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मांसाहार वर्सेस शाकाहार

मांसाहार बनाम शाकाहार

मांसाहार वर्सेस शाकाहार.. अक्सर इस मुद्दे पे बहस होती रहती है और शाकाहार समर्थक इस मुद्दे पर मांसाहारियों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं लेकिन क्या वाकई खानपान का मुद्दा नैतिकता या संवेदनशीलता से जुड़ा होता है, जैसा इसे साबित करने की कोशिश की जाती है? नैतिकता कोई सार्वभौमिक टर्म में नहीं लागू होती बल्कि अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग रूप में हो सकती है और ठीक इसी तरह संवेदनशीलता भी एक ट्विस्टिंग फैक्ट है जो हमेशा चयनात्मक रूप में लागू होती है।

बहरहाल.. मांसाहार या शाकाहार, इसे सिर्फ भोजन मान कर बेहद सरल रूप में सर्वाइवल के मुख्य सिद्धांत के रूप में समझिये। दरअसल हमारे आसपास इस यूनिवर्स में जितना भी कुछ है, वह सब एक तरह की इनफार्मेशन है जो आगे सरकती रहती है। जब सिंगल सेल आर्गेनिजम, कांपलेक्स आर्गेनिजम के रूप में ढला तो वह सर्वाइवल के लिहाज से अपने आसपास मौजूद स्थितियों के दोहन के हिसाब से ढलता गया और उसमें उत्तरोत्तर सुधार भी आता गया जिससे आगे चल कर जीवन का विभिन्नताओं से भरा वह जटिल रूप सामने आया जो हम आज अपने आसपास देखते हैं।

Shakahar versus Mansahar

आप एक बया को देखिये, क्या आप इंटेलिजेंट स्पिसीज होते हुए भी उसके जैसा घोंसला बना सकते हैं? पर कोई बया जिसे आप जन्म से ही बिलकुल अलग माहौल में रखें कि उसे यह घोंसला बनाने की झलक भी न मिले लेकिन उसके प्राकृतिक आवास में पहुंचते ही वह वैसे ही घोंसला बना लेगा.. कछुए/मगरमच्छ के बच्चों को देखा है, पानी से दूर रेत में गड्ढे खोद कर दिये गये अंडों से निकलते ही पानी की तरफ भागते हैं न कि सूखी जमीन की तरफ.. क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका जीवन उधर है। कौन सिखाता है उन्हें? इंसान के सिवा सभी जीवों को पता रहता है कि उन्हें मेटिंग करने का मौका तभी मिलेगा जब वे मादा को रिझाने में कामयाब रहेंगे, इसके लिये वे जान की बाजी तक लगा देते हैं.. कौन सिखाता है उन्हें?

सर्वाइवल के बुनियादी सिद्धांत

दरअसल सर्वाइवल सबसे अहम कड़ी है जीवन की.. अगर जीवों को उसकी समझ नहीं होगी तो जीवन का पनपना मुमकिन नहीं.. और यह सर्वाइवल तीन मूलभूत पिलर पर डिपेंड रहता है। पहला भोजन क्या हो सकता है और इसे कैसे हासिल करना है, दूसरा प्रजनन कैसे करना है ताकि अपने जींस आगे बढ़ाये जा सकें और तीसरा खतरा क्या है और इसके अगेंस्ट हमें सुरक्षा कैसे करनी है। यह सब इन्फोर्मेशन जीवों के जींस में रहती है जो वे आगे सरका देते हैं अपनी अगली नस्ल में.. तो यह बेसिक समझ सभी जीवों में रहती है और उनका शरीर उसी इनफार्मेशन के हिसाब से ड्वेलप होता है।

मतलब शेर के बच्चे को पता होता है कि उसका भोजन मांस है, घास नहीं। हिरण को पता होता है कि उसका भोजन घास है, मांस नहीं। इनके शरीर का पाचन तंत्र उसी हिसाब से विकसित हुआ है.. आप चाह कर भी शेर को घास और हिरण को मांस नहीं खिला सकते। हर जीव को जन्मजात पता होता है कि उसे अपना वंश कैसे आगे बढ़ाना है और उसके लिये उसके पास क्या स्किल होनी चाहिये.. बया के घोसले या दो जवान नर शेरों की लड़ाई को इसी से जोड़ कर देखिये। उन्हें खतरे का अंदाजा रहता है और उससे सुरक्षा कैसे करनी है, वह भी मोटे तौर पर पता रहता है.. इसे खुद पर अप्लाई करके देख सकते हैं। अंजानी चीजों से कैसे डरते हैं और बचने की कैसे कोशिश करते हैं।

हाँ एक बात यह भी है कि इस इनफार्मेशन के साथ कई बार आदतें और बीमारियां भी ट्रांसफर हो जाती हैं जिन्हें हम अनुवांशिकता के रूप में देखते हैं। बाकी इस जेनेटिक इनफार्मेशन के हिसाब से मौजूदा इंसान सर्वाहारी होता है न कि सिर्फ मांसाहारी या शाकाहारी.. ठीक कुत्ते या भालू की तर्ज पर। यहाँ सर्वाहारी का अर्थ यह है कि उसका शरीर इस हिसाब से ढला है कि अपनी भौगोलिक स्थिति और आसपास प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के आधार पर उसका मुख्य भोजन शाकाहार या मांसाहार दोनों हो सकते हैं जबकि प्रकृति के हिसाब से यह सुविधा इंसान के सिवा कुत्ते, भालू जैसे बस कुछ जीवों में ही मिलेगी।

कहने का अर्थ यह है कि इंसान का शुद्ध शाकाहारी होना प्राकृतिक नहीं बल्कि यह एक कला है जिसे सीखना पड़ता है, एक नियंत्रण है जिसे पाना पड़ता है तो इस मामले में सर्वाहारी तो प्राकृतिक है क्योंकि वह दोनों तरह के भोजन करता है और उसका शरीर उसी हिसाब से डिजाइन हुआ है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या अप्राकृतिक तरीके/सपोर्ट के दोनों तरह का भोजन पचा सके.. जबकि शुद्ध शाकाहारी होना वह अवस्था है जिसे आपको नियंत्रण से सीखना पड़ता है।

क्या मांसाहार से बचा जा सकता है

अब आइये इस मुद्दे पर कि जहाँ फसल उपलब्ध है वहां लोग मांसाहार से परहेज कर सकते हैं क्योंकि है तो यह जीव हत्या पर ही आधारित। बात तार्किक है लेकिन व्यवहारिक नहीं.. हम साढ़े सात सौ करोड़ इंसान हैं और अस्सी प्रतिशत से ऊपर लोग मांसाहार करते होंगे और अगर एक पल के लिये मान लें कि सब शाकाहार अपना लें तो क्या सब्जियों और दालों की उपलब्धता इतनी है कि सबको अन्न मिल सके?

क्या हमारे पास इतनी खेती लायक जमीन है? क्या हम जंगल काट कर खेत बनाने की कीमत पर पर्यावरणीय असंतुलन के साइड इफेक्ट समझते हैं? फिर कमी के साथ जो इस खाद्यान्न की कीमत होगी, क्या वह सब लोग चुका पायेंगे.. अभी तो दो सौ रुपये की दाल और सौ रुपये की प्याज के नाम से आंसू आ जाते हैं।

मौसमों या कुछ बुरे इत्तेफ़ाक़ों को ध्यान में रखते हुए थोड़ा सोचियेगा कि अकाल कैसे पड़ते हैं और इसके क्या प्रभाव होते हैं.. और जब सभी शाकाहारी हो जायेंगे तो सर्वाइवल के लिहाज से इंसानी आबादी की क्या स्थिति बनेगी? ग्लोबल वार्मिंग के दौर में फसल उत्पादन तो वैसे भी अनिश्चित हो चुका है.. जो जैसे तैसे करके उगा भी पायेंगे वह क्या सबका पेट भरने लायक होगा और क्या सब सोने के भाव बिकते उस अनाज की कीमत चुकाने में सक्षम भी होंगे?

