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भारत जोड़ो यात्रा

भारत जोड़ो यात्रा: एक सार्थक पहल लेकिन उससे कुछ बदलेगा क्या?

फिलहाल एक कमज़ोर और असहाय से विपक्ष का नेतृत्व करते राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरु की है जो सत्ता के नियंत्रण में दरबारी भांड की भूमिका में पहुंच चुकी मेनस्ट्रीम मीडिया से भले नदारद हो लेकिन सोशल मीडिया जैसे माध्यम के ज़रिये काफी चर्चा पा रही है, इसमें कांग्रेस के पीआर मैनेजमेंट की मेहनत को श्रेय ज़रूर जाता है लेकिन स्वाभाविक तौर पर लोग ख़ुद भी दिलचस्पी ले रहे हैं, जो एक सकारात्मक पहल को मिलती उत्साहजनक प्रतिक्रिया कही जा सकती है और जिसके लिये शायद वर्तमान सत्ता के विरोध में खड़ा हर शख़्स घनघोर मायूसी के बीच थोड़ी राहत और थोड़ी ख़ुशी महसूस कर सकता है।

लेकिन यह भीड़ वोटों में नहीं बदलती, ऐसा कुछ हम बिहार चुनाव से पहले तेजस्वी के पीछे, और यूपी चुनाव में अखिलेश के पीछे देख चुके हैं। तो जब अंतिम परिणाम, जो निश्चित ही सत्ता परिवर्तन होना चाहिये— अगर वही रहता है तो मेरे जैसे किसी भी तटस्थ नागरिक को, जो वर्तमान सत्ता के हथकंडों से त्रस्त हो— उसे क्यों इस यात्रा का समर्थन करना चाहिये? यह मेरा सवाल नहीं है, यह मेरे जैसे उन करोड़ों लोगों की उलझन है जो दूर से इस यात्रा को देख रहे हैं लेकिन अपना स्टैंड नहीं क्लियर कर पा रहे। सबसे अहम सवाल तो यही है कि संघ और भाजपा ने समाज को इस हद तोड़-फोड़ कर रख दिया है, उसे मात्र एक यात्रा या फिर इस यात्रा से जुड़ने वाले लोग तो नहीं बदल सकते… ऐसे में मान लेते हैं कि किसी चमत्कार से सत्ता कांग्रेस/यूपीए के हाथ आ भी जाती है तो वे उन त्रुटियों, विसंगतियों, बिगाड़ों को कैसे मैनेज करेंगे जो इस सामाजिक सिस्टम में आ चुकी हैं?

कोई क्लियर वादा तो राहुल गांधी कर नहीं रहे, कोई भरोसा तो दिला नहीं रहे कि उनके हाथ सत्ता आते ही वे फलां-फलां बदलाव पर फोकस करेंगे। भले आदमी हैं, सौम्य हैं, सरल हैं, उदार हैं लेकिन टेढ़ी राजनीति में सीधे लोग फिट नहीं होते। आप नरेंद्र मोदी को लाख नापसंद करें और लाख झूठा कहें, लेकिन सत्ता पाने से पहले उन्होंने भारतीय जनमानस को एक क्लियर स्टैंड के साथ यह भरोसा दिलाया था कि वे सत्ता पाते ही ऐसा-ऐसा करेंगे। लोगों ने भरोसा करके सत्ता उन्हें सौंपी, भले वे अपने वादों पर खरे नहीं उतरे और पीआर एजेंसी, मीडिया, आईटीसेल की बदौलत अनगिनत झूठों और मिसलीडिंग सूचनाओं के सहारे अपनी छवि चमकाते, साम-दाम-दंड-भेद के सहारे अपनी सत्ता रिटेन करते रहे लेकिन वह सत्ता पाई उन्होंने जनता को भरोसा दिला कर ही थी कि मैं ऐसा-ऐसा करूंगा… क्या राहुल गांधी ऐसा कुछ करते दिख रहे हैं?

यह सब पर प्यार लुटाने वाला, सबको माफ कर देने वाला फंडा कम से कम राजनीति में तो नहीं चलता। शुद्ध हिंदी बेल्ट में भले मोदी को नायक मानने वालों का प्रतिशत सत्तर क्यों न हो, लेकिन पूरे भारत में तो ऐसा नहीं है। एक बड़ी आबादी उन्हें देश की दुर्दशा का जिम्मेदार और खलनायक मानने वाली भी है। यह एक ऐसे पिलर की तलाश में बिखरी और दुविधाग्रस्त भीड़ है, जो किसी सीधे-सादे, वर्तमान राजनीति में मिसफिट, उदार और सबको माफ कर देने वाले नेता के पीछे गोलबंद नहीं होने वाली, चाहे विपक्ष चुनाव पर चुनाव हारता रहे। एक फिल्म की कल्पना कीजिये जिसमें एक सशक्त विलेन पूरी फिल्म भर न सिर्फ आम जनता का जीना मुहाल किये रहा हो, बल्कि नायक को भी पूरी फिल्म भर सताता रहा हो और जब फिल्म का क्लाइमैक्स हो तो नायक अपना मौका बनने के बावजूद बड़ा दिल दिखाते उस विलेन को माफ कर दे… ऐसी फिल्म और ऐसा नायक भारतीय जनमानस को कभी नहीं पसंद आने वाले। क्या राहुल वैसे ही एक नायक नहीं लगते?

भाजपा का विजय रथ बहुसंख्यकवाद के बेस पर दौड़ रहा है, जो किसी भी लोकतंत्र की सबसे पापुलर थीम हो सकता है। उन्होंने धर्मभीरू और सदियों तक विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों लुटी-पिटी जनता में गहरे तक व्याप्त हीनता को टार्गेट दिया और धर्म और गर्व के मिश्रण से तैयार एक ऐसे नशे की आपूर्ति की, जिसके व्यसन में लिप्त जूडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी और समाज के अंतिम छोर पर खड़ा जन तक एक रोबोट सरीखा व्यवहार कर रहा है। ठीक है कि इस संक्रमण से निपटने की दिशा में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा एक पहली कोशिश हो सकती है लेकिन आगे?

सबसे पहले तो उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिये कि उनका गोल क्या है… अगर वे भारत के टूटे, बिखरे, कुंठित, घृणा से भरे समाज के बीच प्रेम, सौहार्द और एकता के बीज रोपने की कोशिश में लगे हैं, तो बिना सत्ता परिवर्तन यह कैसे संभव है? जब सत्ता में बैठे लोग ही इस बिखराव के सहारे सर्वाइव करने को मजबूर हैं, तो वे कैसे ऐसा होने देंगे? यहां तो सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ही लोगों को कपड़ों के आधार पर पहचनवा कर समाज में अलग-थलग करवा रहा है— फिर ऐसे लोगों के पाॅवर में रहते कोई एकता कैसे संभव है?

अंततोगत्वा लक्ष्य सत्ता परिवर्तन ही होना चाहिये, बिना सत्ता और शक्ति पाये तो आप जमीन पर ऐसी दसियों यात्राएं कर डालिये, उससे इस टूटे, बिखरे समाज में कुछ नहीं बदलने वाला। आपके साथ जुड़ेंगे मात्र वही, जो पहले से आपके साथ हैं। नये लोगों को जोड़ने के लिये न सिर्फ उन्हें सत्ता परिवर्तन के रूप में अपना गोल क्लियर करना चाहिये, अपितु मेरे जैसे तटस्थ नागरिक के लिहाज से उन सभी बिंदुओं पर अपना स्टैंड भी क्लियर करना चाहिये— जो मुझे वर्तमान सत्ता के विरोध में खड़े होने पर मजबूर किये हैं।

अब उन बिंदुओं पर चर्चा करते हैं, जिनकी मैं बात कर रहा हूं… महंगाई या बेरोजगारी से लड़ने जैसे कालजयी मुद्दों से इतर, इनमें सबसे पहला प्वाइंट है आज के बिकाऊ नेता। इस साल यूपी विधानसभा के चुनाव में सपा अच्छी फाईट में थी, जीतने की पोजीशन में थी लेकिन नहीं जीत पाई। सवाल यह है कि जीत भी जाती तो कितने दिन सपा की सरकार चलती जब सामने वाले ईडी, सीबीआई का डर और बेशुमार पैसों की ताक़त के साथ पूरी बेशर्मी से जीते हुए विपक्षी विधायक तोड़ कर अपनी सरकार बना लेने से गुरेज़ नहीं करते— जैसा उन्होंने कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में कर के दिखाया।

आदमी के वोट की वैल्यू क्या है, जब जीता हुआ विधायक बिकने में देर नहीं लगाता— क्या राहुल गांधी लोगों को यह यक़ीन दिला पायेंगे कि उनके वोट की भी वैल्यू है? मान लीजिये लोग भाजपा से त्रस्त होने की दशा में कांग्रेस की राज्य या केंद्र में सरकार बनवा भी दें तो कितने दिन टिकेंगी वे सरकारें— राजनीति के बाज़ार में सबसे बिकाऊ तो कांग्रेसी ही हैं। क्या राहुल भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता उनके हाथ आते ही वे ऐसे सभी पाला बदलने वाले विधायकों/सांसदों के साथ पूरी बेरहमी से पेश आयेंगे और उनसे उस बिक्री की एवज में हुई कमाई ज़ब्त करके उन्हें जेल पहुंचायेंगे और आगे के लिये सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में कोई विधायक/सांसद ऐसा न कर पाये?

सत्ता में बैठे लोगों का बड़ा सीधा सा फंडा है, वे सरकार बनाते हैं, कुछ बड़े और खास पूंजीपतियों को अंधाधुंध लाभान्वित करते हैं, जिसमें एक मोटा कमीशन बतौर इलेक्टोरल बांड उन्हें मिलता है और उस पैसे का इस्तेमाल वे उन जगहों पर विधायक खरीदने में करते हैं जहां जनता सीधे उनकी सरकार नहीं बनाती। क्या राहुल मेरे जैसे लोगों को यह यक़ीन दिलायेंगे कि सत्ता उनके हाथ आने पर वे इस चेन को तोड़ेंगे और ऐसे सभी केसेज की इनक्वायरी करा के, लाभान्वित होने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ सख्त एक्शन लेंगे या फिर इलेक्टोरल बांड्स का रुख़ भाजपा से कांग्रेस की तरफ़ करने के बाद उन्हें ओब्लाईज करने के लिये उनकी सारी पिछली धांधलियों की तरफ़ से आंख मूंद लेंगे?

मेरा एक प्वाइंट है मीडिया… यह प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक, दोनों सेक्शन में सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों के पीछे इस कदर एकांगी हो चुका है कि इनके पेश किये कंटेंट में खबर के बजाय बाकी सबकुछ होता है, यह ख़बरें देने वाले स्रोत नहीं बल्कि अघोषित रूप से सरकार के प्रवक्ता बन चुके हैं जहां विपक्ष के लिये जीरो स्पेस है। इनकी क्या वैल्यू बची है, यह इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली रैंकिंग से समझा जा सकता है। एक विशाल दर्शक/पाठक वर्ग के अवचेतन से खेलने, उनके मन में अपनी अवधारणाएं रोपने और उस जनमत को सत्ता के पक्ष में मोड़ने में यह अहम भूमिका निभाते हैं। सवाल यह है कि सत्ता अगर राहुल गांधी के हाथ आती है तो वे इस ट्रैक को कैसे चेंज करेंगे?

अब तक दलालों जैसी भूमिका निभाने वाले चैनलों/अखबारों/पत्रकारों के खिलाफ जीतने की स्थिति में वे क्या एक्शन लेने वाले हैं? क्या वे हमें यह भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता परिवर्तन होने के बाद कोई कमेटी इन सबकी जांच करेगी कि इनकी दिखाई, छापी खबरों ने समाज में कैसा नकारात्मक प्रभाव पैदा किया और ज़मीन पर पैदा हुए फसादों में इनकी क्या भूमिका रही, कितने लोगों को अपनी जान इनके फैलाये ज़हर की वजह से गंवानी पड़ी और उस आधार पर न सिर्फ इनके खिलाफ़ सख़्त कानूनी एक्शन लिया जायेगा— भले इसके लिये कोई नया कानून, बाज़रिया अध्यादेश क्यों न बनाना पड़े… बल्कि इन्होंने इस गुलामी के बदले जो आर्थिक लाभ कमाया है, उस धन की रिकवरी भी बतौर जुर्माना इनसे की जायेगी?

एक जो हम जैसों की सबसे बड़ी शिकायत है, वह सरकारी संपत्तियों को औने-पौने दामों में अपने उन पूंजीपति साथियों को सौंपना है, जो बैकडोर से एक मोटा कमीशन इन्हें बतौर चंदा रिटर्न गिफ्ट देते हैं। यह कोई नये कारोबार नहीं पैदा कर रहे, नये उद्योग नहीं लगा रहे कि लोगों के लिये लाखों नई नौकरियों का सृजन हो। बैंकों से लोगों का पैसा बतौर कर्ज उठा कर अपनी सांठ-गांठ के चलते औने-पौने दामों में सरकारी संपत्तियों को खरीद रहे और अपनी बढ़ती नेटवर्थ के भरोसे नये कीर्तिमान गढ़ रहे— लेकिन इससे आम लोगों का क्या फायदा हो रहा? क्या राहुल यह भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता परिवर्तन के बाद वे इन सभी संपत्तियों का पुनः राष्ट्रीयकरण करेंगे और इस सिलसिले में कोई प्रभावी क़दम उठायेंगे?

मेरे जैसा हर सोशल मीडिया यूज़र त्रस्त है इन माध्यमों पर फैली गंदगी से। यहां सत्ता समर्थक आम लोग ही नहीं, पत्रकार और अन्य सेलिब्रिटी तक धड़ल्ले से फेक न्यूज़, मिसलीडिंग सूचनाओं और हेट स्पीच का बेरहम और भरपूर इस्तेमाल करते हैं, बिना किसी डर-झिझक के और उनके खिलाफ किसी तरह का एक्शन नहीं होता, कोई कंपलेंट करे, तो भी। इन बातों का असर उन तमाम यूजर्स को मिसगाईड करके अपने पाले में करने के लिये किया जाता है जिनका अब तक इनके पक्ष में झुकाव न हुआ हो, या जो अनिश्चय की स्थिति में हों। यह एक खतरनाक ट्रेंड है, जो आज समाज के विघटन में अहम भूमिका निभा रहा है। क्या राहुल गांधी सत्ता परिवर्तन की स्थिति में कोई ऐसा सख्त कानून बनायेंगे जहां कोई यूज़र इन मंचों का ऐसा इस्तेमाल न कर सके और सभी यूज़र्स की एक जिम्मेदारी तय हो, सबके लिये एक नियम तय हो?

एक शिकायत हम जैसे स्वर्ण बहुसंख्यक बाउंड्री से बाहर खड़े लोगों की, इस जूडिशियल सिस्टम, ब्यूरोक्रेसी और अन्य सरकार द्वारा संचालित सभी संस्थानों में व्याप्त सवर्ण और उसमें भी खासकर ब्राह्मण वर्चस्ववाद से है, जिसके रहते नौकरी या न्याय दोनों पाना हमारे लिये टेढ़ी खीर है। खुद के लिये तो ईडब्लूएस, लेटरल एंट्री और न्यायिक सिस्टम में प्रिवलेज्ड जैसी कंडीशन बना रखी है और दूसरों के लिये इंटरव्यू में एक नंबर, एनएफएस और उल्टे-सीधे केसों में भी सालों-साल ज़मानत न मिलने जैसे झमेले बना रखे हैं। हालांकि यह स्थिति तो मौजूदा सत्ता से पहले की है, लेकिन अब पूरी बेशर्मी से अपने निकृष्टतम रूप में पहुंच चुकी है। क्या सत्ता प्राप्ति के बाद वे इस स्थिति की तरफ़ भी ध्यान देंगे?

