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टाईम मशीन

क्या टाईम मशीन का अविष्कार संभव है?

वैसे यह बड़ा दिलचस्प ख्याल है कि अगर कोई टाईम मशीन बना ली जाये तो क्या हम उसके जरिये अतीत में जा सकते हैं.. यह बड़ी रोमांचक कल्पना है जो कभी न कभी हर किसी ने की होगी। अब अगर टेक्निकली इस संभावना की बात करें तो यह पाॅसिबल नहीं लगता। समय एक लीनियर यूनिट है, इसे रिवर्स नहीं किया जा सकता। मतलब अतीत को आप देख तो सकते हैं किसी तरह लेकिन जो घट चुका है, उसे बदल नहीं सकते।

देख कैसे सकते हैं… इस बात का जवाब यह है कि कभी स्पेस में रोशनी से तेज गति से दूरी तय करने का कोई जुगाड़ बना सके तो जरूर देख सकते हैं। साईंस में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों ने यह लाईनें जरूर सुनी होंगी कि जैसे-जैसे हम रोशनी की गति के नजदीक पहुंचते जायेंगे, समय हमारे लिये धीमा होता जायेगा—

और बराबर पहुंचने पर थम जायेगा, जबकि उस स्पीड का बार्डर क्रास करते ही वह हमारे लिये उल्टा चलने लगेगा… यानि तब चीजें वर्तमान से पीछे की तरफ जाते देख पायेंगे। अब सामान्यतः यह बात आदमी के सर के ऊपर से गुजर जाती है और वह खिल्ली उड़ा के आगे बढ़ लेता है।

लेकिन कोशिश करे तो समझ भी सकता है.. आइये इसे समझने का एक बिलकुल आसान सा रास्ता बताता हूँ। समझिये कि हम कोई भी चीज प्रकाश के माध्यम से देख सकते हैं और यह हमारी एक लिमिटेशन है। प्रकाश की गति की अपनी एक लिमिटेशन है..

लगभग तीन लाख किलोमीटर पर सेकेंड। तो आप आंख खोल कर जो भी चीज देखते हैं, वह प्रकाश की गति के नियम से बंधी होती है और हकीकत में आप एग्जेक्ट वर्तमान में कुछ भी नहीं देख पाते। जो भी देखते हैं वह कुछ न कुछ पुराना ही होता है।

अब कम दूरी पर यह प्रभाव पता नहीं चलता लेकिन जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जायेगी, यह अंतर बढ़ता जायेगा। पृथ्वी पर इस फर्क को नहीं महसूस कर सकते लेकिन आसमान की तरफ नजर उठाते ही यह बहुत बड़े अंतर के साथ सामने आता है।

अपने सोलर सिस्टम के सूरज, ग्रह या चांद तो फिर कुछ मिनट पुराने दिखते हैं लेकिन बाकी तारे, गैलेक्सीज हजार, लाख, करोड़ साल तक पुराने हो सकते हैं, यानि जितना भी वक्त उससे निकली रोशनी को आप तक आने में लगा हो।

यानि किसी ऐसे तारे को आप देख रहे हैं जो यहां से दस लाख प्रकाशवर्ष दूर है तो मतलब आप उस तारे का वह नजारा देख रहे हैं जो दस लाख साल पहले रहा होगा। हो सकता है कि जब यह व्यू पैदा हुआ था, उसके अगले ही दिन वह तारा खत्म हो चुका हो लेकिन आपको वह लाखों साल यूं ही दिखता रहेगा।

तो ठीक इसी तरह मान लीजिये कि आपके पास एक इतना हाईटेक टेलिस्कोप है कि आप एक हजार प्रकाशवर्ष दूर से भी पृथ्वी को देख सकते हैं तो उसके साथ पृथ्वी से इस दूरी पर जाइये। अब अगर आप प्रकाश की गति से जायेंगे तो आपको हजार साल लग जायेंगे और तब आपको अभी का नजारा दिखेगा—

यानि यहाँ पे वक्त आपके लिये थमा हुआ है कि जहां से चले थे, वहीं हैं जबकि पृथ्वी पर तो इस बीच हजार साल गुजर चुके होंगे और हो सकता है कि आपके टेकऑफ करने के अगले ही दिन पृथ्वी किसी बुरे इत्तेफाक का शिकार हो कर खत्म हो चुकी हो, लेकिन आपको तो वह दिखती रहेगी।

अब मान लेते हैं कि आपके पास कोई ऐसी टेक्निक है कि प्रकाश की गति आपके लिये मायने नहीं रखती, बल्कि आप पलक झपकते, या एकाध दिन में उसी दूरी पर पहुंच जाते हैं.. तो तकनीकी रूप से आपने रोशनी की गति के बैरियर को तोड़ दिया, और आपको वक्त उल्टा दिखना चाहिये।

तो हजरत, अब जब उसी प्वाइंट से आप पृथ्वी को देखेंगे तो वह आज वाली पृथ्वी नहीं बल्कि हजार साल पहले की वह पृथ्वी दिखेगी जो अतीत में गुजर चुकी। आपके पास हजार साल पहले बनी पृथ्वी की छवि प्रकाश के माध्यम से हजार साल की यात्रा करके अब पहुंची है।

इसी तरह स्पीड बैरियर को जितना भी तोड़ते आगे जायेंगे, उतनी ही पुरानी पड़ती पृथ्वी के दर्शन करते जायेंगे। यह है एक्चुअली वह कांसेप्ट जहां कहा जाता है कि अगर आप रोशनी से तेज गति से चल लिये तो वक्त आपके लिये उल्टा चलने लगेगा।

तो अब आते हैं मेन मुद्दे पर जो टाईम मशीन को ले कर है.. ऐसी कोई तकनीक तो विकसित की जा सकती है कि उसके जरिये हम अतीत में देख सकें लेकिन उसे बस इसी तरह देख सकते हैं जैसे सिनेमाहाल में बैठा दर्शक पर्दे पर फिल्म देखता है।

हां, इससे हो चुकी घटनाओं को समझने में मदद मिल सकती है, रहस्यों की गुत्थी सुलझ सकती है लेकिन देखने वाला उसमें असरअंदाज नहीं हो सकता। वह उस गुजर चुके अतीत में कोई भी फिजिकल एंटरफियरेंस नहीं कर सकता।

बाकी भविष्य में जाने जैसा कुछ भी पाॅसिबल नहीं.. उसके अंदाजे लगा कर सिमुलेशन क्रियेट किया जा सकता है लेकिन चूंकि वह अनिश्चित है, अलिखित है (धार्मिक गपों से परे) तो उसकी कोई झलक भी मुमकिन नही।

Written By Ashfaq Ahmad

कास्मोलाॅजी

दूसरे ग्रहों पर हमसे भिन्न किस तरह का जीवन हो सकता है?

काॅस्मोलाॅजी से सम्बंधित बातें लिखने में जो एक सबसे बड़ी परेशानी होती है, वह यह कि इस बारे में ज्यादातर लोगों की समझ बहुत कम होती है और यह विषय इतना जटिल है कि सीधे-सीधे तो चीज़ें समझाई भी नहीं जा सकतीं। अब मसलन इस सवाल को ही ले लीजिये कि क्या पृथ्वी के सिवा भी किसी अन्य ग्रह पर जीवन हो सकता है?

आदमी जब यह सवाल पूछता है तो उसके मन में जीवन की कल्पना ठीक वैसी ही होती है, जैसा जीवन हम पृथ्वी पर देखते हैं… चाहे वह जीव-जंतुओं, पशु पक्षियों के रूप में हो, या इंसानों के रूप में। यह हमारी लिमिटेशन है कि हम देखे, सुने, जाने हुए से बाहर की कल्पना भी नहीं कर पाते, तो हमारे सवाल उन कल्पनाओं से ही जुड़े होते हैं जो हमारे लिये जानी पहचानी ही होती हैं।

मसलन हम किन्हीं दूसरे ग्रह से आये एलियन्स की कल्पना करते हैं तो उन्हें अपनी पृथ्वी से सम्बंधित जीवों के ही अंग दे डालते हैं, चाहे वे किसी एक जानवर से सम्बंधित हों या कई जीवों का मिश्रण। इससे बाहर की चीज़ें हमारी समझ से परे हैं। यह कुछ ऐसा है कि भयानक किस्म की विविधताओं से भरे यूनिवर्स के रचियता के रूप में हम जिन ईश्वरों की कल्पना करते हैं, तो जहां वह साकार रूप में है—

वहां उसके इंसानी रंग रूप में या कई जीवों के मिक्सचर के रूप में इमैजिन करते हैं और जहां निराकार है, वहां भी उसे डिस्क्राईब करने के लिये भी इंसानी बातों का ही सहारा लेते हैं… यहां तक कि इंसान की सारी अनुभूतियां हम उस पर अप्लाई कर देते हैं और वह किसी साधारण मनुष्य की तरह खुश भी होता है, खफा भी होता है, चापलूसी भी पसंद करता है और इंसानों जैसे ही फैसले भी करता है।

एक सेकेंड के लिये सोचिये कि वाकई कोई रचियता है, तो उसका दिमाग़ और उसकी काबिलियत क्या होगी— क्या मामूली ब्रेन कैपेसिटी लेकर आप उसकी सोच के अरीब-करीब भी पहुंच पायेंगे? लेकिन यहां तो एक मामूली अनपढ़ और नर्सरी के आईक्यू लेवल वाला धार्मिक बंदा भी उसे अच्छी तरह समझ लेने का दावा करता है…

सच यह है कि पृथ्वी पर जितने भी ईश्वर पाये जाते हैं, वह इंसानों के अपनी जानी पहचानी कल्पना के हिसाब से खुद उसके बनाये हैं। हकीकत में ऐसा कोई रचियता है या नहीं— मुझे नहीं पता, न पता कर पाने की औकात है मेरी और न ही पता करने में कोई दिलचस्पी। यहां इस बात का अर्थ इतना भर है कि इंसान अपनी जानी पहचानी कल्पनाओं की बाउंड्री ईश्वर तक के मामले में क्रास नहीं कर पाता और यही नियम वह एलियंस पर अप्लाई करता है।