अब इसके उन पहलुओं पर एक नजर जो अक्सर शाकाहार समर्थकों की तरफ से पेश होते हैं.. जैसे एक तर्क यह होता है कि मांसाहार के लिये जो जानवरों की फार्मिंग होती है वह बड़े पैमाने पर नेचुरल रिसोर्सेज को खत्म करती है, इतने संसाधन उपयोग करके तो हम शाकाहारी ही रह सकते हैं। यह तर्क यूएस, कनाडा, आस्ट्रेलिया या योरप के कुछ देशों में छोटे पैमाने पर अप्लाई हो सकते हैं जहां बड़े जानवरों की फार्मिंग होती है लेकिन बाकी दुनिया पर नहीं। इसे अपने देश से ही समझ लीजिये कि बड़े जानवरों के जो कुछ तबेले टाईप फार्म मिलेंगे भी तो वे दुग्ध उत्पादन के लिये होते हैं न कि मीट प्रोडक्शन के लिये।

बकरों, भेड़ों, सूअरों की कोई फार्मिंग नहीं होती, बल्कि वे शहरों की बाहरी बस्तियों, गांवों जंगलों के चरवाहे/ग्रामीण/आदिवासी आदि यूं ही खुले में पालते हैं और वे नदियों, तालाबों का पानी पीते, नहाते हैं, घास, पेड़ों के पत्ते, भूसी, चोकर, खली, वगैरह खाते हैं.. ऐसा कुछ नहीं खाते कि उसे इंसान खा कर काम चला सकता हो।

Shakahar versus Mansahar

सिर्फ मुर्गियों के लिये पोल्ट्री फार्मिंग होती है जो एक घर जितनी जगह में होती है और उनका खाना भी कोई इंसानों की हकमारी नहीं करता। यह जो लैंड, वाटर, फूड के रूप में इंसानों के साथ नेचुरल रिसोर्सेज का बटवारा बताया जाता है, उसे इन चीजों से खुद मैच कर के देख लीजिये। फिर मांसाहार का एक बड़ा हिस्सा समुद्र से प्राप्त होता है और उसमें इंसानों का कोई भी, कैसा भी कोई न योगदान होता है और न ही ऐसा कोई बटवारा कि उसके लिये नेचुरल खर्चने का रोना रोया जाये।

मांसाहार के खिलाफ एक तर्क जीव हत्या का पेश किया जाता है जो यूँ तो संवेदनशीलता के नजरिये से तार्किक लगता है लेकिन यहां संवेदनशीलता ट्विस्ट करते हुए सलेक्टिव हो जाती है। जीव हत्या कहेंगे तो जीव में सभी आ गये लेकिन जब शाकाहार पर आधारित फसल उगाई जाती है तो फसल को सुरक्षित रखने के लिये कीटनाशकों के प्रयोग से बहुत से जीवों को मारा जाता है, क्या वे जीव नहीं होते? आजकल टिड्डियों ने भारत, पाकिस्तान, ईरान में आतंक मचाया हुआ है और फसल को इनसे बचाने के लिये इन्हें करोड़ों की तादाद में मारा जायेगा.. क्या वे जीव नहीं?

आप कहेंगे कि वे नुकसानदायक हैं इसलिये मारते हैं लेकिन हैं तो जीव ही। इंसानी क्रूरता तो यह भी है और जिस दूध को लोग शान से पीता हैं, उसका हासिल करना भी क्रूरता ही है.. पर वहां वैसी संवेदनशीलता नहीं दिखाई पड़ती। साईज मैटर करता है.. संवेदनशीलता जगाने के लिये कम से कम मुर्गे से बड़ा साईज तो होना चाहिये वर्ना बकरे के कटने पर तड़पने वाले लोग घर में चींटियों, दीमकों, काक्रोचों, छिपकलियों, चूहों को बड़े आराम से मार लेते हैं और कोई संवेदनशीलता नहीं जागती.. जीव तो वे भी हैं और वे सब भी अपना प्राकृतिक चक्र ही पूरा कर रहे हैं। कोई कुछ अप्राकृतिक काम नहीं कर रहा।

क्या मांसाहार से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ता है

एक तर्क होता है पर्यावरणीय असंतुलन का.. कि मांसाहार के चलते बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। यह अधूरा इल्जाम है.. पर्यावरण अंधाधुंध बढ़ती इंसानी आबादी और विकास का दुष्परिणाम है, खास कर आबादी का।

Shakahar versus Mansahar

आबादी इतनी ज्यादा है कि उसके भोजन के लिये जो इंडस्ट्रियल मीट प्रोडक्शन हो रहा है, खास कर समुद्र में… जो हमारे इको सिस्टम को तबाह किये दे रहा है लेकिन एक सच यह भी है कि मांसाहार ओनली जैसा कुछ नहीं होता.. वह सपोर्टिंग फूड है, रोटी चावल या और दिनों में जो इंसानी खाना है वह खेतों पर ही डिपेंड है और इसे हासिल करने के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं, ब्राजील ने ज्यादा जमीन हासिल करने के लिये ही अपने जंगल जलवाये थे.. तो पर्यावरण में खतरनाक असंतुलन तो यह भी पैदा कर रहा है। फिर इसके लिये एक तरह का खाना कैसे दोषी हो गया?

हाँ सबसे अहम बात.. यह इंसान के आसपास की स्थिति, उपलब्धता, बचपन से स्थापित आदतों पर आधारित च्वाइस सिस्टम है कि कोई क्या खायेगा और शाकाहार हो या मांसाहार, इसका नैतिकता या संवेदनशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता, जिन्हें ऐसा लगता है वे एक बार सारे फैक्ट्स अपने सामने रखें तो उन्हें अपने विचारों का दोहरापन खुद नजर आ जायेगा।

आदम और हव्वा की कहानी

क्या आदम और हव्वा एतिहासिक पात्र थे? 

एक बारगी डार्विनिज्म को दरकिनार भी कर दिया जाये और कोई कहे कि एडम ईव उर्फ आदम हव्वा कोई एलियन थे जो किसी तरह पृथ्वी पे फंस गये थे (जैसा मैंने अपनी किताब इनफिनिटी में लिखा था) और यहां जीरो से अपना सफर शुरु किया था तो भी मैं यह थ्योरी मान सकता हूँ लेकिन कोई यह कहे कि ईश्वर ने इन दो प्राणियों को धरती पर उतारा और उनसे समस्त मानव जाति की शुरुआत हुई, तो यह चीज किसी भी तरह मेरे गले नहीं उतरने वाली।

जब किसी तरह की साइंटिफिक रिसर्च की सुविधा नहीं थी तब चीजें लोग बे चूं-चरा मान लेते थे क्योंकि कोई और ऑप्शन नहीं था लेकिन आज तो दुनिया भर की चीजें मौजूद हैं, जानने समझने के लिये.. तो कम से कम अब तो दिमाग इस्तेमाल कर लीजिये। डेढ़ सौ साल पहले पुरातत्व विज्ञान नहीं था तो ऐसी कहानी हजम की जा सकती थी लेकिन अब तो हमें पता है कि पृथ्वी पर इंसानों का अतीत लाखों साल पुराना है।

कम्यूनिकेशन शुरू करके बड़े समूहों में ढलने का इतिहास भी पच्चीस हजार साल पुराना है और सैकड़ों सबूतों के आधार पर हमें पता है कि इंसान की होमो इरेक्टस या नियेंडरथल्स जैसी दूसरी प्रजातियों को किनारे कर दें तो भी होमो सेपियंस ने आग के इस्तेमाल, कच्चे भोजन को पका कर खाना, पत्थरों के औजारों से शुरु करके ब्रोंज और लोहे के औजारों तक आना, पहिये का अविष्कार कर के लंबे सफर करना, खेती करना, लिखना पढ़ना.. सब एक क्रोनोलाॅजी में धीरे-धीरे और हजारों साल के सफर में सीखा है और आदम हव्वा आस्मान से जमीन पर उतरते ही आग जलाना, खेती करना, शिकार करना, लोहे के औजारों का इस्तेमाल करना और लिखना पढ़ना सब शुरू कर देते हैं।

उनके बेटे शेत उर्फ शीश के बेटे एनोश उर्फ अनूश के बेटे केनान उर्फ कयान के बेटे महललेल उर्फ महलाईल के बारे में लिखा है कि उन्होंने नई-नई बस्तियां बसाईं, इंडस्ट्रीज की शुरूआत की, किले बनवाये और मस्जिदें बनवाईं.. आदम की सिर्फ चौथी पीढ़ी, मान लीजिये कि उनके बीच हजार साल का भी फर्क रख लीजिये तो इतने ही वक्त में सुपर सोनिक स्पीड से दुनिया ने इतनी तरक्की कर ली थी। मतलब मानव विकास के जो भी सबूत दुनिया में पाये जाते हैं, वह कोई मायने ही नहीं रखते।

मजे की बात है कि सेमिटिक में जितने भी पैगम्बरों के नाम लिये जाते हैं, तीन चार नामों को छोड़ किसी का भी कोई एतिहासिक सबूत नहीं है और यह सब माइथालाॅजिकल कैरेक्टर्स ही हैं जो एक लिटरेचर का हिस्सा हैं लेकिन चूंकि इन पर यकीन रखने वाले इन्हें एतिहासिक मानते हैं तो एक बार उन्हीं के नजरिये से इनकी एतिहासिकता को मान्यता देते हुए इनका टाईम पीरियड चेक कर लेते हैं। पहले आदम से शुरू करते नूह तक पहुंचते हैं.. नीचे इन नामों के आगे वह उम्र लिखी है जिसमें उन्होंने अगली पीढ़ी को पैदा किया..

