिन एक से ज्यादा पति वाली औरत कोई न मिलेगी। अब सामाजिक मान्यता का रोना मत रोइयेगा— क्योंकि जोड़ियां अगर ईश्वर बनाता है तो इस बात की जिम्मेदारी उसी पर आयेगी।

फिर ईश्वर का एक चेहरा आपको अन्यायी जैसा भी नजर आयेगा— पुराने जमाने में गुलाम/कनीज/लौंडी/रखैल जैसे संबोधन वालों/वालियों की भरमार मिलेगी, जिनकी कभी कोई जोड़ी नहीं बनाई गयी— आज भी कलाम, अटल, रामदेव, माया, ममता, जया जैसे लोग अपने समाज में ही मिल जायेंगे जो अकेले जिये और अकेले चले गये या चले जायेंगे।

इन सब की किस्मत में जोड़ी का सुख क्यों न लिखा गया— क्या यह अन्याय नहीं। उनकी मर्जी न कहियेगा— मर्जी तो मोदी जी की भी न रही होगी, वर्ना अकेले क्यों होते आज— पर शादी तो हुई न।

फिर आजकल एक और चलन ट्रेंड में है, समलैंगिक जोड़ों का— जहां लड़का लड़के के साथ और लड़की के साथ ही रहने पर बजिद है और पश्चिम के कई समाजों में इसे मान्यता भी पहले से हासिल है और अब तो भारत में भी इसकी छूट है। अब यह तो प्रजननवादी प्रकृति के विपरीत है न, इस तरह की गलती कैसे हो रही है प्रभु से?

जोड़ियां तो शादी की ही तरह “लिव इन” में भी बनती हैं, सर्टिफिकेट का ही तो फर्क है— यहां पे एकाएक ईश्वर का रवैया अंतर्जातीय हो जाता है। ऐसा क्यों?

फिर एक तरफ तो जन्नत गैरमोमिनों के लिये वर्जित कर दी, दूसरी तरफ आमिर की जोड़ी रीना, किरण से, सैफ की जोड़ी अमृता, करीना से, सलीम खान के सारे बच्चों की शादी गैर-मुस्लिमों से करा दी। यह तो डबल स्टैंडर्ड वाली बात हो गयी न प्रभु।

अब रहा समाज— जो गला फाड़ के चिल्लाता है कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती है, लेकिन जैसे ही उनके बेटे/बेटी ने किसी मुस्लिम लड़के/लड़की से शादी कर ली— लवजिहाद का झंडा उठा कर हाय-हाय करना शुरू कर देते हैं। मुस्लिम घर में हिंदू बहू या दामाद आ गया तो उसे कलमा पढ़ाने की तैयारी शुरू कर देते हैं और किसी दलित के लड़के/लड़की ने किसी सवर्ण के लड़के/लड़की से शादी कर ली तो तलवार/बंदूक निकाल कर आनर किलिंग में देर नहीं लगाते।

ऐसी हर स्थिति में “जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं” को तहा कर, लपेट कर छुपा दिया जाता है।

देखिये भई— अब जोड़ियां ईश्वर बनाता है, अगर आप यह मानते हैं तो ईश्वर पर यह आरोप झेलिये, या यह मान लीजिये कि जोड़ियां हम बनाते हैं न कि ईश्वर।

आखिर हमारे ग्रह से बाहर ब्रह्माण्ड में कौन कौन सी संभावनायें हैं

धार्मिक किताबें विज्ञान की शोध पुस्तिकायें नहीं हैं

धार्मिक किताबें कोई वैज्ञानिक शोध पर लिखी किताबें नहीं होतीं बल्कि वे असल में इसलिये होती हैं कि लोग उनसे जुडी बातों के मकसद को ग्रहण करें न की उनकी कहानियों को पकड़ कर उनमे विज्ञान ढूँढने बैठ जायें लेकिन दुर्योग से होता यही है कि उस दौर में लिखी किताबों में लोग विज्ञान ढूँढने बैठ जाते हैं जबकि जिस दौर में पृथ्वी या ब्रह्माण्ड को लेकर बहुत ही सीमित और नाम मात्र की जानकारी थी। अब लोग दावे करेंगे तो सवाल उठाने वाले सवाल भी उठायेंगे।

इसी तरह मेरी नजर में कुरान वह निर्देश पुस्तिका है— वह हिदायत की किताब है, जो पढ़ कर सवाब कमाने के लिये नहीं, बल्कि उसके निर्देशों को अमल में लाने के लिये, अपनी जिंदगी में उतारने के लिये है। वह आपको बताती है कि एक इंसान या समाज के तौर पर आपको कैसे रहना है, कैसे जिंदगी गुजारनी है और कैसे फैसले करने है— वह अलग-अलग घटनाओं के माध्यम से अपनी बात इस तरह से कहती है कि आप उनके जरिये सीख लेकर अपनी जिंदगी में अप्लाई कर सकें। वह कोई डार्विन या आइंस्टाईन की लिखी थ्योरी नहीं कि आप उसमें विज्ञान के नियम सूत्र तलाशने बैठ जाते हैं।

किताब कोई भी हो उसमें उस वक्त के वैज्ञानिक नियम सूत्र ही दर्ज किये जा सकते हैं जिसमें बदलते वक्त के साथ सुधार या आमूल चूल परिवर्तन भी होते रहते हैं। तो ऐसे में जाहिर है कि उन पुरानी किताबों में लिखी थ्योरी में त्रुटि आ जाना एक स्वाभाविक सी बात है— लेकिन लोगों की आस्था इतनी पक्की है कि त्रुटि के नाम पर उनकी भावना पर मुहम्मद अली जितना जोरदार पंच पड़ जाता है और भावना बिलबिला कर छटपटाती हुई किसी तल्ख सर्टिफिकेट पर ही सुकून पाती है।

अगर वाकई में आपको लगता है कि सैकड़ों साल पहले लिखी धार्मिक किताबें विज्ञान सम्मत हैं तो चलिये एक सवाल पर गौर कर लेते हैं— उम्मीद है कि इसे अन्यथा न लेते हुए बस एक जिज्ञासा समझ कर अपनी वैज्ञानिक कम धार्मिक बुद्धि से इसका हल जरूर बतायेंगे।

ऊपर या नीचे सिर्फ एक प्लेनेट पर हो सकता है

कुरान की सूरह अल-बकरा में आदम हव्वा इब्लीस को खुदा सजा के तौर पर हुक्म देते हुए कहता है कि अब तुम सब उतरो और एक निश्चित वक्त तक जमीन पर रहो (आयत नं 30-38)— यह आयत साफ जाहिर करती है कि सब लोग कहीं “ऊपर” हैं और उन्हें “नीचे” उतरने को कहा जा रहा है। सामान्य भाषा में भी हम उसे भी “ऊपर वाला” ही कहते हैं। इसी तरह वेदों पुराणों में भी जो किस्से हैं वे बताते हैं कि देवलोक  कहीं “ऊपर” है और वहां से देवता गण कभी-कभी साक्षात, तो कभी अवतार के रूप में “नीचे” आते हैं।