जबकि हमारी जानी पहचानी कल्पनाओं से बाहर जीवन जाने कितने तरह का हो सकता है। जीवन मतलब लिविंग थिंग, बायोलाॅजिकल केमिस्ट्री, एक्टिव ऑर्गेनिजम.. वह एक बैक्टीरिया है तो वह भी जीवन के दायरे में आयेगा। इसके अलग-अलग तमाम ऐसे रूप हो सकते हैं जो हमारे सेंसेज से परे हों। या हम देखें तो देख कर भी न समझ पायें।

वह सिंगल सेल ऑर्गेनिजम भी हो सकता है और हमारी तरह कोई कांपलेक्स ऑर्गेनिजम भी— जिसका ज़ाहिरी रूप हमसे बिलकुल अलग हो। उदाहरणार्थ, “डारकेस्ट ऑवर” नाम की हालिवुड मूवी में एक ऐसे एलियन की कल्पना की गई थी जो इंसानी सेंसेज से परे था और एक तरह की एनर्जी भर था। तो इसी तरह के जीवन भी हो सकते हैं।

जीवन का मतलब इंसान जैसा सुप्रीम क्रीचर ही नहीं होता.. जैसे पृथ्वी पर होता है कि हर तरह की एक्सट्रीम कंडीशन मेें भी किसी न किसी तरह का जीवन पनप जाता है— इसी तर्ज पर हर ग्रह पर उसकी कंडीशन के हिसाब से किसी न किसी तरह का जीवन इवाॅल्व हो सकता है।

जैसे हमारे पड़ोसी शुक्र ग्रह की कंडीशंस इतनी बदतर हैं कि हमारे हिसाब से वहां किसी भी तरह का जीवन पनप नहीं सकता लेकिन वहीं यह संभावना भी है कि किसी रूप में उसी माहौल में सर्वाईव करने लायक कोई सिंगल सेल ऑर्गेनिजम ही पनप जाये। टेक्निकली वह भी जीवन है, भले हमारे लिये उसके कोई मायने न हों।

हमारे सौर परिवार के सबसे सुदूर प्लेनेट प्लेटों पर जाहिरी तौर पर जीवन की कोई गुंजाइश नहीं दिखती, क्योंकि वह सूरज से इतनी दूर है कि वहां तक रोशनी भी ठीक से नहीं पहुंचती। हमारे जाने पहचाने जीवन के (जिसकी भी हम कल्पना करते हैं) वहां पनपने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है—

लेकिन फिर भी उसके अंदरूनी गर्म हिस्सों में या उसके उपग्रहों के अंदरूनी हिस्सों में कोई बैक्टीरियल लाईफ मौजूद हो सकती है— यहां तक कि उस प्लेनेट नाईन या एक्स का चक्कर काटते उसके उपग्रहों के अंदरूनी हिस्सों में भी, जो गर्म हो सकते हैं… जिस प्लेनेट को लेकर अब तक कोई पुख्ता सबूत भी हाथ नहीं लगा।

तो जीवन होने को सभी ग्रहों पर किसी न किसी रूप में हो सकता है, बस वह हमारी परिभाषा में फिट नहीं बैठता। यह जीवन हमारे हिसाब से एकदम शुरुआती लेवल वाला सिंगल सेल ऑर्गेनिजम हो सकता है जिसे एक कांपलेक्स ऑर्गेनिजम तक पहुंचने के लिये बड़ा लंबा, पेचीदा और नाजुक सफर तय करना होता है।

हम आज जहां दिखते हैं, वहां तक हमारे पहुंचने में जहां सबसे बड़ा हाथ हमारे ग्रह की सूटेबल पोजीशन है, वहीं तमाम तरह के ऐसे इत्तेफाक भी रहे हैं, जिनमें से एक भी न घटता तो हम न होते। यह करोड़ों मौकों से एक मौके मौके पर बनने वाले इत्तेफाक हैं, लेकिन यूनिवर्स में सोलर सिस्टम भी तो अरबों हैं। तो ऐसे में जहां भी यह स्थितियां बनी होंगी, यह इत्तेफाक घटे होंगे—

वहां हमारे जैसा कांपलेक्स ऑर्गेनिजम वाला जीवन जरूर होगा.. वर्ना सिंगल सेल वाला तो कहीं भी हो सकता है— एक्सट्रीम कंडीशंस वाले ग्रहों पर भी। हां, यह जरूर है कि कहीं हमारी जानी पहचानी कल्पनाओं वाला भी हो सकता है तो कहीं वह भी, जो हम न देख सकें और न ही समझ सकें।

क्रमशः

Written By Ashfaq Ahmad

सृष्टि सूत्र 3

अलग आयाम की किसी भी वस्तु को हम क्यों नहीं महसूस कर सकते?

ठीक है, आपने दो स्केल पर चीजें समझ लीं, अब तीसरे और फाईनल स्केल पर आइये। पहले आप सुपर यूनिवर्स को देख रहे थे, फिर अपने यूनिवर्स पर आये और अब अपने ग्रह पर आ जाइये। यहाँ जो चीज आपको सबसे ज्यादा उलझन में डाल रही होगी, वह यह कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे सामने कोई चीज बने और हम उसे देख या महसूस ही न कर सकें.. मतलब एटम्स में ऐसी क्या हेरफेर हो सकती है जो मैटर को इस हद तक बदल दे। अब इस चीज को थोड़े छोटे पैमाने पर अपने आसपास के वातावरण से समझिये।

आप जिस जगह खड़े हैं, वहां से दूर दिखते किसी ऑब्जेक्ट को देखिये.. मसलन कोई पहाड़, कोई बिल्डिंग या कोई इंसान। आप उस चीज को इसलिये देख पा रहे हैं क्योंकि आपके और उस ऑब्जेक्ट के बीच में कोई अवरोध नहीं है यानि खाली जगह है। क्या कभी आप यह सोचते हैं कि असल में खाली जैसा कुछ नहीं है.. बीच में ठीक वैसे ही खरबों एटम्स मौजूद हैं जिनसे खुद आप या वह ऑब्जेक्ट बना है.. फर्क इतना है कि आप दोनों एटम्स का ठोस रूप हैं जबकि बीच में मौजूद स्पेस एटम्स का गैसीय रूप।

मतलब जिन एटम्स से आप बने हैं, उनकी ही एक स्टेट आपके लिये अदृश्य हो जाती है.. इसी चीज को एक क्लीन ट्रांसपैरेंट ग्लास पर आजमाइये। आप उसके पार इस तरह देख पाते हैं कि जैसे बीच में उसका वजूद हो ही न। बस छूने से पता चलता है कि बीच में शीशा है, वर्ना बिना छुए वह आपके लिये है ही नहीं। अब दो ऑब्जेक्ट्स के बीच के स्पेस को या सामने दिखते दृश्य के बीच में मौजूद शीशे को आप भले देख न पायें लेकिन उसे डिटेक्ट कर सकते हैं क्योंकि यह सब उसी यूनिवर्स का हिस्सा है, जिसके खुद आप हैं।

एक यूनिवर्स की हर चीज उस यूनिवर्स के अंदर मौजूद जीव के लिये कनेक्टिंग और किसी न किसी रूप में डिटेक्टेबल रहेगी जबकि ठीक हवा और पारदर्शी कांच की तर्ज पर किसी और यूनिवर्स की चीजें आपके लिये अदृश्य और अनडिटेक्टेबल हो सकती हैं।

मसलन समझ लीजिये कि अपने ही यूनिवर्स में इसी तरह की रीसाईकल प्रक्रिया से बने किसी और यूनिवर्स में सारा मैटर पारदर्शी कांच या हवा के रूप में ढला हो सकता है कि उनके सभी पिंड और यहां तक कि उनकी वनस्पति और जीव तक इसी फाॅर्म में हों कि भले वे हमारे लिये छूने या किसी और तरह से डिटेक्ट करने पर जाहिर हों…

लेकिन हमारे बीच इतनी दूरी है कि ऐसा करने के लिये हम वहां जा ही नहीं सकते और हमारी आंखें या टेलिस्कोप दूर से उन्हें देखने या डिटेक्ट करने में सक्षम नहीं। तो इस तरह से अलग-अलग आयाम में एक साथ कई यूनिवर्स एग्जिस्ट करते हो सकते हैं और सबके बनने और खत्म होने के अपने चक्र चल रहे होंगे। सबकी सीमायें भी होंगी और सबके आदि और अंत भी होंगे।

हालांकि इस तरह की चीजें किताबों में ही लिखी जाती हैं मगर फिर भी लिख दी.. उम्मीद है कि जिस पोस्ट पर आये कमेंट्स से खीज कर यह सब लिखा है, अब आप समझ पाये होंगे कि मैं आपको उस सुपर यूनिवर्स रूपी हाॅल के बाहर ले जाने की कोशिश कर रहा था और आप उस हाॅल के अंदर गति करते सैकड़ों यूनिवर्स में से एक यूनिवर्स के अंदर मौजूद रहते सारे गणित भिड़ा रहे थे, सारी संभावनाएं टटोल रहे थे।

अपना कैनवस बड़ा कीजिये और सोचिये कि हमारे लिये एक सीमा उस हाल की दीवारें, छत, फर्श हो सकती हैं लेकिन उसके पार क्या है। कैसा हो कि जब आप बाहर निकल कर देखें तो पता चले कि अरे, यह हाॅल तो एक ग्राउंड में बना है। ग्राउंड एक ग्रह पर है, ग्रह तो एक गैलेक्सी में है, गैलैक्सी तो एक क्लस्टर में है, क्लस्टर तो एक यूनिवर्स में है.. फिर उस यूनिवर्स के पार क्या है?

तो अब आया समझ में? कृपया दर्शन और अध्यात्म वाला एंगल न परोसें.. हर जगह वह काम नहीं करता। बाकी जो तथाकथित ईश्वर और रचियता वाले हैं, वे समझ सकते हैं कि ऐसा कोई क्रियेटर हो सकता है जिसने इस हाॅल के अंदर वाले सिस्टम को स्विच किया (हालांकि इससे ज्यादा उसे अंदर वाले बैक्टीरिया से मतलब भी न होगा जो सब रचे गढ़े बैठे हैं), क्योंकि वह खुद इस हाॅल से बाहर है।

लेकिन जैसे ही आप हाॅल से बाहर देखते हैं तो वह खुद ही एक रचना के रूप में नजर आता है, ठीक इसी तर्ज पर जिसका कि कोई और क्रियेटर होगा.. अब अगर आप सबसे अंतिम लेयर वाले को अपना क्रियेटर ठहराना चाहते हैं तो उसका कोई पता ठिकाना नहीं कि इस सिलसिले का अंत है कहाँ, फिर आपका सम्बंध सिर्फ अपने सर्कल वाले से ही हो सकता है जो सबकुछ होने या सर्वशक्तिमान होने जैसी कैटेगरी में कतई अनफिट है।

(समाप्त)

Written By Ashfaq Ahmad

    सृष्टि सूत्र 2

    कैसे जन्म लेते हैं नये ब्रह्माण्ड?