एक सामान्य नागरिक के तौर पर मेरा किसी भी पार्टी से जुड़ाव नहीं, मैं तो मुद्दों के आधार पर किसी को भी वोट और सपोर्ट कर सकता हूं तो किसी भी यात्रा/इवेंट/मिशन को सपोर्ट करने से पहले मैं यह ज़रूर देखूंगा कि मेरे मुद्दे कनसिडर हो रहे या नहीं— वर्ना आपको लगता है कि राहुल की सादगी, सौम्यता, स्माइलिंग फेस और पैदल चल कर देश नापने में की गई मेहनत के सहारे ही कोई बड़ा परिवर्तन पैदा हो जायेगा तो आपको शुभकामनाएं। उत्सवप्रेमी देश है, इस भारत जोड़ो यात्रा को भी उत्सव की तरह एंजाय कर लेगा लेकिन अंतिम परिणाम वही ढाक के तीन पात रहेंगे। भारतीय राजनीति एक सीधे-सादे बबुए के रूप में तो नहीं साधी जा सकती। एक कड़क प्रशासक के अंदाज़ में आपको लोगों को यह भरोसा दिलाना ही रहता है कि आप क्या डिलीवर करने वाले हैं— जैसा मोदी ने किया। जीतने के बाद आप क्या करते हैं, वह बाद का इशू है, लेकिन जीतने के लिये लोगों में जो भरोसा बनाना है, वह सिर्फ यात्रा से नहीं बल्कि ऐसे सभी मुद्दों पर एक क्लियर स्टैंड से बनेगा।

Written By Ashfaq Ahmad

जीवन/LIFE

पृथ्वी पर जीवन कैसे पनपा 

जीवन क्या है.. अब धार्मिक किताबों में तो इसकी फिलाॅस्फिकल व्याख्यायें मिल जायेंगी लेकिन हकीकत में यह आर्गेनिक केमिस्ट्री है, या यूं कह लें कि बायोलोजी में कनवर्ट हुई केमिस्ट्री है। हम जैसा जीवन अपने ग्रह पर देखते हैं, वैसे ही जीवन को ले कर यह सवाल हमारे मन में कौंधते हैं कि क्या यूनिवर्स में कहीं और किसी ग्रह पर जीवन हो सकता है।

इसका कोई प्रमाणित जवाब नहीं है लेकिन यह फिर भी कहा जा सकता है कि यूनिवर्स के अरबों खरबों ग्रहों और उपग्रहों पर जीवन हो सकता है।

इसकी क्या जरूरी शर्तें हैं, वो समझ लें तो जीवन को समझने में आसानी रहेगी, कुछ जीवन के जरूरी बिल्डिंग ब्लाॅक्स हैं मसलन अमीनो एसिड ही ले लीजिये.. यह यूनिवर्स में भरपूर मात्रा में मौजूद हैं जैसे बाकी दूसरे मटेरियल मौजूद हैं।

अब इसे बायोलाजिकल फिगर में ढलने के लिये कुछ अनुकूल स्थितियां चाहिये होती हैं जो अरबों ग्रहों और उपग्रहों पर मौजूद हैं। इसके बाद यह तीन रूपों में ढलता है, खुद को मिली स्थिति के अनुसार.. बैक्टीरियल लाईफ, कांपलेक्स लाईफ और इंटेलिजेंट लाईफ।

बैक्टीरियल लाईफ मतलब सिंगल सेल आर्गेनिजम यानि एक कोशिकीय जीव, जो अरबों ग्रहों-उपग्रहों पर हो सकता है क्योंकि इसके लिये मुख्य रूप से पानी जरूरी है और यह बहुत से पिंडों पर मौजूद है।

मतलब इसे ऐसे समझिये कि यह हमारे सोलर सिस्टम के सबसे सुदूर हिस्से में मौजूद प्लूटो के अंदर मौजूद पानी में भी हो सकता है, शनि और जूपिटर के उपग्रहों पर भी हो सकता है और सबसे अंतिम सीमा पर मौजूद संभावित प्लेनेट नाईन के उपग्रहों पर भी हो सकता है, जो ग्रेविटी की वजह से अपने ग्रह से इंटरेक्शन करते हैं, उनका कोर गर्म रहता है और उस वजह से अंदर मौजूद पानी में भी गर्मी मौजूद रहती है। इस प्रकार के जीवन को सूरज की गर्मी की जरूरत भी नहीं होती।

इसके बाद आता है मल्टी सेल आर्गेनिजम, यानि कांपलेक्स लाईफ, जो दो तरह की हो सकती है, एक मतलब जो प्राॅक्सिमा बी की तरह उन समुद्रों में पनप सकती है जिनमें गर्मी और सूरज की रोशनी की पहुंच रहती है…

वहां ठीक उसी तरह जीवन पनप सकता है जैसे हमारे समुद्र में मिल जायेगा, अलग-अलग ढेरों रूप में और इसका दूसरा पहलू होता है खुश्की का जीवन, जिसे पनपने के लिये स्थिति थोड़ी ज्यादा अनुकूल होनी चाहिये.. मतलब थिक एटमास्फियर, ऑक्सीजन टाईप जरूरी गैसें, मैग्नेटोस्फियर आदि और तब वह जीवन उस रूप में ढल सकता है जो डायनासोर युग में पृथ्वी पर था.. ऐसे बहुत कम ग्रह मिलेंगे पहली श्रेणी के मुकाबले लेकिन होंगे जरूर।

तीसरा चरण है इंटेलिजेंट लाईफ.. यानि किसी ग्रह की वह सबसे बुद्धिमान प्रजाति जिसे सुप्रीम स्पिसीज का दर्जा दिया जा सके जैसे इंसान.. इसका मतलब यह हर्गिज नहीं कि ऐसी दूसरी जगहों पर हमारे जैसे इंसान ही हों। वे अपने एटमास्फियर के सहारे इवाॅल्व हुए किसी भी तरह के जीव हो सकते हैं जैसी हाॅलिवुड वाले कल्पना कर सकते हैं, मेन चीज यह है कि वे दिमाग का इस्तेमाल कर के प्रकृति से इतर खुद भी चीजें बना सकें और विकास के पैमाने पर जीवन को आगे बढ़ा सकें।

और ऐसी इंटेलिजेंट लाईफ रेयर प्लेनेट्स पर ही मिलेगी, जिसे कई ऐसे सुखद इत्तेफाक मिले हों जैसे हम पृथ्वी वासियों को मिले। मतलब इंटेलिजेंट लाईफ, कांपलेक्स लाईफ का ही परिष्कृत रूप है लेकिन इसके इवाॅल्व होने के लिये लाखों साल का सुरक्षित वक्त चाहिये..

जो पता नहीं किसी को मिला या नहीं क्योंकि ऐसे जीवन कई सुखद संयोगों के साथ बहुत नाजुक संतुलन पर टिके होते हैं और इन्हें लंबा पनपने के लिये लगातार अच्छी किस्मत चाहिये होती है, जो अब तक हमारी रही है।

एक सवाल अक्सर हमारे मन में यह भी आता है कि क्या ऐसी इंटेलिजेंट लाईफ, जैसी हम अपने ग्रह पर देखते हैं, यूनिवर्स के किसी और ग्रह पर हो सकती है तो जवाब यह है कि सिंगल सेल लाईफ तो शायद अरबों ग्रहों-उपग्रहों पर हो, मल्टी सेल यानि कांपलेक्स लाईफ भी पूरे यूनिवर्स में शायद कुछ लाख ग्रहों पर हो लेकिन इंटेलिजेंट लाईफ कई तरह के संयोगों पर निर्भर करती है जो अरबों में एक होंगे। यानि जीवन का यह रूप न्यूनतम होगा और जहाँ होगा भी, वहां हमसे काफी भिन्न हो सकता है।

एकदम हमारे जैसा जीवन पनपने के लिये कुछ जो मोटे संयोग दरकार हैं वह निम्नलिखित हैं.. पहले तो ग्रह की कंपोजीशन ऐसी ही होनी चाहिये, मतलब साॅलिड, लिक्विड, गैस के रूप में जो मैटर हम अपने आसपास देखते हैं, वैसा ही मिश्रण वहां पर भी हो।

उस ग्रह का अपने सोलर सिस्टम के हैबिटेबल जोन में होना चाहिये यानि सूरज से इतनी दूर कि सबसे जरूरी चीज पानी तरल रूप में रह सके.. ज्यादा पास होगा तो भाप बन जायेगा और ज्यादा दूर होगा तो बर्फ बन जायेगा, फिर अपने लिये जरूरी तापमान भी हम तभी हासिल कर पायेंगे।

उस ग्रह का साईज भले थोड़ा कम ज्यादा हो लेकिन डेंसिटी ऐसी ही हो कि समान माॅस बन सके जिससे ग्रेविटी उतनी ही हो कि इंटेलिजेंट लाईफ हमारे जैसे रूप में पनप सके। ज्यादा होगी तो वे सुप्रीम क्रीचर्स अलग ढंग से पनपेंगे और कम होगी तो भी अलग ढंग से इवाॅल्व होंगे।

उसके पास पृथ्वी जैसा ही घूमता हुआ लिक्विड आयरनी कोर हो, जो अपने आसपास स्ट्रांग मैग्नेटिक फील्ड बना सके क्योंकि बिना इसके सोलर विंड और कास्मिक रेज के जरिये आने वाला रेडिएशन इस किस्म के जीवन को पनपने ही नहीं देगा।

उस ग्रह के पास एक थिक यानि मोटा वातावरण होना चाहिये जो इतना एटमास्फियरिकप्रेशर बना सके कि पानी सतह पर लिक्विड रूप में टिका रह सके, यह न हुआ तो पानी नहीं रुक सकेगा और फिर कोई भी जीवन पनपने की संभावना नगण्य है।

इस जोन में जो मैटर होता है, उससे पानी खींच कर सूरज स्पेस में उड़ा देता है जिससे इस जोन में जो राॅकी मटेरियल बचता है, उससे टेरेस्ट्रियल प्लेनेट बनते हैं और पानी वाला स्टफ पीछे खिसक जाता है जिससे बाद में आईसी काॅमेट्स, एस्टेराईड आदि बनते हैं.. या गैस जायंट्स।

तो टेक्निकली ऐसे ग्रह की सतह पर पानी किसी बाद में हुए संयोग से ही आता है जैसे जूपिटर ने एस्टेराईड्स और काॅमेट्स की मदद से न सिर्फ पृथ्वी बल्कि पानी ग्रहों पर भी पहुंचाया था.. उस प्लेनेट को भी ऐसे सुखद संयोग से दो चार होने का मौका मिला हो।

उस ग्रह के पास भी हमारे चांद जैसा एक सुपर साईज नेचुरल सेटेलाइट होना चाहिये जो अपनी ग्रेविटी से अपने प्लेनेट के एक्सिस को स्टेबल रख सके, अगर एक्सिस स्टेबल न रहे तो मौसम में बहुत तेजी से परिवर्तन होता रहेगा, मतलब अभी जनवरी चल रही है तो थोड़े ही वक्त में जून आ जायेगा.. कुछ इस टाईप, लेकिन वह उपग्रह भी एक हो न कि दर्जन भर।

उस प्लेनेट का भी अपने अक्ष पर 23 डिग्री समथिंग झुका होना चाहिये जिससे मौसम बन और बदल सकें वर्ना लंबे समय तक एक जैसा रहने वाला मौसम फसलें भी नहीं पनपने देगा और न ही ठीकठाक जीवन को इवाॅल्व होने देगा।

अब अगर कोई प्लेनेट इतने सारे सुखद संयोगों को पा लेता है और लंबे वक्त तक उन तमाम खतरों से सुरक्षित भी रह लेता है जो यूनिवर्स में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं, तो वहां जीवन अपने सभी रूपों में पनप तो जायेगा लेकिन उसके बावजूद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वहां पनपने वाली इंटेलिजेंट लाईफ एग्जेक्ट हम इंसानों की काॅपी होगी, बल्कि वे दिखने में हमसे काफी अलग भी हो सकते हैं।

Written by Ashfaq Ahmad

पृथ्वी/EARTH

पृथ्वी की अंदरूनी बनावट कैसी है 

किसी और ग्रह से ज्यादा आपको अपने ग्रह के बारे में जानना चाहिये। जब यह सोलर सिस्टम बन रहा था तब यह सभी राॅकी प्लेनेट्स लिक्विड आग के वह गोले थे जो अपने आसपास के मैटर को समेट कर अपना साईज बढ़ा रहे थे और अपनी कक्षा के सारे मलबे को अपने में समेट रहे थे।

उस वक्त अनगिनत छोटे बड़े ग्रह बने थे जिनमें तमाम दूसरे प्लेनेट्स ने खा लिये, कुछ को अपनी ग्रेविटी में बांध कर अपना उपग्रह बना लिया और कुछ छोटे प्लेनेट्स तो सोलर सिस्टम के बाहरी हिस्से में धकेल दिये गये।

उस वक्त मंगल ग्रह के साईज का एक थिया नाम का प्लेनेट पृथ्वी से टकराया था जो इसी में जज्ब हो गया और इस टक्कर से उछले मलबे से बाद में चांद का जन्म हुआ।

उस वक्त जो भी हैवी एलिमेंट्स पृथ्वी तक पहुंचे थे वह इसके अंदरूनी भाग की तरफ सरक गये और हल्के मैटर ऊपर आ गये.. साधारण भाषा में समझें तो जितना सोना आपको ऊपर मिला होगा, उससे कई गुने ज्यादा नीचे जज्ब हो गया।

इसकी बनावट को कुछ यूं समझिये कि जैसे चांद के आकार का एक सूरज है, जिसे चट्टानों और मिट्टी से ढक दिया गया है और उस ढकी परत के ऊपरी सिरे पर हम रहते हैं यानि आसान शब्दों में कहें तो हमारे कदमों के नीचे भी एक छोटा सूरज है। अब अगर इसे बीच से संतरे की तरह काटेंगे तो आपको यह मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बंटी नजर आयेगी।

सबसे नीचे दो भागों में बंटा कोर है, जो इनर कोर है उसे लोहे की ठोस गेंद समझ लीजिये और जो आउटर कोर है उसे पिघला लोहा समझ लीजिये। यह लेयर ही वह सृजक है जो उस मैग्नेटिक फील्ड का निर्माण करती है जो हमें सूरज और बाहरी स्पेस से आने वाले घातक रेडियेशन से बचाती है, बिना इसके पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं था।

आपके दिमाग में सवाल आयेगा कि जब इतने ज्यादा तापमान के कारण आउटर कोर पिघली अवस्था में है तो इनर कोर साॅलिड स्टेट में कैसे है.. वह होता है पृथ्वी की सभी लेयर के अपने सेंटर की तरफ डाले गये प्रेशर की वजह से। खैर इससे ऊपर जो लेयर होती है वह मेंटल कहलाती है और इसमें भी आपको लेथेस्फियर और एस्थिनाॅस्फियर नाम के दो हिस्से मिलेंगे।

एस्थिनाॅस्फियर एक तरह का हाॅट लिक्विड और पृथ्वी का रीसाइक्लिंग सेंटर है जहाँ पुरानी चट्टानें गलती हैं और नयी बनती हैं। लेथेस्फियर इस पर तैरती रहती है, जिसमें एक तरह से राॅ मटेरियल स्टोर होता है।

और सबसे ऊपर जो तीसरी लेयर होती है वह क्रस्ट कहलाती है। इसके भी दो पार्ट्स होते हैं, एक ओशियानिक क्रस्ट जो बहुत पतली होती है। जिसे हम समुद्र तल के रूप में जानते हैं, यानि वह जगह जिसके ऊपर यह समुद्र हैं और दूसरा कांटीनेंटल क्रस्ट यानि सूखी जमीन वाला हिस्सा जिस पर समतल मैदान से ले कर पहाड़ तक होते हैं, यह काफी मोटी होती है।

हालांकि मेंटल में मौजूद मैग्मा (लावा समझ लीजिये) प्रेशर की वजह से ऐसे रास्ते फिर भी बनाये रखता है जहाँ से जब-तब रिलीज हो सके.. इन प्वाइंट्स को ज्वालामुखी कहते हैं। हालांकि इनके सिवा भी और कई प्वाइंट्स रहते हैं जहाँ से यह बाहर आता रहता है.. खास कर समुद्र तल में।

यह क्रस्ट एक पार्ट में नहीं है बल्कि कई अलग-अलग पार्ट्स में बंटा हुआ है और उन पार्ट्स को हम टेक्टोनिक प्लेट्स कहते हैं। इन प्लेट्स के ज्वाइंट्स अक्सर एक दूसरे में घुस रहे, एक दूसरे पर दबाव डालते ऊपर उठ रहे, दूसरी भारी प्लेट के आगे कमजोर पड़ के खुद ऊपर उठ रहे हो सकते हैं जैसे हिमालय बना और लगातार ऊंचा उठ रहा है।

प्लेट्स के इन ज्वाइंट्स या इनमें पड़ी दरार को साधारण भाषा में फाॅल्ट लाईंस कहते हैं। इनके अंदरूनी घर्षण की वजह से ही भूकम्प आते हैं।

कभी जब पूरी पृथ्वी पानी में डूब गयी थी तब एक छोटा सा हिस्सा ही बाहर था, और बाद में पानी के बर्फ के रूप में जमने और सी लेवल घटने के बाद अलग-अलग जगहों पर सूखी जमीन बाहर आईं। बाद में यह सभी हिस्से एक दूसरे से जुड़ कर एक सुपर कांटीनेंट बन गये..

