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अमरत्व

कैसा हो कि हम अगर तकनीकी रूप से अमर हो जायें?

अबूझ को बूझने की प्रक्रिया में, संगठित होते समाजों की बैक बोन, धर्म के रूप में स्थापित हुई थी, उन्होंने कुदरती घटनाओं के पीछे ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा दी, शरीर को चलायमान रखने वाले कारक के रूप में आत्मा का कांसेप्ट खड़ा किया और इसे लेकर तरह-तरह के लुभावने-डरावने मिथक और कहानियां खड़ी की— लेकिन क्या वाक़ई आत्मा जैसा कुछ होता है?

अगर आपका जवाब हां में है तो खुद से पूछिये कि आपके शरीर में कितनी आत्माएं रहती हैं? आत्मा को मान्यता देंगे तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि आपके शरीर में कोई एक आत्मा नहीं है, बल्कि हर अंग की अपनी आत्मा है और एक शरीर करोड़ों आत्माओं का घर होता है।थोड़ा दिमाग लगा कर सोचिये न, कि आत्मा मतलब आप न? शरीर में क्या है जो बदल नहीं सकता— ब्लड की कमी हो जाये तो दूसरे का ब्लड ले लेते, किडनी खराब हो जायें, दूसरे की ले लेते, लीवर खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, हार्ट खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, ब्रेन बचा है, वह भी आगे ट्रांसप्लांट होने लगेगा.. ऐसे में आत्मा कहाँ है, हर अंग तो अपने मूल शरीर से अलग हो कर दूसरे शरीर में काम कर रहा है।

हर सेल के पास तो अपनी सेपरेट आत्मा है। इत्तेफाक ऐसा भी हो सकता है कि आपके पैदाईश के वक्त मिले सारे मुख्य अंग बदल गये लेकिन आप अब भी वहीं हैं— तो असल आत्मा कहाँ है? ऐसी उलझन पर आपका जवाब दिमाग पर थमेगा कि असल में आत्मा दिमाग में है— क्योंकि अगर आप अशफाक हैं तो भले एक-एक करके आपके सारे अंग बदल जायें, आप अशफाक ही रहेंगे लेकिन जैसे ही दिमाग बदलेगा— आप अशफाक नहीं रहेंगे।

तब जिंदा रहा तो जिस शरीर में आपका दिमाग जायेगा, अशफाक अपने आपको वहीं महसूस करेंगे और अगर डेड हो गया तो उस शरीर में जिस किसी का दिमाग डाला जायेगा, अशफाक के शरीर में वही शख्स होगा, अशफाक नहीं— भले अशफाक के सारे बाकी अंग वही क्यों न हों, जो पैदाईश के वक्त से हैं। एक दिमाग बदलते ही पूरा इंसान बदल जायेगा— क्यों? क्योंकि दिमाग ही वह सेंटर प्वाईंट है, जहां चेतना होती है और चेतना क्या है?

आत्मबोध, यानि खुद के होने का अहसास.. तो क्या इस दिमाग़ को ही आत्मा कहा जा सकता है? ज़ाहिर है कि नहीं— क्योंकि अपने आप में दिमाग खाली डिब्बा है, असल वैल्यू इसमें भरी इनफार्मेशन की है। वह इनफार्मेशन जो जीरो से, उस वक्त से शुरु होती है जब हम होश संभालते हैं। इस इनफार्मेशन के बगैर आप कुछ नहीं— जो भी है यही है, आत्मा, कांशसनेस, आत्मबोध।

भले अभी पॉसिबल न हो— पर मेरी ही एक कहानी मिरोव में (जिसका जिक्र पिछली पोस्ट में भी था) एक बायोइंजीनियरिंग कंपनी है, दो हजार बत्तीस की टाईमलाईन के हिसाब से वह थ्रीडी प्रिंटर टाईप टेक्नीक (भविष्य में यह भी आम होनी तय है) से एडवांस ह्यूमन बाॅडी बनाना शुरु करती है। मतलब आदमी मरता क्यों है.. इसका सिंपल जवाब कोशिका विभाजन में है, जिसकी एक हेफ्लिक लिमिट होती है, जिसे क्रास करते ही शरीर बूढ़ा, जर्जर और मृत हो जाता है।

अगर किसी टेक्नीक से इस विभाजन की लिमिट बढ़ा दी जाये, या असीमित कर दी जाये तो शरीर ज्यादा लंबा भी चल सकता है। इसी थ्योरी पर वह ज्यादा बेहतर कैटिगरी के इंसान लैब में बनाती है जिसे मिरोव कहा जाता है। वह ऐसे शरीर तो बना लेती है लेकिन किडनी, लीवर, हार्ट, ब्रेन जैसे अंग उतने कारगर नहीं बना पाती तो न्यूयार्क जैसे शहर में ऑपरेट करने के कारण लावारिस लाशों से यह अंग लेकर मिरोव में ट्रांसप्लांट कर देती है। फिर वह कोई रेडीमेड मेमोरी या किसी जिंदा इंसान की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके उसमें इम्प्लांट कर देती है और वह मिरोव फिर खुद को वही इंसान समझने लगता है।

वह दो तरह के मिरोव बनाती है, एक जो किसी के क्लोन होते हैं और जिनका परपज मेन मालिक के डैमेज अंग का रिप्लेसमेंट होता है, तो दूसरा यूनीक आईडी होता है, यानि जो किसी की काॅपी न हो। अब उन यूनीक मिरोव के कई तरह के प्रयोग वे मेमोरी इम्प्लांटेशन के जरिये करते हैं। सपोज एक एक्सपेरिमेंट के तहत वे हिमालयन रीजन से चार सौ साल पुरानी मगर सुरक्षित लाश की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके एक मिरोव में डालते हैं जो वर्क कर जाती है और उसके जरिये चार सौ साल पहले की एक सनसनीखेज दास्तान का रहस्य खुलता है।

यहाँ कहानी से हट के दो प्वाइंट समझिये— कि उस कंपनी की सर्विस अफोर्ड करने लायक लोग मिरोव प्रोग्राम का दो तरह से यूज़ कर सकते हैं। अपना युवावस्था का क्लोन बनवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा के उस नये जीवन को उसी आत्मबोध के साथ जी सकते हैं, एक बेहतर और ज्यादा चलने वाले शरीर में—

जहां वक्त के साथ रिटायर होता हर अंग बदलता चला जायेगा, यहाँ तक कि दिमाग भी और वह मेमोरी आगे बढ़ते हुए उसी आत्मबोध, चेतना और इतिहास को कैरी करते रहेगी। पीछे जो अंग बेकार हुए, नष्ट कर दिये गये। जो ब्रेन निकाला गया, इनफार्मेशन निकाल के उसे नष्ट कर दिया। सारी वैल्यू उस इन्फार्मेशन की ही है, दिमाग़ की कोई वैल्यू नहीं।

इस सर्विस को अफोर्ड करने लायक बंदे के पास दूसरा ऑप्शन यह भी है वह अपनी शक्ल और बाॅडी से संतुष्ट न हो तो यूनीक आईडी वाला मिरोव बनवा ले और फिर आगे का जीवन उस शरीर में जिये… या चाहे तो जब इस शरीर में बूढ़ा हो जाये तो कोई दूसरा युवा शरीर (बिकने के लिये गरीब और ज़रूरतमंद हर जगह मिल जायेंगे) खरीद ले और उसकी मेमोरी डिलीट करवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा ले और पीछे अपने बेकार शरीर को नष्ट करवा दे।

जिस्म देने वाले युवा का तो कुछ जाना नहीं, गरीबी से निकल कर अमीरी में पहुंच जायेगा। जायेगा क्या— सिर्फ उसके दिमाग में भरी वह इन्फार्मेशन, जो बचपन से तब तक बनी उसकी मेमोरी थी। यही मेमोरी भर वह था, उसकी चेतना थी, उसका आत्मबोध था.. ध्यान दीजिये कि टेक्निकली उसे मारा नहीं जायेगा, बल्कि वह शरीर पहले की तरह ही जिंदा रहेगा लेकिन हकीकत में वह मर चुकेगा और उसकी जगह उसके शरीर में कोई सक्षम अमीर जी रहा होगा, जो ऐसे ही हर बीस पच्चीस साल में शरीर बदलते हमेशा जिंदा रहेगा।

दोनों ही कंडीशन में सक्षम लोगों के पास अमर जीवन होगा— मौत जैसी कोई कंडीशन ही नहीं। मजे की बात यह है कि सेम मेमोरी अगर दस अलग-अलग लोगों में प्लांट कर दी जाये तो उनमें से हर कोई खुद को वही ओरिजनल शख़्सियत समझेगा, जैसे मेरी “मिरोव” में दो अलग लोग सेम टाईम में एक ही कैरेक्टर को जी रहे होते हैं और इतना ही नहीं, यह मेमोरी इम्प्लांटेशन इंसान का जेंडर भी चेंज कर सकता है जैसे इसी कहानी में एक लड़की, ख़ुद को मर्द के शरीर में जी रही होती है तो वहीं एक मर्द ख़ुद को एक नारी शरीर में जी रहा होता है। इस तरह के कई खेल इस इम्प्लांटेशन के ज़रिये खेले जा सकते हैं— जिनमें चार-पांच तरह के उदाहरण मैंने कहानी में ही दिये हैं।

इसी सिलसिले को वेबसीरीज “अपलोड” में वन स्टेप अहेड दिखाया गया है कि कुछ कंपनीज अपने वर्चुअल वर्ल्ड (स्वर्ग टाईप) खड़े कर देती हैं जहां कस्टमर जब रियल वर्ल्ड में अपनी लाईफ जी चुके (किसी भी एज में), तो वह या उसके परिजन उसके लिये ऑफ्टरलाईफ खरीद सकते हैं। यानि उस वयक्ति की मेमोरी एक्सट्रैक्ट करके, अपने बनाये स्वर्ग सरीखे वर्चुअल वर्ल्ड में उसके लिये बने अवतार में ट्रांसफर कर दी जाती हैं जहां जब तक पीछे से रीचार्ज होता रहेगा।

वह अपने वर्चुअल अवतार के रूप में हमेशा आगे की जिंदगी का लुत्फ उठाता रहेगा। वहां हर तरह की लग्जरियस सर्विसेज हैं, जिनके अलग से बिल पे करने होते हैं। वह वहीं से सीधे रियल वर्ल्ड में अपने अजीजों से कम्यूनिकेशन कर सकता है और उन्हें बिल पे करने के लिये मना सकता है। मरने के बाद भी उस अवतार के जरिये मानसिक तसल्ली के लिये (अपनी या पीछे छूटे पर्सन की) उनसे बतिया सकता है। उनसे फेस टु फेस बात कर सकता है, पार्टनर से सेक्स कर सकता है, झगड़ा भी करना चाहे तो वह भी कर सकते हैं।

सोचिये कैसा लगेगा कि आप अपने मरे हुए परिजन से उसके मरने के बाद भी वहां से बात कर सकते हैं, जहां वह स्वर्ग के कांसेप्ट पर जीवन के मजे ले रहा है, बशर्ते पीछे से आप पेमेंट करते रहें। पेमेंट, प्रीपेड रीचार्ज जैसी होती है, जब नहीं होती तो आपके अवतार को इकानामी क्लास में पहुंचा दिया जाता है जहां आपको कंपनी की तरफ से कुछ काईन्स मिलते हैं, जिनके इस्तेमाल से आप एक जगह बैठे सांस लेते और सोचते महीना गुजार सकते हैं।

या फिर बोल बतिया कर, रियल वर्ल्ड के किसी पर्सन से बतिया कर कुछ सेकेंड्स/मिनट्स में खर्च करके बाकी महीने के लिये फ्रीज हो सकते हैं.. यह फर्क समर्थ और असमर्थ के अंतर को बनाये रखने और लोगों को ज्यादा खर्चने को प्रेरित करने के लिये बनाया गया है। अब यह आपकी हैसियत पर डिपेंड करेगा कि आप उस स्वर्ग में मरने के बाद की जिंदगी को कैसे और कितना एंजाय कर सकते हैं।

अब हो सकता है कि यह सुनने में आपको अटपटा लगे, हंसी आये, नामुमकिन लगे लेकिन सच यह है कि यह सब हंड्रेड पर्सेंट मुमकिन है और इस पर काम चल रहा है। सौ-पचास साल के अंदर ही आप यह मेमोरी इम्प्लांटेशन का खेल होते देखेंगे। जिस दिन यह हुआ, इंसान अमरता को छू लेगा। बाकी आप इस पूरे खेल में उस आत्मा को ढूंढिये, जिसे लेकर लंबी-लंबी फंतासी आपको धर्मग्रंथों ने समझाई है। उसकी हैसियत क्या है, उसकी वैल्यू क्या है— आपके शरीर में लगभग सबकुछ रिप्लेसेबल है.. तो ऐसे में किसी आत्मा के लिये शरीर का वह कौन सा कोना बचता है जहां वह अपने मूल शरीर के साथ स्टिक रह सकती है।