    तो जो पीछे आपने पढ़ा था वह इस हाइपोथेसिस का पहला स्केल था, अब दूसरे स्केल पर चलते हैं.. अभी तक आप उस सुपर यूनिवर्स रूपी ब्राह्मांड के बाहर खड़े हो कर चीजों को देख कर इस माॅडल को समझ रहे थे, अब इसके अंदर उतर कर आगे बढ़िये.. इनमें से किसी भी एक यूनिवर्स के अंदर, उसका ही एक पार्ट बन कर। यहां आपको लग रहा है कि यही अकेला ब्राह्मांड है.. जिस बिगबैंग से यह बना, वह पहला और अकेला बिगबैंग था और आगे यह बिग फ्रीज या बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म हो जायेगा। हकीकत यह हो सकती है कि इस शुरु होने और खत्म होने की लगातार चलती प्रक्रिया में आप कहीं बीच में खड़े हों, जहां पहले भी यह घट चुका हो और अभी आगे भी जाने कितनी बार घटना बाकी हो।

    और यह जो कुछ लोग फनी सा सवाल करते हैं कि स्पेस अगर अब फैल रहा है तो जो पहले से मौजूद है, वह क्या है या फिर यह स्पेस फैल कहाँ रहा है.. तो समझो भई, कि स्पेस जगह के रूप में पहले से ही मौजूद है और जो फैल रहा है, यह आपका वाला ब्राह्मांड है जिसका मटेरियल दूर तक छितरा रहा है.. तो उस छितराने वाले मटेरियल के अंदर बैठ कर देखोगे तो यही कहा जायेगा कि स्पेस फैल रहा है। तकनीकी रूप से स्पेस नहीं बल्कि वह यूनिवर्स जिसमें आप हैं, वह फैल रहा है जबकि इसके साथ ही ठीक इसी जगह कोई दूसरा ब्राह्मांड सिकुड़ कर बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म भी हो रहा हो सकता है, जो आपके लिये डिटेक्टेबल नहीं।

    अब यहां से यह खत्म होने और बनने की प्रक्रिया को अपने ही यूनिवर्स से समझिये.. हम एक कई करोड़ प्रकाशवर्ष में फैले केबीसी वायड में हैं। वायड यूनिवर्स में मौजूद ऐसी खाली जगह को कहते हैं जहां नाम मात्र की गैलेक्सी हों। अब अपने आसपास के स्पेस को देख कर हमें लगता है कि यूनिवर्स में हर जगह इतनी ही दूरी पर गैलेक्सीज होती हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हम खुद यूनिवर्स के बंजर हिस्से में हैं जबकि ज्यादातर जगहों पर गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी है।

    तो चूंकि आपको पता है कि बड़े आकार का कोई तारा जब अपनी सारी हाइड्रोजन फ्यूज करके अपनी ग्रैविटी पर कोलैप्स होता है तो वह ब्लैकहोल बन जाता है। अब कल्पना कीजिये कि गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी वाले किसी हिस्से में कोई यूवाई स्कूटी के साईज का तारा खत्म हो कर ब्लैकहोल में बदलता है। एक चीज यह भी समझिये कि ब्लैकहोल मैटर का रीसाइकिल सेंटर होते हैं और आगे फर्स्ट जनरेशन स्टार्स उस मैटर को और प्रोसेस और मोडिफाई करते हैं।

    अब हम उस नये बने ब्लैकहोल को देखते हैं जो अपने आसपास मौजूद मैटर को निगलना और ताकतवर होना शुरू कर देगा। गतिशीलता के नियम के चलते, उसके हैवी गुरुत्वाकर्षण की वजह से खुद उसकी गैलेक्सी समेत आसपास की गैलेक्सी तक उसके अंदर समाने लगेंगी और पता चलेगा कि एक मैसिव ब्लैकहोल आसपास की कई सारी गैलेक्सीज तक खा गया।

    वैज्ञानिक जो यूनिवर्स के अंत की एक थ्योरी बिग क्रश के रूप में देते हैं, वह भी कुछ यूं ही घटेगी। यह प्रक्रिया हालांकि हमारे टाईम स्केल पर करोड़ों साल में पूरी होगी पर आप मान लीजिये कि अभी आपके सामने ही उसने अपने करोड़ों साल के अस्तित्व के दौरान ढेरों गैलेक्सीज निगल चुकने के बाद अभी एक लास्ट पिंड को निगला है और अपनी सिंगुलैरिटी पर बढ़ते वजन के कारण कोलैप्स हो गया है और एक झटके से उसने अब तक निगला सारा मटेरियल रिलीज कर दिया है।

    यह हमारे अपने ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स में ही घटने वाला एक नया बिगबैंग है और इसके फेंके छितराये मैटर से एक नये ब्राह्मांड का जन्म हुआ है। वह ब्राह्मांड जो रिलीज होते ही बेतहाशा गर्म था लेकिन जैसे जैसे वह छितराते हुए दूर तक फैलता जा रहा है, वैसे-वैसे यह ठंडा होता जा रहा है और इसका उगला मैटर अब एक शक्ल ले रहा है।

    मान लीजिये कि वह शक्ल आपकी जानी पहचानी शक्ल से अलग है तो आपके सारे फिजिक्स के नियम उस नये बनते ब्राह्मांड में धराशाई हो जायेंगे और हो सकता है कि उस यूनिवर्स की तमाम चीजें आपके सेंसेज से ही परे हों.. यानि न आप उन्हें देख पायें और न समझ पायें। या हो सकता है कि वह नया ब्राह्मांड ठीक डार्क मैटर और डार्क एनर्जी की तरह आपके लिये सिरे से अनडिटेक्टेबल हो और आप बस उसके प्रभाव को ही महसूस कर पायें। वेल.. यूनिवर्स के सुदूर हिस्सों में इस तरह की प्रक्रियाएँ आलरेडी चल रही हैं।

    क्रमशः

    Written By Ashfaq Ahmad

      इवाॅल्यूशन

      क्या इंसान बन्दर से इवाॅल्व हुआ है

      मैंने कई लोगों को बड़ी शान से यह सवाल उठाते देखा है कि अगर आदमी बंदर से इवाॅल्व हुआ है तो अब तक दुनिया में बंदर क्यों हैं? यह सवाल पूछने वाला अपनी धार्मिक आस्था से बंधा होता है और उसे पूरा यकीन होता है कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इंसान को तो सीधे ईश्वर ने उसके आधुनिक रूप में धरती पर उतारा है।

      ऐसा करते हुए न सिर्फ वह इंसानी विकास के पुरातत्विक प्रमाणों को दरकिनार कर रहा होता है बल्कि अपनी समझ में बड़ी बुद्धिमता दिखाने की कोशिश कर रहा होता है जबकि हकीकत में यह ख्याल इस हद तक अहमकाना है कि इस पर सिर्फ हंसा जा सकता है।

      सवाल यह नहीं है कि इंसान किसी बंदर से इवाॅल्व हुआ या नहीं.. वह हर किसी की अपनी आस्था और मान्यता है। कोई मान ले कि पत्थर में भगवान है तो यह उसकी अपनी आस्था है और किसी दूसरे को इससे परेशानी नहीं होनी चाहिये। परेशानी तब खड़ी होती है जब आस्था को फैक्ट मान कर उसे साबित करने की जिद पाल ली जाती है।

      इवाॅल्यूशन थ्योरी नहीं है, यह फैक्ट है.. यह सभी जीवों, पेड़-पौधों और जमीन तक में होता है। कभी समुद्र में डूबा रहने वाला किनारा आज हिमालय के रूप में सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला है.. यह जमीन का इवाॅल्यूशन ही तो है। आप यहाँ कहेंगे कि अगर समुद्री किनारे से हिमालय बन गया तो दुनिया में अभी तक दूसरे समुद्री किनारे क्यों मौजूद हैं।

      मुर्गियां, शुतुरमुर्ग, कीवी आदि देखे हैं.. उनके पास पंख होते हैं लेकिन वे उड़ते नहीं बल्कि चलते, दौड़ते हैं, मानेंगे कि इन्हें बनाने वाले ने गलत डिजाइनिंग कर दी पंख दे कर, जिनकी जरूरत नहीं थी। यह उसी इवाॅल्यूशन का हिस्सा हैं जो बताते हैं कि कभी इनके पुरखे उड़ते थे लेकिन फिर जरूरत नहीं रह गयी तो उड़ना छूट गया लेकिन अवशेषी अंगों के रूप में पंख रह गये। अब आप कहेंगे कि ऐसा था तो कव्वे, कबूतर, चील, बाज क्यों नहीं उड़ना छोड़ कर जमीन पर चलने लगे। वे अभी भी क्यों उड़ रहे है?

      आपने व्हेल देखी है.. पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी उम्र पानी में रहती है लेकिन बाकी जलचरों की तरह गलफड़े न होने की वजह से पानी से ऑक्सीजन नहीं ले पाती बल्कि सांस लेने के लिये उसे ऊपर आना पड़ता है। इनकी अस्थियां मैमल्स की तरह भारी होती हैं, इसके पिंजर में पिछले पैरों की अवशेषी अस्थियां होती हैं और पानी में जलचरों की तरह तैरने के लिये दुम को दायें-बायें न करके थलचरों की तरह ऊपर-नीचे करती हैं। आप मानेंगे कि यह गलत डिजाइनिंग हैं क्रियेटर की?