अब मूल मुद्दे पे आइये— विज्ञान में ‘ऊपर नीचे’ का नियम ग्रेविटी के अकार्डिंग होता है, जो हर प्लेनेट पर लागू होता है। जब तक आप जमीन पर हैं, “ऊपर-नीचे” की बंदिश में हैं, लेकिन जैसे ही आप प्लेनेट से बाहर निकल कर स्पेस में पंहुचते हैं, “ऊपर-नीचे” का नियम स्वतः ही खत्म हो जाता है।

अब एक प्रयोग कीजिये— एक कमरे के एकदम केन्द्र में धागे से बांध कर एक गेंद लटका दीजिये। मान लीजिये कि कमरा ‘यूनिवर्स’ है और गेंद आपकी ‘पृथ्वी’… अब चूँकि ग्रेविटी प्लेनेट के हर हिस्से में आपको सीधा ही खड़ा रखती है और आपके पैरों की तरफ “नीचे” और सर की तरफ “ऊपर” होता है, तो उस हिसाब से जमीन के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद इंसानों के सर की दिशा के हिसाब से एग्जेक्ट “ऊपर” निर्धारित कीजिये।

ग्रेविटी के अकार्डिंग भारतीय शख्स का सर (ऊपर) पूर्व दिशा में (सामने की दीवार की तरफ) है, जमैकन शख्स का सर पश्चिम दिशा में  (पीछे की दीवार की तरफ), अल्जीरियन शख्स का सर दक्षिण दिशा में (दाहिनी दीवार की तरफ), हवाई में खड़े शख्स का सर उत्तर दिशा में (बायीं दीवार की तरफ), नार्वे में खड़े शख्स का सर ऊपर (छत की तरफ) और न्यूजीलैंड में खड़े शख्स का सर नीचे (फर्श की तरफ) है…

यानि कहने का मतलब कि पृथ्वी के छः अलग हिस्सों में खड़े लोगों का “ऊपर” समान नहीं, बल्कि अलग-अलग कोण पर है— तो अब आपको यह बताना है कि आपकी किताबों में लिखा “ऊपर” पृथ्वी पर मौजूद इंसान के हिसाब से किस तरफ है? यहां  यह भी ध्यान रखियेगा कि यूनिवर्स आपके कल्पना किये कमरे जितना छोटा नहीं बल्कि इतना व्यापक है कि उसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक पंहुचने में रोशनी को भी अरबों वर्ष लग जायेंगे।

यहां यह मत कहियेगा कि आपका खुदा या देवताओं वाला “ऊपर” हर तरफ है, क्योंकि कमरे के बाहर मौजूद (उसे जो भी नाम दें) हस्ती कमरे के एक तरफ ही हो सकती है, जबकि कमरे के बीच में टंगी गेंद के सामने, पीछे, दायें, बायें, ऊपर, नीचे के रूप में छः दिशायें होती हैं… तो आपका वाला “ऊपर” आखिर किस तरफ है?

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 3

हर नये काल की खोजें पिछले सवालों को हल करती रही हैं

हजार साल में बहुत सी खोजें हुईं है और प्रकृति से जुड़े हजारों रहस्य सुलझाये गये हैं— कल्पना कीजिये चौदह सौ साल पहले के वक्त की। किसी जिज्ञासू ने पूछा होगा कि यह जलजले क्यों आते हैं और किसी मोअतबर हस्ती ने बताया होगा कि जिस जमीन पर औरतें गुनाहों में मुलव्विस हो जाती हैं वहां खुदा जलजले नाजिल करता है। आज भी कोई मौलाना कहता मिल जायेगा कि महिलाओं के जींस पहनने से भूकंप आते हैं।

भूकंप के कारण की ही तरह लोगों के पास यह भी सवाल होता था कि एक जोड़े के एक जैसा सेक्स करने से लड़का या लड़की के रूप में अलग बच्चे कैसे पैदा हो जाते हैं, तब किसी ने इसे खुदा की मसलहत मान कर सब्र कर लिया और कोई इसका कारण खोजने में लग गया और क्रोमोजोम्स तक पंहुचा।

अब लोगों ने अलग सवाल पकड़ लिया कि एक ही तापमान, एक जैसी कंडीशन में लोग नर मादा के रूप में पैदा हो रहे हैं यह कैसे तय हो पा रहा है— कल को इसका कोई जवाब खोज लिया जायेगा तो वह देखने के लिये यह लोग न होंगे, पर उन्हीं के पोते पड़पोते फिर एक सवाल लिये खड़े होंगे कि ऐसा है तो क्यों है— अंडे की जर्दी पीली क्यों, मजंटा क्यों नहीं। दुनिया में जितनी भी खोजें हुई हैं, आविष्कार हुए हैं— जिन भौतिक चीजों का उपयोग लोग करते नहीं अघाते, जिन संसाधनों से दुनिया बेहतर हुई है, वो सब उन सवालों से जूझने वालों की ही मेहरबानी है न कि उनकी, जो हर सवाल का जवाब बस ईश्वर की इच्छा के रूप में परिभाषित करते आये हैं।

तो हज़रत, सवालों का सिलसिला तो कभी खत्म न होगा मगर यह देखिये कि हमारे जैसे लोग उन सवालों से जूझते तो हैं, उनकी खोज तो करते हैं… बाकी धार्मिक लोग तो हर उलझे सवाल के जवाब में सब खुदा की मर्जी, प्रभु की इच्छा कह कर अपनी अक्ल का दरवाजा ही बंद कर लेते हैं।

एक नहीं— अनेक सवाल थे अतीत में जिनके जवाब ईश्वर की शरण में समाप्त होते थे, लेकिन उनके जवाब ढूंढे गये, आज भी जो सवाल हैं, कल इनके भी जवाब ढूंढे जायेंगे— तब वह ‘ईश्वरं शरणं गच्छामि’ वाले नये सवाल ले आयेंगे। सवाल पूछने वालों को सवाल पूछते वक्त यह ध्यान जरूर रखना चाहिये कि उनके लॉजिकल जवाब खुद उनके पास होना चाहिये… यह खुदा ईश्वर की ढाल ले कर सवाल पर दरवाजे बंद कर लेना अक्लमंदी नहीं। 