नोट: स्पेसिफिक मेमोरी डिलीट करने, एक्सट्रैक्ट करके किसी और को देने, फेक मेमोरी बनाने या मेमोरी इम्प्लांटेशन से सम्बंधित जेसन बोर्न सीरीज, एटर्नल सनशाईन ऑफ द स्पाॅटलेस माइंड, ब्लेड रनर और टोटल रिकाॅल जैसी फिल्में हालिवुड ने ऑलरेडी बना रखी हैं, अगर ज्यादा बेहतर ढंग से इन संभावनाओं को परखना चाहते हैं तो इन फिल्मों को देख सकते हैं।

Written By Ashfaq Ahmad

    अतीत यात्रा 7

    कैसे अब्राह्मिक धर्म के कांसेप्ट अस्तित्व में आये

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    सेमिटिक का प्रभाव दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी पर है और इसके फाॅलोवर्स का मानना है कि इनका ईश्वरीय कांसेप्ट आदि काल से है, इनके जाने-पहचाने ईष्टों के साथ आगे बढ़ती दुनिया पहले इंसान आदम से आबादी बढ़ाती वर्तमान तक पहुंची है लेकिन सच यह है कि अगर आप कोई टाईम मशीन बना कर सिर्फ तीन हजार साल पीछे चले जायें तो इस कांसेप्ट का नामोनिशान नहीं मिलेगा। न कोई उन ईष्टों को जानने वाला मिलेगा, मोटे तौर पर फिरौन के साथ जोड़े जाने वाले मूसा को ही ले लीजिये तो मिस्र के इतिहास में कोई मूसा नजर न आयेगा.. भले मेनेस से ले कर रेमेसिस, मेर्नेप्टेह तक सबके पूरे जीवनकाल का रिकार्ड मौजूद हो।

    मतलब जैसे तीन से साढ़े तीन हजार साल पहले लावी की अरबी कविता या मितन्नी की संधि के रूप में वैदिक देवताओं के सबूत मिलते हैं, वैसा कुछ नहीं मिलेगा। कुछ राजाओं के नाम भले मिल जायेंगे जो ऑर्डिनरी पर्सन ही होंगे न कि कोई डिवाईन कैरेक्टर।इस बात को समझने के लिये तीन हजार साल पीछे के धर्मों को जब खंगालेंगे तो चार तरह के अलग-अलग कांसेप्ट नजर आयेंगे, जिनके प्रभाव बड़ी आबादियों पर पड़े और सेमेटिक कांसेप्ट इनमें कहीं नहीं था, हां छोटी-छोटी तो हजारों ईश्वरीय अवधारणायें फैली हुई थीं जिनका जिक्र पीछे किया।

    बड़े कांसेप्ट में दो आर्यों की दो शाखाओं के थे, एक तो जरथुस्ट्र की चलाई शाखा जो फारस में प्रभुत्त्व रखती थी जिसे पारसी धर्म (जोरोआस्ट्रियनिज्म) कह सकते हैं और दूसरी जो भारत की तरफ प्रभुत्व रखती थी जिसे वैदिक धर्म कह लीजिये। दोनों के दर्शन उलट थे.. जोरोआस्ट्रियनिज्म में अहुर मज्दा के रूप में अच्छी शक्ति को और अंगीरा माइन्यू के रूप में बुरी शक्ति को मान्यता दी गयी थी। असुर वहां हीरो थे और वहीं वे वैदिक धर्म में खलनायक थे, जो इसी शाखा का दूसरा बड़ा धर्म था। दोनों के कांसेप्ट में विरोधाभास था लेकिन ढेरों समानतायें भी थीं जो पूजा पद्धति से ले कर दोनों के ग्रंथों तक में मिलती हैं।

    इसी तरह दो बड़े कांसेप्ट भूमध्यसागर के किनारों पर मौजूद था, एक ग्रीस में था जिसमें ज्यूस मुख्य देवता था (वेदों में इंद्र के पिता द्यौस थे और संभवता यह दोनों एक ही चरित्र थे) और दूसरे कामों के लिये दूसरे कई देवी देवता थे। दूसरा मिस्र में था जिसमें रा-एटेन, ओसायरिस, होरस के रूप में ढेरों देवी देवता थे, हालांकि भारत की तरह वहां भी टाॅटेम अवधारणायें ढेरों थीं लेकिन अगर तीन हजार साल पहले की बात करें तो यही मुख्य कांसेप्ट बन चुका था। ईसा से पहले के दो हजार सालों में देखेंगे तो सबसे पहले पारसी धर्म का सत्ता के साथ विस्तार हुआ और यह खूब फला फूला, फिर मिस्रियों ने भी सत्ता विस्तार किया और उनका कांसेप्ट फैला जो मेडेटेरेनियन के आसपास सब जगह गया.. तत्पश्चात ग्रीक्स ने अपना वर्चस्व स्थापित किया लेकिन उनके कमजोर होने और रोम के सशक्त होने के बाद दोनों के कांसेप्ट एक हो गये और फिर उनका धर्म फारस से ले कर योरप तक फैला।

    इस बीच सेमिटिक कैसे वजूद में आया.. तो अतीत में हुए एक राजा या मुखिया, जो भी समझिये.. जेकब/याकूब उर्फ इस्राएल ने मिस्र से निकल कर कनान (अब का इज्राएल/फिलिस्तीन) में अपने समूह को बसाया और यही लोग इज्राएली कहलाये। आगे यह डेविड और खासकर सोलोमन के दौर में एक बड़े राज्य के रूप में ढले और सोलोमन के बाद दो अलग राज्यों में बंट गये। इस्राइल की मुख्य आबादी तब तक पवित्र ठहराये जा चुके शहर जेरुसलम में रहती थी जिसे 587 ईसापूर्व बेबीलोन के राजा नेबुचेडनेजार ने जीत लिया और शहर को ध्वस्त करके बचे हुए लोगों को दास बना कर बेबीलोन ले आया जहां यह अगले पचास साल रहे। यहां इन गुलामों ने कुछ ऐसा किया जिसने आगे चल कर पूरी दुनिया बदल दी।

    यहां इन्होंने अपने राजाओं, मुखियाओं और महापुरुषों को ईश्वरीय शेड देते (यह उस वक्त का रिवाज था, भारतियों के देवता भी ऐसे ही बने हैं) अपना इतिहास लिखा जो मुकम्मल तौर पर दुनिया की शुरुआत से तब तक के इतिहास को ईश्वरीय पुट देने वाला एक कांसेप्ट था। यह कई किताबों की शक्ल में था, जिनमें सबसे मुख्य तोरह और जबूर कह सकते हैं, जिन्हें ईश्वरीय किताब माना जाता है। फिर फारस के सबसे ताकतवर हुए सुल्तान सायरस ने 539 ईसापूर्व बेबीलोन को जीत लिया और उन यहूदियों को उस गुलामी से आजादी दे दी, जिसे वे कई दशकों से भुगत रहे थे।

    उन्हें इस बात की इजाजत भी मिल गयी कि वे अपना रचा गढ़ा सब मटेरियल साथ ले जा सकते थे और इस तरह वे वापस जेरुसलम आ कर बसे। फले फूले, कई बार उजाड़े गये, वापस बसे और आसपास के मुल्कों तक फैले.. तब आज के जैसे मुल्क तो थे नहीं तो कोई रोक भी नहीं थी। हां उनका मुख्य पुजारी वर्ग जेरुसलम में ही टिका रहा। फिर कोंटेस्टाईन का दौर आया। तब तक योरप में हर तरफ रोमन धर्म का ही प्रभुत्व था.. ईसा की एक्चुअल कहानी क्या थी, इस विषय से किनारा करते यह समझिये कि उनके वक्त के काफी बाद (लगभग 300 साल) रोमन सम्राट कोंटेस्टाईन ने क्रिश्चैनिटी को स्थापित किया था और इसके जो भी कारण रहे हों पर धीरे-धीरे इसका प्रभाव योरप से मिडिल ईस्ट तक हो गया।

    क्रिश्चियनिटी रोमन+ग्रीक धर्म को ओवरटेक करती चली गई और चर्च के प्रभुत्व के साथ उस कांसेप्ट को शैतानी कांसेप्ट बना दिया गया। क्रिश्चियनैटी में भी कई किताबें लिखी गयी थीं जिनमें मुख्य इंजील कह सकते हैं जो तीसरी ईश्वरीय किताब थी। यहूदियों वाली किताबों को मिला कर ओल्ड टेस्टामेंट और बाद वाली सब किताबें मिला कर न्यू टेस्टामेंट बना। ध्यान रहे कि इन्होंने अपने से पीछे का वही सब लिया था जो ओल्ड टेस्टामेंट में था लेकिन कई चीजें आउटडेटेड लगीं, या समय के साथ एडजस्ट करती न लगीं तो उन्हें एडिट कर दिया गया.. उदाहरण के लिये लिलिथ का किरदार ले लीजिये या द वाॅचर नाम के एंजेल्स ले लीजिये। इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। रोमनों ने सत्ता के सहारे क्रिश्चियनैटी अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में पहुंचाई और बाद के औपनिवेशिक काल में वह पूरी दुनिया तक फैली।

    कोंटेस्टाईन के चार सौ साल बाद इस्लाम की शुरुआत हुई और चौथी ईश्वरीय किताब वजूद में आई, ईसाइयों ने यहूदियों का कांसेप्ट अडाॅप्ट किया था उनके कंटेंट को एडिट करते हुए। इन्होंने न्यु टेस्टामेंट के कंटेंट को एडिट करते हुए वह पूरा कंटेंट ले लिया.. नये जमाने की नैतिकता को सूट न करने वाली बातें हटा दी गयीं, मसलन इसाई लिख सकते थे कि पैगम्बर लूत की बेटियों ने उनके साथ संभोग करके प्रजनन किया लेकिन यह अब उस चीज को नहीं लिख सकते थे क्योंकि यह तब की नैतिकता के खिलाफ हो जाता।

    पैगम्बर की मौत के बाद पहले खलीफा ने इस्लाम को अरब भर में फैलाया और बाद के खलीफाओं ने आसपास के देशों तक फैलाया जबकि बाद में तुर्कों के ऑटोमन साम्राज्य के साथ दूर दराज के देशों तक इस्लाम फैला.. कैसे फैला? जाहिर है कि सत्ता के सहारे।
    अब कुछ बातों पर गौर कीजिये.. इस कंटेंट को कहां लिखा गया? बेबीलोनिया में.. उस वक्त बेबीलोन पर मिस्र से ले कर ग्रीक्स और फारस तक का प्रभाव मौजूद था। पीछे अरब के 17 सौ ईसापूर्व हुए कवि का उदाहरण देखा था जिसे वेदों के बारे में पता था, 14 सौ ईसापूर्व में उसी लोकेशन के आसपास मितन्नी राजवंश स्थापित था जो अपनी संधि में वैदिक देवताओं को साक्षी बनाता था। पास के मिस्री कल्चर में एटेन के रूप में एकेश्वरीय अवधारणा भी प्रचलन में आई थी और उनके पूर्व में फारस भर में दुनिया का पहला प्राचीन एकेश्वरवादी धर्म फैला हुआ था, जिसे एक पैगम्बर जरथुस्ट्र ने चलाया था और सबको अहुरमज्दा का संदेश दिया था।

    जाहिर है कि जो बेबीलोन में बैठ कर वह धार्मिक साहित्य गढ़ रहे थे, उन्हें आसपास की दुनिया के नामों, ईष्टों, अवधारणाओं, कहानियों और परंपराओं की जानकारी थी.. वे कोई अंजान लोग नहीं थे तो उनकी कहानियों में असली किरदार ढूंढने के बजाय दूसरी अवधारणाओं के चरित्रों से साम्य ढूंढिये। ढूंढिये ब्रह्म और अब्राहम के बीच की समानता को, ढूंढिये नोआ और मनू के बीच के साम्य को और ढूंढिये सर्वव्यापी बाढ़ जैसी कहानियां जो दोनों तरफ मिलती हों और ढूंढिये कि कहीं फारसी भी तो नमाज नहीं पढ़ते थे या उनके पैगम्बर भी तो कहीं किसी उड़ने वाले जीव पर बैठ कर आस्मानों की सैर पर नहीं गये थे। या मुसलमानों का अल्लाह सीरियन के चंद्र देवता के परिवार से तो नहीं आया। हो सकता है कि आपको एकदम से बहुत कुछ समझ में आ जाये.. पुरानी लीक से हट कर कुछ खोजने की कोशिश तो कीजिये।