      नहीं, यह इवाॅल्यूशन का हिस्सा है जो बताता है कि कभी उसके पुरखे जमीन पर रहा करते थे जिन्होंने बाद में पानी को अपना घर बना लिया। आप पूछेंगे अब कि ऐसा था तो सारी मछलियां सांस लेने क्यों नहीं ऊपर आतीं।

      खुद को देखिये.. कभी इंसान जानवर जैसा था, बिना पका मांस या कच्ची वनस्पति ही खाता था, खतरों भरा असुरक्षित जीवन जीता था तो उस हिसाब से शरीर था लेकिन आग, खेती और स्थाई आवास के आविष्कार के बाद उसके जीने का ढंग बदल गया लेकिन अपेंडिक्स, इरेक्टर पिल्ली, अक्कल दाढ़, साईनस, टाॅन्सिल्स, कान को हिलाने वाली मांसपेशी,आंखों के कोनों पर पाई जाने वाली झिल्ली और छः माह के बच्चे में पाया जाने वाला ग्रास्प रिफ्लेक्स जैसे कई अवशेषी अंग और आदतें उसके पुराने वजूद की गवाही देते हैं। यही इवाॅल्यूशन है।

      होमो फ्लोरेसिएंसिस इवाॅल्यूशन की स्पष्ट गवाही देते हैं

      इवाॅल्यूशन का मतलब यह कदापि नहीं कि बंदर से आदमी बना है तो सारे बंदरों को आदमी बन जाना चाहिये। यह कहना ही गलत है कि बंदर से इंसान बना.. डार्विन की इवाॅल्यूशन थ्योरी का अर्थ यह कभी था ही नहीं बल्कि यह था कि कोई मानवाकार कपि इंसान और बंदर दोनों का ही पूर्वज हो सकता है।

      यानि इसे यूं समझिये कि एक चिम्प ग्रुप था जिसकी अगली पीढ़ी में दो ग्रुप्स बने और दोनों अलग-अलग निकल गये, दोनों को पनपने के लिये एकदम विपरीत परिस्थितियां मिलीं और दोनों ही अलग-अलग रूप में अपने आसपास की स्थितियों के अनुरूप इवाॅल्व हुए। एक को आप इंसान कह लीजिये और दूसरे को बंदर कह लीजिये। बंदर हमारा चचाजाद भाई हो सकता है लेकिन वह हमारा पूर्वज नहीं है।

      इसे एक दूसरे उदाहरण से समझिये कि जब पृथ्वी पर होमो सेपियंस के अतिरिक्त इंसानों की दूसरी प्रजातियाँ भी मौजूद थीं, तब इंडोनेशिया के ही एक अन्य द्वीप फ्लोरेंस पर बसे मनुष्य बौने होने की प्रक्रिया से गुजरे और आगे चल कर वे होमो फ्लोरेसिएंसिस के रूप में जाने गये।

      वस्तुतः वे वहां तब पहुंचे थे जब समुद्र का स्तर असाधारण रूप से निचला था और वे वहां जमीनी रास्ते से पहुंचे थे लेकिन बाद में जलस्तर बढ़ने से वे वहीं फंसे रह गये, जो जगह संसाधनों की दृष्टि से कमजोर थी और तब वहां जो अगली पीढ़ियां उत्पन्न हुईं वे कम ऊर्जा के उपभोग पर जिंदा रह पाने की बाध्यता के चलते आकार में छोटे होते गये। उनकी लंबाई अधिकतम एक मीटर और वजन 25 किलो तक होता था। इसके बावजूद वे हाथियों का शिकार तक करने में सक्षम थे.. यह बात और है कि अनुकूलन की दृष्टि से हाथी भी बौने ही होते थे।

      अब उन्हें ले कर क्या यह दावा किया जा सकता है कि अगर वे बौने होमो फ्लोरेसिएंसिस हमारे ही भाई बंधु थे तो दुनिया में अब लंबे चौड़े इंसान क्यों हैं.. दुनिया के सारे ही इंसान उनके जैसे बौने क्यों न हो गये?

      इवाॅल्यूशन कैसे होता है

      इसे एक और उदाहरण से समझिये.. मान लीजिये कि एक कबूतर है, जिसके बारे में आपको पता है कि वह उड़ता है जिससे न सिर्फ वह भोजन हासिल करता है बल्कि शिकारी पक्षियों से भी बचता है। अब सपोज वह किसी ऐसे आईलैंड पर पहुंच जाता है जहां कोई दूसरा प्रतियोगी नहीं है और न ही उसका कोई प्राकृतिक शिकारी है। खाना बेशुमार उपलब्ध है और उसके लिये उड़ने की जरूरत ही नहीं। अब उसके लिये उड़ने की जरूरत खत्म हो जायेगी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह इनफार्मेशन जेनेटिकली उसके डीएनए के जरिये आगे कैरी होती रहेगी कि अब खतरों से बचने या भोजन पाने के लिये उड़ने की जरूरत ही नहीं।

      तो इस दशा में कुछ सौ साल में उसकी काया ही बदल जायेगी। भरपूर खुराक और सुरक्षित जीवन उसे बेहतर ढंग से पनपने का मौका देगा और वह आकार प्रकार में कबूतर से काफी बड़ा और कुछ हद तक अलग हो जायेगा। उसके पंख उड़ने लायक नहीं रहेंगे बल्कि मुर्गी या शुतुरमुर्ग जैसी अवस्था में पहुंच जायेंगे। तब कोई खोजी अगर यह कहेगा कि वह कबूतर है तो आप क्या उससे यह कहेंगे कि चूंकि आपकी धार्मिक किताबों में ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता तो आप ऐसा नहीं मानते। अगर ऐसा होता तो बाकी कबूतर अब तक वैसे उड़ने वाले क्यों हैं, सारे कबूतर वैसे ही लोंदे क्यों न हो गये।

      तो कुल मिलाकर आपकी धार्मिक किताबों में क्या लिखा है, उस पर आपकी कितनी आस्था है.. वह आपका अपना निजी विषय है लेकिन उन चीजों को आधार बना कर जब आप किसी स्थापित फैक्ट का मजाक उड़ा रहे होते हैं तो दरअसल आप खुद अपना ही मजाक उड़ा रहे होते हैं।

      इंसान और पिरामिड

      अगर इंसान खत्म हो जाये तो क्या होगा

      आज हम इंसान संख्या में इतने हैं कि हमने पृथ्वी के चप्पे-चप्पे को कवर कर रखा है और इतना वैज्ञानिक विकास कर चुके हैं कि जमीन से ले कर अंतरिक्ष तक अपने एग्ज़िस्टेंस के निशान छोड़ रखे हैं लेकिन यूनिवर्स के टाईम स्केल पर क्या यह काफी है? आइये इसे कुछ संभावनाओं के आधार पर परखते हैं।

      दो तरह की संभावनाओं की कल्पना कीजिये.. पहली कि किसी अनकंट्रोल्ड वायरस का शिकार हो कर दो तीन साल में सारी इंसानी आबादी खत्म हो जाती है तो आगे क्या होगा। सबसे पहला प्रभाव यह होगा कि मनुष्य के नियंत्रण में चलने वाली सभी चीजें बेलगाम हो जायेंगी, धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी से कृत्रिम लाईट गायब हो जायेगी, उसके सोर्स ढह जायेंगे.. इनमें ढह कर पूरी तरह खत्म होने में सबसे ज्यादा समय न्युक्लीअर पाॅवर प्लांट और उसका कचरा लेंगे, लेकिन पचास हजार साल में इस तकनीक की हर पहचान मिट जायेगी।

      insan aur Pyramid

      जो भी जानवर इंसान ने पालतू बनाये थे, वह भूख और शिकारी जानवरों के हाथ मारे जायेंगे और जो गिने चुने बचे रह सके वे इवाॅल्व हो कर अपने जंगली पूर्वजों के रूप में ढल जायेंगे। हमारी पहचान बताने वाली प्लास्टिक भले डीकम्पोज हो कर मिट्टी, पानी बनने में पचास हजार साल ले ले लेकिन वह भी मिट जायेगी। साधारण घर, गलियां, सड़कें सौ सालों में ही पेड़ पौधों के आगे सरेंडर कर के प्रकृति का हिस्सा हो जायेंगे। बड़े आलीशान निर्माण भले तीन सौ साल ले लें लेकिन अंततः वे भी इस परिणति को प्राप्त होंगे। मेटल से सम्बंधित निर्माण भी हजार साल के अंदर प्रकृति का हिस्सा हो जायेंगे और गीजा के पिरामिड जैसे पत्थरों वाले निर्माण भले पचास हजार साल से ज्यादा वक्त ले लें लेकिन एक दिन वे भी अपनी पहचान खो देंगे। सिर्फ एक लाख साल में वह सबकुछ मिट जायेगा जो इस प्लेनेट पर हमारे होने की पहचान है।

      इंसान के न रहने से कार्बन उत्सर्जन एकदम बंद हो जायेगा जिसका प्रभाव यह होगा कि देर सवेर बनने वाली स्थितियों से आइस एज शुरू हो जायेगी और वन्य जीवन खत्म होने लगेगा.. अब हमारा नजदीकी रिश्तेदार एप्स चूंकि अक्ल रखता है तो वह हो सकता है कि आग को पैदा करना और साधना सीख ले और बर्फ की दुनिया में सर्वाइव कर सकने वाले जीवों को शिकार कर के खुद को पालना शुरू कर दे और जब लाखों साल बाद यह आईस एज खत्म हो तो वह इवाॅल्व हो कर प्री ह्यूमन की स्टेज तक पहुंच चुका हो और फिर अगले पच्चीस तीस लाख सालों में इंसान बनने तक का सफर तय करे और उस वक्त के इंसान ठीक वही सोचेंगे जो हम सोचते हैं यानि कि हम ही पृथ्वी की पहली इंटेलिजेंट सिविलाइजेशन हैं।

      अगर पृथ्वी से जीवन ही खत्म हो जाये तो क्या होगा

      जबकि इंसानों के खत्म होने की दूसरी संभावना यह है कि अगर किसी नजदीक के तारे के सुपरनोवा से पैदा कास्मिक वेव पूरी पृथ्वी को जला दे, या कोई एस्टेराईड सीधा धरती से आ टकराये तो उस इम्पैक्ट से पैदा प्रभाव खुश्की के सारे जीवन को खत्म कर देगा। इस थ्रस्ट से जगह-जगह क्रस्ट टूटेगा और ज्वालामुखी भी उबल पड़ेंगे और फिर इस जमीन पर ऐसा कुछ भी नहीं बचेगा जो हमारी पहचान है और अगले एक दो करोड़ साल तक पृथ्वी एक बेजान, बंजर ग्रह बन के रह जायेगी और फिर भी अगर हैबिटेबल जोन में बनी रही तो एक दो करोड़ साल बाद समुद्रों के जरिये एक कांपलेक्स लाईफ इवाॅल्व होगी जो इंटेलिजेंट लाईफ में कनवर्ट होने के बाद यही सोचेगी कि हम इस ग्रह की पहली बुद्धिमान सभ्यता हैं जबकि यह सच नहीं होगा।