इसके बाद फिर यह दो पार्ट्स में बंटी और फिर वापस एक हुई, फिर बंटी और आखिर में तमाम टुकड़ों में बंट कर अपने वर्तमान रूप तक पहुंची जिन्हें हम रोडीनिया, लौरेशिया, गोंदवाना, पैंजिया आदि के रूप में जानते हैं.. लेकिन यह डिस्क शिफ्टिंग थमी नहीं है बल्कि लगातार जारी है और करोड़ों साल बाद फिर एक हो जायेगी।

इसे माॅडल के जरिये समझना चाहें तो एक इंडेक्शन चूल्हा लीजिये, दूध भरा बर्तन रखिये और दूध के ऊपर चाकलेट पाउडर छिड़क के उसकी लेयर बना दीजिये और कम तापमान पे चूल्हा चालू कर दीजिये। अब इंडक्शन प्लेट और बर्तन की तली आपका कोर है, उसमें भरा दूध मेंटल और ऊपर छिड़की चाकलेट लेयर आपका क्रस्ट।

तापमान बढ़ने के साथ आप देखेंगे कि चाॅकलेट लेयर कई टुकड़ों (टेक्टोनिक प्लेट्स) में बंट गयी और सभी टुकड़े इधर-उधर तैर रहे हैं लेकिन अगर तापमान और बढ़ा दें कि दूध एकदम उबलने लगे तो?

वेल.. अर्थ क्रस्ट डिप्लेसमेंट नाम की एक थ्योरी कहती है कि ऐसा पृथ्वी के अंदरूनी तापमान में लगातार होती वृद्धि की वजह से हो सकता है और तब प्लेटों की वह शिफ्टिंग जो करोड़ों सालों में इतने धीरे होती है कि हम महसूस भी नहीं कर पाते, वह कुछ मिनटों या घंटों में हो जायेगी और इस आपाधापी में वह कयामत आ जायेगी जो आप 2012 नाम की फिल्म में देख चुके हैं.. जी हाँ, वह फिल्म इसी थ्योरी पर बनी थी।

Written By Ashfaq Ahmad

गंदा है पर धंधा है यह- जिगोलो

कैसे होता है जिगोलो का धंधा 

अखबार या नेट पर लड़कियों/महिलाओं के साथ मौजमस्ती करके भी पैसे कमाने के लुभावने ऑफर आप में से ज्यादातर लोगों ने देखे होंगे, कइयों के मन को यह विज्ञापन गुदगुदाये भी होंगे और कईयों ने इसमें अपने लिये संभावनायें भी तलाशी होंगी। दरअसल यह मेल प्रास्टीच्यूशन के कदरन नये धंधे से सम्बंधित विज्ञापन होते हैं जो इस धंधे को ऑर्गेनाइज करने वाली एजेंसियों की तरफ से दिये जाते हैं।

अब तक इस जिस्मफरोशी के धंधे में लोग महिलाओं को ही एक्सपेक्ट करते आये हैं लेकिन अब भारत में भी आधुनिक दुनिया की तरह पुरुषों का जिस्मफरोशी का बाजार सजने लगा है जिसकी शुरुआत तो नब्बे के बाद से हो चुकी थी लेकिन धीरे-धीरे मजबूती अख्तियार करता यह धंधा अब पूरी तरह ऑर्गेनाइज हो चुका है और इस बाजार में ढेरों एजेंसीज स्थापित हो चुकी हैं। जरूरत या शौक के मारे वे तमाम युवक इनसे जुड़ कर इस धंधे में कूद जाते हैं जिन्हें हम सामान्य भाषा में जिगोलो, मेल एस्कार्ट या पुरुष वेश्या कहते हैं।

वैसे प्राॅपर रूप से इस लाईन में जुड़ने के लिये हल्की फुल्की ट्रेनिंग दी जाती है किसी भूतपूर्व जिगोलो द्रारा जहां शक्ल उतनी मायने नहीं रखती बल्कि शरीर, क्षमता, बातचीत और व्यवहार ज्यादा मायने रखता है क्योंकि इस लाईन में ज्यादातर कस्टमर एलीट क्लास से होती हैं.. जिगोलो का मतलब यह भी नहीं कि बस सीधे कस्टमर पर चढ़ दौड़ना है जैसा अमूमन महिला वेश्यावृत्ति में होता है। जिगोलो का मेन गोल होता है कि वह कस्टमर को उसकी मर्जी और ख्वाहिश के हिसाब से संतुष्ट करे।

इनकी कस्टमर्स में हालांकि सभी वर्ग की लड़कियां/महिलायें हो सकती हैं लेकिन ज्यादातर शादीशुदा औरतें होती हैं। बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि कोई लड़की/महिला तो जब चाहे तब उसे भोगने के लिये पुरुष मिल जायेगा, फिर उसे खरीदने की क्या तुक है लेकिन इसकी वजह मर्द की पजेसिव तबियत और कस्टमर के लिये सुरक्षा का भाव है जो किसी शौकीन या मजबूर लड़की/महिला को एक परमानेंट सरदर्द पालने की जगह जिगोलो के सुरक्षित ऑप्शन पर जाने को मजबूर करता है।

दिल्ली में ही कई स्पा, पार्लर, डिस्कोथेक, क्लब, काॅफी हाऊस जैसी जगहें हो गयीं हैं या सरोजनी नगर, कमला नगर मार्केट, पालिका बाजार, लाजपत नगर, जनकपुरी डिस्ट्रिक्ट सेंटर, साउथ एक्सटेंशन, जेएनयू रोड, अंसल प्लाजा, आईएनए जैसी कई ओपन मार्केट मौजूद हैं, जहां जिगोलो की उपलब्धता रहती है, यहां बाकायदा उनकी बोलियां भी लगती हैं और सौदेबाजी भी होती है। इसके सिवा वे एक फोन काॅल पर भी मनचाही जगह पर उपलब्ध हो जाते हैं। मर्दों का यह बाजार रात दस बजे से चार बजे तक चलता है। यहां बाकायदा जिगोलो ट्रेनर, कोऑर्डिनेटर, एंजेसीज और कंपनी तक अपनी हिस्सेदारी के लिये मौजूद हैं और एक तयशुदा कमीशन पर नये-नये लड़के यह काम धड़ल्ले से कर रहे हैं।

इनका एक ड्रेस कोड होता है और पहचान के लिये गले में पट्टा या रुमाल रहता है। इनकी डिमांड इनके पट्टे या रुमाल की लंबाई से भी तय होती है। सस्ते जिगोलो तो हजार रुपये में भी उपलब्ध रहते हैं.. हालांकि इनकी नार्मल बुकिंग कुछ घंटों के लिये 1800 से तीन हजार और फुल नाइट के लिये 8000 तक की होती है लेकिन अगर बंदा बढ़िया फिजिक वाला है तो उसे पंद्रह हजार तक की कीमत भी मिल जाती है। कोई जाना पहचाना इस लाईन का सुपर स्टार यानि टाॅप मोस्ट बंदा हो तो पच्चीस से तीस हजार तक भी एक रात के कमा लेता है।

यहां एक बात यह भी गौरतलब है कि वह जिस एजेंसी से जुड़ा होता है, अपनी बीस प्रतिशत कमाई उस एजेंसी को भी देनी होती है। तमाम लोग बिना एजेंसियों के इंडीविजुअली भी धंधा करते हैं लेकिन उसमें कस्टमर के लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है जबकि एजेंसियों की मार्फत लगातार काम मिलने की गुंजाइश बनी रहती है। एजेंसियां भी नये फ्रेश माल की तलाश में लगातार विज्ञापनों के जरिये नये लड़कों तक पहुंच बनाने में लगी रहती हैं।

अब इसके कुछ निगेटिव पक्ष को भी समझें.. पहली बात तो यह कि महिला वेश्यावृत्ति की तरह यह धंधा भी समाज में स्वीकार्य नहीं है तो लोगों को पता चलने पर बुरी तरह बदनामी का डर रहता है और इस वजह से इस धंधे में उतरने वाले हर युवक को अपनी यह नई पहचान छुपा कर रखनी पड़ती है। इसमें कई बार किसी निजी वजह से चिढ़ी हुई या कुंठित ग्राहक पैसे के बदले बुरी तरह प्रताड़ित भी करती हैं। फिर यह शायद अकेला ऐसा धंधा होगा जिसके नाम पर सबसे ज्यादा धोखाधड़ी होती है। धंधे से जुड़ने के लिये दिये जाने वाले ज्यादातर विज्ञापन फ्राॅड होते हैं जिनके शिकार लालच में आये लोग बड़े पैमाने पर होते हैं।

बाकी इस विषय पर मनोरंजन के साथ कुछ ज्यादा पढ़ने के लिये मेरी किताब Junior Gigolo/ जूनियर जिगोलो भी पढ़ सकते हैं 😎

Written by Ashfaq Ahmad

वहाबियत और इस्लाम 2

वहाबियत और संघ की समानता

जाहिरी तौर पर संघ से वहाबियत की तुलना आपको विचलित कर सकती है क्योंकि यह एक छोटे माॅडल की तुलना बड़े माॅडल से है लेकिन यह तुलना परफार्मेंस के लेवल पर नहीं, विचारधारा के लेवल पर है। अगर आप सूक्ष्मता से इसका आकलन करेंगे तो समझ में आ जायेगी, लेकिन उसके लिये आपको अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आना पड़ेगा।

आप सीधे ‘वहाबिज्म इज इक्वल टू टेररिज्म’ के लेवल पर चले जाते हैं लेकिन वहाबिज्म एक विचारधारा है, और आतंकी इस विचारधारा के हो सकते हैं लेकिन वे खुद पूरी विचारधारा नहीं हैं। इसे सरल अंदाज में आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं।

पूरी दुनिया में वहाबियत को सऊदी अरब प्रमोट करता है, उस अरब का क्राऊन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान है और जब वह भारत आता है तो आपके फायर ब्रांड हिंदुत्व का हीरो लपक के गलबहियां करता है, ठठ्ठे लगा कर हंसता है.. कहीं एक पल के लिये भी यह ख्याल आया मन में कि हमारा हिंदू शेर भला कैसे आतंकवाद से गलबहियां कर रहा है?

जाहिर है इसे आपने इसके आउटर फेस के रूप में देखा होगा कि यह दो राष्ट्रों के मुखिया गलबहियां कर रहे हैं, साथ कहकहे लगा रहे हैं.. जबकि इसका इनर फेस यह था कि एकरूपता की पैरोकार दो कट्टर विचारधारायें एक दूसरे से गलबहियां कर रही थीं, साथ कहकहे लगा रही थीं। यही समानता है।

विचारधारा के फैलाव के लिये यह आउटर इनर फेस वाली थ्योरी जरूरी है। जब इस्लाम फैलाया गया तब उस आउटर फेस को सामने रखा गया जो हर समाहित होने वाली संस्कृति को फराखदिली से कबूल कर रहा था, यह अपग्रेडेशन की अवस्था थी और जब यह अपग्रेडेशन पूरा हो गया तो फिर सिस्टम को रीसेट कर के उसी चौदह सौ साल पुराने दौर में वापस ले जाने की मुहिम शुरू हो गयी।

संघ अभी इसी अपग्रेशन के शुरुआती दौर से गुजर रहा है, वह सन चौरासी में सिखों पे भी हाथ साफ कर लेता है और सन दो हजार दो में मुसलमानों पर भी, लेकिन उसने ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ और ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ जैसे विंग भी बना रखे हैं। वह मुस्लिम द्वेष की बिना पर दक्षिणपंथी विचारधारकों के हीरो बने मोदी योगी को पीएम, सीएम भी बना देगा और आपको बहलायेगा भी कि मुस्लिम भी हमारे ही भाई हैं।

अभी आउटर फेस में वह फ्लेक्सिबल है लेकिन केन्द्र के साथ सभी राज्यों, सभी संवैधानिक, गैर संवैधानिक संस्थाओं में जब वह काबिज हो जायेगा तब शायद दक्षिण में न राम का अपमान करने की आजादी होगी, न उत्तर भारत के देवी देवताओं को नकारने की, न जनजातीय समूहों को अपने ईष्टों को प्राथमिकता देने की.. आदिवासी, जनजातियां, लिंगायत, पेरियारी, अंबेडकरवादी (विधर्मियों के लिये व्यवस्था कुछ और भी हो सकती है) इनके खास निशाने पर होंगे और तब यह भी दो ऑप्शन देंगे कि या तो हमारे जैसे हो जाओ, या ‘गौरी लंकेश’ हो जाओ। विधर्मियों को भी शायद दो ऑप्शन दें या सदियों पुराना बदला उतारने के नाम पर इकलौते ऑप्शन तक सीमित कर दें.. मौत।

अपग्रेडेशन और वापसी का सफर

दोनों विचारधाराओं में फर्क बस इतना है कि इस्लाम का अपग्रेडेशन पूरा हो चुका है और वह वहाबियत के रूप में रीसेट मोड में है जबकि संघ का अपग्रेडेशन अभी शुरू ही हुआ है।

आप वहाबियत से संघ की समानता की बात कीजिये, संघ के लिये साॅफ्ट कार्नर रखने वाला कोई भी हिंदू फौरन दस बीस उदाहरणों सहित इसके खिलाफ तर्क रखेगा कि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और वह सभी मत मान्यताओं को स्वीकारता है और आजादी देता है, किसी भी हिंसक कार्रवाई करने वाले व्यक्ति या गिरोह को वह फौरन संघ से खारिज कर देगा..

आप वहाबिज्म को आतंकवाद से जोड़िये, तत्काल वहाबिज्म के लिये साॅफ्ट कार्नर रखने वाला बंदा उन्हीं कुरानी आयतों और हदीसों की उदार और इंसानियत को सर्वोपरि रखने वाली व्याख्या कर के बता देगा, जिनके सहारे इन आतंकी संगठनों की बुनियाद खड़ी होती है.. और इन्हें वह भी फौरन इस्लाम से खारिज कर देगा।

यह दोनों एक ही धरातल पर जीने वाले जीव हैं जो इन विचारधाराओं के आउटर फेस के मोह में बंधे इसके इनर फेस से बस इसलिये इनकार करते हैं क्योंकि उसके लिये इनके मन में एक साॅफ्ट कार्नर मौजूद होता है। हालाँकि मुसलमानों से इतर इस दक्षिणपंथी विचारधारा में एक बड़ा वर्ग इस इनर फेस को खुल के स्वीकारने वाला भी है और इसे क्रिया की प्रतिक्रिया बता कर जस्टिफाई भी करता है।

लेकिन प्रतिक्रिया के शिकार असल में उस क्रिया के जिम्मेदार नहीं होते बल्कि वे कहीं न कहीं उस प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया के जनक होते हैं। हालाँकि यह क्रिया और प्रतिक्रिया का खेल समाज को उस गहरी खायी में धकेल देता है जहां किसी का जीवन सुरक्षित नहीं रह जाता। कई इस्लामिक देश इसकी जिंदा मिसाल हैं और हमने इस सिलसिले में व्यापक समझ न दिखाई तो इस सिलसिले की अगली कड़ी हम होंगे।

अब इसपे आइये कि कट्टरता को नये आयाम देनी वाली इस वैश्विक विचारधारा में मौजूदा दौर का आतंकवाद कैसे घुस गया। क्योंकि शुरुआती दौर के बाद एक बार फिर अब इसमें राजनीतिक हित और सत्ता का लोभ शामिल हो चुका है.. आप ईस्ट अफ्रीका के अल-शबाब , पश्चिमी अफ्रीका के बोकोहरम या बांग्लादेश के जमाते इस्लामी को इससे अलग कोई पहचान नहीं दे सकते।

