टाईम मशीन

क्या टाईम मशीन का अविष्कार संभव है?

वैसे यह बड़ा दिलचस्प ख्याल है कि अगर कोई टाईम मशीन बना ली जाये तो क्या हम उसके जरिये अतीत में जा सकते हैं.. यह बड़ी रोमांचक कल्पना है जो कभी न कभी हर किसी ने की होगी। अब अगर टेक्निकली इस संभावना की बात करें तो यह पाॅसिबल नहीं लगता। समय एक लीनियर यूनिट है, इसे रिवर्स नहीं किया जा सकता। मतलब अतीत को आप देख तो सकते हैं किसी तरह लेकिन जो घट चुका है, उसे बदल नहीं सकते।

देख कैसे सकते हैं… इस बात का जवाब यह है कि कभी स्पेस में रोशनी से तेज गति से दूरी तय करने का कोई जुगाड़ बना सके तो जरूर देख सकते हैं। साईंस में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों ने यह लाईनें जरूर सुनी होंगी कि जैसे-जैसे हम रोशनी की गति के नजदीक पहुंचते जायेंगे, समय हमारे लिये धीमा होता जायेगा—

और बराबर पहुंचने पर थम जायेगा, जबकि उस स्पीड का बार्डर क्रास करते ही वह हमारे लिये उल्टा चलने लगेगा… यानि तब चीजें वर्तमान से पीछे की तरफ जाते देख पायेंगे। अब सामान्यतः यह बात आदमी के सर के ऊपर से गुजर जाती है और वह खिल्ली उड़ा के आगे बढ़ लेता है।

लेकिन कोशिश करे तो समझ भी सकता है.. आइये इसे समझने का एक बिलकुल आसान सा रास्ता बताता हूँ। समझिये कि हम कोई भी चीज प्रकाश के माध्यम से देख सकते हैं और यह हमारी एक लिमिटेशन है। प्रकाश की गति की अपनी एक लिमिटेशन है..

लगभग तीन लाख किलोमीटर पर सेकेंड। तो आप आंख खोल कर जो भी चीज देखते हैं, वह प्रकाश की गति के नियम से बंधी होती है और हकीकत में आप एग्जेक्ट वर्तमान में कुछ भी नहीं देख पाते। जो भी देखते हैं वह कुछ न कुछ पुराना ही होता है।

अब कम दूरी पर यह प्रभाव पता नहीं चलता लेकिन जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जायेगी, यह अंतर बढ़ता जायेगा। पृथ्वी पर इस फर्क को नहीं महसूस कर सकते लेकिन आसमान की तरफ नजर उठाते ही यह बहुत बड़े अंतर के साथ सामने आता है।

अपने सोलर सिस्टम के सूरज, ग्रह या चांद तो फिर कुछ मिनट पुराने दिखते हैं लेकिन बाकी तारे, गैलेक्सीज हजार, लाख, करोड़ साल तक पुराने हो सकते हैं, यानि जितना भी वक्त उससे निकली रोशनी को आप तक आने में लगा हो।

यानि किसी ऐसे तारे को आप देख रहे हैं जो यहां से दस लाख प्रकाशवर्ष दूर है तो मतलब आप उस तारे का वह नजारा देख रहे हैं जो दस लाख साल पहले रहा होगा। हो सकता है कि जब यह व्यू पैदा हुआ था, उसके अगले ही दिन वह तारा खत्म हो चुका हो लेकिन आपको वह लाखों साल यूं ही दिखता रहेगा।

तो ठीक इसी तरह मान लीजिये कि आपके पास एक इतना हाईटेक टेलिस्कोप है कि आप एक हजार प्रकाशवर्ष दूर से भी पृथ्वी को देख सकते हैं तो उसके साथ पृथ्वी से इस दूरी पर जाइये। अब अगर आप प्रकाश की गति से जायेंगे तो आपको हजार साल लग जायेंगे और तब आपको अभी का नजारा दिखेगा—

यानि यहाँ पे वक्त आपके लिये थमा हुआ है कि जहां से चले थे, वहीं हैं जबकि पृथ्वी पर तो इस बीच हजार साल गुजर चुके होंगे और हो सकता है कि आपके टेकऑफ करने के अगले ही दिन पृथ्वी किसी बुरे इत्तेफाक का शिकार हो कर खत्म हो चुकी हो, लेकिन आपको तो वह दिखती रहेगी।

अब मान लेते हैं कि आपके पास कोई ऐसी टेक्निक है कि प्रकाश की गति आपके लिये मायने नहीं रखती, बल्कि आप पलक झपकते, या एकाध दिन में उसी दूरी पर पहुंच जाते हैं.. तो तकनीकी रूप से आपने रोशनी की गति के बैरियर को तोड़ दिया, और आपको वक्त उल्टा दिखना चाहिये।