    चलिये एक कथा मैं सुना देता हूँ.. अशूर्बनिपाल के संग्रहालय में एक गिलगमेश नाम का ग्रंथ है जो पत्थर की ईंटो पर सुमेरियन में उकेरा गया था जिसमें 3000 ईसापूर्व हुए इसी नाम के राजा से सम्बंधित कथा है जो अपने आखिरी वक्त में उस पूर्वज जियुसुद्दु से मिलता है जिन्होंने ईश्वर की तरफ से बाढ़ की चेतावनी मिलने पर एक बड़ी नाव बनाई और पशु-पक्षी, इंसान समेत सबके जोड़ों को उसमें सुरक्षित करके सर्व-व्यापी जल प्रलय से बचाया था।

    अब समझिये, एक कथा उरूक की है और एक कथा बेबीलोन में लिखी गयी, दोनों मेसोपोटामिया के प्राचीन नगर हैं, तीसरी कथा मनु के साथ लिखी गयी जिसे लिखने वाले उसी परिवार का हिस्सा रहे हो सकते हैं जिन्होंने जियुसुद्दु की कथा लिखी.. क्या कुछ मिक्स मैच नहीं लगता? तो जब आप पुराने धर्मों, उनके अतीत को खंगालने बैठेंगे तो आपको नाम, परंपरायें, आस्था और कहानियां, बहुत कुछ आपस में मिलता, एक दूसरे से लिया नजर आयेगा.. मसलन कहीं गाय वैतरणी पार करायेगी तो कहीं बकरा पुल सरात पार करायेगा।

    क्रमशः

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    Written By Ashfaq Ahmad

      अतीत यात्रा 4

      टाॅटेम ने कैसे भारतीय धार्मिक कांसेप्ट को प्रभावित किया  

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      “नाग जब मुंह बंद कर लेता है तब अंधेरा हो जाता है.. तब उसकी मणि निकलती है। वही आकाश में चंदा के रूप में चमकती है। नाग तब धरती को लपेट कर अपनी गड़ेडी में भर लेता है। जब वह लंबी-लंबी सांस लेता है तब हवा सनसनाती है। उसके मुंह से जब आग निकलती है तब आकाश में लकीर खिंच जाती है।”

      क्या था यह.. एक छोटा मोटा ईश्वरीय कांसेप्ट। अनसुलझे सवालों और प्रकृति के रहस्यों को अपने तौर पर समझने की कोशिश। इसी से एक समूह अपनी पहचान नाग के रूप में निर्धारित करने में कामयाब रहा और नाग को उसने अपना ईष्ट बना लिया। इसी चीज को टाॅटेम कहते हैं। यानि यह समझिये कि कभी किसी धर्म ग्रंथ में नाग या नागवंश पढ़ें तो वहां कुछ भी लिखा हो, पर समझिये कि वह इसी टाॅटेम कबीले से सम्बंधित लोगों की बात है न कि किसी इंसान जैसे सांप की.. जिनके कुछ मौजूदा वंशज अभी भी असाम में मिल जायेंगे।

      “नाग अंधकार है.. गरुड़ देवता बार-बार उस पर आक्रमण करता है और वह बार-बार भाग जाता है। प्रातःकाल जब गरुड़ देवता सूर्य बन के निकलता है तब नाग समुद्र की तह में छुप जाता है और गरुड़ देवता के थक कर सोने चले जाने के बाद नाग बाहर निकलता है और आकाश में जगमगाते गरुड़ देवता के अंडे खाने लगता है। तब देवता फिर चंद्रमा बन के निकलता है और नाग को भगा देता है।”

      पहली अवधारणा के बरक्स यह काउंटर कांसेप्ट था जिसने अपनी अलग मान्यता स्थापित कर ली, जिसमें गरुड़ मुख्य था। इसकी पहचान गरुड़ जाति के रूप में स्थापित हुई। इसी तरह यक्ष, गंधर्व, वानर, पिशाच, किरात, निषाद आदि सबके पास अपनी-अपनी कहानियां थीं। अपने विकास के दौरान किसी को किसी विशेष जीव (मसलन नाग, गरुड़, वानर, रीछ, चूहा, हाथी आदि) से मदद मिली तो उसने उसी जीव को ईष्ट बना कर अपने अबूझ सवाल हल कर लिये तो किसी को प्रकृति के किसी हिस्से (मसलन बादल, बारिश, नदी, वन, पीपल आदि) से किसी तरह मदद मिली या वह समूह उस चीज पर ज्यादा आश्रित हो गया तो उसे ही ईष्ट बना लिया। इसी से मास्क भी चलन में आया (जैसा साउथ की नृत्य परंपराओं में आज भी देख सकते हैं) जिसमें किसी की कबीलाई पहचान उस मास्क के जरिये होती थी जो वह नृत्य/उत्सव जैसे अक्सर अवसरों पर लगाते थे।

      दूसरे शब्दों में कहें कि भारत भर में जितनी जातियां थीं उतने धर्म थे और उनकी पहचान उनकी जातीय पहचान पर ही आधारित थी। कालांतर में जब आबादियां बढ़ीं, हिंसा या समर्पण के साथ अंतर्भुक्तिकरण हुआ तो बहुत से कांसेप्ट आपस में गडमड हो गये और यही वजह है कि आगे जब इस भूभाग के सारे विश्वासों/मान्यताओं को समाहित करके एक केंद्रीय धर्म बना तो उसमें लगभग सभी के ईष्ट और उनकी कहानियां ले ली गयीं और यही वजह है कि आप हिंदू धर्म में इतनी वैरायटी पाते हैं और कोई भी एक विचार सभी जगह समान रूप में मान्य नहीं होता.. मसलन उत्तर भारत में राम पर आधारित संस्कृति को सर्वोच्चता हासिल है तो पूर्व में जा कर वह दुर्गा के आसपास ढल जाती है, उड़ीसा में कुछ और तो दक्षिण में वह कुछ और भगवानों को प्राथमिकता देती नजर आती है।

      इसी वजह से यह तैंतीस करोड़ देवी-देवता नजर आते हैं जो सभी टाॅटेम जातियों की आस्थाओं से लिये गये हैं और इसी सम्मिश्रण में अलग-अलग भगवानों को एडजस्ट करने की कोशिश अवतारवाद है जिसमें सबसे आखिर में दिखे सबसे सशक्त हुए बुद्ध को भी साधने की कोशिश हुई लेकिन वह उतनी कारगर न रही। इसी वजह से आपको एक ही कहानी कई वर्शन के साथ और एक ईष्ट एक से ज्यादा रूप में भी दिख सकते हैं। इसी वजह से भारत से लेकर थाईलैंड और मलेशिया तक आपको रामायण के दर्जनों वर्शन मिल जायेंगे। दरअसल वर्तमान का हिंदू धर्म कोई एक धर्म न हो कर तमाम तरह के स्थानीय धर्मों की काॅकटेल है जिसमें चार्वाक का नास्तिक दर्शन तक शामिल है।

      अब फिर से इस टाॅटेम पर फोकस कीजिये, और तलाशिये कुछ अटपटी आकृति वाले ईष्टों को जिन्हें डिफेंड करने के लिये पहली सर्जरी जैसी गपें हांकनी पड़ती हैं। भारत के मुकाबले अरब की तरफ भी ऐसे ही टाॅटेम कबीलों की भरमार थी जिनके ईष्टों को मुख्य काबे में समेट कर पूरे भूगाग के एकीकरण की कोशिश की गयी थी जिसमें आर्थिक हित भी जुड़े थे लेकिन वहां इस्लाम के अवतरण के बाद सबकी मान्यताएं रद्द कर दी गयी थीं और सबको जबरन एक रूप में ढाल लिया गया था जबकि भारत में सबको जगह देने की कोशिश हुई, जिसका मुख्य कारण इसका बहुदेववादी ढांचा था। बहरहाल, सबको समेट कर एक केंद्रीय धर्म बनने के बाद भी इसकी कोई बड़ी पहचान नहीं थी.. हिंदू पहचान तो बहुत बाद में फारसियों या चीनियों की तरफ से मिली। उससे पहले आमतौर पर वैदिक/ब्राहमण धर्म के रूप में ही जाना जाता था।

      अब यहां एक चीज और समझिये कि जब यज्ञ वाले कबीले छोटी आबादियों के रूप में स्थापित हुए तब उनके यज्ञ में सब मिल कर शामिल होते थे और उस प्रक्रिया, उससे उपजे फैसले को ब्रह्म कहते थे। बाद में समाज बड़े होते गये, दूसरी जगहें कब्जाने और उससे उपजे खतरों के मद्देनजर लड़ने वाली एक अलग इकाई की जरूरत पड़ी तो इस ब्रह्म से कुछ लोगों को अलग किया और उन्हें ब्रह्म की सुरक्षा की जिम्मेदारी देते क्षत्रिय की संज्ञा दी गयी और बाकी बचे वर्ग को ब्रह्म को भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दी गयी जिसे वैश्य के रूप में चिन्हित किया गया। यानि जो कभी एक थे वे तीन अलग वर्गों में बंट गये और इसी चीज को ब्रह्मा के रूप में एक विराट पुरुष के रूप में रूपक की तरह गढ़ दिया गया और एक बह्म समूह से अलग हुए हिस्सों को प्रतीक के रूप में ब्राहमण मुख से, क्षत्रिय भुजा से और वैश्य पेट से जनित बता दिये गये। शूद्र तब इस खांचे में फिट नहीं थे। उन्हें काफी आगे आ कर इस ढांचे में जगह मिली, जिसके बारे में अगले पार्ट में लिखेंगे।

      ब्रह्म को जिस तरह कुछ कथाओं में बायलोजिकल यूनिट के रूप में पाया जाता है तो इस बात की भी संभावना है कि इनके बीच कभी इस नाम का कोई व्यक्ति हुआ हो। विष्णु कोई बायलोजिकल यूनिट थे या नहीं, इस बारे में सिर्फ कयास लगाये जा सकते हैं लेकिन एक चीज तथ्य है कि इस चरित्र का इस्तेमाल अलग-अलग टाॅटेम ईष्टों को अवतारवाद में फिट करने के लिये कई जगह किया गया जबकि शिव के साथ जिस तरह की चीजें सामने आती हैं, उससे उनके बायलोजिकल यूनिट होने की मजबूत संभावना तो नजर आती है जो वैदिक कांसेप्ट से बाहर थे, अनार्य थे और वैदिक रीति रिवाज वालों से इनके फाॅलोवर्स का संघर्ष रहा था। कालांतर में सबको समाहित करने के उद्देश्य से हुए व्यापक एकीकरण के बाद भी शैव, वैष्णव, शाक्त के रूप में इनके बीच एक लंबा वर्ग संघर्ष चला लेकिन आधुनिक दौर तक पहुंचने से पहले उस पर भी विजय पा ली गयी और शिव ट्रिनिटी का हिस्सा हो गये, वर्ना पहली सूरत में बाकियों की तरह अवतार के रूप में ही एडजस्ट होते।

      यहां एक चीज यह भी समझ लीजिये कि ऐसा नहीं था कि आर्य लोग बाहर से आये, प्रजनन से अपनी आबादी बढ़ाई और यहां के सब लोकल्स को जीत कर बंदी/दास बना लिया बल्कि लोकल्स के साथ ही वे आबादी के रूप में बढ़े थे और कोई विजित होकर उनके खेमे में आया तो कोई समझौते से। मतलब एक गरुड़ परिवार के दो कबीलों में से एक कबीला हार कर दास हुआ तो दूसरा कबीला उनकी ताकत देख उनकी आधीनता स्वीकार करके ब्रह्म का हिस्सा बना भी हो सकता है और फिर हजारों साल तक इंटर ब्रीडिंग भी होती रही.. यानि आज की तारीख में किसी शुक्ला, दूबे, तिवारी में लोकल्स का ब्लड और किसी जाटव, वाल्मीकि, यादव, वर्मा में आर्यन ब्लड भी मिल सकता है तो ऐसे में यह मूलनिवासी बनाम बाहरी की लड़ाई का कोई औचित्य नहीं बनता जिसके सहारे दलितों को मूलनिवासी और ब्रह्म समूह को (खासकर ब्राहमणों को) बाहरी बताया जाता है। मूलनिवासी सिर्फ आदिवासी ही पाये जायेंगे अब।

      अब फिर शुरू से देखिये.. इस पूरे कांसेप्ट में एक पेंच यह भी था कि यह एक हिंसा भरी जीवनशैली का प्रतिनिधित्व करता था जिसमें हमले, लूटपाट, जंग, पशु बलि, नर बलि सब थी तो मानव स्वभाव के हिसाब से यह चीज सबको तो नहीं ही पचनी थी। यह आज के अहिंसावादी ब्राहमणों को देख कर अतीत का अंदाजा मत लगाइये, उस वक्त के ब्राहमण भी बाकियों की तरह हिंसा करते थे और दबा के मांसभक्षण भी करते थे। बहरहाल इसके अगेंस्ट भी एक अहिंसावादी विचारधारा पनपी जो आगे जैनिज्म के रूप में स्थापित हुई लेकिन इसके नियम काफी कड़े थे तो आगे चल कर थोड़ी उदार अहिंसावादी विचारधारा पनपी जो बौद्धिज्म कहलाई और जैनिज्म के मुकाबले काफी कामयाब रही और दूर दराज तक फैली। यहां तक कि सारा भारतीय भूभाग ही एक समय में बौद्धमय हो गया था। भारत में मुख्य धर्म में निराकार की पूजा के साथ साकार की पूजा भी कई जातियों में चलन में थी लेकिन मंदिरों का चलन इन्हीं दोनों धर्मों के अस्तित्व में आने के बाद शुरू हुआ था।