एडम-130, शेत-105, एनोश-90, केनान-70, महललेल-65, येरेद-162, हनोक-65, मतुशेलाह-187, लेमेक-182 (नूह), यानि आदम के आने के बाद से दसवीं पीढ़ी में नूह के पैदा होने के बीच 1056 साल होते हैं और जब नूह 600 साल के होते हैं तब वह जल प्रलय आती है, मतलब एडम के अवतरण के 1656 साल बाद।

इसके बाद नूह से इब्राहीम तक पहुंचते हैं.. यह भी उनकी दसवीं पीढ़ी में हैं। नूह-500, शेम-102, एर्फेक्शेड-35, सलाह-30, एबर-34, पेलेग-30, रेऊ-32, सेरग-30, नाहोर-29, तेराह-130 (इब्राहीम) तक आते 952 साल होते हैं। नोट करने वाली बात यह है कि इब्राहीम की बर्थ डेट भी बताई गयी है जो 2150 BC है, अब इस हिसाब से पीछे जायेंगे तो 1056+952=2008 साल पीछे हीं एडम मिल जाते हैं यानि 4158 BC मतलब बस आज से 6,159 साल पीछे ही। इस हिसाब से वह जल प्रलय 2502 BC में घटित हुई थी यानि आज से 4503 साल पीछे।

अब इब्राहीम से मूसा तक आते हैं.. इब्राहीम-100, इसहाक-60, जेकब-65, लेवी-67, केहाथ-67, अमराम-65 (मूसा).. यानि इब्राहीम से मूसा तक 424 साल लगे तो अगर इब्राहीम की जन्म तिथि 2150 BC से चलें तो 1726 BC में मूसा को पैदा होना चाहिये लेकिन इन्हें उस फिरौन की वजह से जाना जाता है जिसके बारे में अंदाजा लगाया जाता है कि वह रेमेसिस था जो 1213 BC में मरा तो उस हिसाब से देखें तो इन्हें भी उसी दौर में होना चाहिये जबकि इनकी वंशावली के हिसाब से देखें तो इनका जन्म करीब पांच सौ साल पीछे जा रहा है।

और अगर रेमेसिस के हिसाब से ही इन्हें मान लें तो यह आदम की छब्बीसवीं पीढ़ी में आयेंगे और सबकी उम्रों को अगर जोड़ें तो 2008+424=2432 साल होते हैं और इसमें मान लें कि एग्जाडस के समय मूसा की उम्र 80 साल थी तो उसे जोड़ के कुल 2512 साल होते हैं। अब इन्हीं की कहानी है कि वह एग्जाडस के समय डूब कर मर गया था जो कि रेमेसिस के इतिहास में उसकी मृत्यु के समय के रूप में 1213 BC दर्ज है तो इस डेट से ठीक 2512 साल पीछे यानी 3725 BC में एडम मिल जाते हैं, मतलब आज से 5746 साल पीछे वह धरती पर उतरे थे और उन्होंने मानव सभ्यता की शुरुआत की थी जबकि बारह हजार साल पहले हमारे पूर्वज घुमक्कड़ी छोड़ कर स्थाई बस्तियां बसा कर खेती करना शुरु कर चुके थे।

इससे आगे की क्रोनोलाॅजी समझना चाहते हैं तो उस पर भी एक नजर डाल सकते हैं.. एग्जाडस यानि मूसा के मिस्र छोड़ने के बाद इज्राएल में अपनी कौम को बसाने, व्यवस्थित करने में मूसा को 40 साल लगते हैं, इसके बाद निम्नलिखित क्रम में लोग वहां राज्य करते हैं.. जोशुआ-ओथनील-40, एहुद-80, डेबोरह-40, गिडेऊन-40, एबिमेलेज-3, टोला-23, जायर-22.. इसके बाद जेपथेह के अट्ठारह के होने तक कुछ साल गद्दी खाली रहती है और फिर जेपथेह-6, एलन-10, एब्डान-8, सैंपसन-20, हेली-जज-प्रीस्ट-4, सैमुएल-सोल-40, डेविड उर्फ दाऊद-40, और उनके बाद गद्दी संभालने वाले उनके बेटे सोलोमन उर्फ सुलेमान ने सत्ता संभालने के चार साल बाद माउंट टेम्पल का निर्माण कराया जिसे मुसलमान मस्जिदे अक्सा के रूप में जानते हैं और जिसके निर्माण की तारीख 957 BC दर्ज है।

यानि अगर एतिहासिक रूप से स्थापित इसी तारीख को एक पिक प्वाइंट के रूप में मान लें तो एग्जाडस से उस वक्त तक अप्राक्सिमेटली 450 साल के आसपास का वक्त होता है और इसे एग्जाडस के टाईम में जोड़ें जो आदम के अवतरण के बाद से 2512 साल होता है.. यानि टोटल 2912 साल। राउंड फिगर में तीन हजार साल रख लें तो मतलब माउंट टेम्पल के बनने के तीन हजार साल पहले आदम दुनिया में आये थे और उसे बने अब लगभग तीन हजार साल हो चुके हैं तो उसे मिला कर छः हजार साल बनते हैं.. यानि अब से लगभग छः हजार साल पहले एडम और ईव ने दुनिया में मानव सभ्यता शुरु की थी।

अगर कोई पीढ़ियों के हिसाब से अब्राहम से ईसा की वंशावली समझना चाहता है तो इससे समझ सकता है.. इब्राहीम> इसहाक> जेकब> जेडास> फैरेस> एसराम> एरम> एमिनाडेब> नासन> सैलमन> बूज> ओबेड> जेस्से> डेविड (दाऊद)> सोलोमन (सुलेमान)> रोबोम> एबिया> एसा> जोसाफेट> जोरम> ओजिअस> जोथम> एजेस> एजिकिआस> मैनासेस> एमन> जोसिआस> जेकोनिआस> सेलाथील> जोरोबेबल> एविअड> एलिआकिम> एजर> सैडाक> एकिम> इलियड> एलिजर> मैटहन> जेकब> जोसेफ.. जो मदर मैरी के शौहर थे।

और इन्हें पिक प्वाइंट बनायें तो यह अब्राहम की चालीसवीं पीढ़ी हैं और इनके बीच चालीस साल का मैक्सिमम एवरेज गैप रखें तो सोलह सौ साल होते हैं और उस हिसाब से अगर गणना करेंगे तो अब्राहम की जन्मतिथि 3600 ईसापूर्व आयेगी जो उनकी दी गयी तिथि से मैच नहीं करेगी और इस हिसाब से एडम का अवतरण काल और पहले आ जायेगा जबकि अगर माउंट टेम्पल को पिक प्वाइंट बनायें तो उस वक्त सोलोमन के बेटे रोबोम के जन्म का समय होगा और वहां से ईसा तक पच्चीस पीढ़ी बनती हैं जिनके बीच के एवरेज गैप को चालीस का भी मानें तो टोटल पीरियड हजार साल का बनता है जो कि माउंट टेम्पल की निर्माण तिथि से मैच हो जाता है।

अब अगर कोई मुसलमान यह कहना चाहे कि यह सब वंशावली तो बाईबिल की है, हमसे क्या मतलब तो उसे जानना चाहिये कि इस्लामिक कांसेप्ट में भी यह जूं की तूं मौजूद है और आदम से लेकर मूसा तक की वंशावली यह रही.. आदम शीश (शेथ)> अनूशा> कैनान> महलाईल> यारिद> इदरीस (अखनूद)> मुतवाशलक> लैमिक> नूह> शाम> अर्फाक्शद> शालिख> अबीर> फालिख> राऊ> सार> नहूर> तारीह> इब्राहीम> इसहाक> याकूब> लावी> कोहाथ> अमराम> मूसा।

और इब्राहीम से मुहम्मद साहब तक..