इससे इतर तालिबान, अलकायदा, सिपाह-ए-सहाबा, जमातुद्दावा, अल खिदमत फाउंडेशन, जैश-ए-मुहम्मद, लश्करे तैयबा, आईएस जैसे संगठन भी इसी विचारधारा के वाहक हैं जो लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं। इस चीज से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसकी पृष्ठभूमि में आपको वे पूंजीवादी ताकतें भी मिलेंगी जो अपने राजनीतिक या आर्थिक हितों की पूर्ति के लिये न सिर्फ हर उस संभावित संघर्ष को उभारती हैं, जिसमें एक पक्ष मुसलमानों का हो.. दूसरे पैसा और हथियार भी मुहैया कराती हैं। अमेरिका और आले सऊद के गठजोड़ की जड़ यही चीज है कि यह रेडिकल इस्लामिक विचारधारा उनके बहुत से राजनीतिक आर्थिक हित साधती है।

एक आतंकी या जिहादी बनने वाला युवक दो वजहों से इनके फंदे में फंसता है.. या तो वह खुद वैसे जुल्म का शिकार हुआ हो जो अफगानिस्तान, फिलिस्तीन, ईराक, सीरिया या कश्मीर में बहुतायत देखने को मिल जायेंगे। एक भारतीय होने के नाते आपको शायद कश्मीर वाला हिस्सा पचाने में मुश्किल हो लेकिन सच यही है.. या फिर वह गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी से जूझता वो इंसान हो जिसे यूँ लड़ने की भी एक सैलरी मिलती है।

ऐसे दोनों लोग जब इनके संपर्क में आते हैं तो इन्हीं तरीकों से इनका ब्रेनवाश कर दिया जाता है कि उनकी लड़ाई ‘जिहाद’ है जिसमें मौत भी इस्लाम के नजरिये से शहादत है। मरने के बाद जन्नत तय है और काफिरों को कत्ल करना गुनाह नहीं है.. जिन आयतों के मतलब यहां के आलिम कुछ और बताते हैं, उन्हीं को वे अपने अंदाज में उन युवाओं पर अप्लाई करते हैं और शुद्ध इस्लामिक नजरिये से वे ही सही हैं। नतीजा मनमाफिक आता है कि बंदा सड़कों पर अंधाधुँध गोलियां चलाने के लिये तैयार हो जाता है, बम बांध कर फटने के लिये तैयार हो जाता है, भीड़ पर ट्रक चढ़ा देने के लिये तैयार हो जाता है।

यह ठीक है कि आतंकवाद की बहुतेरी वजहें हो सकती हैं लेकिन जहां अत्याचार या शोषण के खिलाफ दूसरे समुदायों की लड़ाई कभी भी अपनी धार्मिक पहचान को साथ नहीं जोड़ी जाती, वहीं मुसलमानों की लड़ाई चाहे जिस भी वजह से हो, वह फौरन धर्म से जुड़ जाती है क्योंकि इसमें ग्लोबल अपील है.. क्योंकि इसमें फौरन समान विचारधारा का समर्थन और सहयोग मिलने की गुंजाइश रहती है।

ऐसे या वैसे.. हालाँकि यह पूरी दुनिया को वहाबी विचारधारा में रंग देने की लड़ाई है। यह एकरूपता को मान्यता देती है और इससे बाहर जो भी है वह सब दोयम दर्जे का है। यह सोच उस विविधता भरी समावेशी संस्कृति पर सीधा प्रहार है जिसे हम देखने के आदी रहे हैं। किसी बाग की खूबसूरती तभी है जब उसमें हर वैरायटी के फूल हों.. एक जैसे फूलों का बाग नहीं होता, खेती होती है। वहाबिज्म इस्लाम के बाग को एक खेत में तब्दील कर देने वाली विचारधारा है।

कट्टरता से लड़ाई कैसे हो सकती है

अब सवाल यह है कि इससे लड़ा कैसे जाये.. सिर्फ भारत के संदर्भ में बात करें तो दक्षिणपंथी विचारधारा वाले जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया बता कर लड़ने की रणनीति बताते हैं वह तो और समस्यायें पैदा करने वाली है। गोधरा में कुछ सरफिरे मुसलमान कोच जलायेंगे तो प्रतिक्रिया में बाकी गुजरात के उग्र हिंदू दो हजार से ज्यादा उन मुसलमानों को कत्ल कर देंगे जो घटना के दोषी नहीं थे। फिर बिना वजह जो इस कत्लेआम के शिकार हुए लोगों का होता सोता बचेगा वह हथियार उठा कर ‘इंडियन मुजाहिदीन’ बना लेगा। देश के बाहर ऐसे आक्रोशित युवाओं को लपकने के लिये सौदागर पैसा और हथियार लिये तैयार बैठे हैं।

और फिर वे बम धमाके करेंगे.. आप फिर पलट के प्रतिक्रिया करोगे, फिर नये शिकार उस आक्रोश की खेती से पनपेंगे.. इस तरह तो अराजकता की स्थिति ही बनेगी। ऐसे हालत में वे रोहिंग्या से तुलना करने बैठ जाते हैं। रोहिंग्या उस म्यामार से ताल्लुक रखते हैं जहां किसी की दिलचस्पी नहीं लेकिन भारत एक महाशक्ति है और इसमें बहुतेरे देशों की दिलचस्पी है.. इसे अस्थिर करने के मौके बनेंगे तो बड़े बड़े देशों की दिलचस्पी इसमें पैदा हो जायेगी। यहां हालात बिगड़े तो संभालने भी मुश्किल हो जायेंगे।

प्रतिक्रिया के नाम पर हिंसा, इस विचारधारा से लड़ने का समाधान नहीं हो सकती। इसके लिये न सिर्फ सरकारी बल्कि सामाजिक प्रयास भी करने पड़ेंगे। कुछ सरकार करे और कुछ वह लोग और संस्थायें करें जो इसकी समझ रखती हैं.. लक्ष्य सिर्फ उस कट्टरता से मुक्ति हो जो किन्हीं कमजोर पलों में इंसान को हथियार उठाने की तरफ धकेल देती है। भारतीय मुस्लिमों में एक बड़ा तबका कट्टर जरूर हुआ है लेकिन अभी भी इस तथाकथित ‘जिहाद’ की तरफ उसका रुझान कतई नहीं है.. और भविष्य में हो भी न, इसके लिये कोशिश होनी चाहिये।

‘जिहाद’ के तो जिक्र पर भी पाबंदी होनी चाहिये, चाहे इसकी व्याख्या ‘जिहाद अल नफस’ के रूप में कितनी ही उदार क्यों न हो। धर्म के नाम पर चलते इदारों को सरकारी नजरबंदी में लिया जाये। मदरसों को दुनियाबी शिक्षा का केंद्र बनाया जाये और धार्मिक शिक्षा भी एक सीमित लेवल पर तब अलाऊ हो जब बच्चा थोड़ा मैच्योर हो जाये। बचपन से धार्मिक शिक्षाओं का प्रभाव बच्चे को भारत के बजाय सऊदी अरब के करीब धकेल देता है।

सामाजिक स्तर पर इस टाईप की मजलिसों, बैठकों, इज्तमाओं में, बजाय एकरूपता के विविधता की खूबसूरती समझाई जाये। समावेशी संस्कृति की अहमियत और स्वीकार्यता पर बल दिया जाये.. और यह कोई मुश्किल काम नहीं। मुस्लिम युवाओं के लिये सिर्फ शिक्षा ही काफी नहीं बल्कि उनमें यह समझ भी विकसित करने की कोशिश करनी चाहिये कि साझी संस्कृतियों के साथ समन्वय किस तरीके से हो और उन्हें इस हद तक सहनशील होने की भी जरूरत है कि कोई भी चीज आलोचना से परे नहीं हो सकती.. न खुदा, न उसके नबी पैगम्बर और न धार्मिक किताबें।

आप इब्ने तैमिया, अब्दुल वहाब, मौलाना मौदूदी के माॅडल से हट कर इस्लाम के नाम पर भारत में पाये जाने वाले सभी फिरकों को उनकी संस्कृति, रिवाजों, परंपराओं के के साथ इस्लाम का हिस्सा स्वीकार करने और कराने पर जोर दीजिये.. बजाय उन्हें काफिर, मुशरिक, मुनाफिक, खारिजी, राफजी वगैरह करार देने के, तो खुद बखुद यह कट्टरता कम हो जायेगी। लोगों को यह समझ होनी जरूरी है कि वे भारतीय हैं सऊदी नहीं और उन्हें भारतीय जैसा दिखने की जरूरत है न कि अरबी जैसे दिखने की।

और यह उपाय भी भारत में ही कारगर हैं क्योंकि यहां के मुसलमान कई पैमानों पर दुनिया के दूसरे मुसलमानों से अलग हैं.. बाकी दुनिया के लिये कोई रास्ता सुझाना मुश्किल है। या तो वे पाकिस्तान अफगानिस्तान की तरह आपस में लड़ेंगे मरेंगे, या सीरिया ईराक की तरह अमेरिका, रशिया, ब्रिटेन, इजरायल आदि की स्वार्थ पूर्ति का शिकार हो कर खुद को तबाह करेंगे क्योंकि.. असल इस्लाम वही है।

वहाबियत और इस्लाम 1

वहाबियत दूसरी संस्कृतियों के लिये खतरनाक है

इस्लाम यूँ तो सेमेटिक की कोख से पैदा हुआ है, लेकिन अगर इसे आप इतिहास की नजर से देखेंगे तो जहां यह शुरुआती दौर में समाज सुधार का आंदोलन था, वहीं यह अपने संस्थापक मुहम्मद साहब के बाद एक शुद्ध राजनीतिक आंदोलन में बदल गया था, जहां सत्ता के लिये मुसलमानों के गुट आपस मे ही लड़ रहे थे। रशिदुन खिलाफत, उमय्यद, अब्बासी, फात्मी या ऑटोमन साम्राज्य ने जो भी लड़ाइयां लड़ीं और रियासतें जीतीं, उनका लक्ष्य सत्ता की प्राप्ति थी न मजहबी प्रचार प्रसार.. लेकिन बावजूद इसके बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुए और पूरी की पूरी आबादियां इस्लामिक ढांचे में ढल गयीं।

लेकिन इसमें एक बड़ी गहरी समझने लायक जो बात है वह यह कि हदीस और कुरान की रोशनी में गढ़ी गयी इस्लाम की परिभाषा एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र के लिहाज से तो ठीक थी लेकिन वह अरब के बाहर की उन तमाम संस्कृतियों को खुद में समाहित करने के लिये बिलकुल तैयार नहीं थी जिन्होंने इस्लाम तो अपनाया लेकिन अपना वजूद भी बरकरार रखा। इस चीज को आप किसी और क्षेत्र से समझने के बजाय अपने ही देश को माॅडल के तौर पर रख कर बेहतर समझ सकते हैं।

भारत में लोग सामान्यतः हिंदू थे लेकिन जातियों/उपजातियों में बंटे हुए थे और उनके बहुत से रीति रिवाज परंपरायें बहुत पीछे से चली आ रही थीं। उन्होंने इस्लाम अपनाया जरूर लेकिन फिर भी उन रीति रिवाजों, परंपराओं को न छोड़ा और उन्हें भी इस्लाम में ही ढाल लिया। आप जाट, राजपूत मुस्लिम समाजों में बहुतेरी परंपरायें वैसी की वैसी पा सकते हैं, जिनका मूल इस्लाम से कोई नाता नहीं। जिनको गुरुओं की परंपरा में यकीन था, उन्होंने पीर बना लिये.. जिन्हें मूर्तियाँ के आगे झुकने की आदत थी उन्होंने मजारों के आंचल में मंजिल तलाश ली।

ऐसा लगभग उन सभी देशों में हुआ था जिनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान थी। उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को, अपनी रीतियों परंपराओं को इस्लाम के साथ शामिल कर दिया था और इसे सूफी इस्लाम के रूप में एक अलग पहचान मिली थी। यह इंसान को इंसान से जोड़ने वाला वह सिलसिला था जिसका प्रभाव बहुत तेजी से तुर्की, अरब, ईरान से ले कर भारत तक हुआ.. इसके साथ जो कर्मकांड जुड़े वह उन्हीं दूसरी संस्कृतियों के घालमेल की वजह से थे, जहां लोगों ने अपनी पुश्तैनी परंपराओं को इस्लाम से जोड़ दिया था।

उस दौर में जो भी खूनखराबा मुसलमानों द्वारा हुआ, वह सत्ता की भूख का नतीजा था लेकिन उसका उस इस्लामिक कट्टरता से कोई लेना देना नहीं था, जिसका विकृत स्वरूप अब चरमपंथ या आतंकवाद के रूप में हम देखते हैं। एक दौर वह भी था जब अरबी भाषा का बोलबाला था, बगदाद ज्ञान का केन्द्र कहा जाता था। ज्ञान पर जैसा वर्चस्व आज पश्चिम का है तब वैसा ही वर्चस्व अरब जगत का हुआ करता था।

दसवीं शताब्दी के वजीर इब्ने उब्वाद के पास एक लाख से अधिक किताबें थीं, तब इतनी किताबें पूरे योरोप के सभी पुस्तकालयों को मिला कर भी नहीं थी। अकेले बगदाद में वैज्ञानिक ज्ञान के तीस बड़े शोध केन्द्र थे। बगदाद के अलावा सिकंदरिया, यरूशलम, अलेप्पो, दमिश्क, मोसुल, तुस और निशपुर अरब संसार में विद्या के प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे और इस्लाम एक अलग ही रूप में अपनी मौजूदगी कायम किये था।

भारत में उस दौर में कुरान अरबी भाषा तक ही सीमित थी, जिसे अरबी सीख कर लोग सवाब के नजरिये से पढ़ लिया करते थे और हदीसों से आम इंसानों का बिलकुल भी कोई खास वास्ता नहीं था। बस मस्जिदों में कुछ खास किस्म की, अच्छाई पेश करने वाली हदीसें कभी जुमे, या शबे कद्र की रात को सुनाई जाती थीं और लोग बस वहीं तक सीमित रहते थे.. या तब औरतों के बीच इज्तिमा और मिलाद जैसे इवेंट होते थे जहां कुछ अच्छी हदीसें ही दोहराई जाती थीं।

यानि तब यह शिर्क बिदत जैसे मसले बहुत ही छोटे और लगभग नगण्य पैमाने पर थे और मुसलमानों की बहुसंख्य आबादी इससे अंजान अपने अंदाज में ही जी रही थी। अलग संस्कृतियों और परंपराओं के घालमेल से ही मुसलमानों में शिया, हनफ़ी, मलायिकी, साफ़ई, जाफ़रिया, बाक़रिया, बशरिया, खलफ़िया, हंबली, ज़ाहिरी, अशरी, मुन्तजिली, मुर्जिया, मतरुदी, इस्माइली, बोहरा, अहमदिया जैसी अनेकों आस्थाओं ने इस्लाम के दायरे में रहते अपनी अलग पहचान बना ली थी। शुद्धता का दावा करने वाले देवबंदी खुद उस विचारधारा की पहचान के साथ जीने के बावजूद इस सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार कर के ही आगे बढ़ रहे थे।

 शुद्ध अरबी इस्लाम की अवधारणा

इस शुद्ध अरबी इस्लाम की अवधारणा मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब (1703-1792) ने रखी थी जिसने इस्लाम के अंदर विकसित होती खूबसूरत और प्रगतिशील परंपराओं को ध्वस्त करना शुरू किया। उन सभी कर्मकांडों, रीति रिवाजों, परंपराओं को पहली बार कुरान और हदीस की रोशनी में शिर्क और बिदत के रूप में पहचानना शुरू किया और इस इस्लाम को इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि किसी तरह की आजादी, खुलापन, मेलजोल की कोई गुंजाइश ही न रहे।


कुरान और हदीस के दायरे के बाहर जो भी है उसे खत्म कर देने का बीड़ा उठाये अब्दुल वहाब ने हर मुशरिक के कत्ल और उसकी सम्पत्ति की लूट को हलाल करार दिया और इसके लिये बाकायदा 600 लोगों की एक सेना तैयार की और जिहाद के नाम पर हर तरफ घोड़े दौड़ा दिये। तमाम तरह की इस्लामी आस्थाओं के लोगों को उसने मौत के घाट उतारना शुरू किया। सिर्फ और सिर्फ अपनी विचारधारा का प्रचार करता रहा और जिसने उसे मानने से इंकार किया उसे मौत मिली और उसकी सम्पत्ति लूटी गयी।