      अब इन नये धर्मों के मानने वाले भी बाकियों की तरह ‘मेरी दुकान असली’ साबित करने के चक्कर में खुद को अति प्राचीन बताते काल्पनिक गाथायें लेकर बैठ जाते हैं जबकि चाहें तो आस्था को साइड में रख कर सहजबुद्धि से समझ सकते हैं कि दुनिया की आबादियों के ठीक से सभ्य संगठित होने से पहले अहिंसक होने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अगर आप दूसरों को न मारते तो दूसरा आपको मार देता। उस दौर में सर्वाइवल की पहली शर्त ही हिंसा थी तो जाहिर है कि उस वक्त ऐसी विचारधारा पनप ही नहीं सकती थी। यह तभी पनपी है जब छोटी आबादियां राज्यों के रूप में ढलीं और इन्हें राजा जैसी एक केंद्रीय शक्ति का संरक्षण मिला। यह संरक्षण ही जैनिज्म, बौद्धिज्म को उस दौर में खड़ा कर सकता था।

      अशोक के बाद जब बौद्धिज्म ने पूरे भारत पर अपना प्रभाव जमा लिया था तो भी एक तरह की कमजोरी ही थी कि आपने रक्षण को भी जंग लगा ली, जिसका फायदा दूसरों ने उठाया क्योंकि रक्षण के लिये तो हिंसा का सहारा लेना ही पड़ेगा और आगे पुष्यमित्र शुंग के दौर में इस सिनारियो को पूरी तरह पलटने की कोशिश शुरू हुई जो काफी हद तक कामयाब भी हुई। अब उस वक्त क्या हुआ था, यह नवीन इतिहास है तो सबको पता होना चाहिये। जैन और बौद्ध धर्म जहां भारत के मूल धर्म की हिंसात्मक जीवनशैली के जवाब में पनपे थे वहीं इस धर्म के प्रारूप में आगे आने वाले दोषपूर्ण सामाजिक बंटवारे, भेदभाव, छुआछूत के खिलाफ सिख धर्म वजूद में आया जो नये जमाने की बात है और अगर मुगल और अंग्रेज न आये होते तो शूद्रों के उस तरफ शिफ्ट होने के बजाय शायद अब तक कोई और बराबरी वाला नया धर्म वजूद में आ चुका होता क्योंकि यह शिफ्टिंग सिख धर्म की तरफ तो नाम की ही होती, कारण वही सख्त नियम, जिनकी वजह से जैनिज्म के होते हुए भी अतीत में बौद्धिज्म की जरूरत पड़ी थी जबकि दोनों का बेसिक कांसेप्ट एक ही था।

      क्रमशः

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      Written By Ashfaq Ahmad

      अतीत यात्रा

      भारत का इतिहास और आर्य

      योरप/मिडिल ईस्ट के इतिहास सम्बंधी किसी भी पोस्ट पर कई लोग भारतीय इतिहास पर मेरी राय पूछते नजर आते हैं और मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उसपे क्या नजरिया रखूं क्योंकि यहां ढाई हजार साल पहले का कोई ठीक-ठाक इतिहास समझ में ही नहीं आता, इसके नाम पर जो रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण लिखे हैं वे कपोल कल्पनाओं पर आधारित वास्तविकता से एकदम परे लगते हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिये कि इतिहास होगा ही नहीं या लोग बस ढाई-तीन हजार साल पहले ही आ कर बसे होंगे। आखिर वह इतिहास मेरा भी तो हुआ, भले कालांतर में मेरे किसी पूर्वज ने इस्लाम स्वीकार कर लिया होगा लेकिन हूँ तो इसी भूभाग का.. तो जानने समझने की कोशिश तो करनी ही चाहिये।

      यह सोच कर ही आजकल अतीत की छानबीन में लगा हुआ हूँ और बहुत कुछ ऐसा नजर आ रहा है जिसकी तरफ कभी ध्यान ही न दिया गया। आप योरप या उत्तरी अफ्रीका, या एशिया माइनर या फारस का इतिहास देखेंगे तो इनका एक सिलसिलेवार लिखित इतिहास मिलता है और वहां के नागरिक भी उसे जानते हैं लेकिन भारत का अतीत तलाशना चाहेंगे तो हवा हवाई किस्सों के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा, जिन पर भारतियों का ही एक बड़ा वर्ग यकीन नहीं करता। आखिर ऐसा क्यों है? इसकी एक वजह तो यही है कि इतिहास को देवी-देवता और चमत्कारों के सहारे ईश्वरीय बनाने के चक्कर में उसकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध कर दी गयी।

      और दूसरी सबसे बड़ी वजह आबादी का ताना-बाना है.. ग्लोब पर देख के समझना चाहें तो ऐसे समझिये कि इंसानी आबादी की शुरुआत भले अफ्रीका में कहीं हुई हो लेकिन मुख्यतः वह फली-फूली कैस्पियन/मेडेटेरेनियन से लेकर सिंध के बीच के मैदानी भूभाग पर और यहाँ उसके संगठित रूप सामने आये और बड़ी सभ्यतायें पनपीं और इस वजह से उनका इतिहास मानव क्रम-विकास में अपनी उल्लेखनीय जगह बना सका। जबकि इनके उलट इंसान आगे अमेरिका से ले कर चीन और धुर पूर्वी एशिया के द्वीपों तक पहुंचे, फले-फूले और छोटी-छोटी आबादियों में ढल के निरंतर विकास करते रहे लेकिन मुख्य आबादी से जुड़ाव न होने की वजह से उनका इतिहास कभी अपनी जगह बना ही न सका।

      अब बाकी आबादियों में अमेरिका में अलग-अलग वक्त पर कुछ बड़ी सभ्यताओं ने अपनी जगह बनाई और लुप्त हो गईं, अफ्रीका में वे कोई बड़ी सभ्यता न बन सकीं और आज भी वे पिछड़ी ही हैं। मुख्य भूमि से लोग हर तरफ गये थे, जिनमें एक समूह हिंदुकुश की तरफ से एशिया की तरफ बढ़ा बसा था तो दूसरा भारत हो कर हिमालय के जरिये भी उधर गया और एक समूह समुद्र के किनारों के साथ भी आगे बढ़ता गया। चीन की तरफ बढ़ी बसी आबादी में भारत के मुकाबले कम विभाजन हुआ और वे भारत के मुकाबले जल्दी बड़े समाजों में ढले इसलिये उनके पास भी एक क्रमवार लिखित इतिहास मौजूद है।

      जबकि भारत भी अफ्रीका की तरह ही एक वन क्षेत्र था और यहाँ मुख्य भूमि की तरह सभ्यता पनपने के आसार कम थे। यहां एक भयंकर समस्या यह थी कि उत्तर से दक्षिण तक समुद्री किनारे, नदियों किनारे, वन में, पहाड़ पे रहने वाली असंख्य छोटी-छोटी आबादियां निवास करती थीं जिन्हें बड़े समाजों के रूप में एकीकृत होने में हजारों साल लगे और यह विकास इतना धीमा हुआ कि नोट करने लायक तमाम जगह इसके बीच-बीच के सिरे ऐसे गायब हैं कि अनुमान के आधार पर ही आप कुछ लिख सकते हैं। फिर भी जो मोटा-मोटा समझ में आया कि यहां हर तरफ टाॅटेम जातियां मौजूद थीं (किसी एक विश्वास के सहारे पनपने वाला वर्ग.. आज वाली जाति नहीं) जिनमें असुर, यक्ष, गंधर्व, राक्षस, पिशाच, ऋछ, वानर, नाग, गरूण, द्रविण टाईप पहचान हुआ करती थी जिनके टाॅटेम ही कालांतर में भगवान बना कर स्थापित कर दिये गये।

      मजे की बात यह है कि यह सिर्फ भारत तक सीमित नहीं थे बल्कि पूर्वी एशिया से लेकर भूमध्यसागर तक फैले थे और जमीन पर कोई राष्ट्र, राज्य, भूभाग जैसा बटवारा नहीं था। थोड़ा इतिहास का अध्ययन करने पर आपको मिस्र, फारस, भारत के प्राचीन विश्वासों, मान्यताओं और प्रतीकों में बहुतेरे साम्य मिल जायेंगे। और ऐसा भी नहीं था कि यह अपनी पहचान अलग बनाये रखते थे बल्कि शुरू में आपस में लड़ते थे, जीतने पर मर्दों को मार कर स्त्रियों को अपने समाज में शामिल कर लेते थे, बाद में उत्पादन क्षमता बढ़ाने के नाम पर मर्द दास बनाये जाने लगे.. इसी दास वर्ग को हजारों साल आगे जाकर शूद्र के रूप में चिन्हित किया गया। इसके सिवा समाजों के थोड़ा उन्नत होने पर आपस में मेल मिलाप भी होने लगे और एक वर्ग की स्त्री से दूसरे वर्ग के पुरुष बच्चे पैदा करने लगे। तब विवाह की खास मान्यता नहीं थी, न संभोग में पाप-पुण्य जैसा कुछ था, प्रजनन मुख्य था.. इस दोनों तरह के सम्मिश्रण/मेलमिलाप को अंतर्भुक्तिकरण कहा गया जिससे अलग-अलग जातियों में एक दूसरे के विश्वास, मान्यताएं, ईष्ट प्रवेश पाये।

      आर्य कैस्पियन सागर के पास रहने वाला एक कबीला था जो गौरवर्णीय और घोड़े दौड़ाने वाला था। इसके लोग भी हर तरफ फैले, उन्होंने न सिर्फ भूमध्यसागर के आसपास की आबादी में अपनी पहुंच बनाई बल्कि फारस की तरफ से होते भारत तक आ बसे। इन्होंने आर्य-अनार्य के रूप में दो धड़े बनाये और आपस में दोनों तरफ ऐसी काॅकटेल बनी कि कुछ भी प्योर नहीं रह गया। सबमें दो से ज्यादा धड़े बने और हर धड़े में अलग-अलग जातियां भी थीं और समान जातियां भी थीं। इंद्र की तरफ के लोग देव कहलाये जबकि वह आर्य नहीं था, हां बाकियों में थे जबकि मनू के पीछे बसे लोग मानव कहलाये जिनमें खुद आर्य-अनार्य दोनों थे। उस वक्त विजित व्यक्ति, चाहे वह आर्य ही क्यों न हो, दास ही कहलाया और कालांतर में वही शूद्र भी हुआ।

      आर्य की प्रमुख पहचान उनकी अग्निपूजा या यज्ञ था जिसमें पहले सब हिस्सा लेते थे लेकिन बाद में बंटवारा होने लगा। यज्ञ के पास जो संसद बनती थी उसका फैसला ही ब्रह्म होता था जो आगे ब्रह्मा के रूप में विराट पुरुष गढ़ दिया। इसमें जो हिस्सा लेते थे वह सब ऋषि, पुरोहित कहलाते थे जो आगे जा कर ब्राहमण कहलाये.. इन्होंने बाद में अपने बीच से ही कुछ लोगों को अलग किया जो बढ़ती आबादी और लड़ाइयों के बीच लड़ाके की भूमिका निभाते थे, इन्हें क्षत्र और आगे क्षत्रिय कहा गया जबकि बाकी जन-साधारण सब वैश्य थे और दास जानवर के समतुल्य होते थे, उस वक्त चौथा शूद्र वर्ण अस्तित्व में नहीं आया था लेकिन बाद में दासों को यही पहचान दी गयी। उस वक्त वर्ण ब्लडलाईन पर नहीं चलता था जिस वजह से बहुत से अनार्यों ने भी यज्ञ शुरू किया, ब्रह्म स्थापित हुए और आगे ब्राहमण कहलाये। लोगों को तब वर्ण बदल सकने की भी सुविधा थी तो कोई भी चीज फिक्स नहीं थी।

      अब मुख्य बात.. मौजूदा उपलब्ध साक्ष्यों (दूसरे इतिहास को ले कर मौजूदा हिंदू ग्रंथों सहित) के आधार पर यह पता चलता है कि एक तो इंद्र, मनु, रावण, विश्वामित्र जैसे या पद थे या फिर एक नाम कई लोगों का हुआ था जो उस दौर में प्रचलित था कि बेटे बाप/दादा के नाम को धारण कर लेते थे, क्योंकि इनका जिक्र अलग-अलग काल में मिलता है। इस विसंगति को एडजस्ट करने के लिये कुछ चरित्र अमर बना लिये गये। जितने भी नाम आप सुनते हैं यह सब इंसान ही थे, जिन्हें कहीं पितृ पूजा या कहीं शक्ति पूजा के रूप में देवता बना लिया गया। यह पूरी दुनिया में हुआ था जहां राजा को देवता या देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था जो कालांतर में खुद देवता बन जाता था। कुछ ऐसी ताकतवर औरतों का भी इतिहास मौजूद है जिन्होंने अपने जीते जी खुद को देवी के रूप में स्थापित करवा लिया था।