      Insan aur Pyramid

      यह तब की बात है जब हम इतने आधुनिक हो चुके लेकिन सोचिये कि इंसान अगर दस-बीस हजार साल पहले की अवस्था में होता और उसने सभी जरूरी खोजें कर ली होतीं और फिर कोई वायरस या कोई रेडियेशन टाईप इफेक्ट उस सिविलाइजेशन को 99% खत्म कर देता और बस एक पर्सेंट वह लोग बचते जो कहीं ऐसे दूर दराज के इलाकों में रह रहे होते जो अप्रभावित रहता और फिर आगे उनसे दूसरी नस्लें पनपतीं जो वैज्ञानिक ज्ञान में जीरो होतीं तो दस हजार साल बाद हम यही सोचते कि हम तो आदिमानवों से यहाँ तक पहुंचे हैं, भला अतीत में हमारे ही पूर्वज हमसे ज्यादा चतुर और ज्ञानी कैसे हो सकते थे, यह जरूर किन्हीं एलियन का प्रभाव होगा जबकि यह सच नहीं होता।

      पिरामिड ऐसी ही किसी सभ्यता की पहचान हो सकते हैं जिसने वायरलेस इलेक्ट्रिसिटी के उत्पादन के लिये पाॅवर प्लांट के रूप में इन्हें बनाया था और यह सिर्फ मिस्र में नहीं थे बल्कि अमेरिका से ले कर अंटार्कटिक तक में थे जो तब साउथ पोल पर नहीं था.. फिर वह सभ्यता लुप्त हो गयी। पिरामिड के जिन विशाल पत्थरों को ले कर हम सोचते हैं कि वे उस जमाने में बिना क्रेन की मदद कैसे इतने ऊपर ले जाये गये होंगे तो हो सकता है वे सिर्फ मटेरियल ले जाते रहे हों और उन्हें उनकी जगह ही सांचे में बनाया गया हो। इस बात के सबूत भी ढूंढे जा चुके हैं।

      क्या इंसान पृथ्वी की पहली सभ्यता है

      कहने का मतलब यह कि पृथ्वी की उम्र कितनी भी हो लेकिन जीवन पनपने लायक स्थितियां यहाँ करोड़ों सालों से हैं और हम अपने से पहले यहाँ जीवन के सिर्फ एक साइकल को जानते हैं, डायनासोर काल के रूप में जो लगभग सत्रह करोड़ साल तक रहे.. हकीकत यह है कि उससे पहले भी ढेरों सभ्यतायें रही और मिटी हो सकती हैं और उनके बाद भी। हम इंसान का अतीत ढूँढने पच्चीस लाख साल से पहले नहीं जा सकते जबकि डायनासोर युग को खत्म हुए छः करोड़ साल गुजर गये।

      Insan and Pyramid

      तब पृथ्वी जीवन के लायक नहीं बची थी लेकिन वापस जीवन पनपने लायक स्थितियों के लिये इसने सपोज एक करोड़ साल का भी वक्त लिया था तो भी बीच में साढ़े चार करोड़ साल का बहुत लंबा पीरियड मिसिंग है.. इस पीरियड में भी जाने कितनी सभ्यतायें पनपी और विलुप्त हुई हो सकती हैं। कोई विकास के पैमाने पर वहां तक पहुंची हो सकती है जहां हम दस हजार साल पहले थे तो कोई वहां तक पहुंची हो सकती है जहां हम आज है और कोई वहां तक पहुंची भी हो सकती है जहां हम सौ या हजार साल बाद होंगे।

      हमारे पास जमीन में दफन फाॅसिल्स के सिवा यह सब जानने का कोई जरिया भी नहीं लेकिन हर जगह खुदाई तो नहीं की जा सकती और फिर हम एक्टिव ज्योलाॅजी वाले ग्रह पर रहते हैं जहाँ सबकुछ बदलता रहता है। पुरानी जमीन रीसाइक्लिंग के लिये नीचे जाती रहती है और नयी जमीन बनती रहती है। जमीन और समंदर जगह बदलते रहते हैं.. तो इन सबूतों को ढूंढ पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है।

      क्या एलियन भी हमारी ही पिछली सभ्यता थे

      और हाँ.. यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि सभी सभ्यतायें दिखने में इंसान जैसी ही हों, जैसे कभी छिपकली इवाॅल्व हो कर डायनासोर हो जायेगी तो कभी एप्स इवाॅल्व हो कर इंसान, वैसे ही डाॅल्फिन जो काफी समझदार होती है, वह इवाॅल्व हो कर वैसी हो सकती है जैसी हम एलियन की कल्पना करते हैं या पिरामिड के पास हमें कुछ उकेरे गये चित्र मिले थे। हो सकता है कि वह पिछली एडवांस सभ्यता के वे बचे खुचे लोग सेपियंस के साथ ठीक उसी तरह एग्जिस्ट कर रहे हों जैसे एक ही समय सेपियंस, डेनिसोवा और नियेंडरथल्स एग्जिस्ट कर रहे थे लेकिन आगे उनका वजूद खत्म हो गया हो।

      Insan And Pyramid

      इसकी तुलना इंसानों के खात्मे की पहली संभावना वाले ट्रैक पर कीजिये जहाँ कुछ इत्तेफाकन बचे रह गये इंसान हिमयुग में सर्वाइव करते एप्स के साथ सह अस्तित्व स्थापित करते हैं, उन्हें आग, शिकार, सुरक्षित निर्माण का ज्ञान देते हैं और कुछ पीढ़ियों के बाद खत्म हो जाते हैं और आगे दो तीन लाख साल बाद इवाॅल्व हुई उन्हीं एप्स की आधुनिक पीढ़ियां सोचती हैं कि सर्वाइवल से सम्बंधित इतने महत्वपूर्ण सिद्धांत उनके एप्स पुरखों ने हासिल किये थे जबकि हकीकतन उस ज्ञान का सोर्स वर्तमान इंसान होंगे।

      Written By Ashfaq Ahmad

      टाईम/समय

      समय क्या है 

      जब छोटा था तब यह दो लाईनें बहुत बार सुनी थी जिनमें एक थी कि जब कुछ नहीं था तब समय भी नहीं था। दूसरी कि बिगबैंग से पहले समय का अस्तित्व नहीं था। यह बात सुनने में भी अजीब लगती है कि समय नहीं था.. भला यह कैसे मुमकिन है? मतलब ठीक है हम नहीं थे, चलिये पृथ्वी भी न रही होगी लेकिन समय तो चल ही रहा था। बिगबैंग से पहले ठीक है पूरा यूनिवर्स एक सिंगुलैरिटी पर बज कर रहा था लेकिन जितने वक्त तक यह उस अवस्था में रहा था, वह पीरियड भी तो कहीं समय से ही मापा गया होगा।

      समय का मतलब घड़ी या घड़ी की टिकटिक नहीं है, समय का मतलब एक काल या अवधि है जिसे हम घड़ी की टिकटिक से मापते हैं। मसलन पृथ्वी को अपनी धुरी पर घूमने को हम चौबीस घंटे के एक दिन के रूप में कैलकुलेट करते हैं, या चांद के पृथ्वी का एक चक्कर लगाने की अवधि को महीने के रूप में परिभाषित करते हैं या पृथ्वी के सूर्य का एक चक्कर लगाने की ड्यूरेशन को साल के रूप में जोड़ते हैं और इस पृथ्वी से परे इस तरह की जितनी गणनायें हम करते हैं वे पृथ्वी के हिसाब से ही करते हैं जबकि उन ग्रहों पर वे गणनायें उनके हिसाब से होंगी।

      सबसे फसादी तो समय की परिभाषा है कि यह है क्या.. यह जो हर गुजरता पल है, हम इसे ही समय के रूप में जानते हैं और इसे भूत, वर्तमान और भविष्य के रूप में बांटते हैं लेकिन यह एक दूसरे फ्रेम में भ्रम पैदा कर देता है.. मसलन हमारा दिमाग कहता है कि हम अपनी घड़ी देख कर जितने पल में एक लाईन बोलते हैं, ठीक उतने ही पल में इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी वह लाईन बोल सकते हैं और यह दोनों जगह के पल समान रूप से गुजरने चाहिये जबकि ऐसा होता नहीं है और एक सामान्य बुद्धि के लिये यहीं सबसे बड़ी उलझन खड़ी हो जाती है कि ऐसा क्यों नहीं है, समय यानि गुजरते पल तो हर दशा में समान ही होने चाहिये। यानि अगर आपने दस सेकेंड में मेरी पोस्ट का एक पैरा पढ़ा तो हर जगह आपको दस सेकेंड ही लगने चाहिये और यहाँ और वहां के दस सेकेंड समान ही होने चाहिये।

      समय सभी जगह एक समान नहीं होता

      एक उदाहरण से समझिये.. सपोज आपने टेली पोर्टेशन की तकनीक विकसित कर ली है और माईक्रो सेकेंड में आप इंटर गैलेक्टिक यात्रा कर सकते हैं। अब यहां पृथ्वी पर बैठ कर अपने भाई को बोलिये कि वह पांच मिनट में पूरा हो सकने वाला गाना गाये, और फिर खुद यहाँ से दूर किसी गैलेक्सी में किसी मैसिव प्लेनेट या ब्लैक होल के इवेंट होराइजन में (कल्पना के लिये) ट्रांसमिट हो जाइये और पांच मिनट वाले उसी गाने को गाइये और वापस आ जाइये। आपको क्या लगता है, दोनों भाइयों ने एक समय पर गाना खत्म किया है?