मशहूर इस्लामी विचारक ज़ैद इब्न अल-खत्ताब के मकबरे पर उसने निजी तौर पर हमला किया और खुद उसे गिराया। मज़ारों और सूफी सिलसिले पर हमले का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इसी दौरान उसने मोहम्मद इब्ने सऊद के साथ समझौता किया। मोहम्मद इब्ने सऊद दिरिया का शासक था और धन और सेना दोनों उसके पास थे। दोनों ने मिलकर तलवारों के साथ-साथ आधुनिक असलहों का भी इस्तेमाल शुरू किया। इन दोनों के समझौते से दूर-दराज के इलाकों में पहुँचकर अपनी विचारधारा को थोपना और खुले आम अन्य आस्थाओं को तबाह करना आसान हो गया।

अन्य आस्थाओं से जुड़ी तमाम किताबों को जलाना मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब का शौक सा बन गया। इसके साथ ही उसने एक और घिनौना हुक्म जारी किया और वह ये था कि जितनी सूफी मज़ारें, मकबरे या कब्रें हैं, उन्हें तोड़कर वहीँ मूत्रालय बनाये जाये। सउदी अरब जो कि घोषित रूप से वहाबी आस्था पर आधारित राष्ट्र है, उसने मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब की परम्परा को जारी रखा और अपने यहां इन्हीं कारणों से नबी और उनके खानदान को समेटे कब्रिस्तान तक को समतल कर दिया, काबे के एक हिस्से अलमुकर्रमा को भी इसी कारण से गिरा दिया गया.. आज जो जिहाद का विकृत रूप हम देखते हैं, वह इसी अवधारणा की कोख से पैदा हुआ है।

और सिर्फ जबरदस्ती के तौर पर ही नहीं था, बल्कि एक जन जागरण अभियान के तौर पर भी था जहां न सिर्फ मीनिंग सहित कुरान की आयतों और उन हदीसों का प्रचार प्रसार बड़े पैमाने पर किया गया जिनसे शिर्क और बिदत के रूप में उन सब चीजों को इस्लाम से अलग किया जा सके जिनका मूल इस्लाम से सम्बंध नहीं। धीरे-धीरे इस विचारधारा ने उन सभी मुस्लिम मुल्कों को अपनी चपेट में लेना शुरू किया जो अपनी मिली जुली संस्कृति के साथ खुशहाल जीवन जी रहे थे।

तुर्की में एर्दोगान के नेतृत्व में आया बदलाव आप देख सकते हैं। एक हिंदू बंगाली संस्कृति के साथ जीने वाले बांग्लादेश के बदलते रूप को आप तस्लीमा नसरीन के लेखों से समझ सकते हैं। पाकिस्तान में जिन्ना और इकबाल जो पाकिस्तान बनाने वाले और सम्मानजनक शख्सियत हुआ करती थीं, वह अपने अहमदिया, खोजा, पोर्क, वाईन वाले अतीत की वजह से नयी पीढ़ी के पाकिस्तानियों के ठीक उसी तरह निशाने पर हैं जिस तरह भारत में नव राष्ट्रवादियों के निशाने पर गांधी हैं.. बाकी भारत में यह बदलाव देखना है तो अपने आसपास देख लीजिये, पश्चिमी यूपी, हरियाणा, राजस्थान के जाट राजपूत मुस्लिम समाज को देख लीजिये।

वहाबियत पूरे इस्लाम के इतिहास, मान्यताओं, परस्पर सौहार्द और पहचानों के सह-अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करती आई है.. एक पहचान, एक तरह के लोग, एक जैसी सोच, एक किताब वाली नस्ली शुद्धता का पैमाना हिटलर ने वहाबिज्म से ही अडाॅप्ट किया था। वहाबियत से बाहर के फिरकों को इस्लाम से खारिज करार दे के उनके कत्ल तक को हलाल बताने के साथ बाकी सभी धर्मों के लोगों को तो कुफ्र के इल्जाम में वाजिबुल कत्ल करार दे दिया गया, उनकी सम्पत्ति की लूट और उनकी औरतों का धर्मांतरण जायज करार दे दिया गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश इनके मनपसंद खेल के मैदान बन गये।

यह एकरूपता का विचार समावेशी और विविधता भरे समाज के लिये किस तरह घातक है, इसे आप संघ के माॅडल से समझ सकते हैं जो अपने ‘हिंदुत्व के माॅडल’ को विविध संस्कृतियों से लैस पूरे भारत पर एक समान थोपना चाहते हैं.. क्या नार्थ ईस्ट के आदिवासी, जनजातीय समाज और दक्षिण के हिंदू समाज उस माॅडल के साथ सामंजस्य बिठा सकते हैं जिसमें ‘राम’ एक आदर्श और श्रेष्ठ भगवान हैं? क्या हिंदी पट्टी जैसा राममंदिर आंदोलन पूरे देश को उद्वेलित कर सकता है? क्या गाय पूरे भारत की माता हो सकती है? अगर नहीं तो क्या उनपे यह थोपना ठीक है.. वहाबिज्म भी इसी रूपरेखा पर चल रहा है।

संघ के पास हिंदुओं की आबादी वाले एक-दो देश है लेकिन वहाबियों के पास ढेरों देश हैं और इस विचारधारा को प्रमोट करने वाले सऊदी जैसे वह देश हैं जिनके पास बेशुमार पैसा है और जाकिर नायक जैसे विद्वान उनके ब्रांड एम्बेसडर हैं। किसी नव राष्ट्रवादी भारतीय की गांधी के प्रति सोच और नव राष्ट्रवादी पाकिस्तानी की सोच एक ही है कि वे दोनों उनके ‘माॅडल’ से मेल नहीं खाते।

मौलाना मौदूदी और जमाते इस्लामी

इस्लाम की जो व्याख्या इब्ने तैमिया ने चौदहवीं शताब्दी में दी थी, अट्ठारहवीं शताब्दी में अब्दुल वहाब ने उसे एक व्यापक अभियान में बदल दिया और कुछ प्वाइंट्स पर असहमति के बावजूद भारतीय भूभाग में मौलाना मौदूदी ने इसे अपने तरीके से आगे बढ़ाया जो जमाते इस्लामी के फाउंडर थे।

इस्लाम में मूल रूप से इमामों के पीछे बनने वाले हनफी, हंबली, शाफई, मलिकी के रूप में चार फिरके थे जिसके अंदर बहुत से अलग-अलग फिरके बने लेकिन पूरे भारत (आजादी से पहले का ब्रिटिश भारत) के सुन्नी हनफी फिरके से ताल्लुक रखने वाले हैं जो उन्नीसवीं शताब्दी में अशरफ अली थानवी और अहमद रजा खां के पीछे देवबंदी और बरेलवी फिरके में बंट गये।

अरब के लोग खुद को हंबली फिरके में रखते हैं, जबकि मध्यपूर्व एशिया और अफ्रीका के लोग शाफई और मालिकी फिरके से वास्ता रखते हैं लेकिन यह सभी फिरके (शिया इनसे पूरे तौर पर अलग हैं) सुन्नी हैं और इनके बीच तीन विचारधारायें सल्फी, वहाबी और अहले हदीस प्रचलित हैं.. कट्टरता के मामले में आप अहले हदीस, वहाबी और सल्फी को नीचे से ऊपर रख सकते हैं। सल्फी वहाबी तो एक तरह से अपने सिवा बाकी दूसरे सभी मुसलमानों को इस्लाम से ही खारिज कर देते हैं।

मौदूदी ने भारतीय भूभाग में इसी विचारधारा को आगे बढ़ाया था और जो तेजी से फलती फूलती अब इस दौर में पहुंच चुकी है कि आप पढ़े लिखे, आधुनिक युग के मुस्लिम (देवबंदी) युवाओं में इस परिवर्तन को टखने से ऊंचे होते पजामे, बढ़ती दाढ़ी के रूप में अपने आसपास देख सकते हैं। हां बरेलवी समाज इसके मुकाबले भले आपको खिलाफ दिखे।

इस विचारधारा के दो चेहरे हैं.. एक वह जिसने तरह-तरह के संगठन बना कर ‘जिहाद’ के नाम पर जंग छेड़ रखी है जो तब तक चलेगी जब तक पूरी दुनिया इनके रंग में न रंग जाये और दूसरा वह जो बड़े काबिल अंदाज में अपने तर्कों के सहारे उन सारी बातों को डिफेंड करता दिखता है, जिसके सहारे यह जिहादी ग्रुप पनप और पल रहे हैं।

यह खुद को बदल लेने की, अपनी बुराइयों खामियों को डिफेंड करने की एक कला है.. ठीक उस अंदाज में जैसे एक हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को आदर्श मानने वाले संघ ने खुद को दिखावे के तौर पर एक ऐसे सांस्कृतिक संगठन के रूप में बदल लिया है जो उत्तर भारत में भगवान राम के मंदिर को मुद्दा बना कर भाजपा को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा देता है, वहीं दक्षिण में राम को गरियाने वाले पेरियार समर्थकों के साथ भी खड़ा हो सकने लायक कोई संगठन या दल बना लेता है, और उत्तर भारत के उपास्य देवी देवताओं को अपशब्द कहने वाले लिंगायतों को साधने के लिये भी किसी न किसी रूप में ढल जाता है।

वह उत्तर भारत में गौवध के नाम पे इंसान की जान लेने वाली भीड़ भी खड़ी कर सकता है और नार्थ ईस्ट या दक्षिण में उसे खाने वाली भीड़ के साथ भी किसी न किसी रूप में खुद को ढाल लेता है। किसी भी विचारधारा के फैलाव के लिये उसमें फ्लेक्सिब्लिटी जरूरी है और यह बात वे भी जानते हैं इसलिये जो मूल विचार के साथ न एडजस्ट हो पा रहा हो, उसे एडजस्ट करने के लिये दूसरे अनुषांगिक संगठन और सेनायें बना ली जाती हैं जो ऊपरी तौर पर भले अलग दिख रही हों लेकिन उनकी जड़ें एक होती हैं और वे विरोधी विचार को समाहित करने से ले कर ‘शूट’ या ‘ब्लास्ट’ कर देने तक का काम बखूबी कर लेती हैं।

मांसाहार वर्सेस शाकाहार

मांसाहार बनाम शाकाहार

मांसाहार वर्सेस शाकाहार.. अक्सर इस मुद्दे पे बहस होती रहती है और शाकाहार समर्थक इस मुद्दे पर मांसाहारियों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं लेकिन क्या वाकई खानपान का मुद्दा नैतिकता या संवेदनशीलता से जुड़ा होता है, जैसा इसे साबित करने की कोशिश की जाती है? नैतिकता कोई सार्वभौमिक टर्म में नहीं लागू होती बल्कि अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग रूप में हो सकती है और ठीक इसी तरह संवेदनशीलता भी एक ट्विस्टिंग फैक्ट है जो हमेशा चयनात्मक रूप में लागू होती है।

बहरहाल.. मांसाहार या शाकाहार, इसे सिर्फ भोजन मान कर बेहद सरल रूप में सर्वाइवल के मुख्य सिद्धांत के रूप में समझिये। दरअसल हमारे आसपास इस यूनिवर्स में जितना भी कुछ है, वह सब एक तरह की इनफार्मेशन है जो आगे सरकती रहती है। जब सिंगल सेल आर्गेनिजम, कांपलेक्स आर्गेनिजम के रूप में ढला तो वह सर्वाइवल के लिहाज से अपने आसपास मौजूद स्थितियों के दोहन के हिसाब से ढलता गया और उसमें उत्तरोत्तर सुधार भी आता गया जिससे आगे चल कर जीवन का विभिन्नताओं से भरा वह जटिल रूप सामने आया जो हम आज अपने आसपास देखते हैं।

Shakahar versus Mansahar

आप एक बया को देखिये, क्या आप इंटेलिजेंट स्पिसीज होते हुए भी उसके जैसा घोंसला बना सकते हैं? पर कोई बया जिसे आप जन्म से ही बिलकुल अलग माहौल में रखें कि उसे यह घोंसला बनाने की झलक भी न मिले लेकिन उसके प्राकृतिक आवास में पहुंचते ही वह वैसे ही घोंसला बना लेगा.. कछुए/मगरमच्छ के बच्चों को देखा है, पानी से दूर रेत में गड्ढे खोद कर दिये गये अंडों से निकलते ही पानी की तरफ भागते हैं न कि सूखी जमीन की तरफ.. क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका जीवन उधर है। कौन सिखाता है उन्हें? इंसान के सिवा सभी जीवों को पता रहता है कि उन्हें मेटिंग करने का मौका तभी मिलेगा जब वे मादा को रिझाने में कामयाब रहेंगे, इसके लिये वे जान की बाजी तक लगा देते हैं.. कौन सिखाता है उन्हें?

सर्वाइवल के बुनियादी सिद्धांत

दरअसल सर्वाइवल सबसे अहम कड़ी है जीवन की.. अगर जीवों को उसकी समझ नहीं होगी तो जीवन का पनपना मुमकिन नहीं.. और यह सर्वाइवल तीन मूलभूत पिलर पर डिपेंड रहता है। पहला भोजन क्या हो सकता है और इसे कैसे हासिल करना है, दूसरा प्रजनन कैसे करना है ताकि अपने जींस आगे बढ़ाये जा सकें और तीसरा खतरा क्या है और इसके अगेंस्ट हमें सुरक्षा कैसे करनी है। यह सब इन्फोर्मेशन जीवों के जींस में रहती है जो वे आगे सरका देते हैं अपनी अगली नस्ल में.. तो यह बेसिक समझ सभी जीवों में रहती है और उनका शरीर उसी इनफार्मेशन के हिसाब से ड्वेलप होता है।

मतलब शेर के बच्चे को पता होता है कि उसका भोजन मांस है, घास नहीं। हिरण को पता होता है कि उसका भोजन घास है, मांस नहीं। इनके शरीर का पाचन तंत्र उसी हिसाब से विकसित हुआ है.. आप चाह कर भी शेर को घास और हिरण को मांस नहीं खिला सकते। हर जीव को जन्मजात पता होता है कि उसे अपना वंश कैसे आगे बढ़ाना है और उसके लिये उसके पास क्या स्किल होनी चाहिये.. बया के घोसले या दो जवान नर शेरों की लड़ाई को इसी से जोड़ कर देखिये। उन्हें खतरे का अंदाजा रहता है और उससे सुरक्षा कैसे करनी है, वह भी मोटे तौर पर पता रहता है.. इसे खुद पर अप्लाई करके देख सकते हैं। अंजानी चीजों से कैसे डरते हैं और बचने की कैसे कोशिश करते हैं।

हाँ एक बात यह भी है कि इस इनफार्मेशन के साथ कई बार आदतें और बीमारियां भी ट्रांसफर हो जाती हैं जिन्हें हम अनुवांशिकता के रूप में देखते हैं। बाकी इस जेनेटिक इनफार्मेशन के हिसाब से मौजूदा इंसान सर्वाहारी होता है न कि सिर्फ मांसाहारी या शाकाहारी.. ठीक कुत्ते या भालू की तर्ज पर। यहाँ सर्वाहारी का अर्थ यह है कि उसका शरीर इस हिसाब से ढला है कि अपनी भौगोलिक स्थिति और आसपास प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के आधार पर उसका मुख्य भोजन शाकाहार या मांसाहार दोनों हो सकते हैं जबकि प्रकृति के हिसाब से यह सुविधा इंसान के सिवा कुत्ते, भालू जैसे बस कुछ जीवों में ही मिलेगी।

कहने का अर्थ यह है कि इंसान का शुद्ध शाकाहारी होना प्राकृतिक नहीं बल्कि यह एक कला है जिसे सीखना पड़ता है, एक नियंत्रण है जिसे पाना पड़ता है तो इस मामले में सर्वाहारी तो प्राकृतिक है क्योंकि वह दोनों तरह के भोजन करता है और उसका शरीर उसी हिसाब से डिजाइन हुआ है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या अप्राकृतिक तरीके/सपोर्ट के दोनों तरह का भोजन पचा सके.. जबकि शुद्ध शाकाहारी होना वह अवस्था है जिसे आपको नियंत्रण से सीखना पड़ता है।

क्या मांसाहार से बचा जा सकता है

अब आइये इस मुद्दे पर कि जहाँ फसल उपलब्ध है वहां लोग मांसाहार से परहेज कर सकते हैं क्योंकि है तो यह जीव हत्या पर ही आधारित। बात तार्किक है लेकिन व्यवहारिक नहीं.. हम साढ़े सात सौ करोड़ इंसान हैं और अस्सी प्रतिशत से ऊपर लोग मांसाहार करते होंगे और अगर एक पल के लिये मान लें कि सब शाकाहार अपना लें तो क्या सब्जियों और दालों की उपलब्धता इतनी है कि सबको अन्न मिल सके?