      एक चीज और कि अक्सर भारतीय जिन बातों को ले कर योरप या अरब को टार्गेट करते हैं, वे उस काल में पूरी दुनिया में समान रूप से प्रचलित थीं। मसलन लोगों पर हमले करना, मर्दों को मार कर औरतें जीत लेना, विजित धन/पशु/औरत को आपस में बांट लेना, ताकतवर का हरम बनाना, जानवर से लेकर इंसानों तक की बलि देना। जीवन का सुरा सुंदरी और जंग पर आधारित होना, भोजन में अनाज से ज्यादा मांस की भागीदारी होना.. यह सब उतना ही भारतीय है जितना योरोपीय और अरबी।

      और हां.. ब्राह्मण हर वर्ग के लोग बने थे और दास भी हर वर्ग के लोग बनाये गये थे। आर्य पूरी दुनिया में फैले जरूर लेकिन यहूदियों की तरह नस्ली शुद्धता नहीं बरकरार रख सके और अब उनका मिश्रण तो पूरे भारत में मिल जायेगा लेकिन शुद्ध आर्य कहीं नहीं। हिटलर की ऐसी सोच जरूर थी लेकिन वह रियलिटी से ज्यादा उसका खब्त था।

      क्रमशः

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      Written By Ashfaq Ahmad

        मानव विकास यात्रा फाईनल

        होमोसेपियंस का आर्थिकीकरण

        समाज तीन मुख्य व्यवस्थाओं पर पलते रहे हैं.. धार्मिकआर्थिक और राजनीतिक। सेपियंस ने जब दरबदरी छोड़ स्थाई बस्तियां बसानी शुरू की थीं तो उन्हें परस्पर सहयोग के लिये धार्मिक व्यवस्था की जरूरत पड़ी थी और जब एक स्थाई बसावट के साथ छोटे छोटे समाजों का खाका खिंचा तो इसके बेहतर संचालन के लिये आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस हुई और जब वे इन दोनों व्यवस्थाओं को अपना चुके तब सामूहिक रूप से बड़े समाजों के संचालन के लिये राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत महसूस हुई।

        छोटे समाजों ने राजकीय व्यवस्था को आकार दिया और इन व्यवस्थाओं को मिलाकर साम्राज्य बना। साम्राज्य एक राजनैतिक व्यवस्था है जिसका मतलब ही ऐसे अनेकों समाज पर स्वीकार्य शासन है, जिनकी अलग पहचानसंस्कृति और स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र होता है.. लेकिन इस व्यवस्था के साइड इफेक्ट कालांतर में उन हजारों छोटी-छोटी संस्कृतियों के लिये खतरनाक साबित हुई जो बड़े साम्राज्यों द्वारा लील ली गयीं। पिछले ढाई हजार साल से दुनिया का हर नागरिक किसी न किसी साम्राज्य के ही आधीन रहा है।

        रोमनसाम्राज्य ने नूमान्तियाई, अवेर्नियाई, हेल्विशियाई, सामनाईट, ल्युसेंटियाई, उम्ब्रियाई, इस्ट्राकेनियन जैसे सैकड़ों समाजों को लील लिया जिनके लोग स्वंय को उन समाजों के नागरिकों के रूप में पहचानते रहे थे, अपनी भाषा बोलते थे, अपने देवताओं की पूजा करते थे, उनकी लोककथायें किवदंतियां सुनाया करते थे.. उनके वंशज रोमनों के आधीन रह कर उनकी तरह सोचने, बोलने और उपासनायें करने लगे थे। यही काम सातवीं सदी से दसवीं सदी के बीच इस्लामिक साम्राज्य ने किया था जिसने समूचे खाड़ी क्षेत्र की संस्कृतियों को लील लिया था।

        पहली संहिता की उत्पत्ति

        अब साम्राज्य बनने शुरू हुए तो उस व्यवस्था की भी जरूरत महसूस हुई जिसे हम कानूनी नियमावली के रूप में जानते हैं.. यानि एक राजकीय व्यवस्था द्वारा अपराधों का निर्धारण और उस अनुपात में दिया जाने वाला दंड। इस तरह की जो पहली संहिता इतिहास में दर्ज हुई उसे हम कोड ऑफ हम्मूराबी के रूप में जानते हैं जो 1776 ईसा पूर्व बेबीलोन में अस्तित्व में आई थी। बेबीलोन मेसोपोटामिया का सबसे बड़ा नगर और उस वक्त का सबसे बड़ा साम्राज्य था.. जो मेसोपोटामिया के ज्यादातर हिस्सों, आज के ईराकसीरिया और ईरान के कुछ हिस्सों तक फैला था। हम्मूराबी एक राजा के रूप में अमर ही उस विधि संहिता की वजह से हुआ।

        बहुत से मुसलमान आपको यह कहते हुए मिल जायेंगे कि शरा के रूप में उन्होंने किसी समाज में विधि व्यवस्था शुरू की थी लेकिन यह सच नहीं। शरा कोड ऑफ हम्मूराबी का ही परिष्कृत रूप था, जिसे बाद के यहूदी और इसाई समाजों ने भी उसी तरह कुछ परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ था। हालाँकि योरप और पश्चिमी एशिया के उन समाजों से हजारों किलोमीटर दूर भारत में भी मनुस्मृति के रूप में विधि संहिता मौजूद थी लेकिन चूँकि उसका कोई काल निर्धारित नहीं तो विश्व पटल पर उसे इस तरह का क्रेडिट नहीं दिया जाता, लेकिन इतना तो तय है कि यह भी शरा से पहले की ही है।

        बहरहाल, अब अगर हम साम्राज्यों पर फोकस करें तो इस तरह का पहला साम्राज्य 2250 ईसा पूर्व सारगोन द ग्रेट का अक्कादियाई साम्राज्य था जो मेसोपोटामिया के किश नाम के नगर से शुरू हुआ था। सारगोन न सिर्फ मेसोपोटामियाई नगर/राज्यों को जीतने में कामयाब रहा था, बल्कि उसकी सत्ता का विस्तार भूमध्यसागर से ले कर फारस की खाड़ी तक रहा था और वह इतिहास का पहला ऐसा शासक था जो यह दावा करता था कि उसने सारी दुनिया को जीत लिया है।

        साम्राज्यों की उत्पत्ति

        सारगौन ने साम्राज्यवाद की ऐसी अवधारणा स्थापित की, कि अगले 1700 सालों तक असीरियाईबेबीलोनियाई और हिटाईट राजा सारगोन के एक रोल माॅडल के रूप में अपनाते रहे और वह भी विश्व विजेता होने का दावा करते रहे। इस परंपरा को 550 ईसा पूर्व सायरस द ग्रेट ने और भी प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ाया और साम्राज्यवाद का यह गुरूमंत्र दिया कि हम आपको आपके हित के लिये जीत रहे हैं।

        सारी दुनिया के बाशिन्दों की खातिर सारी दुनिया पर हुकूमत करने का ख्याल चौंकाने वाला था लेकिन सायरस के समय से ही यह साम्राज्यवादी धारा और भी समावेशी और व्यापक होती गयी, बाद में अलेक्जेंडर द ग्रेटहेलेनिस्टियाई राजाओंरोमन सम्राटों, मुस्लिम खलीफाओं, हिंदुस्तानी राजवंशों से होती सोवियत प्रधानों और अमेरिकी राष्ट्रपतियों तक पहुंची। इनके साथ ही इससे इतर वे साम्राज्य भी लंबे समय तक रहे जो लोकतांत्रिक या कम से कम गणतांत्रिक थे, मसलन अंग्रेजी साम्राज्य जो इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य था, या डचफ्रांसीसी, बेल्जियाई और पूर्व के अमेरिकी साम्राज्यों के साथ ही नोवगोराडरोम, कार्थेज, एथेंस के पूर्व आधुनिक साम्राज्य

        सायरस की तर्ज की साम्राज्यवादी विचारधारा अपने फारसी माॅडल से अलग स्वतंत्र रूप से मध्य अमेरिकाएडियाई और चीन में भी विकसित हुई। चीन के पारम्पारिक राजनैतिक सिद्धांत के मुताबिक स्वर्ग पृथ्वी की सारी वैध सत्ताओं का स्रोत है, स्वर्ग की सत्ता शासन के लिये सबसे योग्य व्यक्ति या परिवार को चुनती है और उन्हें स्वर्ग का शासनादेश प्रदान करती है। संयुक्त चीनी साम्राज्य के पहले सम्राट चिंग शी हुआंग्दी का दावा था कि विश्व की छहों दिशाओं में मौजूद हर चीज सम्राट की है।

        साम्राज्यों ने जहां बहुत सी छोटी और बड़ी संस्कृतियों का एकीकरण किया, वहीं अपनी संस्कृति थोपने की प्रक्रिया भी जारी रखी। इसे खुद अपने देश और खुद पर अप्लाई करके समझ सकते हैं। आज का भारत साम्राज्यवादी ब्रिटेन की संतान है जहां अंग्रेजों ने इस उपमहाद्वीप के निवासियों पर हर तरह के जुल्म किये, हत्यायें की लेकिन उन्होंने आपस में लड़ते रजवाड़ों, रियासतों को भी एक किया और इतनी जनजातीय विविधता के बावजूद एक साझा राजनैतिक चेतना को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई।

        उन्होंने न्यायप्रणाली की नींव रखी, प्रशासनिक ढांचे की रचना की, आर्थिक एकीकरण के संदर्भ में निर्णायक महत्व रखने वाले रेलमार्गों का जाल खड़ा किया। आजाद होने के बाद भारत ने भी पश्चिमी लोकतंत्र के ब्रिटिश माॅडल को ही अपनाया, अंग्रेजी आज भी पूरे उपमहाद्वीप की अकेली संपर्क भाषा है। अंग्रेजों के दिये क्रिकेट और चाय का हर भारतीय दिवाना है.. कितने ऐसे भारतीय होंगे जो अपनी खुद की संस्कृति के नाम पर अंग्रेजी साम्राज्य की थोपी गयी इन विरासतों को ठुकरा सकें? क्या हम अब इन्हें या विदेशी कहे जाने वाले मुस्लिम बादशाहों की छोड़ी विरासतों को अपनी ही संस्कृति के रूप में स्वीकार नहीं कर चुके?

        (Inspired by Yuval Noah Harari’s History of Mankind)

        Written by Ashfaq Ahmad

        मानव विकास यात्रा 6

        होमोसेपियंस का सामाजिक गढ़न

        जब आबादियों ने स्थाई ठिकाने बसाने शुरू किये तो उनके जीवन के साथ रहन सहन में भी बड़ा बदलाव आया। सभी एक साथ खेती नहीं कर सकते थे, और भी दूसरे कामों की जरूरत थी.. मसलन कोई कपड़े बनाने वाला हो, तो कोई जूते चप्पल बनाने वाला तो कोई मजदूर कोई बढ़ई हो तो वैध.. दूसरे सभी एक टाईम में एक ही चीज नहीं उगा सकते थे.. कोई कुछ उगा रहा था तो कोई कुछ तो कोई बागबानी कर रहा था। ऐसे में विनिमय जरूरी था, ताकि सभी का काम चलता रहे।

        यानि किसी के पास सेब हैं तो वह कुछ सेब दे कर जूते हासिल कर सकता था, या गेंहू चावल हासिल कर सकता था.. एक वैध किसी को यह सोच के औषधि दे सकता था कि वह उससे अगले दिन कोई मजदूरी करा लेगा लेकिन इस तरह का विनिमय किसी अर्थव्यवस्था के लिये बेहद पेचीदा व्यवस्था है। क्योंकि इसमें विनमय जरूरत पर आधारित होता था तो चुकाई जाने वाली कीमत हर बार नये सिरे से तय करनी पड़ सकती थी। इसे एक माॅडल के तौर पर यूँ समझते हैं कि अगर बाजार में सौ अलग-अलग वस्तुओं का लेनदेन होता है तो खरीदार और विक्रेता को लगभग पांच हजार तक विनिमय दरों को जानना जरूरी होता है और वस्तुएं और ज्यादा होंगी तो उसी अनुपात में यह दरें बढ़ जायेंगी।