इब्राहीम> इस्माईल> हैदीर> अराम> अदवा> वज्जी> सामी> जरीह> नहीथ> मुकसर> एहम> अफनाद> एसार> देशान> आयद> अरावी> अल्हन> यहजिन> अथराबी> सनबीर> हमदान> अददाअ> उबैद> अबकार> आइद> मखी> नाहीश> जहीम> तबीख> यदलत> बिलदास> हाजा> नशीद> अव्वाम> ओबाई> कमवाल> बुज> औस> सलामन> हुमैसी> एद> अदनान> माद> निजार> मुदार> इलियास> मुदरिकाह> खुजैमा> किनाना> अन-नदर> मलिक> फाहर> गालिब> लोई> काब> मुर्रा> किलाब> कुसाई> अब्दुल मुनाफ> हाशिम> अब्दुल मुत्तलिब> अब्दुल्ला> मुहम्मद साहब।

यानि आदम के हिसाब से देखें तो मुहम्मद साहब उनकी 82वीं पीढ़ी हैं और इनके बीच के एवरेज गैप को आप अपनी मर्जी से (जो मुनासिब हो) जो चाहें मान लें और उसे 670 ई० के हिसाब से प्लस कर लें तो भी पांच हजार साल पीछे ही जाते बनेगा। या इब्राहीम से जोड़ें तो उनकी यह 62वीं पीढ़ी हैं और इनके बीच के मैक्सिमम गैप को पचास साल भी रख लें तो भी 3100 साल बनेंगे, जिसमें उनके जन्म के बाद के 1351 साल जोड़ लें तो आज से करीब साढ़े चार हजार साल बनेंगे और उनसे आदम तक के बीच का बीस पीढ़ियों का गैप (सौ साल भी मान लें तो) दो हजार साल का बनेगा। यानि उस हिसाब से भी साढ़े छः हजार साल पहले आदम दुनिया में इंसानों की आबादी शुरु करने आये थे।

हाऊ फनी न.. धार्मिक कांसेप्ट बस ऐसे ही अतार्किक और अवैज्ञानिक होते हैं। चूंकि लिखने वालों को पता नहीं था कि कभी पुरातत्व विज्ञान जैसी कोई चीज भी आ जायेगी और धरती पर हजारों लाखों साल पहले की इंसानी मौजूदगी के सबूत भी मिल जायेंगे तो उन्होंने बाकायदा सबकी पीढ़ियां और उम्रें तक लिख डालीं, सोचा ही नहीं कि कभी इंसान इन्हें कैलकुलेट कर के जड़ तक पहुंच जायेगा जो दूसरे साइंटिफिक सबूतों से एकदम उलट होगी। मुश्किल यह है कि अब नये उपलब्ध ज्ञान के हिसाब से वे इन किताबों को एडिट भी नहीं कर सकते वर्ना सारी वंश बेल सिरे से हटा दी जाती और आदम हव्वा को सीधे अफ्रीका पहुंचा दिया जाता.. मगर अफसोस!

अब ऐसी चीजों पर आप कुछ भी आलोचनात्मक लिखें तो बहुत से लोग आपको बताने आ जाते हैं कि ऐसा नहीं ऐसा है, आपको जानना चाहिये, आपको पढ़ना चाहिये.. और मजे की बात यह है कि अतीत से जुड़े ढेरों मुद्दों पर खुद ही यह आपस में सहमत नहीं होते। कोई किसी हदीस को गलत बतायेगा कोई किसी हदीस को, कोई किसी आयत का कुछ मतलब निकालेगा तो कोई कुछ.. खुद ठीक से समझ नहीं पाते कि फाइनली क्या कहना है लेकिन दूसरे को समझाने की पूरी कोशिश करनी है।

अच्छा चलिये मान लेते हैं कि आपको नहीं पता..तो कैसे जानना है? कुरान में सीधी-सीधी आयतें लिखी हैं जिनसे पल्ले नहीं पड़ेगा कि किससे, किस मौके पर, क्या कहा जा रहा है.. उसका संदर्भ जानने के लिये तफसीर पढ़नी पड़ेगी, लेकिन वहां भी लिमिटेड चीजें हैं.. तो बाकी चीजें कैसे जानेंगे? हदीस से, जो एक्चुअल टाईम के दो सौ साल बाद के आसपास संग्रहित की गयीं जनश्रुतियों से, जिनका कोई भरोसा नहीं कि क्या सही है क्या नहीं.. लेकिन फिर भी यह सोच कर पढ़ सकते हैं कि इस बहाने यह तो पता चलेगा कि उस वक्त के लोग क्या सोचते थे और उनके ज्ञान का लेवल क्या था।

लेकिन वह सारी मोटी-मोटी किताबें पढ़ने में बहुत वक्त और ऊर्जा लगेगी, तो उससे बेहतर है कि जिन्होंने वह सब पढ़ रखा है, उनके जरिये ही थोड़ा बहुत जान लीजिये। नीचे एक इस्लामिक वेबसाइट के चार लिंक दे रहा हूँ.. पहला है दुनिया कैसे बनी को लेकर, दूसरा है आदम कैसे वजूद में आये, तीसरा है कि आदम ने धरती पर शुरुआत कैसे की और चौथा है कि आदम के बाद उनकी पीढ़ियां आगे कैसे बढ़ीं। इस पोस्ट को पूरी करके इत्मीनान से एक-एक करके पढ़िये और दिमाग खोल कर सोचिये कि किस तरह की बातों पे यकीन किया जाता है धार्मिक प्रतिबद्धता के चलते और फिर सोचिये.. कि इन बातों पर यकीन रखने वाले, जो कि खुद को काफी जानकार मानते हैं और पूरी कसरत से ऐसी चीजों को डिफेंड करते हैं.. हकीकत में वे किस लायक होते हैं।

Written By Ashfaq Ahmad

अपनी किताब कैसे छपवायें?

किताब प्रकाशित कराने के क्या-क्या विकल्प हैं 

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ईबुक कैसे डिजाइन और पब्लिश करें

बुक पब्लिशिंग के लिये दूसरा ऑप्शन है पेपरबैक के रूप में एक फिजिकल स्टफ, यानि एक प्राॅपर किताब छपवाना। अब यहां जो सबसे पहली जरूरत है, वह है किताब को रेडी टू प्रिंट तैयार करना.. क्योंकि इस बात के बहुत कम चांस हैं कि आपके लिखे को किताब की शक्ल में सहेजने का जतन कोई संपादक/प्रकाशक करेगा, अगर आप इसके पीछे खर्च नहीं कर रहे हो। हां, खर्च कर रहे हैं तब किसी भी पब्लिकेशन की तरफ से या सेल्फ पब्लिशिंग मोड में प्रोफेशनल्स की तरफ से आपको यह सुविधा मिल सकती है। खुद से इसे करना चाहते हैं तो नीचे दिये लिंक पर इस पूरी प्रक्रिया को उकेरा गया है, आप इस लेख से मदद ले सकते हैं..

वर्ड में किताब कैसे डिजाइन करें

अब मान लेते हैं कि आपके पास एक रेडी टू प्रिंट स्क्रिप्ट तैयार हो गई है.. तो यहां से भी उसे छपवाने के लिये आपके पास दो ऑप्शन हैं। पहला कि किसी परंपरागत पब्लिकेशन को स्क्रिप्ट दें, इसमें काफी वक्त लग सकता है और बड़े, स्थापित लेखकों को छोड़ कर शायद ही किसी की पांडुलिपि वे इस तरह लेते हैं कि आपको कुछ न देना पड़े, वे इसे खुद के रिस्क पर छापें और ऑनलाइन उपलब्ध कराने के साथ ही देश भर के बुक स्टोर्स और स्टाल्स पर उपलब्ध करायें। बिक्री पर 10 से 15 प्रतिशत राॅयल्टी आपको मिल सकती है। अगर आप नये हैं, तभी यहां यह लेख पढ़ रहे हैं, तो समझ लीजिये कि आपके लिये वह सुविधा नहीं है। आपको दूसरे ऑप्शन पे जाना पड़ेगा.. यानि किताब को छपवाने के लिये आपको पैसे खर्च करने पड़ेंगे।

बड़े पब्लिकेशन सहयोग राषि के नाम पर इतने पैसे ले लेते हैं कि 500 या 1000 प्रतियाँ उसी पैसे से छप जायें और फिर अगर वे बिकती हैं तो उस बिक्री पर आपको 10-15% राॅयल्टी मिलती है। छोटे ढेरों पब्लिकेशन कम फीस में यानि 5000 से लेकर 20000 तक में भी किताब छाप देते हैं लेकिन उसमें उनकी तरफ से बस सर्विस ही रहती है, 20-25 हजार लेने वाले आपको सौ प्रतियां उपलब्ध करा देंगे कि आप खुद बेचिये और कुछ काॅपीज अपने पास रख के ऑनलाइन लिस्ट कर देते हैं।