आस्तिक नास्तिक या एग्नोस्टिक

हालाँकि मेरे हिसाब से नास्तिक जैसा कुछ नहीं होता, कोई किसी ऐसी अंजानी ताकत में आस्था रखता है जो पूरे यूनिवर्स का निर्माता है तो कोई सर्वशक्तिमान प्रकृति में आस्था रखता है— फर्क यह है कि वह धार्मिकों के हिसाब से स्थापित धार्मिक रीति रिवाजों को नकारता है, किताबी ढकोसलों से खुद को दूर रखता है तो धार्मिकों के हिसाब से वह नास्तिक हो जाता है और वाजिबुल लानत और कभी-कभी वाजिबुल कत्ल भी हो जाता है।

खैर, जहां तक मेरा सवाल है तो मुझे एग्नोस्टिक कहा जा सकता है, और मेरा सोचना यह है कि अगर किसी चीज का सृजन हुआ है तो कोई सृजक भी होना चाहिये। सबकुछ अपने आप बनने वाली थ्योरी मुझे अजीब लगती है। कभी गौर कीजिये संपूर्ण यूनिवर्स में के एक छोटे से हिस्से पर— अपने सौरमंडल पर। कैसे आठ ग्रह, एक निश्चित दूरी पर, एक निश्चित क्रम में और एक निश्चित गति के साथ परिक्रमा करते अपनी धुरी पर अरबों वर्ष से घूम रहे हैं। क्या यह अपने आप हो सकता है… हो भी सकता है और नहीं भी, हम एक निश्चित मत कैसे दे सकते हैं? होने को तो यह भी हो सकता है कि यह कोई कंप्यूटराईज्ड सिस्टम हो और अगर यह एक कंप्यूटराईज्ड सिस्टम है और कोई तो होगा, इस यूनिवर्स से बाहर… जिसने इस पूरे सिस्टम को डिजाईन किया होगा।

भले अपने सीमित ज्ञान और सीमित बुद्धि के चलते हमारे लिये ब्रह्मांड की सीमायें अंतहीन हों लेकिन टेक्निकली यह संभव नहीं कि सीमायें न हों। तो उन सीमाओं के पार भी तो कोई होगा, जिसने इस यूनिवर्स को क्रियेट किया होगा— जब तक हमारे पास कोई निश्चित जवाब नहीं, यहाँ पे दिल बहलाने के लिये लोग यह भी मान सकते हैं कि बस वही ईश्वर है।

मेरी नजर में फिर वह कोई प्रोग्रामर या वैज्ञानिक (इंसान जैसा हर्गिज नहीं, बल्कि किसी भी ऐसे रूप में, जो हमारी कल्पनाओं से भी परे हो) या एक से ज्यादा प्रोग्रामर्स या वैज्ञानिकों की टीम होगी लेकिन उसी ताकत को हमने खुदा या ईश्वर के रूप में किसी मामूली बादशाह, सनकी राजा, सख्त प्रशासक या जादूगर जैसी प्रचलित मान्यता दे रखी है जो अतीत में ढेरों चमत्कार करता था (कभी-कभी आजकल भी कर देता है), किसी कंपनी ओनर की तरह अपने अकाउंटेंट की टीम से सबके कर्म लिखवाता रहता है और फिर उनके हिसाब से प्रमोशन (जन्नत) या डिमोशन (दोजख) देगा। मुझे नहीं लगता कि हम माइक्रो बैक्टीरिया से भी गये गुजरे (ब्रह्मांड की व्यापकता के अकार्डिंग) जीवों के लिये वह इतनी माथापच्ची करेगा, जबकि यूनिवर्स के खरबों ग्रहों में से करोड़ों पर जीवन इसी तरह वजूद में हो सकता है।

बहरहाल, खुदा या ईश्वर की जो अवधारणा धार्मिकों ने बना रखी है— उसी हिसाब से चलें तो धार्मिकों के ईश्वर/खुदा और कहें तो किसी रियल खुदा (अगर कोई है तो) ईश्वर/खुदा में सबसे बड़ा फर्क यह है कि उनका खुदा बस उनका (बतौर अल्लाह मुसलमान का, बतौर भगवान/ईश्वर हिंदू का या बतौर गॉड इसाइयों का) ही है, बाकियों के लिये वह पराया है, उन्हें मोक्ष नहीं देगा, स्वर्ग नहीं देगा और अंततः सजा ही देगा।

जबकि दूसरे नज़रिये से जो खुदा हो सकता है— वह फिर सभी का (सभी धर्मों से जुड़े आस्तिकों, नास्तिकों) का खुदा है, सभी को उसी ने पैदा किया है और किसी के लिये पराया नहीं है और अगर वाकई कोई इंसाफ का दिन आयेगा तो सबके साथ बराबर का इंसाफ करेगा।

और यह भी तय है कि वह किताबों में नहीं है, वह इन पूजा पद्धतियों (पूजा/नमाज/प्रेयर) में भी नहीं है, वह अपने नाम पे बनाये घरों (मंदिरों/मस्जिदों/चर्चों) में भी नहीं है— वह इंसान में है, इंसानियत में है, सच, हक, इंसाफ और अमन में है।

ईश्वर की अवधारणा से जुड़ी कई उलझनें हैं

अब आइये कुछ ऐसी बातों पर जिन्होंने मुझे बचपन से ही उलझा रखा है… अपने कल्चर में रहते हुए बचपन से कई बातें ऐसी सुनते आये हैं जिनसे कभी सामंजस्य ही न बिठा पाये। आज भी इधर-उधर लोगों की बातों में वह बातें दिखती हैं तो पुरानी टीस उभर आती हैं— चलिये आप भी इस बहाने मुलाहिजा फरमाइये।

● खुदा ने सबकुछ यानि बंदे की तकदीर पहले से लिख रखी है—

अच्छा ऐसा है तो गब्बर सिंह— ठाकुर के हाथ काटने या ठाकुर साहब के परिवार को कत्ल करने का दोषी क्यों? वह तो तो अमजद खान नाम का अभिनेता सलीम जावेद द्वारा लिखित एक किरदार भर प्ले कर रहा था। गब्बर के रूप में दोषी था तो वीरू और ठाकुर के हाथों सजा पा गया। अब फिल्म पूरी होने के बाद ‘अमजद खान’ का हिसाब-किताब क्यों? उसके लिये जन्नत दोजख क्यों? फिल्म का उदाहरण इसलिये कि हम इंसानी जिंदगी को भी उसी के सदृश्य रख सकते हैं।

अक्सर इसका जवाब कुछ विद्वान यह देते हैं कि बंदा कुकर्म इसलिये नहीं करता कि खुदा ने पहले से लिख रखा है— बल्कि करता अपनी मर्जी से ही है और उसके किये अमाल का जिम्मेदार खुद होता है लेकिन चूँकि खुदा को ‘गैब’ से यह सब बातें पहले से पता हैं, इसलिये उसने पहले ही सबकुछ लिख दिया। यह कुछ ऐसा है जैसे कोई इंसान भविष्य में जा कर सब देख आये और वापस आ कर लिख दे। यकीनन इस थ्योरी से हर बात/कर्म/घटना ठीक इसी तरह एडजस्ट की जा सकती है कि इंसान खाली दीवार पर कहीं भी पत्थर मारे और फिर जहां पत्थर लगे— उस जगह को सेंट्रलाईज करके गोल घेरा खींच कर दुनिया को बताये कि देखो मैंने कितना सटीक निशाना लगाया।