      जी नहीं.. घड़ी या गुजरने वाले पलों के हिसाब से तो आपने एक ही ड्यूरेशन में गाने के टास्क को पूरा किया है लेकिन आपके भाई को गाना गाये सात-आठ महीने या एक साल हो चुका है और इस बीच उसने अनगिनत पल गुजार डाले हैं। चौंक गये न.. बस यहीं समय की सच्चाई समझ में आती है। इसके साथ ही चाहें तो एक और प्रयोग कर लें कि फिर दोनों भाई पांच मिनट के गाने वाले टास्क को फिर करें और इस बार आप एक ऐसे यान में शिफ्ट हो जायें जो लाईट की 99% स्पीड से चल रहा है और अपना टास्क पूरा करके वापस आ जायें.. आप पायेंगे कि भाई को टास्क पूरा किये अरसा हो गया और आपने जस्ट पूरा किया है।

      इससे एक बात पता चलती है कि जैसा एक सामान्य दिमाग सोचता है कि समय यानि गुजरते हुए पल सभी जगह समान रूप से गुजर रहे हैं जबकि वाकई में ऐसा नहीं है और यह समय अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग गुजर रहा है यानि सबका समय अलग है.. अब अगर अलग है तो फिर इसका शुरू या खत्म होना भी मुमकिन है और यह संभावना ही इस बात की तस्दीक कर देती है कि बिगबैंग से पहले समय का अस्तित्व नहीं था। या जब कुछ नहीं था तब समय भी नहीं था।

      चलिये इसे थोड़ा और आसान कर के समझते हैं। समय की अगर कोई शुद्ध परिभाषा पूछे तो बताना टेढ़ी खीर है लेकिन यह दरअसल बदलाव है, बदलाव मतलब चेंज। हर नैनो सेकेंड होता बदलाव ही समय है, यूनिवर्स में हर चीज गति कर रही है और गति मतलब हर क्षण परिवर्तन हो रहा है, कहीं भी कुछ भी स्थिर नहीं है। यूनिवर्स खुद हर पल एक्सपैंड हो रहा है, सभी क्लस्टर हर सेकेंड गति करते जगह बदल रहे हैं, इनके अंदर मौजूद गैलेक्सीज लगातार जगह बदल रही हैं, अपनी मिल्की वे 825000 की रफ्तार से मूव हो रही है, अपनी पृथ्वी 10700 की स्पीड से दौड़ती जा रही है और दौड़ने के साथ ही 1670 की स्पीड से घूम भी रही है।

      कहीं भी कुछ भी स्थिर नहीं है, आप चाह कर भी इसे रोक नहीं सकते, आपके आसपास हर सेकेंड परिवर्तन हो रहा है.. आप एकदम स्टैचू खड़े हैं तब भी आपके आसपास वातावरण में मौजूद गैस के कण मूव कर रहे हैं (कभी किसी बंद जगह में बाहर से आती गति में मोटे कणों का मूवमेंट देखिये), अगर किसी तकनीक से इन्हें भी स्थिर कर दें तो भी हर एटम के अंदर मौजूद इलेक्ट्रॉन गति करते रहेंगे.. यानि ‘फ्रीज’ की अवस्था आप चाह कर भी नहीं पैदा कर सकते।

      यही हर पल होता चेंज असल में समय है और यह शुरू कब हुआ? बिगबैंग के साथ, उससे पहले चूंकि यूनिवर्स का सारा मैटर एक सिंगुलैरिटी पर स्थिर था तो कोई चेंज कहीं नहीं घट रहा था। चेंज नहीं हो रहा था मतलब समय का अस्तित्व नहीं था, बिगबैंग के साथ ही यह परिवर्तन शुरू हुआ और तभी यह कहा जाता है कि समय का अस्तित्व बिगबैंग के बाद हुआ।

      समय गति और ग्रेविटी से प्रभावित होता है

      अब यह अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग कैसे गुजरता है, इसे हवा को माॅडल बना के समझिये। हवा और पृथ्वी एक ही है लेकिन तीन प्वाइंट पकड़िये, जिनमें एक जगह हवा पचास किमी की गति से चल रही है, दूसरी जगह सौ की स्पीड से और तीसरी जगह दो सौ की स्पीड से.. अब तीनों जगह चुटकी से पाउडर उड़ाइये। आप पायेंगे कि घड़ी के हिसाब से सेकेंड बराबर गुजरे हैं मगर तीनों जगह पाउडर ने उतने ही वक्त में अलग-अलग दूरी तय की है। यही अलग-अलग समय का गणित है।

      यानि यह इस चीज पे डिपेंड करता है कि किसी ऑब्जेक्ट के आसपास यह समय रूपी परिवर्तन दरअसल किस गति से हो रहा है और तय करता है उस ऑब्जेक्ट का माॅस+ग्रेविटी। यानि जितना ज्यादा माॅस होगा, उसके आसपास परिवर्तन उसके हैवी आकर्षण के कारण उतनी ही धीमी गति से घटेगा। जैसे अपने ही सौरमंडल में पृथ्वी चूंकि जूपिटर के मुकाबले कम माॅस रखती है तो यहाँ जो परिवर्तन होगा वह जूपिटर के मुकाबले तेज होगा, जबकि जूपिटर पर वह धीमी गति से घटेगा। तो घड़ी के हिसाब से आप भले अपने भाई के साथ एक ही टाईम में जूपिटर पे जा कर पांच मिनट वाले गाने का टास्क करें मगर जब पृथ्वी पर वापस आयेंगे तो भाई को गाना खत्म हुए टाईम हो चुका होगा, जबकि आप बस अभी फिनिश कर के लौटे होंगे।

      इस परिवर्तन पर दो चीजें असर डालती हैं.. माॅस+ग्रैविटी और गति। गति मतलब आप जितनी गति से मूव कर सकते हैं, आपके लिये परिवर्तन उतना ही स्लो हो जायेगा। मतलब अगर आप लाईट स्पीड वाले यान में बैठ कर सफर करें तो आपके लिये समय धीमी गति से गुजरेगा जबकि आपके अकार्डिंग पृथ्वी पर रहने वाले आपके भाई का काफी तेज गुजरेगा। यानि आप उस यान से कुछ सालों में मिल्की वे टहल कर जब वापस आयेंगे तो पायेंगे कि आपका भाई बूढ़ा हो चुका है।

      Written by Ashfaq Ahmad

      ग्रेविटी

      ग्रेविटी क्या है 

      टाईम के बाद यह भी एक बहुत कांपलीकेटेड चीज है जिसे एक आम इंसान के लिये समझ पाना मुश्किल होता है। ज्यादातर लोग इसे सिर्फ इस हद तक समझ पाते हैं कि हर पिंड में (उदाहरणार्थ: पृथ्वी) एक चुंबकीय शक्ति होती है जो अपने आसपास की चीजों को अपने से बांध कर रखती है, यह कम या ज्यादा भी हो सकती है, जैसे पृथ्वी की 9.8 समथिंग है तो जूपिटर की 24.79 है, यह एक्चुअल में एक्सिलरेशन रेट होता है और इसे मीटर पर स्क्वायर सेकेंड से मापा जाता है। यूनिवर्स में हर वह ऑब्जेक्ट जो कुछ न कुछ माॅस रखता है, उसमें ग्रेविटी होती है और हर भारी ऑब्जेक्ट अपने से हल्के ऑब्जेक्ट को अपनी तरफ कम या ज्यादा गति से खींचता है।

      आम धारणा के मुताबिक़ यह ब्रह्मांड की चार फंडामेंटल फोर्सेज में से एक है लेकिन अब इस धारणा को चुनौती मिलने लगी है और हो सकता है कि अगले एक दो दशक में इसे पैदा की जा सकने वाली फोर्स के रूप में स्थापित कर दिया जाये जो किसी तरह की एन्ट्राॅपी के अगेंस्ट पैदा होती है। न्यूटन को इसकी पहचान के जनक के रूप में जरूर जाता है लेकिन सही मायने में इसे आइंस्टाइन ने ही एक हद तक पूर्णता प्रदान की थी। यह न सिर्फ स्पेस को इफेक्ट करती है, बल्कि टाईम पर भी सीधा असर डालती है। मतलब किसी पिंड की ग्रेविटी पृथ्वी से सौ गुनी हो तो पृथ्वी के मुकाबले सौ गुना ज्यादा आकर्षण पैदा करेगी और इसकी वजह से आसपास का चेंज बेहद शिथिल गति से सम्पन्न होगा, जिसे सामान्य भाषा में हम कह सकते हैं कि पृथ्वी के मुकाबले वहां वक्त बेहद धीमा होगा।

      अब यह बनती कैसे है.. इसका मुख्य आधार है डेंसिटी यानि घनत्व, यह कैसे तय होता है? यह तय होता है वाल्यूम और माॅस से। यानि किसी वाॅल्यूम में कितना माॅस है, उससे डेंसिटी तय होगी। उदाहरणार्थ, एक क्रिकेट स्टेडियम में बाईस खिलाड़ी खेल रहे हैं और दूसरे क्रिकेट स्टेडियम में भरे हुए ग्राउंड में कोई राॅक कंसर्ट हो रहा है, यहाँ स्टेडियम वाॅल्यूम है और वहां मौजूद लोग माॅस.. तो एक ऑब्जेक्ट के तौर पर खेल वाले स्टेडियम की डेंसिटी कम होगी और शो वाले स्टेडियम की डेंसिटी बहुत ज्यादा होगी। ज्यादा डेंस स्टेडियम ज्यादा ग्रेविटी भी पैदा करेगा। किसी पिंड को वाॅल्यूम मानेंगे तो उसे मनाने वाले मैटर या एटम्स को माॅस।

      मॉस ग्रेविटी का सबसे अहम पहलू है

      इसे पानी के जरिये समझ सकते हैं, एक किलो का बांट लीजिये और एक किलो वजन की कोई लकड़ी, दोनों को पानी में डालिये। समान वजन होते हुए भी लकड़ी तैर जायेगी और बांट डूब जायेगा.. क्यों? क्योंकि डेंसिटी मैटर करती है, बांट यानि कम जगह में ज्यादा एटम्स और लकड़ी यानि ज्यादा जगह में कम एटम्स। दस लोगों के खड़े हो सकने लायक कमरे में मात्र चार लोग खड़े होना और उसी कमरे में सौ लोगों को घुसा देना.. यह माॅडल है डेंसिटी का। यानि अगर आप एक विशाल समुद्र का प्रबंध कर सकें तो अपने सोलर सिस्टम के दूसरे सबसे बड़े ग्रह शनि को भी उसमें तैरा सकते हैं क्योंकि शनि की डेंसिटी (0.687 ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर) पानी से कम है।