क्या हमारे पास इतनी खेती लायक जमीन है? क्या हम जंगल काट कर खेत बनाने की कीमत पर पर्यावरणीय असंतुलन के साइड इफेक्ट समझते हैं? फिर कमी के साथ जो इस खाद्यान्न की कीमत होगी, क्या वह सब लोग चुका पायेंगे.. अभी तो दो सौ रुपये की दाल और सौ रुपये की प्याज के नाम से आंसू आ जाते हैं।

मौसमों या कुछ बुरे इत्तेफ़ाक़ों को ध्यान में रखते हुए थोड़ा सोचियेगा कि अकाल कैसे पड़ते हैं और इसके क्या प्रभाव होते हैं.. और जब सभी शाकाहारी हो जायेंगे तो सर्वाइवल के लिहाज से इंसानी आबादी की क्या स्थिति बनेगी? ग्लोबल वार्मिंग के दौर में फसल उत्पादन तो वैसे भी अनिश्चित हो चुका है.. जो जैसे तैसे करके उगा भी पायेंगे वह क्या सबका पेट भरने लायक होगा और क्या सब सोने के भाव बिकते उस अनाज की कीमत चुकाने में सक्षम भी होंगे?

अब इसके उन पहलुओं पर एक नजर जो अक्सर शाकाहार समर्थकों की तरफ से पेश होते हैं.. जैसे एक तर्क यह होता है कि मांसाहार के लिये जो जानवरों की फार्मिंग होती है वह बड़े पैमाने पर नेचुरल रिसोर्सेज को खत्म करती है, इतने संसाधन उपयोग करके तो हम शाकाहारी ही रह सकते हैं। यह तर्क यूएस, कनाडा, आस्ट्रेलिया या योरप के कुछ देशों में छोटे पैमाने पर अप्लाई हो सकते हैं जहां बड़े जानवरों की फार्मिंग होती है लेकिन बाकी दुनिया पर नहीं। इसे अपने देश से ही समझ लीजिये कि बड़े जानवरों के जो कुछ तबेले टाईप फार्म मिलेंगे भी तो वे दुग्ध उत्पादन के लिये होते हैं न कि मीट प्रोडक्शन के लिये।

बकरों, भेड़ों, सूअरों की कोई फार्मिंग नहीं होती, बल्कि वे शहरों की बाहरी बस्तियों, गांवों जंगलों के चरवाहे/ग्रामीण/आदिवासी आदि यूं ही खुले में पालते हैं और वे नदियों, तालाबों का पानी पीते, नहाते हैं, घास, पेड़ों के पत्ते, भूसी, चोकर, खली, वगैरह खाते हैं.. ऐसा कुछ नहीं खाते कि उसे इंसान खा कर काम चला सकता हो।

Shakahar versus Mansahar

सिर्फ मुर्गियों के लिये पोल्ट्री फार्मिंग होती है जो एक घर जितनी जगह में होती है और उनका खाना भी कोई इंसानों की हकमारी नहीं करता। यह जो लैंड, वाटर, फूड के रूप में इंसानों के साथ नेचुरल रिसोर्सेज का बटवारा बताया जाता है, उसे इन चीजों से खुद मैच कर के देख लीजिये। फिर मांसाहार का एक बड़ा हिस्सा समुद्र से प्राप्त होता है और उसमें इंसानों का कोई भी, कैसा भी कोई न योगदान होता है और न ही ऐसा कोई बटवारा कि उसके लिये नेचुरल खर्चने का रोना रोया जाये।

मांसाहार के खिलाफ एक तर्क जीव हत्या का पेश किया जाता है जो यूँ तो संवेदनशीलता के नजरिये से तार्किक लगता है लेकिन यहां संवेदनशीलता ट्विस्ट करते हुए सलेक्टिव हो जाती है। जीव हत्या कहेंगे तो जीव में सभी आ गये लेकिन जब शाकाहार पर आधारित फसल उगाई जाती है तो फसल को सुरक्षित रखने के लिये कीटनाशकों के प्रयोग से बहुत से जीवों को मारा जाता है, क्या वे जीव नहीं होते? आजकल टिड्डियों ने भारत, पाकिस्तान, ईरान में आतंक मचाया हुआ है और फसल को इनसे बचाने के लिये इन्हें करोड़ों की तादाद में मारा जायेगा.. क्या वे जीव नहीं?

आप कहेंगे कि वे नुकसानदायक हैं इसलिये मारते हैं लेकिन हैं तो जीव ही। इंसानी क्रूरता तो यह भी है और जिस दूध को लोग शान से पीता हैं, उसका हासिल करना भी क्रूरता ही है.. पर वहां वैसी संवेदनशीलता नहीं दिखाई पड़ती। साईज मैटर करता है.. संवेदनशीलता जगाने के लिये कम से कम मुर्गे से बड़ा साईज तो होना चाहिये वर्ना बकरे के कटने पर तड़पने वाले लोग घर में चींटियों, दीमकों, काक्रोचों, छिपकलियों, चूहों को बड़े आराम से मार लेते हैं और कोई संवेदनशीलता नहीं जागती.. जीव तो वे भी हैं और वे सब भी अपना प्राकृतिक चक्र ही पूरा कर रहे हैं। कोई कुछ अप्राकृतिक काम नहीं कर रहा।

क्या मांसाहार से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ता है

एक तर्क होता है पर्यावरणीय असंतुलन का.. कि मांसाहार के चलते बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। यह अधूरा इल्जाम है.. पर्यावरण अंधाधुंध बढ़ती इंसानी आबादी और विकास का दुष्परिणाम है, खास कर आबादी का।

Shakahar versus Mansahar

आबादी इतनी ज्यादा है कि उसके भोजन के लिये जो इंडस्ट्रियल मीट प्रोडक्शन हो रहा है, खास कर समुद्र में… जो हमारे इको सिस्टम को तबाह किये दे रहा है लेकिन एक सच यह भी है कि मांसाहार ओनली जैसा कुछ नहीं होता.. वह सपोर्टिंग फूड है, रोटी चावल या और दिनों में जो इंसानी खाना है वह खेतों पर ही डिपेंड है और इसे हासिल करने के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं, ब्राजील ने ज्यादा जमीन हासिल करने के लिये ही अपने जंगल जलवाये थे.. तो पर्यावरण में खतरनाक असंतुलन तो यह भी पैदा कर रहा है। फिर इसके लिये एक तरह का खाना कैसे दोषी हो गया?

हाँ सबसे अहम बात.. यह इंसान के आसपास की स्थिति, उपलब्धता, बचपन से स्थापित आदतों पर आधारित च्वाइस सिस्टम है कि कोई क्या खायेगा और शाकाहार हो या मांसाहार, इसका नैतिकता या संवेदनशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता, जिन्हें ऐसा लगता है वे एक बार सारे फैक्ट्स अपने सामने रखें तो उन्हें अपने विचारों का दोहरापन खुद नजर आ जायेगा।

आदम और हव्वा की कहानी

क्या आदम और हव्वा एतिहासिक पात्र थे? 

एक बारगी डार्विनिज्म को दरकिनार भी कर दिया जाये और कोई कहे कि एडम ईव उर्फ आदम हव्वा कोई एलियन थे जो किसी तरह पृथ्वी पे फंस गये थे (जैसा मैंने अपनी किताब इनफिनिटी में लिखा था) और यहां जीरो से अपना सफर शुरु किया था तो भी मैं यह थ्योरी मान सकता हूँ लेकिन कोई यह कहे कि ईश्वर ने इन दो प्राणियों को धरती पर उतारा और उनसे समस्त मानव जाति की शुरुआत हुई, तो यह चीज किसी भी तरह मेरे गले नहीं उतरने वाली।

जब किसी तरह की साइंटिफिक रिसर्च की सुविधा नहीं थी तब चीजें लोग बे चूं-चरा मान लेते थे क्योंकि कोई और ऑप्शन नहीं था लेकिन आज तो दुनिया भर की चीजें मौजूद हैं, जानने समझने के लिये.. तो कम से कम अब तो दिमाग इस्तेमाल कर लीजिये। डेढ़ सौ साल पहले पुरातत्व विज्ञान नहीं था तो ऐसी कहानी हजम की जा सकती थी लेकिन अब तो हमें पता है कि पृथ्वी पर इंसानों का अतीत लाखों साल पुराना है।

कम्यूनिकेशन शुरू करके बड़े समूहों में ढलने का इतिहास भी पच्चीस हजार साल पुराना है और सैकड़ों सबूतों के आधार पर हमें पता है कि इंसान की होमो इरेक्टस या नियेंडरथल्स जैसी दूसरी प्रजातियों को किनारे कर दें तो भी होमो सेपियंस ने आग के इस्तेमाल, कच्चे भोजन को पका कर खाना, पत्थरों के औजारों से शुरु करके ब्रोंज और लोहे के औजारों तक आना, पहिये का अविष्कार कर के लंबे सफर करना, खेती करना, लिखना पढ़ना.. सब एक क्रोनोलाॅजी में धीरे-धीरे और हजारों साल के सफर में सीखा है और आदम हव्वा आस्मान से जमीन पर उतरते ही आग जलाना, खेती करना, शिकार करना, लोहे के औजारों का इस्तेमाल करना और लिखना पढ़ना सब शुरू कर देते हैं।

उनके बेटे शेत उर्फ शीश के बेटे एनोश उर्फ अनूश के बेटे केनान उर्फ कयान के बेटे महललेल उर्फ महलाईल के बारे में लिखा है कि उन्होंने नई-नई बस्तियां बसाईं, इंडस्ट्रीज की शुरूआत की, किले बनवाये और मस्जिदें बनवाईं.. आदम की सिर्फ चौथी पीढ़ी, मान लीजिये कि उनके बीच हजार साल का भी फर्क रख लीजिये तो इतने ही वक्त में सुपर सोनिक स्पीड से दुनिया ने इतनी तरक्की कर ली थी। मतलब मानव विकास के जो भी सबूत दुनिया में पाये जाते हैं, वह कोई मायने ही नहीं रखते।

मजे की बात है कि सेमिटिक में जितने भी पैगम्बरों के नाम लिये जाते हैं, तीन चार नामों को छोड़ किसी का भी कोई एतिहासिक सबूत नहीं है और यह सब माइथालाॅजिकल कैरेक्टर्स ही हैं जो एक लिटरेचर का हिस्सा हैं लेकिन चूंकि इन पर यकीन रखने वाले इन्हें एतिहासिक मानते हैं तो एक बार उन्हीं के नजरिये से इनकी एतिहासिकता को मान्यता देते हुए इनका टाईम पीरियड चेक कर लेते हैं। पहले आदम से शुरू करते नूह तक पहुंचते हैं.. नीचे इन नामों के आगे वह उम्र लिखी है जिसमें उन्होंने अगली पीढ़ी को पैदा किया..

एडम-130, शेत-105, एनोश-90, केनान-70, महललेल-65, येरेद-162, हनोक-65, मतुशेलाह-187, लेमेक-182 (नूह), यानि आदम के आने के बाद से दसवीं पीढ़ी में नूह के पैदा होने के बीच 1056 साल होते हैं और जब नूह 600 साल के होते हैं तब वह जल प्रलय आती है, मतलब एडम के अवतरण के 1656 साल बाद।

इसके बाद नूह से इब्राहीम तक पहुंचते हैं.. यह भी उनकी दसवीं पीढ़ी में हैं। नूह-500, शेम-102, एर्फेक्शेड-35, सलाह-30, एबर-34, पेलेग-30, रेऊ-32, सेरग-30, नाहोर-29, तेराह-130 (इब्राहीम) तक आते 952 साल होते हैं। नोट करने वाली बात यह है कि इब्राहीम की बर्थ डेट भी बताई गयी है जो 2150 BC है, अब इस हिसाब से पीछे जायेंगे तो 1056+952=2008 साल पीछे हीं एडम मिल जाते हैं यानि 4158 BC मतलब बस आज से 6,159 साल पीछे ही। इस हिसाब से वह जल प्रलय 2502 BC में घटित हुई थी यानि आज से 4503 साल पीछे।

अब इब्राहीम से मूसा तक आते हैं.. इब्राहीम-100, इसहाक-60, जेकब-65, लेवी-67, केहाथ-67, अमराम-65 (मूसा).. यानि इब्राहीम से मूसा तक 424 साल लगे तो अगर इब्राहीम की जन्म तिथि 2150 BC से चलें तो 1726 BC में मूसा को पैदा होना चाहिये लेकिन इन्हें उस फिरौन की वजह से जाना जाता है जिसके बारे में अंदाजा लगाया जाता है कि वह रेमेसिस था जो 1213 BC में मरा तो उस हिसाब से देखें तो इन्हें भी उसी दौर में होना चाहिये जबकि इनकी वंशावली के हिसाब से देखें तो इनका जन्म करीब पांच सौ साल पीछे जा रहा है।

और अगर रेमेसिस के हिसाब से ही इन्हें मान लें तो यह आदम की छब्बीसवीं पीढ़ी में आयेंगे और सबकी उम्रों को अगर जोड़ें तो 2008+424=2432 साल होते हैं और इसमें मान लें कि एग्जाडस के समय मूसा की उम्र 80 साल थी तो उसे जोड़ के कुल 2512 साल होते हैं। अब इन्हीं की कहानी है कि वह एग्जाडस के समय डूब कर मर गया था जो कि रेमेसिस के इतिहास में उसकी मृत्यु के समय के रूप में 1213 BC दर्ज है तो इस डेट से ठीक 2512 साल पीछे यानी 3725 BC में एडम मिल जाते हैं, मतलब आज से 5746 साल पीछे वह धरती पर उतरे थे और उन्होंने मानव सभ्यता की शुरुआत की थी जबकि बारह हजार साल पहले हमारे पूर्वज घुमक्कड़ी छोड़ कर स्थाई बस्तियां बसा कर खेती करना शुरु कर चुके थे।

इससे आगे की क्रोनोलाॅजी समझना चाहते हैं तो उस पर भी एक नजर डाल सकते हैं.. एग्जाडस यानि मूसा के मिस्र छोड़ने के बाद इज्राएल में अपनी कौम को बसाने, व्यवस्थित करने में मूसा को 40 साल लगते हैं, इसके बाद निम्नलिखित क्रम में लोग वहां राज्य करते हैं.. जोशुआ-ओथनील-40, एहुद-80, डेबोरह-40, गिडेऊन-40, एबिमेलेज-3, टोला-23, जायर-22.. इसके बाद जेपथेह के अट्ठारह के होने तक कुछ साल गद्दी खाली रहती है और फिर जेपथेह-6, एलन-10, एब्डान-8, सैंपसन-20, हेली-जज-प्रीस्ट-4, सैमुएल-सोल-40, डेविड उर्फ दाऊद-40, और उनके बाद गद्दी संभालने वाले उनके बेटे सोलोमन उर्फ सुलेमान ने सत्ता संभालने के चार साल बाद माउंट टेम्पल का निर्माण कराया जिसे मुसलमान मस्जिदे अक्सा के रूप में जानते हैं और जिसके निर्माण की तारीख 957 BC दर्ज है।

यानि अगर एतिहासिक रूप से स्थापित इसी तारीख को एक पिक प्वाइंट के रूप में मान लें तो एग्जाडस से उस वक्त तक अप्राक्सिमेटली 450 साल के आसपास का वक्त होता है और इसे एग्जाडस के टाईम में जोड़ें जो आदम के अवतरण के बाद से 2512 साल होता है.. यानि टोटल 2912 साल। राउंड फिगर में तीन हजार साल रख लें तो मतलब माउंट टेम्पल के बनने के तीन हजार साल पहले आदम दुनिया में आये थे और उसे बने अब लगभग तीन हजार साल हो चुके हैं तो उसे मिला कर छः हजार साल बनते हैं.. यानि अब से लगभग छः हजार साल पहले एडम और ईव ने दुनिया में मानव सभ्यता शुरु की थी।

अगर कोई पीढ़ियों के हिसाब से अब्राहम से ईसा की वंशावली समझना चाहता है तो इससे समझ सकता है.. इब्राहीम> इसहाक> जेकब> जेडास> फैरेस> एसराम> एरम> एमिनाडेब> नासन> सैलमन> बूज> ओबेड> जेस्से> डेविड (दाऊद)> सोलोमन (सुलेमान)> रोबोम> एबिया> एसा> जोसाफेट> जोरम> ओजिअस> जोथम> एजेस> एजिकिआस> मैनासेस> एमन> जोसिआस> जेकोनिआस> सेलाथील> जोरोबेबल> एविअड> एलिआकिम> एजर> सैडाक> एकिम> इलियड> एलिजर> मैटहन> जेकब> जोसेफ.. जो मदर मैरी के शौहर थे।

और इन्हें पिक प्वाइंट बनायें तो यह अब्राहम की चालीसवीं पीढ़ी हैं और इनके बीच चालीस साल का मैक्सिमम एवरेज गैप रखें तो सोलह सौ साल होते हैं और उस हिसाब से अगर गणना करेंगे तो अब्राहम की जन्मतिथि 3600 ईसापूर्व आयेगी जो उनकी दी गयी तिथि से मैच नहीं करेगी और इस हिसाब से एडम का अवतरण काल और पहले आ जायेगा जबकि अगर माउंट टेम्पल को पिक प्वाइंट बनायें तो उस वक्त सोलोमन के बेटे रोबोम के जन्म का समय होगा और वहां से ईसा तक पच्चीस पीढ़ी बनती हैं जिनके बीच के एवरेज गैप को चालीस का भी मानें तो टोटल पीरियड हजार साल का बनता है जो कि माउंट टेम्पल की निर्माण तिथि से मैच हो जाता है।

अब अगर कोई मुसलमान यह कहना चाहे कि यह सब वंशावली तो बाईबिल की है, हमसे क्या मतलब तो उसे जानना चाहिये कि इस्लामिक कांसेप्ट में भी यह जूं की तूं मौजूद है और आदम से लेकर मूसा तक की वंशावली यह रही.. आदम शीश (शेथ)> अनूशा> कैनान> महलाईल> यारिद> इदरीस (अखनूद)> मुतवाशलक> लैमिक> नूह> शाम> अर्फाक्शद> शालिख> अबीर> फालिख> राऊ> सार> नहूर> तारीह> इब्राहीम> इसहाक> याकूब> लावी> कोहाथ> अमराम> मूसा।

और इब्राहीम से मुहम्मद साहब तक..