● इंसान की मौत और पैदाइश खुदा तय करता है—

अब अगर आप सीधे हाथ से कान पकड़ेंगे कि जब ठाकुर के बेटों की किस्मत में गब्बर द्वारा मरना लिखा था तो भला गब्बर दोषी कैसे हुआ? या ‘लावारिस’ के अमिताभ जिस तरह अमजद खान और राखी के अवैध रिश्ते से पैदा हुए तो व्याभिचार का दोष अमजद खान पर कैसे आयेगा? तो हो सकता है सामने वाला घुमा कर कान पकड़ाये कि खुदा को पता था इसलिये उसने इस चीज को लिख दिया लेकिन कर्म का जिम्मेदार तो गब्बर उर्फ अमजद ही हुआ— लेकिन ध्यान रहे कि यहाँ खुदा द्वारा जन्म/मृत्यु ‘तय करने’ वाली थ्योरी गलत हो जायेगी… या फिर यह मान लें कि अवैध सम्बंध से उत्पन्न संतान और और किसी के हाथों हुआ कत्ल दोनों खुदा की मर्जी थी और इसके लिये जिम्मेदार व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

● शबे कद्र की रात खुदा लोगों की रिज़्क लिखता है—

फिर तो चोर की रिज्क भी लिखता है— लुटेरे, स्मगलर, भ्रष्टाचारी, प्रास्टीच्यूट की रिज्क भी लिखता है… फिर वे अपने कर्मों के दोषी कैसे हुए? यहां अगर इस थ्योरी को फिट करेंगे कि खुदा को गैब से सबकुछ पता है और उस आधार पर उसने सब लिख रखा तो यह भी मानना पड़ेगा कि चोर के लिये चोरी से रिज्क कमाने का फैसला भी उसी का था और चूँकि उसे पहले से यह पता था कि ऐसा होगा तो उसने लिख दिया— लेकिन उस हाल में भी रिज्क लिखने का दोष तो उसी पर आया। इसके सिवा जो दुनिया भर में लाखों लोग भुखमरी का शिकार हो कर मरते हैं, फिर तो उनके मरने का दोष भी उसी पर आयेगा की उसने उन मरने वालों की किस्मत में खाना क्यों न लिखा?

● इंसान के दोनों कंधों पर दो फरिश्ते बैठते हैं, जो उसके अच्छे बुरे अमाल लिखते हैं—

जब खुदा को सबकुछ गैब द्वारा पहले से ही पता है और उसने उस हिसाब से ए टु जेड चीजें लिख रखी हैं तो कंधे पर बैठे यह दोनों अकाउंटेंट किस बात की जिम्मेदारी निभा रहे हैं— क्या इसमें कोई शक शुब्हा है कि जो खुदा ने लिख रखा है, उसमें फेरबदल हो सकती है या फिर फरिश्तों की ईमानदारी चेक करने की कवायद है कि दोनों खाते बाद में टेली करके दोषी पाये जाने वाले फरिश्तों पर भी दंडात्मक कार्रवाई होगी।

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क 2

नाम सांस्कृतिक होते हैं न कि धार्मिक


इसके सिवा एक सवाल लोग यह भी उठाते हैं कि आपकी आस्था नहीं तो आप नाम क्यों नहीं बदल लेते?

मतलब आप इस्लामिक कांसेप्ट में यकीन नहीं रखते तो अपना नाम अशफाक की जगह अशोक रख लीजिये— लेकिन अशोक तो हिंदू हो जायेगा। सुझाओ कोई ऐसा नाम जिससे किसी धर्म की महक न आती हो— क्या नास्तिकत्व कोई पंथ है जिसके अलग पहचान वाले कोई नाम होते हैं?

यह अल्पज्ञान है कि नाम धार्मिक होते हैं। नाम असल में कल्चरल होते हैं। भारत में ही आपको कई निहाल सिखों और मुसलमानों में मिल जायेंगे— कई अब्राहम ईसाइयों मुसलमानों में मिल जायेंगे— कई अयान, कबीर, राजा, रानी, सारा, शीबा जैसे नाम हिंदू मुसलमान दोनों में मिल जायेंगे।

भारत नेपाल के बौद्ध, हिंदू धर्म में समान नाम मिलेंगे— लेकिन जापान पंहुचेंगे तो बौद्ध मत में भारतीय नाम नहीं बल्कि जापानी अकीरा, अमारा, जिआन, शिजूका जैसे नाम मिलेंगे और यही बौद्ध चीन में मिलेंगे तो चीनी संस्कृति के हिसाब से ब्रूस ली, वांग ली, सू ची, हान शी जैसे नाम मिलेंगे।

मलेशिया इंडोनेशिया में मुस्लिम्स के नाम उनके कल्चर के हिसाब से मिलेंगे, अफ्रीका में उनकी संस्कृति के हिसाब से और योरप में मुसलमानों ईसाइयों के ढेरों नाम समान मिलेंगे।

भारतीय मुसलमान चूँकि अरबी कल्चर को फॉलो करता है तो नाम भी अरेबिक ही रखता है और इसलिये यह धारणा बना ली है कि यह नाम मुसलमानों के होते हैं, जबकि क्रिश्चियनिटी आने से हजारों साल पहले भी योरप में जोसफ और पीटर पाये जाते थे और इस्लाम आने से पहले भी अरब में उमर, इस्माईल, इब्राहीम पाये जाते थे।

सन 610 में हजरत मुहम्मद ने खुद के नबी होने की घोषणा की, मुसलमान का खिताब दिया और इस्लाम की तब्लीग शुरू की, लेकिन उससे पहले चालीस साल तक उनका नाम वही था। सबसे पहले ईमान लाने वाली बीबी खुदीजा का नाम पहले भी खुदीजा ही था…

हजरत उमर, हजरत अबू बक्र, हजरत उस्मान या हजरत अली के नाम ईमान लाने से पहले कुछ और नहीं थे। लोगों के मुसलमान होने से पहले अरब में इसाई और यहूदी कबीलों की भरमार थी और उनके नाम तब भी वही थे जो ईमान लाने के बाद रहे— क्योंकि नाम मजहब से नहीं थे, नाम अरबी कल्चर से थे।

तो इस ख्याल को दिल से निकाल दीजिये कि किसी भी नाम पर किसी भी धर्म का कॉपीराईट होता है… और कोई आस्थावान नहीं है तो उससे यह कहना कि वह अलग पंथ की तरह अपना नाम, अपनी वैवाहिक रीति, या अपना अंतिम संस्कार निर्धारित करे— असल में लोगों का अल्पज्ञान भर है।

शव संस्कार एक आदिकालीन परंपरा है न कि इसे धर्म ने पैदा किया

नास्तिक और आस्तिक की चली आ रही अंतहीन बहस में यह यह तानें अक्सर आपको सुनने को मिल जायेंगे— नाम और शादी के सिवा जो तीसरा बड़ा ताना है वह यह कि जलाये जाओगे या दफनाये जाओगे?