      पानी की डेंसिटी एक ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर होती है, यानि एक सेंटीमीटर के क्यूब में आप जितना पानी भरेंगे वह एक ग्राम ही होगा। पृथ्वी पर सबसे डेंस मटेरियल ऑस्मियम है जो लोहे से भी तीन गुना भारी होता है यानि एक ही साईज शेप के आप ऑस्मियम और आइरन के एक किलो के बांट बनायें तो ऑस्मियम के एक बांट के बराबर वजन पाने के लिये लोहे के वैसे ही तीन बांट लगेंगे। अब यूनिवर्स के हिसाब से देखें तो सबसे डेंसर ऑब्जेक्ट वाईट ड्वार्फ स्टार, न्यूट्रान स्टार और ब्लैकहोल होते हैं जो किसी तारे के मरने पर बनते हैं।

      सूर्य के आकार का कोई तारा जब न्युक्लीअर फ्यूजन के खत्म होने पर मरता है तो वह अपने अंदर के सभी एटम्स को ग्रेविटी की वजह से अंदर ही समेटना शुरू कर देता है, कोई भी परमाणु अंदर से नाइंटी नाईन+ पर्सेंट खाली होता है जिसके अंदर का खालीपन उस कंप्रेसन की अवस्था में खत्म होने लगता है और अंदर मौजूद प्रोटान, न्यूट्रान और इलेक्ट्रान और पास होने लगते हैं। इससे तारे का वाल्यूम बेहद कम हो जाता है और माॅस वही रहता है जिससे उसकी ग्रेविटी बढ़ जाती है। इसे ही वाईट ड्वार्फ स्टार कहते हैं जबकि अपने सूर्य से बीस गुना भारी तारा जब अपनी कोर पर कोलैप्स हो कर अंतिम हद तक कंप्रेस्ड हो कर सुपरनोवा विस्फोट करता है तो संभावना इस बात की रहती है कि बीस से तीस गुना भारी तक भारी है तो न्युट्रान स्टार बनेगा और उससे ज्यादा माॅस वाला हुआ तो ब्लैकहोल बन जायेगा।

      अब इन न्यूट्रान स्टार्स की डेंसिटी इतनी होती है कि एक चम्मच मैटर भी अगर किसी प्लेनेट पर गिरे तो सुराख करता निकल जायेगा यानि एक चम्मच मैटर का वजन भी कई खरब किलो होगा। पृथ्वी के सबसे पास देखें तो PSR J0108-1431 नाम का न्युट्रान स्टार है जिसका डायमीटर 25-20 किलोमीटर ही है लेकिन इसकी डेंसिटी 1000 खरब ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर है। अगर इसे उठा कर हम अपने सोलर सिस्टम में रख दें तो तुरंत पूरे सोलर सिस्टम को खा जायेगा, सूर्य तक इसके ग्रेविटेशनल पुल से नहीं बच सकता। इससे ज्यादा डेंस बस ब्लैकहोल ही होता है जिसमें सारा माॅस एक सिंगुलैरिटी पर इकट्ठा होता है जिसका कोई वाॅल्यूम ही नहीं होता, इसलिये यह ब्रह्मांड की सबसे डेंसर, सबसे मैसिव चीज होती है।

      वैसे यूनिवर्स की डेंसिटी क्या है जो यहाँ कोई ग्रेविटी ही नहीं और चीजें बस तैर रही हैं.. इतनी कम कि आप हैरान रह जायेंगे। इस यूनिवर्स का जो माॅस (सभी प्रकार के पिंड) है उसके हिसाब से जितना आकार (वाॅल्यूम) है वह ठीक ऐसा है जैसा पचास हजार की क्षमता वाले स्टेडियम में मात्र चार दर्शक बैठे हों। यानि एक सेंटीमीटर की क्यूब में आप यूनिवर्स लेंगे तो मात्र पांच एटम आयेंगे जबकि उतने ही क्यूब में लिये पानी में टेन टु द पाॅवर ट्वेंटी थ्री ( एक के बाद तेईस जीरो) एटम्स होते हैं, यानि शुद्ध भाषा में खरबों एटम्स।

      ग्रेविटी के कम या ज्यादा होने का हम पे क्या असर पड़ेगा

      इसका आपके लिये क्या महत्व है? इसे तीन तरह से समझ सकते हैं कि किसी न्यूट्रान तारे जैसे डेंस ऑब्जेक्ट की तरफ आप जाते हैं तो इसकी जद में आते ही यह आपको अविश्वसनीय गति से अपनी ओर खींचेगा, और लैंड से पहले ही आपके परखच्चे उड़ा देगा और अगर किसी सुरक्षित टेक्निक से इसके सर्फेस पर लैंड भी कर जाते हैं तो तत्काल जमीन से ऐसे चिपक जायेंगे जैसे आपके ऊपर सौ हाथी लाद दिये गये हों। आपके एटम्स टूट जायेंगे और बिना किसी दिखने वाले दबाव के ही आप पापड़ की तरह जमीन से चिपक जायेंगे। इसका यह मतलब भी होता है कि किसी जूपिटर जैसे ज्यादा ग्रेविटी वाले प्लेनेट पर भी लैंड होते ही आपके परखच्चे उड़ जायेंगे।

      और अगर प्लेनेट की ग्रेविटी हमारे आसपास हो तो? किसी कम ग्रेविटी वाले सर्फेस पर आप का वजन बहुत कम हो जायेगा, संतुलन बनाने में मुश्किल होगी, चलने के बजाय जंप करेंगे तो देर सवेर इवाॅल्यूशन होगा और दुम उग सकती है तथा वजन बढ़ाने के चक्कर में साईज भी बढ़ जायेगा और उम्र और एबिलिटी भी… थोड़ी ज्यादा ग्रेविटी वाले प्लेनेट पर आपका वजन बढ़ जायेगा, खड़े होना त्यागना पड़ेगा और इवाॅल्यूशन की सूरत में अगली नस्लें चौपाये के रूप में पनपेंगी जो जमीन के नजदीक रहें, या रेंगने वाली प्रजाति के रूप में भी इवाॅल्व हो सकते हैं।

      एक सस्ते साइंटिस्ट वाले अंदाज में समझना चाहते हैं तो एक साईज के दो डिब्बे लीजिये, नाम रखिये लोल, लाफ.. अब प्लास्टिक बाॅल्स से उन्हें भरिये। एक में ऐसे ही और दूसरे में बाॅल्स फोड़ कर, किसी हथौड़े से क्रश्ड कर के। आप पायेंगे कि दोनों डिब्बे एक जैसे और समान रूप से भरे हैं लेकिन लोल में दस ही बाॅल्स आ पाईं जबकि लाफ में सौ से ज्यादा और लोल के मुकाबले लाफ का वजन काफी बढ़ गया। यही डेंसिटी है.. लाफ का माॅस ज्यादा है तो वह ज्यादा ग्रेविटी पैदा करेगा जबकि लोल की ग्रेविटी काफी कम होगी।

      यह ग्रेविटी स्पेस या टाईम पे कैसे असर डालती है, इसे सस्ते माॅडल से समझने के लिये एक चादर हवा में तानिये, तीन अलग जगहों पर प्लास्टिक बाॅल, लेदर बाॅल और एक लोहे की बाॅल डालिये। आप देखेंगे कि सभी बाॅल्स चादर में अलग-अलग गहराई के गड्ढे बना रही हैं। अब छर्रों के आकार की ढेरों गोलियां पूरी चादर पर बिखेर दीजिये.. प्लास्टिक बाॅल के पास सबसे कम गोलियां इकठ्ठा होंगी और लोहे की बाॅल के पास सबसे ज्यादा। यह स्पेस को प्रभावित करना है.. यानि यह हमारे सोलर सिस्टम में जूपिटर जैसे मैसिव प्लेनेट के होने जैसा है जो स्पेस से आने वाले ज्यादातर आवारा पिंडों को अपने आकर्षण (ज्यादा ग्रेविटी) से अपनी ओर खींच लेता है और पृथ्वी को एक अदृश्य सुरक्षा कवच प्रदान करता है।

      अब चादर को कंपन दीजिये या एक साईड से हवा कीजिये तो पायेंगे कि प्लास्टिक बाॅल के पास वाली गोलियां तत्काल और ज्यादा प्रभावित हुईं जबकि आइरन बाॅल के पास वाली गोलियां सबसे कम। क्यों? क्योंकि उसका आकर्षण बल ज्यादा स्ट्रांग है, वह अपने आसपास के वातावरण में होने वाले परिवर्तन को लगभग थामे हुए है। यह परिवर्तन समय है जो पिंड के आसपास मौजूद वातावरण में होने वाले परिवर्तन की गति के हिसाब से कहीं तेज चल रहा है तो कहीं धीमा और इस तरह से ग्रेविटी समय को भी प्रभावित कर रही है। किसी ब्लैकहोल के आसपास समय इसीलिये बेहद धीमा होता है और अंदर लगभग थमा हुआ।

      Written by Ashfaq Ahmad

      वीनस/शुक्र ग्रह

      शुक्र ग्रह क्या है  

      हमारे सोलर सिस्टम में आठ ग्रह हैं लेकिन बाकी सोलर सिस्टम के फार्मेशन के हिसाब से वैज्ञानिकों को लगता है कि हमारे पास एक ग्रह और होना चाहिये जिसे वे मिसिंग प्लेनेट, सुपर अर्थ या प्लेनेट नाईन वगैरह कहते हैं और जिसकी लोकेशन नेप्चून के पीछे अंधेरे बर्फीले भाग में मानते हैं जिसे सूरज की रोशनी में देखा नहीं जा सकता.. इसलिये इसे मेन डिस्कोर्स से बाहर रखा जाता है।

      आठ में जो सूरज के सबसे पास है वह मर्करी या बुध है, जो बहुत छोटा है.. बेहद पतला वायुमंडल है और बहुत वीक मैग्नेटिक फील्ड है जिससे सोलर रेडिएशन सीधा सतह तक पहुंचता है। इसके अपने एक्सिस पर घूमने की गति बेहद स्लो है और इसके लगभग पौने दो साल में एक दिन हो पाता है, जिससे एक हिस्से में लंबे वक्त तक काफी गर्मी जबकि दूसरे में काफी सर्दी रहती है।