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बाकी सेल्फ पब्लिशिंग में नोशन, ब्लू रोज जैसे प्लेटफॉर्म्स हैं जो 35 हजार से लेकर लाख रुपये तक के पैकेज देते हैं जहां इतने पैसे में उनकी सर्विस और मात्र दस ऑथर काॅपीज ही काउंट होती है। बाकी छोटे पैकेज पर सिर्फ ऑनलाइन लिस्ट कर देते हैं और बड़े पैकेज पर सौ-दो सौ काॅपी प्रिंट करके कुछ अपने से जुड़े स्टोर्स में किताब उपलब्ध करा देते हैं। बड़े पैकेज में हिंदी वालों का फायदा नहीं, अंग्रेजी के लिये ठीक है क्योंकि वहां इंटरनेशनल मंच मिलता है। इस तरह से किताब पब्लिश करने पर वे 100% राॅयल्टी देने की बात तो करते हैं लेकिन वह होती कितनी है, इसे ऐसे समझिये। नीचे नोशन पर लिस्ट 226 पेज की एक किताब है, जिसकी प्रोडक्शन कास्ट 104 है, अब आप इसकी MRP 260 (उनकी तरफ से मिनिमम रखने की शर्त से बंधी) भी रखते हैं तो अगर यह किताब अमेजाॅन/फ्लिपकार्ट जैसे मंच से बिकती है तो आपको मात्र 18-19 रुपये मिलते हैं। यही आपकी 100% राॅयल्टी है।

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 और इतना काफी नहीं है, इस सिलसिले की जटिलता यह है कि एक पाठक जब 260 की यह किताब खरीदने जायेगा तो उसे 40 से 50 डिलीवरी चार्ज भी देना पड़ेगा, जो अमेजाॅन या फ्लिपकार्ट वाले नहीं लेते बल्कि वह सेलर की तरफ से होता है और इन पब्लिकेशन के अकाउंट में जाता है लेकिन न वह आपको बताया जायेगा और न ही आपके साथ शेयर किया जायेगा। आपको सारी कैलकुलेशन MRP के हिसाब से दी जायेगी जहां प्रोडक्शन कास्ट (पब्लिकेशन के शेयर के साथ 140 हो सकती है) के साथ इन मार्केटप्लेस का चार्ज (क्लोजिंग फीस/रेफ्रल चार्ज/शिपिंग चार्ज) 100+ जोड़ के सारी गणित निकाल ली जाती है। यानि आपको कैलकुलेशन में मैक्जिमम (जो नेशनल चार्ज होता है लगभग 84₹) चार्ज ही बताया जाता है जबकि बायर लोकल या रीजनल एरिया का भी हो सकता है जिसके चार्ज अलग हो जाते हैं (लोकल 45+, रीजनल 60+).. इस तरह यहाँ भी आपके साथ एक खेल होता है।

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि मान लीजिये खरीदार चेन्नई का है जो नोशन का लोकल एरिया है तो अमेजाॅन का शेयर बस 60 तक रहेगा.. अब ग्राहक से मिले 300 में 240 नोशन के, जिसमें 105 प्रोडक्शन कास्ट भी निकाल दें तो बचे हुए 135 में 19 रुपये आपको मिलने हैं और 126 नोशन के। कमोबेश यही खेल आपके साथ हर जगह होता है।

अब मूल मुद्दे पर लौटते हैं, किसी पैकेज या सहयोग राषि के नाम पर एक तयशुदा रकम की अदायगी के साथ आप अगर स्क्रिप्ट पब्लिकेशन को सौंपते हैं तो सारी सरदर्दी फिर उनकी हो जाती है लेकिन अगर आप खर्च नहीं करना चाहते या मिनिमम खर्च करना चाहते हैं तो फिर पोथी, क्रियेटस्पेस, जगर्नाट या नोशन के पास एक ऑप्शन रहता है कि खुद से पब्लिश कर लें। कुछ जगह ISBN आपको लेना पड़ सकता है तो किसी जगह पब्लिकेशन ही उपलब्ध करा सकते हैं। बस आपको उनकी गाईडलाईन के हिसाब से रेडी टू प्रिंट अपलोड करनी होती है। कवर के लिये उनके टूल का भी सपोर्ट ले सकते हैं या खुद भी बाहर से बनवा सकते हैं।

अब किताबों की छपाई ऑफसेट और डिजिटल दो तरह से होती है.. यहां 200+ काॅपीज के लिये ऑफसेट के ऑप्शन पे जाते हैं जहां 200+ पेज की किताब भी 80₹ के आसपास पड़ सकती है। प्रतियां जितनी ज्यादा होंगी, उतनी ही कास्ट घटती जायेगी.. दूसरे डिजिटली प्रिंट होती हैं जहां लगभग एक ही रेट रहता है लेकिन यहां कास्ट काफी ज्यादा रहती है। आप नीचे की तस्वीरों से अंदाजा लगा सकते हैं कि 200 पेज की किताब की प्रोडक्शन कास्ट 233 आनी है। अब इसपे आपको राॅयल्टी चाहिये तो MRP इससे ऊपर ही रखनी पड़ेगी, जबकि इसके बावजूद किताब इन्हीं के स्टोर से खरीदी जा सकेगी।

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अगर चाहते हैं कि अमेजाॅन या फ्लिपकार्ट पर भी लिस्ट हो तो उनके चार्ज भी इस MRP में इनक्लूड करने पड़ेंगे। अब सोचिये कि आप नये नवेले, अंजान से लेखक.. भला आपकी किताब 350 या 400 में कौन खरीदेगा जबकि कई बड़े लेखकों की किताबें 150 तक में बिक रही हैं। उनकी इसलिये बिकती हैं क्योंकि उनकी ऑफसेट से बल्क प्रिंटिंग होती है, और वह इसलिये होती है क्योंकि प्रकाशक को उनके बिकने की गारंटी रहती है। आपकी किताब इस तरह बिकने की गारंटी नहीं तो आपको यह सुविधा नहीं.. खुद खर्च करके छपवाना चाहें तो छपवा लें मगर बेचना आपको ही पड़ेगा।

आउटबर्स्ट 1

क्या सच में पृथ्वी पर नूह वाली बाढ़ आई थी ?

अगर दुनिया के नक्शे को फैला कर देखें तो मुख्य आबादियों के चार बिंदु नजर आयेंगे। सबसे मुख्य तो योरप और मिडिल ईस्ट की जिसे आप मेडेटेरेनियन सी के आसपास रख सकते हैं पूर्व की तरफ फैलाव के साथ.. दूसरी जो भारत कहे जाने वाले संपूर्ण क्षेत्र की तरफ फैली थी.. तीसरी जो हिमालय के पार, एशिया के सबसे पूर्व में थी और पैसिफिक तक फैली थी और चौथी जो बाकी आबादियों के साईज की तो नहीं थी पर इस लिहाज से मुख्य थी कि वह दो तरफ विशाल महासागरों से घिरे अमेरिकी कांटीनेंट में थी।

इन चारों जगहों पर जनश्रुतियों से चली आई बाढ़ की एक कहानी मिलेगी जो बहुत पहले के अतीत से जुड़ी है, और जिसकी ऐतिहासिकता के तो सबूत नहीं पर चूंकि वह धर्म की चाशनी के साथ परोसी गयी है तो लगभग पहुंची सभी आबादियों तक उसकी पहुंच है। एशिया के पूर्वी किनारे पर बसे चीनियों के पास उनके किसी महापुरुष के साथ दर्ज है तो अटलांटिक और पैसिफिक से घिरे अमेरिका में एज्टेक लोगों के पास उनके किसी देव पुरुष के साथ। दक्षिण एशिया में पूरे भारत को रखें तो यह सातवें मनु वैवस्वत के साथ जुड़ी है और योरप और मिडिल ईस्ट में यह नूह के साथ जुड़ी है।

अब चूंकि इन दो जगहों के धर्म और इनके फाॅलोवर्स पूरी दुनिया में फैले हैं तो यह कहानी पूरी दुनिया में मिलेगी, जिस पर हाॅलीवुड वाले रसेल क्रो के साथ फिल्म भी बना चुके हैं। कहानी मूल रूप से बाइबिल की थी, जिसे बाद में मुसलमानों ने अडाॅप्ट किया तो सहज रूप से यह थोड़ी एडिटिंग के साथ कुरान में भी उपलब्ध है। कहानी के ज्यादा गहरे में उतरने की जरूरत नहीं.. वह शायद सभी ने सुन रखी होगी कि धरती पर पाप बहुत बढ़ गया तो ईश्वर ने पापियों को सजा देने के लिये एक विश्व व्यापी बाढ़ पैदा की और नूह को इस बात की खबर पहले से थी तो उन्होंने एक बड़ी कश्ती बनाई जिसके जरिये, जानवरों, परिंदो और अपनी अगली पीढ़ी को बचाया।


चलिये कहानी के व्यावहारिक पहलू पर फोकस करते हैं.. क्या ऐसा हो सकता है कि मात्र कुछ दिन (सात दिन) के अल्टीमेटम पर नूह आस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में पाये जाने वाले कंगारू या कीवी पकड़ लायें? या सुदूर अमेरिका से ले कर चीन तक खास क्षेत्र में पाये जाने वाले कैपिबारा से ले कर कुआला जैसे पशु पक्षी पकड़ लायें? या उनके बस में था कि वे आर्कटिक पर पाये जाने वाले पोलर बियर या अंटार्कटिका में पाये जाने वाले पेंग्विन पकड़ लायें?