लोगों को यह लगता है कि शव संस्कार पर धर्म का एकाधिकार होता है, इसीलिये अपने हिसाब से वे बहुत जहानत भरा सवाल पूछते हैं— लेकिन क्या यह वाकई जहानत है? अगर आपसे मानव विकास यात्रा के बारे में पूछा जाये तो तौरात, इंजील और कुरान वाले आदम और हव्वा को ला कर खड़ा कर देंगे और वेद वाले मनु और शतरूपा को।

अगर उनसे प्रमाण मांगा जाये कि इंसान ने क्रमिक विकास के सहारे मौजूदा रूप पाया है (जो कि पुरातत्विक रूप से प्रमाणित भी हो चुका है) या दुनिया के पहले मानवों से ही आधुनिक मानव की शुरुआत हो गयी थी, जिसने कपड़े पहनने से लेकर खेती करने तक सब उसी दौर से शुरू कर दिया— तो आस्तिक दूसरे विकल्प पर ही जायेंगे और आप इसका कोई सबूत मांगिये तो उनके पास किताबें हैं… इससे ज्यादा किसी सबूत की जरूरत ही नहीं।

चलिये उनकी सुविधा के हिसाब से तकनीकी त्रुटियों को हटा कर हम मान लेते हैं कि अफ्रीका से शुरु हुए जिस ह्यूमन ट्री की हम सब शाखायें हैं, वह ह्यूमन ट्री एडम ईव या मनू शतरूपा से ही शुरु हुआ था और 1.4 करोड़ पूर्व के रामापिथेकस, कीनियापिथेकस के जीवाश्मों से होता आस्ट्रेलोपिथेकस, पैरेन्थ्रोपस, जिन्जिथ्रोपस, लूसी को पार करता हुआ होमो हेबिलस, होमो हीडलबर्गोंसिस, होमो इरेक्ट्स (इरेक्ट्स, पेकिंसिस, मोरीटेनिकस) से होता होमो सेपियंस (नियेनडरथेलसिस, फोसिलिसिस, सेपियंस) तक पंहुचा जिसके वर्तमान आधुनिक रूप हम हैं।

अगर नाम के मसले पर देखें तो यह लोग अफ्रीका से निकल कर पूरी दुनिया में फैले और अपनी अलग-अलग सैकड़ों मान्यतायें गढ़ीं और संस्कृतियां विकसित की। नाम इंसान की पहचान होते हैं जिसकी जरूरत जब से इंसान ने बोलना शुरू किया, तब से रही होगी— तो तभी से नाम अपने कल्चर के हिसाब से रखने शुरू किये गये। ऐसा नहीं है कि ईसा के आने से पहले योरप में जोसेफ, पीटर, फिलिप नहीं हुआ करते थे या अरब में इस्लाम के आगमन से पहले मुहम्मद, अबु बक्र, उस्मान जैसे नाम नहीं हुआ करते थे… खुद नबी की बीवी, दोस्तों, साथियों या खानदान वालों के नाम कलमा पढ़ने से पहले भी वही थे जो बाद में रहे, न कि पहले कोई और नाम हुआ करते थे। 

चूँकि इस्लाम का ऐसा प्रावधान बना कर रख दिया गया है कि मजहब के साथ अरबी संस्कृति को भी अपनाना पड़ेगा तो अरेबिक नामों पर इस्लाम का अधिपत्य मान लिया गया, जबकि ऐसा हर्गिज नहीं है।

बॉडी टर्मिनेशन की अनेक विधियाँ चलन में रही हैं

इसी तरह शवों के दाह संस्कार का मसला है— धर्म देखेंगे तो सनातन पांच हजार साल पुराना होगा, बौद्ध ढाई हजार, इब्राहीमी  साढ़े तीन हजार (जो बाद में लगभग करीब ढाई, दो और डेढ़ हजार साल पहले यहूदी, इसाई और इस्लाम में बंट गया) साल पुराना है लेकिन इंसानी सभ्यता तो उससे हजारों, बल्कि लाखों साल पहले से है… फिर वे कैसे संस्कार करते होंगे शवों का। एक बात ध्यान रखिये कि इसे धार्मिक रीति बहुत बाद में बनाया गया, मुख्य मकसद शवों को नष्ट करना होता था, होता है और आगे भी यही रहेगा।

इनमें सबसे प्राचीन विधियाँ तो दफन करना, शव को जानवरों, परिंदों के लिये छोड़ देना ही रहा है— मछुआरों की कई प्रजातियां शवों को समुद्र में डुबा कर दाह संस्कार करती हैं। भारत में यह दफन करने, नदियों में बहाने और चिता के रूप में जलाने के रूप में हजारों साल से प्रचलित रहा है। किसी दौर में दाह संस्कार के रूप में समर्थ व्यक्ति के मकबरे भी बनते थे और शवों को मसाले लगा कर ममी के रूप में सुरक्षित भी रखा जाता था। 

अफ्रीका, अमेजान के कई कबीलों में और तिब्बत में ही शवों को जानवरों के लिये छोड़ देते हैं। पहले कई कबायली प्रजातियां अपने मृत लोगों के शवों को चील कव्वों के लिये छोड़ देते थे, आज भी मुंबई में पारसियों का समुदाय टावर ऑफ साइलेंस में शवों को खुला छोड़ देता है कि चील कव्वे खा सकें। भारत से बाहर शवों को नष्ट करने की विधी के रूप में दफन करना ही मुख्य प्रचलन है।

आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic

एक नास्तिक के नजदीक हम जब तक जीवित हैं तब तक ही सबकुछ है, हमारी चेतना खत्म हम खत्म… फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारा बॉडी टर्मिनेशन जला कर हो, दफना कर हो या मेडिकल स्टूडेंट्स के द्वारा हो। यह ज्यादातर बार आसपास के दूसरे लोगों पर निर्भर करता है कि वे कैसे शव टर्मिनेट करना पसंद करते हैं।

इसलिये कोई आपकी आस्था से इत्तेफाक नहीं रखता तो वह उसका संवैधानिक और इंसानी अधिकार है… आप सहमत न होइये उससे लेकिन यह बेवकूफाना ताने मत दिया कीजिये कि अपना नाम बदल लो, शादी कैसे करोगे या दफनाये जाओगे या जलाये— क्योंकि नाम कल्चरल होते हैं, उन पर धर्म की मोनोपली नहीं होती, शादी में दूसरे पक्ष की इच्छा भी अहमियत रखती है और शव संस्कार बॉडी टर्मिनेशन की एक प्रक्रिया है जो मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से चली आ रही है— हर दफन का मतलब मगफिरत और जन्नत की ख्वाहिश नहीं होती और हर चिता में जलने वाला मोक्ष का अभिलाषी नहीं होता।