      वैज्ञानिकों की दिलचस्पी वीनस यानि शुक्र ग्रह में ज्यादा रहती है। यह पृथ्वी का जुड़वां भाई था, मतलब इसका सबकुछ पृथ्वी जैसा था और इस पर भी नदियां समंदर हुआ करते थे। वैज्ञानिक इसके वर्तमान में पृथ्वी का फ्यूचर तलाशते हैं।

      पृथ्वी और वीनस ने अतीत में दो दूसरे प्लेनेट्स की टक्कर झेली थी जिसमें पृथ्वी तो उस टक्कर से संवर गयी जबकि वीनस बर्बाद हो गया। पृथ्वी से टक्कर इसकी रोटेशन की दिशा के अनुरूप हुई थी जबकि वीनस की उलट और इस वजह से वीनस थम कर उल्टी दिशा में घूम गया।

      यह सोलर सिस्टम का अकेला ऐसा ग्रह है जहां पश्चिम से सूरज निकलता है लेकिन इसका एक दिन हमारे हिसाब से 243 दिन का होता है जबकि यह अपना साल 225 दिन में पूरा कर लेता है।

      उस प्लेनेटरी टक्कर से इसके दो बड़े नुकसान हुए, एक तो इसकी मैग्नेटिक फील्ड खत्म हो गयी, जिससे यह सूरज की रेडियेशन की चपेट में आ गया और दूसरे इस टक्कर से इसका मैग्मा जगह-जगह उबल पड़ा और पूरा वातावरण कार्बन डाई ऑक्साइड से भर गया।

      समुद्र इवैपरेट हो कर वायुमंडल में पहुंच गये और चूंकि मैग्नेटिक फील्ड नहीं बची थी तो सूरज की गर्मी ने सारा पानी स्पेस में उड़ा दिया। वातावरण में शुद्ध कार्बन गैस बचीं जिससे सूरज की गर्मी अंदर जा कर बाहर नहीं निकल सकती थी।

      ऐसा होने की एक तीसरी वजह थी कि उस टक्कर के दौर में यह भले हैबिटेबल जोन में रहा होगा लेकिन सूरज की पाॅवर लगातार बढ़ने से यह उसकी चपेट में आ गया।

      फिलहाल कंडीशन यह है कि इसका सर्फेस टेम्प्रेचर 900 डिग्री के पार है और ढाई सौ किमी मोटे कार्बनिक वायुमंडल की वजह से एटमास्फियरिक प्रेशर इतना ज्यादा है कि अगर आप इसकी सतह पर खड़े हो जायें तो यह आपको वैसे ही कुचल डालेगा जैसे आपके ऊपर कोई वजनी कार लाद दी गयी हो। इसे आम वैज्ञानिक भाषा में हेल यानि नर्क कहते हैं और यही हम पृथ्वी वासियों का फ्यूचर है।

      एक अनुमान के मुताबिक हर सौ करोड़ साल में सूरज करीब दस प्रतिशत और स्ट्रांग हो रहा है, तो अब से एक करोड़ साल बाद पृथ्वी वीनस की तरह ही इसकी जद में आ जायेगी और तब सारा पानी वाष्पीकृत हो कर उड़ जायेगा लेकिन चूंकि इसकी मैग्नेटिक फील्ड जिंदा होगी तो वह उस पानी को स्पेस में नहीं जाने देगी जिसका वीनस के मुकाबले उल्टा असर यह होगा कि पृथ्वी का वातावरण और ज्यादा मोटा हो जायेगा, जिससे सर्फेस टेम्प्रेचर धीरे-धीरे तीन हजार के पार चला जायेगा और एटमास्फियरिक प्रेशर इतना होगा कि जमीन पर खड़े होंगे तो लगेगा कि कोई ट्रक लाद दिया गया हो।

      बहरहाल, वैज्ञानिक उस स्थिति के मद्देनजर इस पर भी चिंतन कर रहे हैं कि क्या वे भविष्य में एस्टेराईड्स की ग्रेविटी यूज करके पृथ्वी को सोलर सिस्टम में पीछे की तरफ धकेल सकते हैं.. लेकिन आप फिलहाल सिर्फ वीनस पर फोकस कीजिये क्योंकि वह सब देखने के लिये हम नहीं होंगे।

      Written by Ashfaq Ahmad

      जूपिटर/बृहस्पति ग्रह

      बृहस्पति ग्रह हकीकत में कैसा है  

      हमारे सोलर सिस्टम के चार राॅकी प्लेनेट हैं, यानि जिनकी सतह ठोस है.. उनमें मंगल क्रम में आखिरी है और पृथ्वी से काफी छोटा है। कभी पृथ्वी और शुक्र की तरह इस पर भी बड़े-बड़े समंदर थे लेकिन बाद में उसका कोर ठंडा हो गया, जिससे इसकी मैग्नेटिक फील्ड खत्म हो गयी और सोलर रेडिएशन ने इसके पानी को वेपराइज करके उड़ा दिया।

      लाईफ को लेकर एक थ्योरी कहती है कि जीवन पनपने लायक स्थितियां पृथ्वी से पहले मार्स पर पनपी थीं तो शुरुआती सिंगल सेल लाईफ वहीं पनपी थी, जो किसी इम्पैक्ट के बाद स्पेस में उछली कुछ चट्टानों के जरिये पृथ्वी तक पहुंची थी।

      इसके बाद के सभी ग्रह गैस जायंट्स हैं जिनमें एक बात काॅमन है कि इनके पास ठोस सतह नहीं, लिक्विड कोर पर गैसें भरी हैं जिनमें हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन आदि मुख्य हैं.. इन सभी के पास उपग्रहों (चांद) की भरमार है और क्रमशः जूपिटर (79), सैटर्न (53-82), यूरेनस (27), नेप्चून (14) उपग्रह रखते हैं। सभी के पास रिंग्स (बाहरी छल्ले) हैं…

      लेकिन शनि को छोड़ बाकियों के इतने हल्के हैं कि दिखाई नहीं देते, वहीं शनि के छल्ले काफी डेंस और मोटे हैं जो साधारण टेलिस्कोप से भी दिख जाते हैं। यह रेत के कण से ले कर कई किलोमीटर चौड़े तक आईसी बाॅडीज हैं लेकिन सूरज धीरे-धीरे इन्हें खत्म कर रहा है और यह बारिश के रूप में शनि पर जज्ब हो रहे हैं।

      जूपिटर सबसे मेन वह ग्रह है जिसने सोलर सिस्टम के गढ़न में मास्टर रोल निभाया है, इसने न सिर्फ तब एक अहम रोल निभाया था जब ग्रह बन रहे थे, बल्कि आज भी अपनी स्ट्रांग ग्रेविटी की वजह से यह सोलर सिस्टम में आने वाले ज्यादातर आवारा पिंडों को अपनी तरफ खींच कर उनके हमलों से पृथ्वी को सुरक्षित रखता है।

      यह जितना बड़ा है, उतने बड़े प्लेनेज स्टार के आसपास नहीं बनते, बाहरी हिस्से में बनते हैं और यह भी पृथ्वी से पहले बाहरी हिस्से में बना था और इसने सोलर सिस्टम के शुरूआती दौर में काफी कत्लेआम मचाया था और काफी मटेरियल खुद जज्ब कर के, और ढेर सा दूर स्पेस में उछाल दिया था।

      इसका ऑर्बिट बाहर से अंदर की तरफ छोटा होता गया था जिससे यह वहां तक आ गया था जहां आज मार्स है लेकिन बाद में शनि आदि के बन जाने के बाद इसका ऑर्बिट पीछे हो गया था।

      जब यह इनर रिंग में था तब उन आइसी बाॅडीज को साथ लाया था जो सौर सिस्टम के बाहरी सिरे पर बनती हैं (अंदर होने पे सूरज की गर्मी इनका पानी उड़ा देती), और तब यह पिंड नयी बनती पृथ्वी के काम आये थे, यह वह हैं जिनकी वजह से आज पृथ्वी की सतह के अंदर भी एक तरह का समंदर मौजूद है जो कहीं सीधे लिक्विड के रूप में है तो कहीं नमी के रूप में जिसे वाटर रिच मटेरियल कहते हैं।

      एक बड़ा ग्रह बनने लायक मटेरियल मार्स के बाद भी मौजूद था लेकिन जिसे जूपिटर की ग्रेविटी ने ग्रह नहीं बनने दिया और सारे मटेरियल को एस्टेराईड बेल्ट के रूप में फैला दिया। फिर एक दौर आया जब यह सभी गैसीय पिंड अलाइन हुए, यानि एक सीधी रेखा में आये..

      और इस अलाइनमेंट से पैदा ग्रेविटेशनल इफेक्ट इतना जबरदस्त था कि उसने न सिर्फ एस्टेराईड बेल्ट को डिस्टर्ब किया बल्कि काइपर बेल्ट को भी हिला दिया, जिससे करोड़ों ऐसे पिंड अंदरूनी हिस्सों की तरफ छिटके और अंदर के सभी ग्रहों-उपग्रहों पर बरस पड़े.. इस क्रिया को लेट हैवी बमबार्डमेंट कहा जाता है, इसके स्पष्ट सबूत चांद से मिलते हैं।

      इस क्रिया में वे एस्टेराईड्स पृथ्वी तक भी पहुंचे जिसमें वाटर मालीक्यूल नमी के रूप में मौजूद था और इन टकराव से जो एनर्जी पैदा हुई उसने इस नमी को वेपराइज कर दिया जो बाद में बारिश बन के बरसी और पृथ्वी पर महासागरों का निर्माण हुआ। तो पृथ्वी के अंदर और बाहर का पानी जूपिटर की ही देन है और यह आज भी अपनी स्ट्रांग ग्रेविटी की वजह से तमाम बाहरी हमलों से हमारी रक्षा कर रहा है।

      वैसे जिस तरह जूपिटर ने पृथ्वी तक पानी पहुंचाया था उस तरह वीनस और मार्स तक भी पहुंचाया था लेकिन अलग-अलग वजहों से दोनों अपना पानी कायम नहीं रख सके और पृथ्वी इस मामले में लकी रही.. लेकिन पृथ्वी वासी के तौर पर हम जूपिटर को उसके रोल के लिये माता या पिता की संज्ञा दे सकते हैं।

      Written by Ashfaq Ahmad