चलिये किसी चमत्कार से मान लेते हैं कि ऐसा कर भी लिया गया तो भी उससे बड़ा सवाल यह है कि अलग-अलग जमीन और तापमान के रहने वाले पशु पक्षी किसी एक जगह पर कैसे रह सकेंगे? आप उम्मीद करते हैं कि उत्तरी ध्रुव की बर्फ में रहने वाला भालू किसी गर्म जगह पर रह लेगा या रेगिस्तान में रहने वाले ऊंट शुतुरमुर्ग किसी बर्फीली जगह पर रह लेंगे। कोई एक वातावरण कुछ जानवरों और परिंदों के लिये तो सूटेबल हो सकता है लेकिन सबके लिये नहीं। फिर मांस पर जिंदा रहने वाले शेर, भेड़िये, लकड़बग्घे इस तरह पकड़ने ही मुमकिन है और न उन्हें यूं एक जगह रखना।

फिर इतनी बड़ी भीड़ एक जहाज पर (चाहे वह कितना भी बड़ा हो) एक लंबे वक्त के लिये (लगभग छः महीने तक) रखना है तो उसके लिये बहुत सारे खाने का प्रबंध भी करना पड़ेगा.. खास कर मांसाहारी जानवरों के लिये। अब इतना बंदोबस्त एक जहाज पर व्यवहारिक रूप से मुमकिन नहीं, बाकी आस्था में दिमाग बंद करके चमत्कार मान लीजिये तो अलग बात है।

अब दिमाग वाली बात यह है कि अगर चमत्कार को किनारे रखते हैं तो कोई साधारण समझ का इंसान भी बता देगा कि कहानी असली नहीं है, क्योंकि इसे सच बनाने के लिये काफी चमत्कार चाहिये होंगे.. लेकिन इस सबसे परे एक चीज जो सोचने वाली है कि अगर इसे धार्मिक चमत्कार से दूर रखें तो भी पृथ्वी पर एक बड़ी बाढ़ का जिक्र तो मिलता है क्योंकि इससे सम्बंधित कहानी अलग-अलग उन संस्कृतियों में मौजूद हैं जो भौगोलिक रूप से पूरी दुनिया को कवर करती हैं।तो ऐसी किसी बाढ़ की क्या वजह हो सकती है और क्या ऐसी कोई बाढ़ संभव थी??

अपने समय से आगे की सभ्यतायें कहाँ लुप्त हो गयीं?

अगर टाईम स्केल पर हम साढ़े चार हजार साल पीछे जायें तो दुनिया की अधिकांश सभ्यतायें छोटे-छोटे समूहों में बंटी थीं और विकास के मामले में उन्होंने कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की थी बल्कि ब्रोंज एज को जीते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थीं लेकिन उसी दौर में इजिप्ट और इंडस वैली की सभ्यतायें अपने समय से बहुत आगे थीं।

उनके और ग्लोब की दूसरी सभ्यताओं के बीच विकास के पैमाने पर काफी फर्क था। वे सभ्य थीं, आधुनिक थीं, उनके पास नगरों को बसाने का सही प्लान था और वे इंजीनियरिंग कर रही थीं।हड़प्पा के उन्नत होने के पुरातत्विक प्रमाण उनके नगरों के अवशेष से मिलते हैं जबकि इजिप्ट की उस आधुनिक सभ्यता की झलक ग्रेट पिरामिड, स्फिंक्स, हैथोर के डंडेरा लाईट कांप्लेक्स और एबिडस के हायरोग्लिफ्स से मिलती है।

यह पिरामिड किस तरह उस जमाने में बनाया गया होगा जब लोहे तक की खोज नहीं हुई थी, न पहियों का इस्तेमाल शुरू हुआ था.. न कोई टेक्नोलॉजी ही थी उस वक्त बाकी दुनिया में.. यह अपने आप में एक रहस्य है और आज भी इस पर माथापच्ची होती है। इसमें ज्योग्राफी, से लेकर ज्योमेट्री, वातानुकूलन से ले कर स्टार कांस्टिलेशन तक सबकुछ एक रहस्य है जो उस दौर में बेहद मुश्किल चीज थी।

यह ओरायन बेल्ट के तीन सितारों के साथ अलाइन है, नार्थ पोल के साथ अलाइन है और इसके स्ट्रक्चर से इस बात की झलक भी मिलती है कि एरियल व्यू का भी ध्यान रखा गया है जो उस दौर में संभव नहीं था। इसके बारे में ज्यादा जानने के लिये यूट्यूब पर इससे सम्बंधित वीडियो देख सकते हैं।वहीं हैथोर मंदिर में डंडेरा कांप्लेक्स नाम की जगह है जहाँ दीवारों पर उकेरे डंडेरा लाईट के चित्र इस बात की गवाही देते हैं कि उन लोगों को बिजली के इस्तेमाल की जानकारी थी।

इसकी झलक कुछ और पेट्रोग्लिफ्स में मिलती है जहां लोगों के हाथ में टाॅर्च जैसी कोई चीज दर्शाई गयी है और इसी को ले कर शोधकर्ताओं का नया दावा है कि यह पिरामिड असल में वायरलेस इलेक्ट्रिसिटी प्रोडयूस करने के लिये बनाये गये पाॅवर प्लांट थे और इससे सम्बंधित सुराग और थ्योरी विस्तार से यूट्यूब पर देख समझ सकते हैं।

वहीं एबिडस में मौजूद हायरोग्लिफ्स में कुछ आकृतियां हेलीकाप्टर, यूएफओ और सबमरीन को दर्शाती नजर आती हैं जिसकी वजह से बहुत से लोगों का यह मानना है कि उस वक्त एलियन वहां आते थे, और वही वहां के लोगों को ज्ञान देते थे। उस दौर में तकनीकी लिहाज से असंभव लगते पिरामिड उन्हीं की मदद और सुपरविजन से बने थे।

अब ऐसा नहीं भी है तो भी इस तरह की आकृतियां उन मिस्रवासियों के दिमाग में थीं तो इससे कम से कम एक अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि तकनीकी मामलों में उनकी समझ बाकी ग्लोबवासियों से कहीं ज्यादा थी और यही उनके उन्नत होने का सबूत थी।

उसी काल खंड में हड़प्पा सभ्यता थी जो तकनीकी तौर पर उन जैसी तो नहीं थी लेकिन इंजीनियरिंग की समझ उनमें भी बहुत जबरदस्त थी और उन्होंने बेमिसाल इंजीनियरिंग का प्रयोग करते हुए आधुनिक तर्ज के शहर बसाये हुए थे जो उन्हें ज्ञात इतिहास में तब आसपास पाई जाने वाली आबादियों से आगे करता था।

इस सभ्यता का अरब सागर के किनारे से लगा एक बेहतरीन शहर था धोलावीरा, जो वहां आबाद था जहां आज गुजरात का रण है और दूर-दूर तक सिवा नमक के और कुछ नहीं दिखता लेकिन कभी यहाँ हड़प्पा सभ्यता का एक बंदरगाही शहर हुआ करता था।फिर करीब चार हजार साल पीछे.. यह सभ्यता लुप्त हो गयी।

किसी जगह कोई बड़ी आपदा आये तो वह जगह बर्बाद हो जाती है और लोग इधर-उधर चले जाते हैं लेकिन पूरी सभ्यता को तो लुप्त नहीं कहा जाता.. फिर इनके लिये क्यों यह माना गया कि यह खत्म हो गये? क्योंकि इंसान जगह छोड़ सकता है, मगर उसका ज्ञान तो उसके साथ ही रहेगा। अगर वे इस रीजन को छोड़ कर किसी और जगह बसे होते तो उस ज्ञान का इस्तेमाल वहां करते और उनकी इंजीनियरिंग की एक कंटीन्युटी बनती जिसकी झलक वर्तमान तक मिलती लेकिन चूंकि इनके मामले में ऐसा नहीं हुआ और न उस दौर में किसी नगर में इनके ज्ञान और भाषा की पुनरावृत्ति मिलती है तो यह मान लिया गया कि यह पूरी सभ्यता ही लुप्त हो गयी।


उनके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं कि वे कौन थे, क्या भाषा बोलते थे, सारे मारे गये या बच कर कहीं और चले गये.. हमें कुछ पता नहीं। ऐसा होना तो मुश्किल है कि किसी आपदा या आफत में इतने लंबे चौड़े क्षेत्र में फैली पूरी सभ्यता ही खत्म हो जाये मगर यह माना जा सकता है कि उनकी जगह पूरी तरह खत्म हो गयी थी, वे छुटपुट इधर-उधर सालों साल जूझते बचे भी होंगे तो पूर्वी भारत की तरफ आबादियों में आ मिले होंगे या अब के पश्चिमी पाकिस्तान की.. उस दौर के लोग संभल ही न पाये होंगे और नई पीढ़ी वह ज्ञान कैरी न कर सकी होगी जिससे इस उन्नत सभ्यता के बचे खुचे लोग वहीं जा खड़े हुए होंगे जहाँ उस वक्त बाकी दुनिया की आबादियां खड़ी थीं।