नैतिक पतन या उत्थान आस्था अनास्था से परे होता है

बाकी जो और मुख्य इल्जाम हैं— उनमें एक है नैतिकता से संबंधित सामाजिक पतन का। किसी आस्थावान के लिये यह धर्म जनित है, जबकि इसका धर्म से कोई रिश्ता नहीं। वे कहते हैं कि नास्तिक बहन से सेक्स क्यों नहीं कर सकते तो इसका शुद्ध जवाब नैतिकता के रूप में ह्यूमन बिहैवियर में मिलेगा वर्ना बहन से सेक्स/बलात्कार करने वाले भाई, या बेटी से संबंध बनाने वाले बाप तो हर धर्म में मिल जायेंगे।

इसका दूसरा जवाब यह भी है कि अगर दुनिया दो मानवों से शुरू हुई तो उनकी पहली नस्ल, जो एक बाप के वीर्य और माँ की कोख से पैदा होने वाले थे, सब भाई बहन ही हुए (यह जुड़वा वाली थ्योरी घर रखिये, एक कोख से पैदा सब भाई बहन ही होते हैं), तो अगली नस्ल जाहिर है कि उनके आपसी संबंधों से पैदा हुई… उस हिसाब से फिर हम सब भाई बहन की औलाद ही हुए, अब वह इंसान थे या जानवर यह फैसला आप खुद कीजिये।

एक इल्जाम यह आता है कि जानवर और नास्तिक में क्या फर्क है… वही फर्क है जो इंसान और जानवर में होना चाहिये, विवेक का, दिमाग के ज्यादा परिष्कृत होने का— क्या वे इंसान की तरह बेहतर और बदतर का फर्क समझने में और इंसान की तरह परिस्थितियों को अपने फेवर में ढालने में सक्षम होते हैं?

आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic

एक इल्जाम यह होता है कि अगर इंसान बंदर से इंसान बना है तो यह प्रक्रिया अब क्यों रुक गयी। इसका जवाब है कि एक नस्ल की कई प्रजातियां होती हैं— जैसे छोटी बिल्ली से लेकर शेर तक सब बिल्ली परिवार में आते हैं, या छिपकली से लेकर डायनासोर तक एक परिवार में आते हैं। उसी तरह मान लीजिये पेड़ों पे रहने वाली कोई वानर प्रजाति किसी वजह से (मान लीजिये भोजन संकट) जंगलों से बाहर निकली और उसने दो पैरों पर चलना शुरू किया और वक्त की जरूरत देखते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होती गयी— तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वानरों की सारी प्रजातियों को उसी तरह विकसित हो जाना चाहिये।

क्या सभी सवालों के जवाब आस्तिकों के पास होते हैं

अब आते हैं मुख्य बिंदू पर जहां प्रकृति से जुड़े अनसुलझे सवालों की एक फेहरिस्त लेकर आस्तिक टूट पड़ते हैं कि ऐसा है तो क्यों है वैसा है तो क्यों है— यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि लगभग सभी बातों/सवालों को एक नास्तिक बंदा समझने की कोशिश करता है, लेकिन आस्तिक हर उलझे सवाल का जवाब, और न समझ में आ सकने वाली बात का जिम्मा खुदा या ईश्वर पर डाल कर हाथ खड़े कर देता है। हम तो सवालों से जूझते हैं और जूझने का ही परिणाम है जो दुनिया भर में इतनी खोजें हुईं वर्ना धर्म के बंधे लोग तो ईश्वर की आड़ में फरार हासिल करके ही खुद को घोषित विजेता समझ लेते हैं…

आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic

न्यूटन के लिये कहा जाता है कि उसने सेब को गिरते देख गुरुत्वाकर्षण बल का पता लगाया — यह उसकी सवाल से जूझने की क्षमता ही थी जो यह पता चला कि जमीन में कौन सा बल है, वर्ना एक पल के लिये न्यूटन की किसी पंडित या मुल्ला के रूप में कल्पना कीजिये… सेब को गिरते देख वह इसे सब प्रभु की माया है या सब खुदा की मसलहत है का नारा लगा कर आंखें बंद करके वापस पड़ जाता।


वे कुदरत से संबंधित अनेकों सवाल करते हैं कि ऐसा है तो क्यों है, वैसा है तो क्यों है— जैसे यह कुदरत हमने बनाई है कि हमारे पास हर सवाल का जवाब होना चाहिये। चलिये ठीक है— हम पलट के आपका सवाल ही आपसे पूछते हैं, बताइये क्या है जवाब…. तो हंड्रेड पर्सेंटे गारंटी है इस बात की, कि उस हालत में जवाब खुदा पर जाकर रुक जायेगा— कि सब खुदा ने बनाया है, सब उसी की मसलहत है, सब उसी की कुदरत है, वह जो चाहे कर सकता है— इससे ज्यादा कोई जवाब ऐसे लोगों के पास नहीं।

सोचिये आप एग्जाम देने जाते हैं और सवाल आता है कि गैस वाले गुब्बारे ऊपर क्यों उठ जाते हैं तो क्या लिखेंगे जवाब में— कि यह सब खुदा की मसलहत है या यह कि उनमें हाइड्रोजन गैस भरी होती है जो भार में सबसे हल्की होती है, क्योंकि यह विज्ञान द्वारा प्रमाणित फैक्ट आपकी जानकारी में आ चुका है।

कैसे आया— हर सवाल का जवाब खुदा पर बंद कर देने वाले किसी बंदे के जरिये, या खुदा को किनारे करके सवाल से जूझने वाले किसी बंदे के जरिये? वैसे आप इंसान को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं न तो उस हिसाब से थर्ड जेंडर क्या है— क्या यह उसका कंपलीट फेलुअर नहीं? क्या जितने भी शारीरिक रूप से अक्षम या आधे अधूरे लोग/भ्रूण पैदा होते हैं— वे सब उस ईश्वर की नाकामी नहीं?