इब्राहीम> इस्माईल> हैदीर> अराम> अदवा> वज्जी> सामी> जरीह> नहीथ> मुकसर> एहम> अफनाद> एसार> देशान> आयद> अरावी> अल्हन> यहजिन> अथराबी> सनबीर> हमदान> अददाअ> उबैद> अबकार> आइद> मखी> नाहीश> जहीम> तबीख> यदलत> बिलदास> हाजा> नशीद> अव्वाम> ओबाई> कमवाल> बुज> औस> सलामन> हुमैसी> एद> अदनान> माद> निजार> मुदार> इलियास> मुदरिकाह> खुजैमा> किनाना> अन-नदर> मलिक> फाहर> गालिब> लोई> काब> मुर्रा> किलाब> कुसाई> अब्दुल मुनाफ> हाशिम> अब्दुल मुत्तलिब> अब्दुल्ला> मुहम्मद साहब।

यानि आदम के हिसाब से देखें तो मुहम्मद साहब उनकी 82वीं पीढ़ी हैं और इनके बीच के एवरेज गैप को आप अपनी मर्जी से (जो मुनासिब हो) जो चाहें मान लें और उसे 670 ई० के हिसाब से प्लस कर लें तो भी पांच हजार साल पीछे ही जाते बनेगा। या इब्राहीम से जोड़ें तो उनकी यह 62वीं पीढ़ी हैं और इनके बीच के मैक्सिमम गैप को पचास साल भी रख लें तो भी 3100 साल बनेंगे, जिसमें उनके जन्म के बाद के 1351 साल जोड़ लें तो आज से करीब साढ़े चार हजार साल बनेंगे और उनसे आदम तक के बीच का बीस पीढ़ियों का गैप (सौ साल भी मान लें तो) दो हजार साल का बनेगा। यानि उस हिसाब से भी साढ़े छः हजार साल पहले आदम दुनिया में इंसानों की आबादी शुरु करने आये थे।

हाऊ फनी न.. धार्मिक कांसेप्ट बस ऐसे ही अतार्किक और अवैज्ञानिक होते हैं। चूंकि लिखने वालों को पता नहीं था कि कभी पुरातत्व विज्ञान जैसी कोई चीज भी आ जायेगी और धरती पर हजारों लाखों साल पहले की इंसानी मौजूदगी के सबूत भी मिल जायेंगे तो उन्होंने बाकायदा सबकी पीढ़ियां और उम्रें तक लिख डालीं, सोचा ही नहीं कि कभी इंसान इन्हें कैलकुलेट कर के जड़ तक पहुंच जायेगा जो दूसरे साइंटिफिक सबूतों से एकदम उलट होगी। मुश्किल यह है कि अब नये उपलब्ध ज्ञान के हिसाब से वे इन किताबों को एडिट भी नहीं कर सकते वर्ना सारी वंश बेल सिरे से हटा दी जाती और आदम हव्वा को सीधे अफ्रीका पहुंचा दिया जाता.. मगर अफसोस!

अब ऐसी चीजों पर आप कुछ भी आलोचनात्मक लिखें तो बहुत से लोग आपको बताने आ जाते हैं कि ऐसा नहीं ऐसा है, आपको जानना चाहिये, आपको पढ़ना चाहिये.. और मजे की बात यह है कि अतीत से जुड़े ढेरों मुद्दों पर खुद ही यह आपस में सहमत नहीं होते। कोई किसी हदीस को गलत बतायेगा कोई किसी हदीस को, कोई किसी आयत का कुछ मतलब निकालेगा तो कोई कुछ.. खुद ठीक से समझ नहीं पाते कि फाइनली क्या कहना है लेकिन दूसरे को समझाने की पूरी कोशिश करनी है।

अच्छा चलिये मान लेते हैं कि आपको नहीं पता..तो कैसे जानना है? कुरान में सीधी-सीधी आयतें लिखी हैं जिनसे पल्ले नहीं पड़ेगा कि किससे, किस मौके पर, क्या कहा जा रहा है.. उसका संदर्भ जानने के लिये तफसीर पढ़नी पड़ेगी, लेकिन वहां भी लिमिटेड चीजें हैं.. तो बाकी चीजें कैसे जानेंगे? हदीस से, जो एक्चुअल टाईम के दो सौ साल बाद के आसपास संग्रहित की गयीं जनश्रुतियों से, जिनका कोई भरोसा नहीं कि क्या सही है क्या नहीं.. लेकिन फिर भी यह सोच कर पढ़ सकते हैं कि इस बहाने यह तो पता चलेगा कि उस वक्त के लोग क्या सोचते थे और उनके ज्ञान का लेवल क्या था।

लेकिन वह सारी मोटी-मोटी किताबें पढ़ने में बहुत वक्त और ऊर्जा लगेगी, तो उससे बेहतर है कि जिन्होंने वह सब पढ़ रखा है, उनके जरिये ही थोड़ा बहुत जान लीजिये। नीचे एक इस्लामिक वेबसाइट के चार लिंक दे रहा हूँ.. पहला है दुनिया कैसे बनी को लेकर, दूसरा है आदम कैसे वजूद में आये, तीसरा है कि आदम ने धरती पर शुरुआत कैसे की और चौथा है कि आदम के बाद उनकी पीढ़ियां आगे कैसे बढ़ीं। इस पोस्ट को पूरी करके इत्मीनान से एक-एक करके पढ़िये और दिमाग खोल कर सोचिये कि किस तरह की बातों पे यकीन किया जाता है धार्मिक प्रतिबद्धता के चलते और फिर सोचिये.. कि इन बातों पर यकीन रखने वाले, जो कि खुद को काफी जानकार मानते हैं और पूरी कसरत से ऐसी चीजों को डिफेंड करते हैं.. हकीकत में वे किस लायक होते हैं।

Written By Ashfaq Ahmad

अपनी किताब कैसे छपवायें?

किताब प्रकाशित कराने के क्या-क्या विकल्प हैं 

कहानी, किसी खास विषय से सम्बंधित लेख, कविता आदि आप कुछ भी लिखते हों, किसी न किसी मोड़ पर आपको अपने लिखे को किताब के रूप में छपवाने का ख्याल जरूर आता है। तकनीक की उपलब्धता ने इस छपने की प्रक्रिया को आसान जरूर बनाया है लेकिन अभी भी यह सबके बस का नहीं है। इस सिलसिले में जो भी ऑप्शन हैं.. वे इस लेख में पिरोये गये हैं। कृपया इसे ध्यानपूर्वक पढ़ें।

किताब पब्लिश करने के लिये दो ऑप्शन आपके पास होते हैं.. एक, कि आप अपने लिखे को ईबुक के रूप में डिजाइन करके किताब के डिजिटल वर्शन को आप ईबुक उपलब्ध कराने वाले तमाम प्लेटफॉर्म्स पर पब्लिश कर सकते हैं। इसमें अगर आप कवर, फार्मेटिंग, एडिटिंग सब खुद कर सकते हैं तो यह तरीका आपके लिये बिलकुल मुफ्त है अन्यथा एडिटिंग, प्रूफ रीडिंग, कवर के लिये उपलब्ध दूसरे तरीकों का भी चुनाव आप कर सकते हैं। ईबुक डिजाइन करने से लेकर पब्लिश करने तक की सारी प्रक्रिया आप इस लेख पर जा कर पढ़ सकते हैं..

ईबुक कैसे डिजाइन और पब्लिश करें

बुक पब्लिशिंग के लिये दूसरा ऑप्शन है पेपरबैक के रूप में एक फिजिकल स्टफ, यानि एक प्राॅपर किताब छपवाना। अब यहां जो सबसे पहली जरूरत है, वह है किताब को रेडी टू प्रिंट तैयार करना.. क्योंकि इस बात के बहुत कम चांस हैं कि आपके लिखे को किताब की शक्ल में सहेजने का जतन कोई संपादक/प्रकाशक करेगा, अगर आप इसके पीछे खर्च नहीं कर रहे हो। हां, खर्च कर रहे हैं तब किसी भी पब्लिकेशन की तरफ से या सेल्फ पब्लिशिंग मोड में प्रोफेशनल्स की तरफ से आपको यह सुविधा मिल सकती है। खुद से इसे करना चाहते हैं तो नीचे दिये लिंक पर इस पूरी प्रक्रिया को उकेरा गया है, आप इस लेख से मदद ले सकते हैं..

वर्ड में किताब कैसे डिजाइन करें

अब मान लेते हैं कि आपके पास एक रेडी टू प्रिंट स्क्रिप्ट तैयार हो गई है.. तो यहां से भी उसे छपवाने के लिये आपके पास दो ऑप्शन हैं। पहला कि किसी परंपरागत पब्लिकेशन को स्क्रिप्ट दें, इसमें काफी वक्त लग सकता है और बड़े, स्थापित लेखकों को छोड़ कर शायद ही किसी की पांडुलिपि वे इस तरह लेते हैं कि आपको कुछ न देना पड़े, वे इसे खुद के रिस्क पर छापें और ऑनलाइन उपलब्ध कराने के साथ ही देश भर के बुक स्टोर्स और स्टाल्स पर उपलब्ध करायें। बिक्री पर 10 से 15 प्रतिशत राॅयल्टी आपको मिल सकती है। अगर आप नये हैं, तभी यहां यह लेख पढ़ रहे हैं, तो समझ लीजिये कि आपके लिये वह सुविधा नहीं है। आपको दूसरे ऑप्शन पे जाना पड़ेगा.. यानि किताब को छपवाने के लिये आपको पैसे खर्च करने पड़ेंगे।

बड़े पब्लिकेशन सहयोग राषि के नाम पर इतने पैसे ले लेते हैं कि 500 या 1000 प्रतियाँ उसी पैसे से छप जायें और फिर अगर वे बिकती हैं तो उस बिक्री पर आपको 10-15% राॅयल्टी मिलती है। छोटे ढेरों पब्लिकेशन कम फीस में यानि 5000 से लेकर 20000 तक में भी किताब छाप देते हैं लेकिन उसमें उनकी तरफ से बस सर्विस ही रहती है, 20-25 हजार लेने वाले आपको सौ प्रतियां उपलब्ध करा देंगे कि आप खुद बेचिये और कुछ काॅपीज अपने पास रख के ऑनलाइन लिस्ट कर देते हैं।

Gradias Publishing House

बाकी सेल्फ पब्लिशिंग में नोशन, ब्लू रोज जैसे प्लेटफॉर्म्स हैं जो 35 हजार से लेकर लाख रुपये तक के पैकेज देते हैं जहां इतने पैसे में उनकी सर्विस और मात्र दस ऑथर काॅपीज ही काउंट होती है। बाकी छोटे पैकेज पर सिर्फ ऑनलाइन लिस्ट कर देते हैं और बड़े पैकेज पर सौ-दो सौ काॅपी प्रिंट करके कुछ अपने से जुड़े स्टोर्स में किताब उपलब्ध करा देते हैं। बड़े पैकेज में हिंदी वालों का फायदा नहीं, अंग्रेजी के लिये ठीक है क्योंकि वहां इंटरनेशनल मंच मिलता है। इस तरह से किताब पब्लिश करने पर वे 100% राॅयल्टी देने की बात तो करते हैं लेकिन वह होती कितनी है, इसे ऐसे समझिये। नीचे नोशन पर लिस्ट 226 पेज की एक किताब है, जिसकी प्रोडक्शन कास्ट 104 है, अब आप इसकी MRP 260 (उनकी तरफ से मिनिमम रखने की शर्त से बंधी) भी रखते हैं तो अगर यह किताब अमेजाॅन/फ्लिपकार्ट जैसे मंच से बिकती है तो आपको मात्र 18-19 रुपये मिलते हैं। यही आपकी 100% राॅयल्टी है।

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 और इतना काफी नहीं है, इस सिलसिले की जटिलता यह है कि एक पाठक जब 260 की यह किताब खरीदने जायेगा तो उसे 40 से 50 डिलीवरी चार्ज भी देना पड़ेगा, जो अमेजाॅन या फ्लिपकार्ट वाले नहीं लेते बल्कि वह सेलर की तरफ से होता है और इन पब्लिकेशन के अकाउंट में जाता है लेकिन न वह आपको बताया जायेगा और न ही आपके साथ शेयर किया जायेगा। आपको सारी कैलकुलेशन MRP के हिसाब से दी जायेगी जहां प्रोडक्शन कास्ट (पब्लिकेशन के शेयर के साथ 140 हो सकती है) के साथ इन मार्केटप्लेस का चार्ज (क्लोजिंग फीस/रेफ्रल चार्ज/शिपिंग चार्ज) 100+ जोड़ के सारी गणित निकाल ली जाती है। यानि आपको कैलकुलेशन में मैक्जिमम (जो नेशनल चार्ज होता है लगभग 84₹) चार्ज ही बताया जाता है जबकि बायर लोकल या रीजनल एरिया का भी हो सकता है जिसके चार्ज अलग हो जाते हैं (लोकल 45+, रीजनल 60+).. इस तरह यहाँ भी आपके साथ एक खेल होता है।

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि मान लीजिये खरीदार चेन्नई का है जो नोशन का लोकल एरिया है तो अमेजाॅन का शेयर बस 60 तक रहेगा.. अब ग्राहक से मिले 300 में 240 नोशन के, जिसमें 105 प्रोडक्शन कास्ट भी निकाल दें तो बचे हुए 135 में 19 रुपये आपको मिलने हैं और 126 नोशन के। कमोबेश यही खेल आपके साथ हर जगह होता है।

अब मूल मुद्दे पर लौटते हैं, किसी पैकेज या सहयोग राषि के नाम पर एक तयशुदा रकम की अदायगी के साथ आप अगर स्क्रिप्ट पब्लिकेशन को सौंपते हैं तो सारी सरदर्दी फिर उनकी हो जाती है लेकिन अगर आप खर्च नहीं करना चाहते या मिनिमम खर्च करना चाहते हैं तो फिर पोथी, क्रियेटस्पेस, जगर्नाट या नोशन के पास एक ऑप्शन रहता है कि खुद से पब्लिश कर लें। कुछ जगह ISBN आपको लेना पड़ सकता है तो किसी जगह पब्लिकेशन ही उपलब्ध करा सकते हैं। बस आपको उनकी गाईडलाईन के हिसाब से रेडी टू प्रिंट अपलोड करनी होती है। कवर के लिये उनके टूल का भी सपोर्ट ले सकते हैं या खुद भी बाहर से बनवा सकते हैं।

अब किताबों की छपाई ऑफसेट और डिजिटल दो तरह से होती है.. यहां 200+ काॅपीज के लिये ऑफसेट के ऑप्शन पे जाते हैं जहां 200+ पेज की किताब भी 80₹ के आसपास पड़ सकती है। प्रतियां जितनी ज्यादा होंगी, उतनी ही कास्ट घटती जायेगी.. दूसरे डिजिटली प्रिंट होती हैं जहां लगभग एक ही रेट रहता है लेकिन यहां कास्ट काफी ज्यादा रहती है। आप नीचे की तस्वीरों से अंदाजा लगा सकते हैं कि 200 पेज की किताब की प्रोडक्शन कास्ट 233 आनी है। अब इसपे आपको राॅयल्टी चाहिये तो MRP इससे ऊपर ही रखनी पड़ेगी, जबकि इसके बावजूद किताब इन्हीं के स्टोर से खरीदी जा सकेगी।

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अगर चाहते हैं कि अमेजाॅन या फ्लिपकार्ट पर भी लिस्ट हो तो उनके चार्ज भी इस MRP में इनक्लूड करने पड़ेंगे। अब सोचिये कि आप नये नवेले, अंजान से लेखक.. भला आपकी किताब 350 या 400 में कौन खरीदेगा जबकि कई बड़े लेखकों की किताबें 150 तक में बिक रही हैं। उनकी इसलिये बिकती हैं क्योंकि उनकी ऑफसेट से बल्क प्रिंटिंग होती है, और वह इसलिये होती है क्योंकि प्रकाशक को उनके बिकने की गारंटी रहती है। आपकी किताब इस तरह बिकने की गारंटी नहीं तो आपको यह सुविधा नहीं.. खुद खर्च करके छपवाना चाहें तो छपवा लें मगर बेचना आपको ही पड़ेगा।

आउटबर्स्ट 1

क्या सच में पृथ्वी पर नूह वाली बाढ़ आई थी ?