        उदाहरणार्थ आप मोची से जूते लेते हैं लेकिन आपके पास देने के लिये सेब हैं जो उसे नहीं चाहिये.. उसे बाल कटवाने हैं तो आप एक बाजार में एक नाई ढूंढते हैं जो आपके सेब ले कर उस मोची के बाल काट देगा, लेकिन अगर उस नाई के पास भी पहले से ही सेब हों तो? इन्हीं दिक्कतों से निपटने के लिये एक केन्द्रीय विनिमय व्यवस्था की जरूरत थी, यानि कुछ ऐसा जिसकी वैल्यू हर स्थिति में समान रहे और उसे एक तरह की गारंटी के तौर पर इस्तेमाल करते हुए आप किसी भी तरह का विनिमय कर सकें.. तब पैसे की अवधारणा स्थापित हुई।

        पैसे का इस्तेमाल

        पैसे की रचना अनेक बार और अनेक जगहों पर हुई.. सिक्का या नोट ही पैसा नहीं है। पैसा वह कोई भी वस्तु है, जिसका इस्तेमाल लोग अन्य वस्तुओं या सेवाओं के मूल्य के व्यवस्थित निरूपण के लिये कर सकें। इसकी वैल्यू स्थिर रहती थी और एक्सचेंज के लिये कोई दिमाग नहीं खपाना पड़ता था। पैसे में सबसे जाना पहचाना सिक्का यानि मुद्रित धातु का मानकीकृत टुकड़ा है लेकिन उसकी ईजाद से काफी पहले से ‘पैसा‘ वजूद में रहा है। शुरुआती सभ्यतायें कौड़ियों, गाय बैलों, चमड़ा, नमक, अनाज, मनकों, कपड़ा और इकरारी रुक्को को ‘मुद्रा’ की तरह इस्तेमाल करते हुए फलती फूलती रहीं।

        समूचे अफ्रीका, एशिया और समुद्री महाद्वीपों में 4000 साल तक पैसे के रूप में कौड़ियों का इस्तेमाल होता रहा। अंग्रेजी राज के दौरान युगांडा में बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों तक कौड़ियों के रूप मे करों का भुगतान होता रहा है। आधुनिक जेलों और युद्धबंदी शिविरों में पैसे के रूप में सिगरेटों का भुगतान होता रहा है.. धूम्रपान न करने वाले कैदी भी सिगरेटों को भुगतान के रूप में स्वीकारने और दूसरी वस्तुओं/सुविधाओं का मूल्य सिगरेट से आंकने में तैयार होते रहे हैं। विनिमय के लिये ‘पैसा’ आज भी एक सार्वभौमिक माध्यम है.. ‘पैसा’ हालाँकि कोई भौतिक वास्तविकता नहीं है, इसकी वैल्यू हमारी साझा कल्पना में होता है पर यह विनिमय का सबसे कामयाब माध्यम है।

        3000 ईसा पूर्व सुमेरियाई लोगों ने पैसे के रूप में ‘जौ’ का प्रयोग किया था यानि जौ पैसा, जो सीधे-सीधे जौ ही था, जिसे एक सिला के तौर पर बनाया जाता था जो मोटे तौर पर एक लीटर के बराबर होता था। तनखाहें भी जौ की सिलास के रूप में दी जाती थीं। एक पुरुष मजदूर महीने में साठ सिला और स्त्री मजदूर तीस सिला कमाती थी। इन्हें खाया भी जा सकता था और बची हुई सिला का उपयोग दूसरी वस्तुएं खरीदने में किया जा सकता था, लेकिन इसके साथ कई समस्यायें थीं.. इसे सहेज कर रखना, संग्रह करना, परिवहन करना मुश्किल काम था।

        चांदी के सिक्के

        तब ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के मध्य में प्राचीन मेसोपीटामिया में ‘पैसा’ शेकल के रूप में सामने आया जो कि सिक्का नहीं बल्कि 8.33 ग्राम चांदी होती थी, जिसका इस्तेमाल न कृषि में हो सकता था न युद्ध में न खाने में लेकिन इसे संग्रह करना या परिवहन करना आसान था।

        इतिहास के पहले सिक्के 640 ईसा पूर्व पश्चिम अनातोलिया में लीडिया के राजा अलियाटीस द्वारा ईजाद किये गये थे। इन सिक्कों का सोने या चांदी का एक मानक वजन हुआ करता था और इन पर एक पहचान चिन्ह अंकित होता था। यह चिन्ह एक तरह की घोषणा होता था कि यह राज्य व्यवस्था द्वारा निर्धारित मूल्य है और इसकी नकल मतलब राज्य से विद्रोह, जिसकी सजा मौत तक हो सकती थी।

        चूँकि लोग राजा की सत्ता और सत्यनिष्ठा पर भरोसा करते थे इसलिये नितांत अजनबी लोग भी सबसे प्रचलित रोमन सिक्के डिनायरिस पर सहज भरोसा कर लेते थे। सम्राट की सत्ता भी डिनायरिस पर टिकी थी.. सोचिये की डिनायरिस की जगह जौ की सिला होती तो.. दूर दराज तक फैली सत्ता में करों के रूप में जौ वसूलते, उसे ढो कर रोम लाते और फिर वेतन के रूप में उसे फिर ढो कर अपने सैनिकों और कर्मचारियों तक ले जाते।

        रोम के सिक्कों का क्रेज इतना जबरदस्त था कि डाॅलर की तरह ही साम्राज्य से बाहर भी इसकी समान स्वीकृति थी और यह रोम से हजारों किलोमीटर दूर भारत में भी पहली शताब्दी में लेनदेन का स्वीकृत माध्यम थे। डिनायरिस में भारतीयों का भरोसा ऐसा था कि बाद में जब उन्होंने खुद के सिक्के ढाले तो वे रोमन सम्राट की तस्वीर समेत दीनार की करीबी नकल हुआ करते थे। मुस्लिम खलीफाओं ने भी इसका अरबीकरण करते हुए ‘दीनार‘ जारी किये। जार्डन, इराक, सर्बिया, मैसेडोनिया, ट्यूनिशिया समेत कई देशों में आज भी ‘दीनार’ अधिकृत मुद्रा है।

        जिस वक्त लीडियाई शैली के सिक्के भूमध्यसागर से ले कर हिंद महासागर तक फैल रहे थे, उसी वक्त चीन ने एक हल्की अलग मुद्रा प्रणाली विकसित की जो कांसे के सिक्के और सोनेचांदी की बेनिशान सिल्लियों पर आधारित थी। इन दोनों मुद्रा प्रणालियों में पर्याप्त समानता थी कि चीनी और लीडियाई क्षेत्र के बीच घनिष्ठ मौद्रिक और वाणिज्यिक सम्बंध विकसित हो गये थे और आगे मुसलमानों, योरोपीय व्यापारियों और विजेताओं ने लीडियाई प्रणाली सोने चाँदी की मुद्रा को सुदूर कोनों तक पहुंचाया।

        आधुनिक युग के परवर्ती दौर तक आते आते सारी दुनिया एक एकल मौद्रिक क्षेत्र में बदल चुकी थी जो पहले तो सोने और चाँदी में भरोसा करती रही और उसके बाद ब्रिटिश पाउंड और अमेरिकी डाॅलर जैसी कुछ विश्वसनीय मुद्राओं पर।

        Written by Ashfaq Ahmad

        मानव विकास यात्रा 5

        धर्मों का विस्तार

        शुरुआती सभ्यतायें एकल भूमंडलीकरण से अछूती थीं और ईसा से दस हजार साल पूर्व में दुनिया भर में हजारों आस्थायें पल रही थीं जो कि वर्तमान में विश्व की आबादियों के एक दूसरे से जुड़ने पर वे सिमटती गयीं… इसकी शुरुआत इसाइयत के साथ हुई और इस्लाम और बौद्धिज्म ने इसमें वैश्विक भागीदारी निभाई। शुरुआती सभ्यतायें बहुदेववादी थीं और उनके लिये एक साथ कई देवता पूज्यनीय हो सकते थे। एकेश्वरवाद इसी धारा के बीच से पनपा था जब किसी देवता के उपासक उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित कर के उस के पीछे लामबंद हो गये।

          दुनिया का पहला इस तरह का ज्ञात एकेश्वरवादी धर्म ईसा से 350 वर्ष पूर्व प्रकट हुआ जब मिस्र के एक फैरो आख्तानेन ने मिस्र के देवतामंडल समूह के एक देवता ऑटिन को सृष्टि का सर्वशक्तिमान नियन्ता घोषित किया और इसे राजकीय धर्म बना कर दूसरे किसी भी देवता की उपासना पर रोक लगा दी… लेकिन यह क्रांति असफल रही और उसकी मौत के बाद यह विचारधारा त्याग दी गयी।

          शुरुआती सिविलाइजेशन में बहुदेववाद का ही बोलबाला रहा— जिसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई। यह विचारधारा समूचे क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़ती थी, समेटती थी… लेकिन इसी धारा ने एकेश्वरवादी आस्थाओं को भी लगातार जन्म दिया। गास्पल के प्रचार प्रसार ने इस बुनियादी विचारधारा को सीमित जरूर किया, जिसे आगे इस्लाम ने जबरदस्त चोट पहुंचाई।

          बहुदेववाद ने एकेश्वरवाद के अतिरिक्त द्वैतवादी आस्थाओं को भी जन्म दिया। द्वैतवादी दो परस्पर विरोधी सत्ताओं को स्वीकृति देते हैं— शुभ और अशुभ। एकेश्वरवाद से भिन्न द्वैतवाद यह मानता है कि अशुभ एक स्वतंत्र सत्ता है जिसको शुभ शक्ति ईश्वर ने न तो रचा है और न ही वह ईश्वर के आधीन है। द्वैतवाद कहता है कि समूची सृष्टि इन दोनों परस्पर विरोधी शक्तियों का संघर्ष क्षेत्र है।

        द्वैतवाद और एकेश्वरवाद

          द्वैतवाद और एकेश्वरवाद दोनों कुछ प्वाइंट पर धराशायी हो जाते हैं तो कुछ सवालों के जवाब भी देते हैं कि मसलन दुनिया में कुछ भी अशुभ क्यों है दुख, तकलीफें, गरीबी, भुखमरी जैसी समस्यायें क्यों हैं… इसका जवाब द्वैतवाद देता है अपने मूल सिद्धांत में लेकिन फिर वह अनुशासन के मुद्दे पर फंस जाता है कि शुभ अशुभ के बीच सतत चलने वाले संघर्षों के नियम कौन तय करता है? अब इसका जवाब एकेश्वरवाद देता है लेकिन इसी तरह के कुछ और प्वाइंट्स पर वह निरुत्तर हो जाता है।

          द्वैतवाद ने ही 1500 ईसापूर्व और 1000 ईसापूर्व के बीच मध्य एशिया में जरथुष्ट्रवाद को जन्म दिया था, जो जोरोआस्टर नाम के एक पैगम्बर से चला था और पीढ़ी दर पीढ़ी फैलते हुए 530 ईसा पूर्व एक महत्वपूर्ण मजहब बन गया था और बाद में 651 तक सासानी साम्राज्य का अधिकृत मजहब था। इसने मध्य पूर्व और मध्य एशियाई मजहबों पर बहुत गहरा असर डाला— वैदिक धर्म की जड़ें भी आपको इसी में मिलेंगी।

          हालाँकि बाद में इस्लाम के प्रसार ने इसे निगल लिया लेकिन एक अजब चीज यह देखिये कि एकेश्वरवादी यहूदीइसाई और मुस्लिम भी द्वैतवादी सिद्धांत में यकीन रखते हैं। यानि ‘अशुभ‘ के तौर पर वे ‘डेविल‘ या ‘शैतान‘ की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकारते हैं जो हर बुरा काम स्वतंत्र रूप से कर सकती है और ईश्वर की मर्जी या इजाजत के बगैर बड़ी से बड़ी तबाही मचा सकती है। यह बात और है कि वे यह कह कर खुद को बहला लेते हैं कि ईश्वर ने शैतान को यह छूट दे रखी है।

          तर्कतः यह चीज नामुमकिन सी लगती है कि एक ईश्वर में यकीन रखने वाले लोग कैसे दो परस्पर विरोधी शक्तियों में यकीन कर लेते हैं जिनका एक दूसरे पे जोर नहीं चलता और दोनों ही यह साबित करते हैं कि उन दोनों में कोई भी सर्वशक्तिमान नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से एकेश्वरवादी यहूदीइसाई और मुस्लिम ऐसा ही करते हैं… इस लचर तर्क के सहारे कि ईश्वर ने ही उस ‘अशुभ‘ शक्ति को छूट दे रखी है। 

        अनीश्वरवादी धर्मों का अविर्भाव

        हालाँकि ईसा के आगे पीछे एफ्रो एशिया में कुछ नये किस्म के मजहबों का प्रचार प्रसार भी शुरू हुआ था जो मूलतः उन देवतामयी अवधारणाओं से मुक्त थे जिनसे पीछे की सभ्यतायें परिचित रही थीं— मसलन भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म, चीन में टाओइज्म और कन्फ्यूशसवाद, भूमध्यसागरीय इलाके में स्टोइसिज्मएपीक्यूरियनिज्मसिनिसिज्म.. इनमें देवताओं की अवहेलना थी और यह अनीश्वरवादी आस्थायें थीं।