Written by Ashfaq Ahmad

आस्था बनाम तर्क

धर्म और तर्क एक साथ नहीं चल सकते

यह तो हुई तमाम तरह की संभावनाओं की बात… अब आइये यथार्थ में। हम जिस धर्म में पैदा होते हैं हमेशा उसे ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और किसी मुस्लिम धर्म में पैदा हुए बन्दे को लगता है कि वही ‘सही’ धर्म में पैदा हुआ है जबकि किसी हिन्दू धर्म में पैदा हुए व्यक्ति को लगता है कि वह ‘सही धर्म में पैदा हुआ है और बाकी के सारे धर्म और उनके मानने वाले गलत हैं। अलग-अलग बाड़ों में कैद लोगों की मानसिकता बस ‘अपना ही श्रेष्ठ है’ से शुरू हो कर इसी पर ख़त्म होती है। दुनिया में बहुत बड़ी तादाद ऐसे ही लोगों की है और मज़े की बात यह कि अपनी अंधभक्ति और अंध श्रद्धा के चलते वे हर तरह की इल्लोजिकल बात को बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं… ज़रा सोचिये कि कैसे वे हर तरह की शिक्षा से लैस होते हुए भी उन तमाम अतार्किक बातों पर अपनी स्वीकारोक्ति की मुहर लगा देते हैं—

आज हम किसी धार्मिक व्यक्ति के धर्म से परे की कोई अतार्किक बात कहते हैं तो वह ज़रा सा दिमाग लगाता है और उसे खारिज कर देता है लेकिन वही अतार्किक बात अगर उसे आसपास के दूसरे लोग कहें तो उस पर उस अतार्किक बात को सच मानने का दबाव बढ़ता चला जाता है और हो सकता है कि किसी मोड़ पर आ कर वह खुद उस अतार्किक बात को अपनी स्वीकारोक्ति दे बैठे… जबकि यह सभी धर्मों का एक सदियों पुराना पैटर्न है। बच्चा पैदा होता है तो उसके माँ बाप धर्म से जुडी तमाम तरह की अतार्किक बातें बचपन से उसे परोसना शुरू कर देते हैं। 

थोड़ा बड़ा होता है तो घर के बाकी लोग, रिश्तेदार वही अतार्किक बातें उसे कहते हैं, वह स्कूल कॉलेज पहुँचता है तो वहां भी वही सब बातें दोहराने वाले मिलते हैं और फिर नौकरी में जाता है तो वहां भी साथ के लोग उन्हीं बातों को दोहराते मिलते हैं और वह उन बातों को अपने अवचेतन तक में ऐसे समां लेता है कि सपने में भी उन बातों से इनकार नहीं कर सकता।

ऐसे हाल में धार्मिक दलदल से निकल पाना आसान नहीं होता और अगर कोई निकल पाता है तो ज़ाहिर है कि उसने कहीं तो इस पूरे पैटर्न के खिलाफ एक डिसीजन लिया था… सोचने का, सवाल करने का, जवाब ढूँढने का, हर धार्मिक कहानी को तर्क की कसौटी पर परखने का… और यही मंथन है जिसके परिणामस्वरूप एक इंसान का सामना आस्तिकता से परे जा कर वास्तविकता से होता है।

एक मुस्लिम के तौर पर अगर आप इस मंथन में कूदना चाहते हैं तो मेरे साथ आइये और सोचिये, समझिये कि सच क्या हो सकता है… जो बातें सहज रूप से उलझाती हैं, उन पर मनन कीजिये और किसी और से न सही तो खुद से सवाल कीजिये।

क्या खुदा का सर्वज्ञ होना इस कहानी से साबित होता है

सबसे पहले आइये कुरआन की सूरे बकरा में मौजूद एक कहानी पर… जो कि बताती है कि कैसे खुदा ने आदम को बनाया और इब्लीस समेत सभी फरिश्तों से उसे सजदा करने को कहा, लेकिन इब्लीस ने इनकार कर दिया और जिसकी परिणति उसकी शैतान के रूप में मान्यता पर हुई— इसी कहानी को अगर हम थोड़े प्रतीकात्मक तरीके से सोचें तो यह कुछ यूँ बनेगी…

मान लीजिये आप एक अंबानी टाईप कोई हस्ती हैं— सौ एकड़ में आपकी हवेली बनी हुई है, जिसमें अतिथियों के लिये रेस्ट हाऊस, पार्क, स्वीमिंग पूल जैसा सब इंतजाम है। साथ ही आप एक धर्मगुरू के तौर पर भी जाने जाते हैं और आपने दावा कर रखा है कि आपको न सिर्फ लोगों के मन की बात पता रहती है, बल्कि भविष्य में क्या होगा, वह भी आपकी जानकारी में रहता है।

आपने दो बेटे पैदा किये हैं— एक दिन आप घर के सभी नौकरों के बीच दोनों बेटों को सामने बुला कर बड़े बेटे और नौकरों से कहते हैं कि छोटे बेटे को पापा कहो… यहां बड़े बेटे या नौकरों का ‘पापा’ कहना या ‘पापा’ मान लेना महत्वपूर्ण नहीं है, आपके आदेश का पालन महत्वपूर्ण है—

लेकिन बड़े बेटे को यह गवारा नहीं होता कि वह अपने ही पिता के बेटे और अपने छोटे भाई को पापा कहे— जहां बाकी नौकर बे चूं चरां छोटे बेटे को पापा तस्लीम कर लेते हैं, वहीं बड़ा बेटा साफ इनकार कर देता है और आप खफा हो जाते हैं और अपने बड़े बेटे को ‘कुपुत्र’ करार देते हैं और उसके लिये ‘जेल’ की सजा का फैसला करते हैं। 

आपका एक कंप्यूटर है, जिसमें आपने अपनी जरूरी जानकारियाँ जुटा रखी हैं और आपने घर में सबसे कह रखा है कि घर की भले सब चीजें छूना, इस्तेमाल करना लेकिन इस कंप्यूटर को न छेड़ना। अब ‘कुपुत्र’ हो चुके बड़े बेटे ने छोटे को ऐसा उकसाया कि उसने कंप्यूटर खोल के देख लिया।

पता चलते ही आपके गुस्से की सीमा न रही और आपने दोनों सुपुत्र और कुपुत्र को हवेली से यह कहते हुए बाहर निकाल दिया कि अब उन्हें हवेली से बाहर बने रेस्ट हाऊस में रहना है— एक निश्चित वक्त तक और फिर उन्हें वापस हवेली में एंट्री मिलेगी।

छोटे बेटे ने चूँकि माफी माँग ली थी तो आपने उसे आश्वासन दिया है कि उसकी आल औलादों को फलाँ-फलाँ काम करने हैं— जिससे न सिर्फ उन्हें हवेली में वापस एंट्री मिलेगी, बल्कि इनामो इकराम से भी नवाजा जायेगा। साथ ही बड़े कुपुत्र को भी एक मौका दिया कि वह तो जेल जायेगा ही, साथ ही वह छोटे की आल औलादों में जितनों को बहका लेगा— उन सबको भी अपने साथ जेल ले जायेगा।