लेकिन इसी आधार पर हम यही थ्योरी खुफू के दौर के उन प्राचीन मिस्रवासियों पर लागू नहीं करते जबकि वे भी अपने दौर में कुछ अलग ही और अपने वक्त से आगे के ज्ञान को जी रहे थे लेकिन फिर वह दौर भी आया कि इनका वह आधुनिक ज्ञान गायब हो गया। सारी आधुनिक टेक्नोलाजी खत्म हो गयी और वह सबकुछ इतिहास में दफन हो गया।

इस दौर में एक 140 साल लंबे चले अकाल का जिक्र जरूर मिलता है जिसने उस वक्त की केंद्रीय व्यवस्था को ढहा दिया था। बाद के दौर में बिखरा-बिखरा मिस्र फिर एकत्र हुआ.. साम्राज्य बना और फैरो कहे जाने वाले शासकों ने लंबे वक्त तक शासन किया लेकिन अपने उस गौरवशाली अतीत को रिपीट नहीं कर पाये। उन्होंने भी बहुत से निर्माण कराये मगर ऐसा कुछ न बना पाये जो उनके पुरखे बना गये थे कि जिन्हें ले कर उपजे सवालों के जवाब आज भी लोग ढूंढ रहे हैं।

अगर इस ग्लिच को सही रूप में रेखांकित करते हुए यह माना जाये कि वह आबादी, जो उस ज्ञान को कैरी कर रही थी, जिसे ले कर ठीक ठाक जवाब हम आज भी नहीं तलाश पाये हैं.. चार हजार साल पूर्व के आसपास इंडस वैली की सभ्यता की तरह ही किसी तरह लुप्त हुई है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसे में सवाल यह बनेगा कि दो हजार ईसा पूर्व के आसपास ऐसा क्या हुआ होगा कि अपने समय से आगे चलती इन दोनों आबादियों को इतिहास में दफन हो जाना पड़ा।

मिस्र के मामले में अगर उस डेढ़ सदी चले अकाल को रख सकते हैं जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के विलोपन के पीछे भी एक वजह लंबे अकाल को माना जाता है तो यह भी कह सकते हैं कि उस दौरान एक बड़ा भौगोलिक क्षेत्र प्राकृतिक जलवायु के डिस्टर्बेंस का सामना कर रहा था.. क्या इसकी वजह सूरज का वायलेंट आचरण हो सकता है?

Written by

Ashfaq Ahmad

आउटबर्स्ट 2

क्यों मिलते हैं समुद्र में डूबे हुए शहर?

360 ईसा पूर्व में प्लेटो के लिखे ‘डायलाॅग’ में अटलांटिस का जिक्र मिलता है जो समुद्र में गर्क हो गया था। सदियों तक इस पर बात होती रही है और इसे एक माइथालाॅजिकल शहर माना जाता रहा है लेकिन 2009 के आसपास स्पेन के दक्षिण में एक समुद्र में डूबे शहर को खोजा गया था जिसके बारे में शोधकर्ताओं का मानना है कि यह वह खोया हुआ शहर अटलांटिस हो सकता है। हालांकि इस साईट के अटलांटिस होने की गारंटी नहीं है मगर एक यह हकीकत है कि कोई शहर था वहां, जो समुद्र में डूबा और ज्ञात इतिहास में उसका जिक्र नहीं मिलता।

1967-68 में ग्रीस के दक्षिण में मेडेटेरेनियन सी में एक डूबे हुए शहर की खोज की गयी थी, जिसे नाम दिया था पाउलोपेट्री, अनुमानन इसे पांच हजार साल पुराना बताया गया जो कि आगे पीछे भी हो सकता है। मेडेटेरेनियन के आसपास सबसे पुरानी आधुनिक आबादी बसती थी और उन्नत आबादी के इस तरह के ज्यादातर पुरातात्विक प्रमाण इसी क्षेत्र में मिलते हैं। मेडेटेरेनियन में ऐसी और भी साइटें खोजी गयी हैं।

ऐसा ही एक डूबा हुआ शहर द्वारका है, जो गुजरात के पश्चिम में अरब सागर में जलमग्न है और जिसका सही मायने में व्यापक सर्वेक्षण 2005 और 2007 में किया गया और करीब 200 अवशेष एकत्र किये गये जिसमें वहां मिले बर्तनों के बारे में अनुमान लगाया गया कि वे 3000 ईसापूर्व से 1528 ईसापूर्व के बीच के हो सकते हैं। हालांकि इस डूबे नगर की उम्र पर विवाद है और अगर आस्था वाले एंगल से हट कर सोचें तो एटलांटिस की तरह यहां भी गारंटी नहीं कि यह वही माइथालाॅजिकल द्वारका है मगर एक बात हकीकत है कि एक शहर था वहां जो शायद चार पांच हजार साल पहले डूब गया था।


इसी तरह 1987 में जापान के दक्षिण में रायक्यू आईलैंड के पास एक स्ट्रक्चर की खोज की गयी जो समुद्र में डूबा था और आकृति के हिसाब से एक बड़ा पिरामिड था। इसे जापानी अटलांटिस भी कहा गया पर नाम दिया गया योनागुनी मोनूमेंट, इसका फार्मेशन उत्तरी आयरलैंड के जायंट काॅजवे जैसा है। इसके बारे में एक थ्योरी यह भी है कि इसे वहां रहने वाली पैसिफिक सिविलाइजेशन के जोमां लोगों द्वारा बनाया गया जबकि कुछ लोग इसे नेचुरल फार्मेशन भी बताते हैं लेकिन यह जाहिरी तौर पर मानव निर्मित लगता है।इसी तरह एक मरीन इंजीनियर पाउलीन जैलिट्ज्की और उनके पति पाॅल वींजवेग ने 2001 में क्यूबा के पास एक ऐसी ही साइट खोजी थी जो एक डूबे हुए शहर का पता देती थी।

यहां भी कई पिरामिड और सर्कुलर स्ट्रक्चर के साथ मिश्रित ढांचे मिले हैं। कुछ शोधकर्ताओं के अनुमान से कभी क्यूबा और मैक्सिको के बीच इस जगह लैंड ब्रिज था जो बाद में पानी में डूब गया। यह ढांचे उन ढांचों से सिमिलर हैं जो मायन्स और एज्टेक लोगों ने बनाये थे जबकि कुछ साइंटिस्ट इसे प्राकृतिक और लाखों साल पुराना मानते हैं। यह वे चर्चित साइटें हैं जो अब तक खोजी गयी हैं और जिनकी जांच पड़ताल की गयी, जबकि हो सकता है कि ऐसी बहुत सी साइटें अभी खोजे जाने का इंतजार कर रही हों.. इनकी एग्जेक्ट टाइमिंग पर बहस है मगर मोटे तौर पर इन्हें चार हजार साल पहले के आसपास का माना जा सकता है।

बहरहाल इन समुद्र में डूबे शहरों से एक बात तो पता चलती है कि आज से हजारों साल पहले भी लोग समुद्र के किनारों पर नगरीय आबादियां बसा रहे थें जो कालांतर में जलमग्न हो गयीं। इसकी प्रमुख वजह समुद्र का बढ़ा जलस्तर हो सकता है लेकिन अगर इसे हिम युग की समाप्ति के हिसाब से जोड़ें तो यह दस हजार साल पुराने होने चाहिये जबकि यह बहुत बाद के हैं।

क्या इन सब तबाहियों के पीछे कोई सौर तूफ़ान था?