          इन धर्ममतों का मानना था कि सृष्टि का नियमन करने वाली अतिमानवीय व्यवस्था किसी दैवीय शक्ति या सनक की नहीं बल्कि प्राकृतिक नियमों की उपज है— इनमें से कुछ ने देवताओं में यकीन तो रखा लेकिन वे सर्वशक्तिमान नहीं थे, बल्कि कुदरत के नियमों के उतने ही आधीन थे जितने खुद मनुष्य या प्रकृति से जुड़े सभी जीव और वनस्पति थे।

          सेपियंस की शुरुआती छोटी छोटी आस्थायें इसी तरह पहले बहुदेववाद के रूप में विस्तारित हुईं— फिर बड़े पैमाने पर उस एकेश्वरवादी सिद्धांत के रूप में हावी हुईं जो अपने आप में द्वैतवाद को समाहित किये था और साथ ही मध्य एशिया में बहुदेववाद के रूप में कायम भी रहीं तो मध्य और पूर्वी एशिया में अनीश्वरवादी आस्थाओं के रूप में भी विकसित हुईं।

        Written by Ashfaq Ahmad

        मानव विकास यात्रा 4

        आस्था के रूप में सबसे बड़े मिथक का प्रयोग

          लोगों के परस्पर सहयोग और बड़े झुंडों के निर्माण के लिये गढ़े गये मिथकों में राज्य/राष्ट्र या कंपनीसिविलाइजेशन के उन्नत हो चुकने के बाद अस्तित्व में आई चीजें हैं लेकिन धर्म वह शुरुआती चीज है जिसने अजनबी लोगों को एक करने में बड़ी भूमिका निभाई— धर्म आस्थाओं का विस्तृत रूप है जो बाद में स्थापित हुआ लेकिन आस्थायें उस दौर से ही वजूद में आ गयी थीं जब सेपियंस शिकारी या भोजन संग्रहकर्ता के रूप में भटका करते थे।

          सबसे पुरानी सभ्यता में जो अगली पीढ़ियों तक पहुंचने वाला सबसे चर्चित मिथक था, वह एडम ईव और एक ईश्वर वाला था— सबसे शुरुआती चरण में इस मिथक को एडम और लिलिथ के साथ गढ़ा गया था जहां लिलिथ के कैरेक्टर का गढ़न बताता था कि वह किसी ऐसे स्त्री ओझा या समूह की उपज थी जिसके आसपास स्त्री सत्तात्मक समाज था। एक किवदंती के अनुसार लिलिथ एडम की खुद पर डोमिनेंस को नहीं स्वीकारती थी और सहवास में भी टॉप पोजीशन पर रहना पसंद करती थी (यहां वात्सायन के कामसूत्र मत तलाशिये, प्रतीकात्मक रूप से इसे फीमेल डॉमिनेंट सत्ता का प्रतीक समझिये)… जो उसे गढ़ने वाले समूह की सोच को दर्शाता था।

        ईश्वर का पुरुषवादी गढ़न

          लेकिन बाद के पुरुष वर्चस्ववादी सुमेरियन और अकेडियन समाजों ने उस मिथक को जूं का तूं न स्वीकार करके लिलिथ के साथ दूसरी बातों को जोड़ दिया कि वह बुराई की प्रतीक थी, ईश्वर के आदेश पर बच्चे पैदा करने को राजी नहीं थी और न उसे एडम की श्रेष्ठता स्वीकार थी इसलिये वह स्वर्ग से पृथ्वी पर भाग आई थी और तब उस तथाकथित ईश्वर ने एडम की पसली से ईव को गढ़ा… यहां भी पसली से गढ़ने में लाजिक न तलाशिये। यह भी प्रतीकात्मक था— यह दर्शाने के लिये कि आदमी ही ‘मुख्य’ है और औरत मर्द के लिये बनी है।

          आपको कहीं यह लिखा नहीं मिलेगा कि ईव की जरूरत इसलिये थी कि दोनों मिल कर प्रजनन कर सकें… प्रजनन के लिये औरत की जरूरत उस शक्तिमान ईश्वर को क्यों पड़ेगी भला जिसने इसी दुनिया में कई द्विलिंगी जीव बना रखे हैं जो नर मादा दोनों की भूमिका निभा लेते हैं— आदम भी ऐसा हो सकता था, लेकिन मिथक गढ़ने वाले इस बात से परिचित थे कि प्रजनन के लिये औरत जरूरी थी इसलिये ईव को गढ़ना जरूरी था लेकिन इस गढ़न में भी उन्होंने अपनी सोच समाहित कर रखी थी कि औरत ‘मर्द से और मर्द के मनोरंजन के लिये‘ ही बनी है।

          और इसीलिये जब इन मिथकों को ओल्ड टेस्टामेंट की किताबों में लिखने की नौबत आई तो उन्होंने लिलिथ को सिरे से गायब कर दिया और पहले मर्द और पहली औरत के रूप में ईव को गढ़ा… आज आदम हव्वा को जानने और मानने वालों में शायद तीन चौथाई लोगों ने लिलिथ का नाम भी न सुना होगा, जो मूल कांसेप्ट के हिसाब से दुनिया की पहली औरत थी। यहां उस तथाकथित ईश्वर को रचने वालों की मानसिकता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि कहीं भी उस ईश्वर का कोई लैंगिक खाका नहीं खींचा गया लेकिन हर संबोधन में वह आपको ‘करता‘ या ‘हिज‘ के रूप में पुरुषवाचक ही मिलेगा।

        ईव बनाम पेन्डोरा

          इस पुरुष वर्चस्ववादी ढाँचे को समझने के लिये उसी दौर की एक यूनानी कथा को भी लिया जा सकता है कि यूनानी परंपरा के अनुसार संसार की पहली नारी पैंडोरा की रचना देवताओं के रजा ज्यूस ने उस नर को दण्डित करने के लिये की थी जिसने प्रोमेथ्युस द्वारा चोरी की गयी पवित्र अग्नि की भेंट को ले लिया था। उसने देवताओं के कलाकार हिफेस्ट्स को आदेश दिया कि मिटटी और पानी को मिला कर एक ऐसी नारी की रचना करे जिसकी आवाज़ तो नर जैसी हो लेकिन सुन्दरता और सौम्यता में वह अमर देवी जैसी हो।

          उसने एथिना (देवी) को आदेश दिया कि उसे अच्छे से अच्छा क्लिष्ठ्तम कपड़ा बुनने की कला का प्रशिक्षण दिया जाये— सुनहरे एफिडाईट को आदेश दिया कि उसके सर को सुन्दरता और लावण्यता के साथ दुखद इच्छाओं और चिंताओं से ऐसा अलंकृत कर दे जो उसके अंगों को शिथिल कर दे— अपने संदेशवाहक हर्मीज़ को आदेश दिया कि वह इस नारी को कुत्ते जैसी बुद्धि और धोखेबाजी भरे आचरण से सज्जित करे। ज्यूस के आदेश का पालन करने के लिये देवताओं ने उसे बोलने का बहका देने वाला ढंग दिया और जब इस नारी की रचना पूरी हुई तब इसका नाम पैंडोरा रखा गया, क्योंकि सभी देवताओं ने उसे एक न एक ऐसा उपहार दिया था जो नर के लिये अनिष्टता का प्रतीक हो।

          ज्यूस के इस आकर्षक उपहार को एपेमैथ्युस को गिफ्ट दिया गया जिसके भाई प्रोमैथ्यूस ने उसे चेतावनी दे रखी थी कि वह देवताओं से कोई उपहार न ले, लेकिन पैंडोरा की सुन्दरता के आगे एपेमैथ्युस इस प्रलोभन से इनकार न कर सका और उसने पैंडोरा को ले लिया।

          प्रोमैथ्युस ने एक रहस्यमयी संदूक एपेमैथ्युस के पास इस आदेश के साथ रख छोड़ा था कि किसी भी परिस्तिथि में उसे खोला न जाये लेकिन जब पैंडोरा ने उसे देखा तो वह अपनी जिज्ञासा का निवारण का कर सकी और उसने संदूक खोल दिया— जिससे दस हज़ार बुराइयां एकदम से उस संदूक से निकल पड़ीं और समस्त मानवजाति को सताने लगीं। समयानुसार संदूक का ढक्कन बंद हो जाने से केवल आशा ही रह गयी जो संदूक से न निकल सकी। यानि पैंडोरा ने एपेमैथ्युस की बात मान ली होती तो संसार में बुराइयों का जन्म ही न होता।

          इस तरह इस कहानी से यह सिद्ध होता है कि नर निर्दोष है और नारी दोषी है— नारी के यौनाकर्षण का ही परिणाम था कि एपेमैथ्युस गुमराह हो गया था, जबकि उसके भाई ने उसे सख्त चेतावनी दे रखी थी कि वह ऐसा न करे— और चूँकि एपेमैथ्युस ने चेतावनी पर अमल किया लेकिन पैंडोरा ने ध्यान नहीं दिया इसलिये नर, नारी की तुलना में संकल्प, बुद्धिमता और सामान्य चरित्र में श्रेष्ठ है जबकि नारी अनिष्ट, दुःख और ग़लतफ़हमी का मुख्य स्रोत है। 

          Written by Ashfaq Ahmad

          मानव विकास यात्रा 3

          आग का इस्तेमाल

            इंसान के शिखर पर पहुंचने की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी आग का इस्तेमाल और उसे घरेलू बनाना था— लेकिन इसका श्रेय सेपियंस को नहीं दिया जा सकता। आठ लाख साल पहले कभी कभार आग का इस्तेमाल हुआ हो सकता है लेकिन तीन लाख साल पहले तक होमो इरेक्टसनियेंडरथल और सेपियंस के पूर्वज इसका नियमित इस्तेमाल करने लगे थे।

            इससे न सिर्फ उन्होंने अब रोशनी, ठंडे इलाकों में गर्माहट का साधन और शिकारी जानवरों से बचने के लिये एक घातक हथियार हासिल किया था बल्कि अब इसके इस्तेमाल से वे गेंहूचावल और आलू जैसी जिन वस्तुओं को उनके कुदरती रूप में वे पचा नहीं पाते थे, वे पकाये जाने के बाद मनुष्यों के भोजन का मुख्य आधार बन गयीं और म्यूटेशन्स के बाद सेपियंस ने इसी महारथ के चलते बारह हजार साल पहले खेती की नींव डाली।

            इससे पहले भाषाई दक्षता ने उन्हें बड़े समूहों में ढाला था और जहां-तहां उगी मिलने वाले जंगली घास के रूप में यह चीजें उन्हें हासिल जरूर थीं लेकिन बारह हजार साल पहले उन्होंने इसे खुद उगाना शुरू किया और दस हजार साल पूर्व तक वे उस स्थिति में पहुंच गये जहां उन्होंने बाकायदा खेती को नियंत्रित करना सीख लिया और उपजाऊ जमीनों के गिर्द डेरा डालने लगे।

          कृषि क्रांति का जन्म

            इससे पहले वे भटकने वाले समूह हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे कृषि क्रांति ने पूरी दुनिया में उनके कदमों को थामना शुरू कर दिया और इतिहास में पहली बार वे स्थाई बस्तियों के रूप में आबाद होना शुरू हुए। यह क्रांति बिना किसी ग्लोबल कम्यूनिकेशन के अमेरिका से ले कर चीन तक घटित हुई थी और दस हजार साल और साढ़े तीन हजार ईसा पूर्व के बीच के समय में बाकायदा कृषि के रूप में वह सबकुछ उगाया गया जो हम आज देखते हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि जहां पहले लोगों के भोजन लगातार बदले थे, वहीं दो तीन हजार साल साल से हमारा भोजन लगातार वही है जो हमारे शिकारीभोजन संग्रहकर्ता और कृषक पूर्वजों का हुआ करता था।

            कृषि क्रांति से पूर्व जब सेपियंस शिकारी या भोजन संग्रहकर्ताओं के रूप में भटकते थे तब समूहों में पुरुषों और स्त्रियों की भूमिका बराबरी की हुआ करती थी और वे समूह अपने नियमों के इतने पक्के हुआ करते थे कि समूह में बीमार, बूढ़ों और अतिरिक्त बच्चों की हत्या तक कर देते थे कि उनके कदम न थमने पायें लेकिन जब उन्होंने स्थाई बस्तियों के रूप में बसना शुरू किया, तब उनके जीने के तरीके बदल गये और जहां खेती ने जहां पुरुषों को घर के बाहर की सारी जिम्मेदारियों की ओर धकेला, वहीं स्त्रियों की भूमिका भी एक हद तक सीमित कर दी।