क्यों खुदा को हमेशा अहसान जताने की ज़रुरत है

अब वे वहां रहना शुरू करते हैं लेकिन आप बार-बार छोटे बेटे और उसकी औलादों को यह बताते हुए अहसान जताते हैं कि देखो हमने तुम्हारे लिये यह घर बनाया— यह पार्क, पानी से भरा पूल बनवाया… यह एलसीडी, केबिल, मिनिप्लेक्स, वेज और नानवेज डिशेज का इंतजाम किया— यह रेमंड, रीड एंड टेलर के कपड़े, रोलैंड वाचेस, रे बेन चश्मे, नाईकी के शूज जैसी चीजें दीं।

अब यहां कुछ उलझनें पैदा होती हैं— पहला प्रश्नचिह्न आपके सबकुछ जानने पर लग जायेगा कि आपको पता ही नहीं था कि आपके आह्वान पर बड़े बेटे का रियेक्शन क्या होगा, वर्ना पता था तो या आप ऐसा कुछ कहते नहीं जिसकी अवहेलना हो या फिर आपको इतना गुस्सा न आता कि अवहेलना करने पर बड़े बेटे को ‘कुपुत्र’ घोषित कर देते।

दूसरी उलझन यह कि बड़े बेटे का आपके आह्वान पर छोटे को ‘पापा’ मानने से मुकरना एक आकस्मिक घटना थी, जो कि बड़े बेटे के थोड़ा झुक जाने पर टल सकती थी— इसलिये रेस्टहाऊस और वहां की सुविधाओं के लिये छोटे पर आपका अहसान जताना झूठ साबित हो जायेगा… अगर बड़का ‘पापा’ मान लेता तो यह चीजें निरर्थक थीं। फिर पहले से बन चुकी चीजों के लिये, यह डायलाग कि हमने तुम्हारे लिये बनाया— स्वतः ही खारिज हो जायेगा।

तीसरी उलझन यह कि एक संभावना के तहत मान लें कि आपको सबकुछ पता था और आपने सब जानते बूझते किया था तो फिर एक बेटे को ‘कुपुत्र’ का खिताब, दोनों बेटों को हवेली से निकालने की सजा देना और कुपुत्र और उसके बहकाये में आये छोटे बेटे की औलादों के लिये जेल की सजा का ताय्युन उनके साथ ज्यादती है।

आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic

ज़ाहिर है कि खुद पर यह कहानी अप्लाई करेंगे तो आपको खुद से अपना यह व्यवहार हज़म नहीं होगा लेकिन मज़हब के नाम पर इसी कहानी को आप बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं।

अब अगर आप इस तरह के सवाल किसी धार्मिक व्यक्ति या मौलाना आदि से करते हैं तो सबसे पहली संभावना इस बात की बनती है कि आपको काफ़िर, मुनाफिक या नास्तिक का खिताब दिया जा सकता है जो कि मुसलामानों में सबसे आम रिवाज़ है, क्योंकि इस्लाम में इस तरह के सवालों को सोचने या करने की इज़ाज़त ही नहीं है। खैर… चलिये इस इलज़ाम पे बात करते हैं क्योंकि इस एक शब्द ‘नास्तिक’ पे भी बड़ा कन्फ्यूज़न रहता है।

नास्तिक का अर्थ क्या होना चाहिये

एक वह शख्स होता है— जो खुद को नास्तिक कहता तो है, जिसे आप भी नास्तिक के रूप में ही कैटेगराईज करते हैं… लेकिन वह न सिर्फ स्थापित भगवान/खुदा और उनसे जुड़ी मान्यताओं का उपहास उड़ाने में लगा रहता है— बल्कि उनमें आस्था रखने वालों को भी अपमानित करने में लगा रहता है, तो वह नास्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि उपहास उड़ाने के लिये वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार्यता दे रहा है— जब ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार रहा है तो नास्तिक होने की पहली शर्त ही नहीं पूरी कर रहा। नास्तिक वह है जिसकी कोई आस्था ही न हो… जब आस्था ही नहीं तो फिर किसी चीज का उपहास क्या उड़ाना।

अब ऐसा कोई शख्स सामने आता है तो आस्थावादी उससे सबसे पहली अपेक्षा यह करते हैं कि वह बताये कि वह खुद शादी कैसे करेगा— मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा, क्योंकि इनसे जुड़े संस्कार किसी न किसी धर्म को रिप्रजेंट करते हैं।

यह असल में एक तरह की बेवकूफी है कि जिसकी कोई आस्था ही नहीं, उससे आप रीति संस्कारों की डिमांड कर रहे हैं—  मतलब आप उससे अपेक्षा कर रहे हैं कि वह भी विवाह या अंतिम संस्कार के लिये कोई रीति संस्कार तय करें और उसके जैसी विचारधारा वाले उन्हीं के अनुसार सबकुछ करें। फिर तो यह नास्तिकत्व भी एक अलग पंथ हो जायेगा।

फिर बंदा आस्था ही तय कर लेगा तो नास्तिक का मतलब क्या रह गया— नास्तिकत्व एक व्यक्तिगत सोच, निजी जीवनशैली है न कि कोई पंथ। अगर मैं कहूँ कि मैं नास्तिक हूं तो इसकी यह शर्त कभी नहीं होगी कि मेरी पत्नी भी नास्तिक होनी चाहिये— कि मेरे माता पिता भी नास्तिक होने चाहिये। विवाह के लिये मेरी किसी कर्मकांड में मेरी आस्था भले न हो, लेकिन अगर पार्टनर की है तो मुझे उसकी आस्था से प्राब्लम क्यों होगी?

आप निकाह करवा दो, फेरे पड़वा दो, कोर्ट मैरिज करवा दो— क्या फर्क पड़ना? जिसे रिश्ता निभाना है वह बिना इन कर्मकांड के भी निभा ले जायेगा, जैसे शादी के चलन से पहले निभाते थे और जिन्हें नहीं निभाना, वह इन धार्मिक कर्मकांड के बावजूद भी नहीं निभाते, दुनिया में होने वाले लाखों तलाक इस बात के गवाह हैं।

रही बात मरने के बाद अंतिम संस्कार की तो सांस थमते ही मैं खत्म, मेरी चेतना खत्म— फिर मुझे क्या फर्क पड़ना कि मुझे जलाया गया, दफनाया गया, चील कव्वों को खिला दिया गया या मेडिकल स्टूडेंट्स को दे दिया गया…

इसकी परवाह उन्हें होती है जिन्हें मरने के बाद के जीवन की परवाह होती है। जिसकी इस चीज में आस्था ही नहीं उसे क्या फर्क पड़ना… यहां भी मरने वाले के आसपास के लोग मैटर करते हैं कि वे दाह संस्कार अपनी आस्था के हिसाब से ही करेंगे तो मुझे उनकी आस्था से एतराज क्यों हो?

एक नास्तिक की पत्नी आस्थावान हो सकती है— उसके माता पिता आस्थावान हो सकते हैं।

Written by Ashfaq Ahmad