पिछली सदी में हालैंड में एक खोज हुई थी जमीन के अंदर दबी एक राख की लेयर की, जिसके बारे में तब आम मत था कि वह अतीत की किसी वाईल्ड फायर का नतीजा थी, फिर ऐसी ही लेयर अलग-अलग छः कांटीनेंट्स में 29 साइटों पर पाई गयी, और जिसे अमेरिका में क्लोविस लेयर या योरप में यूसेलो होराइजन कहा गया। फिर 2018 में ग्रीनलैंड में कुछ क्रेटर की खोज हुई और इसे लेकर एक कास्मिक इम्पैक्ट की थ्योरी पेश की गयी जिसे यंगर ड्रायस इम्पैक्ट हाइपोथेसिस कहा गया जिसके हिसाब से कुछ कामेट्स नार्थ अमेरिका या ग्रीनलैंड में पृथ्वी से टकराये थे और इसकी वजह से एक बड़ी तबाही ट्रिगर हुई थी।

उस वक्त सी लेवल बहुत नीचे था, ज्यादातर पानी बर्फ के रूप में जमा था और इस इम्पैक्ट से पैदा ऊर्जा ने बर्फ पिघला दी थी, ज्वालामुखी फूट पड़े थे, ज्यादातर पानी का वाष्पीकरण हो गया था जिसकी वजह से बाद में मुसलसल एसिड रेन हुई थी और सारे महाद्वीपीय किनारे डूब गये थे। इंसानी आबादियों का ज्यादातर हिस्सा खत्म हो गया था और ज्वालामुखियों से निकल कर वायुमंडल में पहुंची राख ही अमेरिका से आस्ट्रेलिया तक पहुंच कर बरसी थी जिससे वह लेयर बनी..

और संभवतः जिस विश्वव्यापी बाढ़ का जिक्र हम भिन्न संस्कृतियों में पाते हैं, उसकी वजह यही हो।हालांकि बाद में जब यह पाया गया कि ज्यादातर सैम्पल की कार्बन डेटिंग इसे बारह हजार साल पहले की बता रही तो इन कहानियों को फिट करना मुश्किल हो गया। इसे उस दौर में हिम युग की समाप्ति का कारण जरूर माना जा सकता है.. उस वक्त ग्रीनलैंड और नार्थ अमेरिका एक ही थे और बर्फ से जमे थे, इस इम्पैक्ट ने ही वह बर्फ पिघलाई और उस दौरान ही मैमथ से ले कर सेबरटूथ तक विलुप्त हुए।

बेतहाशा बढ़े सी लेवल ने तमाम किनारों को निगल लिया। अगर उस दौर में किनारे पर कोई आधुनिक नगर रहा होगा, तो उसका डूबना निश्चित था लेकिन इसकी गुंजाइश कम ही है क्योंकि शिकारी और भोजन संग्रहकर्ता सेपियंस ने स्थाई बस्तियां इसके बाद ही बसानी शुरू की थी।

अब पृथ्वी पर परग्रहियों के अस्तित्व को साबित करने में लगे कुछ शोधकर्ताओं ने इसी तर्ज पर एक और थ्योरी सामने रखी है.. हाई एनर्जी सोलर स्टार्म की, ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं। यह तो हम सबको पता है कि सूरज से इस किस्म के तूफान आते रहते हैं जिससे आमतौर पर हमारी मैगनेटोस्फियर और ओजोन हमें बचाते रहते हैं लेकिन अगर कभी इसकी तीव्रता बहुत ज्यादा हो तो इससे बचना मुश्किल है। इसके एक्स्ट्रीम रूप को निकोलस केज अभिनीत हालीवुड मूवी “नोइंग” में दिखाया गया है।

यह शोधकर्ता इस सन फ्लेअर या सौर तूफान को उस लेवल का तो नहीं मानते पर यह आउटबर्स्ट इतना शक्तिशाली तो जरूर था कि इसने अपने केंद्र पर अच्छी खासी तबाही मचाई थी जो कि मिस्र और इंडस वैली के बीच होना चाहिये क्योंकि यहीं वह उन्नत आबादियां थीं जो लगभग एक समय ही इतिहास से गायब हो गयीं।

हो सकता है कि सूरज का असमान आचरण उस दौर में लंबे वक्त तक चला हो जिसने ग्लोब के अलग-अलग क्षेत्रों में सूखे, अकाल और बाढ़ की स्थिति बनाई हो और कुछ सी लेवल भी बढ़ाया हो लेकिन फिर सोलर फ्लेअर के फाईनल आउटबर्स्ट ने एकदम से वह इम्पैक्ट पैदा किया कि इससे बढ़ी गर्मी ने भी वही प्रभाव पैदा किया जो यंगर ड्रायस हाईपोथेसिस में सोचा गया था।

इसने ग्लेशियरों को पिघला दिया, बड़े पैमाने पर पानी को वेपराईज कर दिया जिससे बाद में बेतहाशा बारिश हुई और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण सी लेवल एकदम ऊपर उठ गया। उस वक्त जो किनारों पर नगरीय आबादियां थीं, वह इसकी चपेट में आ गयीं। जो इन क्षेत्रों में ज्वालामुखी रहे होंगे, वह भी एक्टिव हो गये होंगे। यह इम्पैक्ट भले कुछ मिनट या घंटों के लिये और एक खास क्षेत्र में रहा हो मगर इसका प्रभाव पूरे ग्लोब पर पड़ा और समुद्र का लेवल बढ़ने और बेतहाशा बारिश से लगभग सभी संस्कृतियों ने एक भयानक बाढ़ का सामना किया।

ग्रेट स्फिंक्स के भी पानी में डूबे रहने के सबूत मिले हैं।हड़प्पा के निचले क्षेत्र में बसा धोलावीरा समुद्र की भेंट चढ़ा होगा और बाद में कभी पानी उतरा होगा तो वह नमक का रेगिस्तान बन के रह गया। ऊपरी क्षेत्र के शहरों ने उस आग को झेला होगा और कुछ लोग बचे भी होंगे तो उन्होंने भूख और अकाल से दम तोड़ दिया होगा। उनकी तरह ही यह अजाब मिस्र के लोगों ने भी झेला होगा।

अब उस वक्त भौगोलिक स्थितियां कितनी भी डांवाडोल और एक खास क्षेत्र के लिये विनाशकारी क्यों न हुई हों मगर बाकी आबादियों ने किसी तरह खुद को संभाला ही था और इस आपदा के गुजर जाने के बाद नई शुरुआत की थी। बाद में पानी वापस बर्फ के रूप में जमा होगा, समुद्र का लेवल कम हुआ भी होगा तो वह पहले जितना न हो पाया और अब तो लगातार बढ़ ही रहा है।अब उस वक्त लोगों को कौन सा सौर तूफान या इसके इफेक्ट की समझ रही होगी।

जिन्होंने डायरेक्ट झेला, वे गुजर गये और जिन्होंने इसके प्रभाव को झेला उन्हें बस बाढ़ समझ में आई और जब जनश्रुतियों में इसकी यादें संजोई गयीं तो ऐसे में बचाव का एकमात्र सहारा कश्ती ही समझ में आती है, और चूंकि अनदेखी ताकतों पर उन्हें विश्वास रहता था तो इसे ईश्वरीय शेड दे कर किसी अवतार पुरुष के हाथ बचाव की बागडोर थमा दी गयी, जो आगे चल कर कहानियों में दर्ज हो गयी। यूसेलो लेयर जैसी और भी परतें कहीं जमीन में दबी हो सकती हैं।

बहरहाल, यह सामने आई एक लेटेस्ट थ्योरी है जो सबसे सटीक लगती है, यंगर ड्रायस हाईपोथेसिस के मुकाबले.. क्योंकि वह जिस स्तर की तबाही की बात करती है, उस काल खंड में उतनी बड़ी तबाही के दूसरे सबूत नहीं मिलते जबकि इस थ्योरी के साथ इन तीनों सवालों के जवाब मिल सकते हैं कि गीजा जैसा पिरामिड बनाने वाली और साढ़े चार हजार साल पहले इंजीनियरिंग के हिसाब से शहर बसाने वाली उन दो उन्नत आबादियों के साथ क्या हुआ होगा..

कैसे ग्लोब के हर हिस्से में एक बहुत बड़ी बाढ़ की कहानी मिलती है और कैसे किनारों पर बसे वे आधुनिक नगर समुद्र में डूब गये। यह आज भी हो सकता है.. एक हाई एनर्जी वाला सौर तूफान पूरी दुनिया को ठीक इसी तर्ज पर प्रभावित कर सकता है बल्कि “Knowing” में दिखाये गये इफेक्ट की तरह पूरे प्लेनेट को भी खत्म कर सकता है।तो जिस ग्लोबल बाढ़ का जिक्र लेख के शुरुआत में किया, वह यंगर ड्रायस इम्पैक्ट का परिणाम भी हो सकती है और इस बाद वाले आउटबर्स्ट का भी..

इनसे सम्बंधित कहानियां एक ही वक्त से ली गयी भी हो सकती हैं और इन दो अलग मौकों से भी ली गयी हो सकती हैं या किसी संस्कृति की कहानी बस एक रूपक के तौर पर भी रची गई हो सकती है। अभी तक यह दो थ्योरी आई हैं सामने, आगे हो सकता है कि कोई और भी आयें.. न पृथ्वी के अतीत पर होता शोध अभी थमा है और न अभी कोई फाइनल स्टैंड तय किया गया है। बस चीजें सामने रखी गयी हैं और यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या मानते हैं।