            जबकि पहले उसकी भूमिका लगभग बराबर की रहती थी और वे मिल कर शिकार करते थे या भोजन इकट्ठा करते थे। जिन मिथकों ने उन्हें बड़े-बड़े समूहों में ढाला था उनमें एक प्रमुख भूमिका उन समूहों में मौजूद ओझाओं की होती थी और यह ओझा स्त्री पुरुष कोई भी हो सकते थे। जबकि बाद के दौर में ज्यादातर समाज उस पुरुष वर्चस्ववादी ढांचे में ढलते गये जहां हर प्रमुख भूमिका पुरुष की ही होती थी।

          होमोसेपियंस के स्थायी ठिकानें

            जीवन के इस नये ढर्रे ने जहां भविष्य में उनकी अगली पीढ़ियों के लिये तरक्की की राहें खोलीं वहीं इसके बहुत से साईड इफेक्ट भी हुए। पहले के भोजन संग्रहकर्ता और शिकारी समूहों के मुकाबले कृषक समूह बहुत ज्यादा मेहनत करते थे और कम संतोषजनक जीवन जीते थे। खेती जी तोड़ मेहनत मांगती थी जिसकी वजह से वे स्थायी बस्तियां बसाने पे मजबूर हुए— जिसके कई साइड इफेक्ट भी सामने आये। किसी आपदा का शिकार हो कर फसल नष्ट हो जाने से वे अकाल का भी शिकार होते थे और स्थायी रूप से एक जगह बसने पर कोई संक्रामक रोग भी उन्हें अपनी चपेट में ले लेता था।

            इसके सिवा जब स्थाई बस्तियां बसीं तो एक व्यवस्था परक तंत्र भी खड़ा हुआ और इसने व्यापारीपुरोहित और शासक के रूप में ऐसे अभिजात्य वर्गों का गठन किया जो खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले किसान के मुकाबले या तो नाम की मेहनत करते थे या शून्य। जहां कृषि क्रांति से पहले शिकारी या भोजन संग्रहकर्ता समूहों में सभी मिल जुल कर काम करते थे और लगभग सभी बराबरी की हैसियत रखते थे, वहीं इस नई व्यवस्था ने उन्हें अलग-वर्गों में बांट दिया। एक वह वर्ग जो शासन करता था और एशपरस्त जीवन बसर करता था— दूसरा वह जो व्यापार करता था और बहुत थोड़ी मेहनत के बदले बहुत ज्यादा पाता था और एक वह जो बहुत ज्यादा मेहनत करता था और बहुत थोड़ा पाता था।

           बहरहाल कृषि क्रांति ने सेपियंस को स्थाई तौर पर बसना सिखाया और नये ढले समाजों ने अलग-अलग व्यवस्थाओं को जनम दिया। इस प्रगति में करीब साढ़े तीन हजार ईसा पूर्व हिये के इस्तेमाल ने और गति प्रदान की। पहिये का विकास तब हुआ जब इंसान एक पेचीदा समाज विकसित कर चुका था— जिसमें आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक प्रणालियां मौजूद थीं, कई जानवरों को पालतू बनाया जा चुका था और पीछे कई सदियों से खेती की जा रही थी— जबकि इस बीच हम सिलने वाली सुइयां, कपड़े, टोकरियां, बांसुरियां और नाव वगैरह बनाना पहले ही सीख चुके थे।

            इस देरी की वजह कुछ भी रही हो सकती हो लेकिन इसके आविष्कार के बाद भी कई सदियों तक इसके इस्तेमाल से सिर्फ बर्तन बनाये जाते रहे और बाद में इन्हें चक्कों के रूप में ढाला गया जब पत्थरों को ढुलका कर भारी निर्माण कार्य शुरू किये गये और आगे चल कर इसे उन पहियों के रूप में ढाला गया जहां वे किसी रथ या बैलगाड़ी जैसे वाहन के मुख्य पार्ट के रूप में इस्तेमाल हो सकें और इससे निश्चित ही हमारे विकास को और तेज गति मिली।

          Written by Ashfaq Ahmad

          मानव विकास यात्रा 2

          होमो सेपियंस की कामयाबी

            संज्ञानात्मक क्रांति को अगर हम किनारे भी कर दें तो यह तो निश्चित था कि सेपियंस दक्ष लड़ाके और रणनीतिकार थे, तभी वे पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाली सभी प्रजातियों पर अपना वर्चस्व कायम करने में कामयाब रहे थे।

            होमो इरेक्टस बीस लाख साल के सफर के दौरान जो न कर पाये— वह सेपियंस ने तीस हजार साल पहले कर लिया… यानि भाषा का विकास। अपनी बात कहने या दूसरों के बारे में बात करने के लिये उन्होंने बहुत से ध्वनि संकेत विकसित कर लिये और वे उस पोजीशन में पहुंच गये जहां वे कुछ साझा मिथक गढ़ के परस्पर सहयोग की एक नीवं डाल सकते थे। यहीं से छोटी-छोटी मत मान्यताओं, आत्माओं, देवताओं जैसी मिथकीय श्रंखला की शुरुआत हुई।

            यह छोटे-छोटे समूहों के समाज बनने के लिये कितना जरूरी तत्व था— इसे कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि एक साधारण जीव बुद्धि भोजनप्रजनन और खतरे के तीन बिंदुओं पर ही सक्रिय रहती है और उनके आपसी संकेत या भाषा बस यहीं तक सीमित रहती है। प्रजनन सम्बंधी संकेतों को अगर छोड़ दें, जो दो विपरीत लिंगी जीवों तक सीमित हो सकते हैं तो भी समूह के बाकी सदस्यों के बीच ज्यादातर कम्यूनिकेशन खतरे और भोजन को ले कर ही होते हैं। यानि वे अपने समूह के सदस्य को यह बता सकते हैं कि वहां खाना है या सावधान, उधर खतरा है— पर यह कम्यूनिकेशन बहुत नाकाफी है।

          कम्युनिकेशन का महत्त्व

            कल्पना कीजिये कि एक शेर के इलाके में दूसरा शेर आ जाये— तो वह भाषा के अभाव में उसे अपना प्रतिद्वंद्वी ही समझेगा और सोचेगा कि वह भी उसके खाने वाले इलाके में हिस्सेदारी करने आया है और दोनों में हिंसक झड़प हो जायेगी, जिसमें कोई एक मारा भी जा सकता है— जबकि हो सकता है कि दूसरा शेर बस घूमते हुए बिना किसी मकसद के ही उधर आ निकला हो, लेकिन भाषा के अभाव में यह बताने में वह सक्षम नहीं था।

            अब इसी फ्रेम को उल्टा कीजिये और मान लीजिये कि शेरों ने कम्यूनिकेशन के लिये पूरी भाषा सीख ली है और कई साझा मिथक गढ़ लिये हैं— इंसानी एतबार से यह मिथक धर्म हो सकता है, राज्य/देश हो सकता है या कोई मल्टी नेशनल कंपनी हो सकती है। तो पहला शेर दूसरे शेर से परिचय पूछता है और वह खुद को उसी धर्म, या राज्य या कंपनी से सम्बंधित बताता है जिससे पहला शेर खुद भी सम्बंधित हो तो दोनों के बीच अजनबी होते हुए भी एक आत्मीयता पैदा हो जाती है क्योंकि दोनों एक साझा मिथक से जुड़े हुए हैं और तब हो सकता है कि पहला शेर दूसरे शिकार को दावत दे और दोनों सहभागी की तरह शिकार पर निकल लें।

            जाहिर है कि जानवर ऐसा नहीं कर सकते, मनुष्यों की बाकी प्रजातियां भी नहीं कर पायीं लेकिन सेपियंस ने यह कमाल कर दिखाया। भाषा ही गॉसिप का आधार बनी… लोग भोजनप्रजनन और खतरे से इतर समूह के दूसरे लोगों के बारे में बात कर सकते थे। कौन भरोसे के काबिल है कौन नहीं, यह तय कर सकते थे और यह परस्पर गपबाजी और सहयोग छोटे समूहों को बड़े समूहों में बदल सकता था।

            लेकिन एक सामाजिक अनुसंधान के मुताबिक गपशप में बंधे समूह का आकार बस डेढ़ सौ लोगों तक सीमित होता है— यानि ज्यादातर लोग डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों से न तो आत्मीय ढंग से परिचित हो सकते हैं और न ही उनके बारे में गपशप कर सकते हैं तो फिर बड़े समूह कैसे बनें… इसके लिये उन मिथकों की जरूरत महसूस हुई जिनके सहारे दो नितांत अजनबी लोगों के बीच भी परस्पर सहयोग की भावना विकसित हो सके और यूँ उन्होंने अतीत में धर्म, मत-मान्यताओं, प्रकृति की अबूझ शक्तियों में आस्था के रूप में उन मिथकों का गढ़न किया जो भविष्य में राज्य/देश या मल्टीनेशनल कंपनी के रूप में विस्तारित हुए।

          बड़े समूहों का जुड़ाव कैसे हुआ

            कल्पना कीजिये कि आप लखनऊ में रहते हैं, घूमने के लिये चेन्नई जाते हैं जहां एकदम अजनबी शख्स से आपकी मुलाकात होती है, आप उसे नोटिस नहीं करते— लेकिन जैसे ही बातों में जाहिर होता है कि वह भी आपकी तरह ही मुसलमान है तो आपमें तत्काल एक आत्मीयता बन जाती है, यहां आप दोनों के बीच मिथक के रूप में ‘धर्म‘ साझा हो रहा है। या आप कंपनी के किसी काम से लंदन जाते हैं और वहां आपको कोई अजनबी आपके जैसा ही मिलता है जिससे बात करते ही आप जान जाते हैं कि वह भी आपकी तरह ही भारतीय है तो फौरन उस नितांत अजनबी से भी आपका आत्मीयता का सम्बंध हो जायेगा— यहां आपके बीच साझा होने वाला मिथक ‘राष्ट्र है।

            या आप हनीमून पे मसूरी जाते हैं जहां आपके बगल में ही ठहरा एक जोड़ा जो आपके लिये नितांत अजनबी है और आम हालात में आप उससे ‘हाय-हैलो’ से आगे जाना पसंद न करते, लेकिन जैसे ही आपको पता चलता है कि वह बंदा भी आपकी ही तरह ‘टाटा’ कंपनी का एम्पलाई है— फौरन ही आपका उससे परिचय स्थापित हो जाता है और अब आप दोस्तों की तरह ढेर सी बातें कर सकते हैं। यहां आप दोनों के बीच साझा हो सकने वाला मिथक ‘कंपनी‘ है।

           तो इस भाषाई कामयाबी ने जहां हम सेपियंस के बड़े समूहों को नियंत्रित किया वहीं इन साझा मिथकों ने आगे आने वाली दुनिया में अजनबियों के बीच भी समन्वय की एक बुनियाद खड़ी की। आज इंटरनेट के प्रसार ने पूरी दुनिया को एक ग्लोबल विलेज में बदल दिया है और हमारी दूसरों के प्रति समझ को इतना विकसित कर दिया है कि हम दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले नितांत अजनबी शख्स से बिना डरे बात कर सकते हैं— उससे दोस्ती कर सकते हैं लेकिन हमेशा से ही ऐसा नहीं था।

           अजनबियों के बीच परस्पर सहयोग के लिये जिन बड़े मिथकों ने बड़ी भूमिका निभाई वे निश्चित ही धर्म और राष्ट्र थे। बिना किसी जान पहचान के भी मक्का में हज के लिये, या वेटिकन में या कुंभ में लाखों लोग एक साथ जुट सकते हैं— ठीक इसी तरह एक राष्ट्र सौ करोड़ से ऊपर अजनबियों को भी एक कर सकता है।

           एक मल्टीनेशनल कंपनी भी इस सिलसिले की प्रमुख कड़ी है— जहां हजारों, लाखों लोग भी बिना एक दूसरे को जाने मिलजुल कर परस्पर सहयोग से काम करते हैं। तो सेपियंस के रूप में हमारे सर्वाइवल की दिशा में पहली कामयाबी भाषा ही थी— वह भाषा जिसने हमें उन मिथकों को गढ़ने का मौका दिया जो संसार के दो छोर पर रहने वाले दो अजनबियों को भी एक कर सके।

            जबकि होमो इरेक्टस की अपने पूरे सफर के दौरान उस शेर जैसी स्थिति बनी रही जो अपने इलाके में दिखे दूसरे शेर के बारे में यह नहीं जान सकता था कि वह उसके इलाके में खाना ढूंढने आया है या बस ऐसे ही घूमता हुआ आ निकला है… वह बस उसे अपना प्रतिद्वंद्वी घुसपैठिया समझता है और उसे अपने इलाके से खदेड़ने के लिये अपनी जान की परवाह न करते हुए भी उस पर झपट पड़ता है।

            संभवतः यही कम्युनिकेशन आधारित खूबी सेपियंस के बड़े समूह तैयार करने में मददगार साबित हुई और वे और ज्यादा ताकतवर हो कर दूसरी प्रजातियों का दमन करने में कामयाब रहे जो छोटे छोटे समूहों में बंटी हुई थीं और इस तरह हम अकेली जीवित प्रजाति बचे।

          Written by Ashfaq Ahmad