अगर दुनिया के नक्शे को फैला कर देखें तो मुख्य आबादियों के चार बिंदु नजर आयेंगे। सबसे मुख्य तो योरप और मिडिल ईस्ट की जिसे आप मेडेटेरेनियन सी के आसपास रख सकते हैं पूर्व की तरफ फैलाव के साथ.. दूसरी जो भारत कहे जाने वाले संपूर्ण क्षेत्र की तरफ फैली थी.. तीसरी जो हिमालय के पार, एशिया के सबसे पूर्व में थी और पैसिफिक तक फैली थी और चौथी जो बाकी आबादियों के साईज की तो नहीं थी पर इस लिहाज से मुख्य थी कि वह दो तरफ विशाल महासागरों से घिरे अमेरिकी कांटीनेंट में थी।

इन चारों जगहों पर जनश्रुतियों से चली आई बाढ़ की एक कहानी मिलेगी जो बहुत पहले के अतीत से जुड़ी है, और जिसकी ऐतिहासिकता के तो सबूत नहीं पर चूंकि वह धर्म की चाशनी के साथ परोसी गयी है तो लगभग पहुंची सभी आबादियों तक उसकी पहुंच है। एशिया के पूर्वी किनारे पर बसे चीनियों के पास उनके किसी महापुरुष के साथ दर्ज है तो अटलांटिक और पैसिफिक से घिरे अमेरिका में एज्टेक लोगों के पास उनके किसी देव पुरुष के साथ। दक्षिण एशिया में पूरे भारत को रखें तो यह सातवें मनु वैवस्वत के साथ जुड़ी है और योरप और मिडिल ईस्ट में यह नूह के साथ जुड़ी है।

अब चूंकि इन दो जगहों के धर्म और इनके फाॅलोवर्स पूरी दुनिया में फैले हैं तो यह कहानी पूरी दुनिया में मिलेगी, जिस पर हाॅलीवुड वाले रसेल क्रो के साथ फिल्म भी बना चुके हैं। कहानी मूल रूप से बाइबिल की थी, जिसे बाद में मुसलमानों ने अडाॅप्ट किया तो सहज रूप से यह थोड़ी एडिटिंग के साथ कुरान में भी उपलब्ध है। कहानी के ज्यादा गहरे में उतरने की जरूरत नहीं.. वह शायद सभी ने सुन रखी होगी कि धरती पर पाप बहुत बढ़ गया तो ईश्वर ने पापियों को सजा देने के लिये एक विश्व व्यापी बाढ़ पैदा की और नूह को इस बात की खबर पहले से थी तो उन्होंने एक बड़ी कश्ती बनाई जिसके जरिये, जानवरों, परिंदो और अपनी अगली पीढ़ी को बचाया।


चलिये कहानी के व्यावहारिक पहलू पर फोकस करते हैं.. क्या ऐसा हो सकता है कि मात्र कुछ दिन (सात दिन) के अल्टीमेटम पर नूह आस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में पाये जाने वाले कंगारू या कीवी पकड़ लायें? या सुदूर अमेरिका से ले कर चीन तक खास क्षेत्र में पाये जाने वाले कैपिबारा से ले कर कुआला जैसे पशु पक्षी पकड़ लायें? या उनके बस में था कि वे आर्कटिक पर पाये जाने वाले पोलर बियर या अंटार्कटिका में पाये जाने वाले पेंग्विन पकड़ लायें?

चलिये किसी चमत्कार से मान लेते हैं कि ऐसा कर भी लिया गया तो भी उससे बड़ा सवाल यह है कि अलग-अलग जमीन और तापमान के रहने वाले पशु पक्षी किसी एक जगह पर कैसे रह सकेंगे? आप उम्मीद करते हैं कि उत्तरी ध्रुव की बर्फ में रहने वाला भालू किसी गर्म जगह पर रह लेगा या रेगिस्तान में रहने वाले ऊंट शुतुरमुर्ग किसी बर्फीली जगह पर रह लेंगे। कोई एक वातावरण कुछ जानवरों और परिंदों के लिये तो सूटेबल हो सकता है लेकिन सबके लिये नहीं। फिर मांस पर जिंदा रहने वाले शेर, भेड़िये, लकड़बग्घे इस तरह पकड़ने ही मुमकिन है और न उन्हें यूं एक जगह रखना।

फिर इतनी बड़ी भीड़ एक जहाज पर (चाहे वह कितना भी बड़ा हो) एक लंबे वक्त के लिये (लगभग छः महीने तक) रखना है तो उसके लिये बहुत सारे खाने का प्रबंध भी करना पड़ेगा.. खास कर मांसाहारी जानवरों के लिये। अब इतना बंदोबस्त एक जहाज पर व्यवहारिक रूप से मुमकिन नहीं, बाकी आस्था में दिमाग बंद करके चमत्कार मान लीजिये तो अलग बात है।

अब दिमाग वाली बात यह है कि अगर चमत्कार को किनारे रखते हैं तो कोई साधारण समझ का इंसान भी बता देगा कि कहानी असली नहीं है, क्योंकि इसे सच बनाने के लिये काफी चमत्कार चाहिये होंगे.. लेकिन इस सबसे परे एक चीज जो सोचने वाली है कि अगर इसे धार्मिक चमत्कार से दूर रखें तो भी पृथ्वी पर एक बड़ी बाढ़ का जिक्र तो मिलता है क्योंकि इससे सम्बंधित कहानी अलग-अलग उन संस्कृतियों में मौजूद हैं जो भौगोलिक रूप से पूरी दुनिया को कवर करती हैं।तो ऐसी किसी बाढ़ की क्या वजह हो सकती है और क्या ऐसी कोई बाढ़ संभव थी??

अपने समय से आगे की सभ्यतायें कहाँ लुप्त हो गयीं?

अगर टाईम स्केल पर हम साढ़े चार हजार साल पीछे जायें तो दुनिया की अधिकांश सभ्यतायें छोटे-छोटे समूहों में बंटी थीं और विकास के मामले में उन्होंने कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की थी बल्कि ब्रोंज एज को जीते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थीं लेकिन उसी दौर में इजिप्ट और इंडस वैली की सभ्यतायें अपने समय से बहुत आगे थीं।

उनके और ग्लोब की दूसरी सभ्यताओं के बीच विकास के पैमाने पर काफी फर्क था। वे सभ्य थीं, आधुनिक थीं, उनके पास नगरों को बसाने का सही प्लान था और वे इंजीनियरिंग कर रही थीं।हड़प्पा के उन्नत होने के पुरातत्विक प्रमाण उनके नगरों के अवशेष से मिलते हैं जबकि इजिप्ट की उस आधुनिक सभ्यता की झलक ग्रेट पिरामिड, स्फिंक्स, हैथोर के डंडेरा लाईट कांप्लेक्स और एबिडस के हायरोग्लिफ्स से मिलती है।

यह पिरामिड किस तरह उस जमाने में बनाया गया होगा जब लोहे तक की खोज नहीं हुई थी, न पहियों का इस्तेमाल शुरू हुआ था.. न कोई टेक्नोलॉजी ही थी उस वक्त बाकी दुनिया में.. यह अपने आप में एक रहस्य है और आज भी इस पर माथापच्ची होती है। इसमें ज्योग्राफी, से लेकर ज्योमेट्री, वातानुकूलन से ले कर स्टार कांस्टिलेशन तक सबकुछ एक रहस्य है जो उस दौर में बेहद मुश्किल चीज थी।

यह ओरायन बेल्ट के तीन सितारों के साथ अलाइन है, नार्थ पोल के साथ अलाइन है और इसके स्ट्रक्चर से इस बात की झलक भी मिलती है कि एरियल व्यू का भी ध्यान रखा गया है जो उस दौर में संभव नहीं था। इसके बारे में ज्यादा जानने के लिये यूट्यूब पर इससे सम्बंधित वीडियो देख सकते हैं।वहीं हैथोर मंदिर में डंडेरा कांप्लेक्स नाम की जगह है जहाँ दीवारों पर उकेरे डंडेरा लाईट के चित्र इस बात की गवाही देते हैं कि उन लोगों को बिजली के इस्तेमाल की जानकारी थी।

इसकी झलक कुछ और पेट्रोग्लिफ्स में मिलती है जहां लोगों के हाथ में टाॅर्च जैसी कोई चीज दर्शाई गयी है और इसी को ले कर शोधकर्ताओं का नया दावा है कि यह पिरामिड असल में वायरलेस इलेक्ट्रिसिटी प्रोडयूस करने के लिये बनाये गये पाॅवर प्लांट थे और इससे सम्बंधित सुराग और थ्योरी विस्तार से यूट्यूब पर देख समझ सकते हैं।

वहीं एबिडस में मौजूद हायरोग्लिफ्स में कुछ आकृतियां हेलीकाप्टर, यूएफओ और सबमरीन को दर्शाती नजर आती हैं जिसकी वजह से बहुत से लोगों का यह मानना है कि उस वक्त एलियन वहां आते थे, और वही वहां के लोगों को ज्ञान देते थे। उस दौर में तकनीकी लिहाज से असंभव लगते पिरामिड उन्हीं की मदद और सुपरविजन से बने थे।

अब ऐसा नहीं भी है तो भी इस तरह की आकृतियां उन मिस्रवासियों के दिमाग में थीं तो इससे कम से कम एक अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि तकनीकी मामलों में उनकी समझ बाकी ग्लोबवासियों से कहीं ज्यादा थी और यही उनके उन्नत होने का सबूत थी।

उसी काल खंड में हड़प्पा सभ्यता थी जो तकनीकी तौर पर उन जैसी तो नहीं थी लेकिन इंजीनियरिंग की समझ उनमें भी बहुत जबरदस्त थी और उन्होंने बेमिसाल इंजीनियरिंग का प्रयोग करते हुए आधुनिक तर्ज के शहर बसाये हुए थे जो उन्हें ज्ञात इतिहास में तब आसपास पाई जाने वाली आबादियों से आगे करता था।

इस सभ्यता का अरब सागर के किनारे से लगा एक बेहतरीन शहर था धोलावीरा, जो वहां आबाद था जहां आज गुजरात का रण है और दूर-दूर तक सिवा नमक के और कुछ नहीं दिखता लेकिन कभी यहाँ हड़प्पा सभ्यता का एक बंदरगाही शहर हुआ करता था।फिर करीब चार हजार साल पीछे.. यह सभ्यता लुप्त हो गयी।

किसी जगह कोई बड़ी आपदा आये तो वह जगह बर्बाद हो जाती है और लोग इधर-उधर चले जाते हैं लेकिन पूरी सभ्यता को तो लुप्त नहीं कहा जाता.. फिर इनके लिये क्यों यह माना गया कि यह खत्म हो गये? क्योंकि इंसान जगह छोड़ सकता है, मगर उसका ज्ञान तो उसके साथ ही रहेगा। अगर वे इस रीजन को छोड़ कर किसी और जगह बसे होते तो उस ज्ञान का इस्तेमाल वहां करते और उनकी इंजीनियरिंग की एक कंटीन्युटी बनती जिसकी झलक वर्तमान तक मिलती लेकिन चूंकि इनके मामले में ऐसा नहीं हुआ और न उस दौर में किसी नगर में इनके ज्ञान और भाषा की पुनरावृत्ति मिलती है तो यह मान लिया गया कि यह पूरी सभ्यता ही लुप्त हो गयी।


उनके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं कि वे कौन थे, क्या भाषा बोलते थे, सारे मारे गये या बच कर कहीं और चले गये.. हमें कुछ पता नहीं। ऐसा होना तो मुश्किल है कि किसी आपदा या आफत में इतने लंबे चौड़े क्षेत्र में फैली पूरी सभ्यता ही खत्म हो जाये मगर यह माना जा सकता है कि उनकी जगह पूरी तरह खत्म हो गयी थी, वे छुटपुट इधर-उधर सालों साल जूझते बचे भी होंगे तो पूर्वी भारत की तरफ आबादियों में आ मिले होंगे या अब के पश्चिमी पाकिस्तान की.. उस दौर के लोग संभल ही न पाये होंगे और नई पीढ़ी वह ज्ञान कैरी न कर सकी होगी जिससे इस उन्नत सभ्यता के बचे खुचे लोग वहीं जा खड़े हुए होंगे जहाँ उस वक्त बाकी दुनिया की आबादियां खड़ी थीं।

लेकिन इसी आधार पर हम यही थ्योरी खुफू के दौर के उन प्राचीन मिस्रवासियों पर लागू नहीं करते जबकि वे भी अपने दौर में कुछ अलग ही और अपने वक्त से आगे के ज्ञान को जी रहे थे लेकिन फिर वह दौर भी आया कि इनका वह आधुनिक ज्ञान गायब हो गया। सारी आधुनिक टेक्नोलाजी खत्म हो गयी और वह सबकुछ इतिहास में दफन हो गया।

इस दौर में एक 140 साल लंबे चले अकाल का जिक्र जरूर मिलता है जिसने उस वक्त की केंद्रीय व्यवस्था को ढहा दिया था। बाद के दौर में बिखरा-बिखरा मिस्र फिर एकत्र हुआ.. साम्राज्य बना और फैरो कहे जाने वाले शासकों ने लंबे वक्त तक शासन किया लेकिन अपने उस गौरवशाली अतीत को रिपीट नहीं कर पाये। उन्होंने भी बहुत से निर्माण कराये मगर ऐसा कुछ न बना पाये जो उनके पुरखे बना गये थे कि जिन्हें ले कर उपजे सवालों के जवाब आज भी लोग ढूंढ रहे हैं।

अगर इस ग्लिच को सही रूप में रेखांकित करते हुए यह माना जाये कि वह आबादी, जो उस ज्ञान को कैरी कर रही थी, जिसे ले कर ठीक ठाक जवाब हम आज भी नहीं तलाश पाये हैं.. चार हजार साल पूर्व के आसपास इंडस वैली की सभ्यता की तरह ही किसी तरह लुप्त हुई है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसे में सवाल यह बनेगा कि दो हजार ईसा पूर्व के आसपास ऐसा क्या हुआ होगा कि अपने समय से आगे चलती इन दोनों आबादियों को इतिहास में दफन हो जाना पड़ा।

मिस्र के मामले में अगर उस डेढ़ सदी चले अकाल को रख सकते हैं जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के विलोपन के पीछे भी एक वजह लंबे अकाल को माना जाता है तो यह भी कह सकते हैं कि उस दौरान एक बड़ा भौगोलिक क्षेत्र प्राकृतिक जलवायु के डिस्टर्बेंस का सामना कर रहा था.. क्या इसकी वजह सूरज का वायलेंट आचरण हो सकता है?

Written by

Ashfaq Ahmad