तो हजरत, अब जब उसी प्वाइंट से आप पृथ्वी को देखेंगे तो वह आज वाली पृथ्वी नहीं बल्कि हजार साल पहले की वह पृथ्वी दिखेगी जो अतीत में गुजर चुकी। आपके पास हजार साल पहले बनी पृथ्वी की छवि प्रकाश के माध्यम से हजार साल की यात्रा करके अब पहुंची है।

इसी तरह स्पीड बैरियर को जितना भी तोड़ते आगे जायेंगे, उतनी ही पुरानी पड़ती पृथ्वी के दर्शन करते जायेंगे। यह है एक्चुअली वह कांसेप्ट जहां कहा जाता है कि अगर आप रोशनी से तेज गति से चल लिये तो वक्त आपके लिये उल्टा चलने लगेगा।

तो अब आते हैं मेन मुद्दे पर जो टाईम मशीन को ले कर है.. ऐसी कोई तकनीक तो विकसित की जा सकती है कि उसके जरिये हम अतीत में देख सकें लेकिन उसे बस इसी तरह देख सकते हैं जैसे सिनेमाहाल में बैठा दर्शक पर्दे पर फिल्म देखता है।

हां, इससे हो चुकी घटनाओं को समझने में मदद मिल सकती है, रहस्यों की गुत्थी सुलझ सकती है लेकिन देखने वाला उसमें असरअंदाज नहीं हो सकता। वह उस गुजर चुके अतीत में कोई भी फिजिकल एंटरफियरेंस नहीं कर सकता।

बाकी भविष्य में जाने जैसा कुछ भी पाॅसिबल नहीं.. उसके अंदाजे लगा कर सिमुलेशन क्रियेट किया जा सकता है लेकिन चूंकि वह अनिश्चित है, अलिखित है (धार्मिक गपों से परे) तो उसकी कोई झलक भी मुमकिन नही।

Written By Ashfaq Ahmad

अमरत्व

कैसा हो कि हम अगर तकनीकी रूप से अमर हो जायें?

अबूझ को बूझने की प्रक्रिया में, संगठित होते समाजों की बैक बोन, धर्म के रूप में स्थापित हुई थी, उन्होंने कुदरती घटनाओं के पीछे ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा दी, शरीर को चलायमान रखने वाले कारक के रूप में आत्मा का कांसेप्ट खड़ा किया और इसे लेकर तरह-तरह के लुभावने-डरावने मिथक और कहानियां खड़ी की— लेकिन क्या वाक़ई आत्मा जैसा कुछ होता है?

अगर आपका जवाब हां में है तो खुद से पूछिये कि आपके शरीर में कितनी आत्माएं रहती हैं? आत्मा को मान्यता देंगे तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि आपके शरीर में कोई एक आत्मा नहीं है, बल्कि हर अंग की अपनी आत्मा है और एक शरीर करोड़ों आत्माओं का घर होता है।थोड़ा दिमाग लगा कर सोचिये न, कि आत्मा मतलब आप न? शरीर में क्या है जो बदल नहीं सकता— ब्लड की कमी हो जाये तो दूसरे का ब्लड ले लेते, किडनी खराब हो जायें, दूसरे की ले लेते, लीवर खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, हार्ट खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, ब्रेन बचा है, वह भी आगे ट्रांसप्लांट होने लगेगा.. ऐसे में आत्मा कहाँ है, हर अंग तो अपने मूल शरीर से अलग हो कर दूसरे शरीर में काम कर रहा है।

हर सेल के पास तो अपनी सेपरेट आत्मा है। इत्तेफाक ऐसा भी हो सकता है कि आपके पैदाईश के वक्त मिले सारे मुख्य अंग बदल गये लेकिन आप अब भी वहीं हैं— तो असल आत्मा कहाँ है? ऐसी उलझन पर आपका जवाब दिमाग पर थमेगा कि असल में आत्मा दिमाग में है— क्योंकि अगर आप अशफाक हैं तो भले एक-एक करके आपके सारे अंग बदल जायें, आप अशफाक ही रहेंगे लेकिन जैसे ही दिमाग बदलेगा— आप अशफाक नहीं रहेंगे।

तब जिंदा रहा तो जिस शरीर में आपका दिमाग जायेगा, अशफाक अपने आपको वहीं महसूस करेंगे और अगर डेड हो गया तो उस शरीर में जिस किसी का दिमाग डाला जायेगा, अशफाक के शरीर में वही शख्स होगा, अशफाक नहीं— भले अशफाक के सारे बाकी अंग वही क्यों न हों, जो पैदाईश के वक्त से हैं। एक दिमाग बदलते ही पूरा इंसान बदल जायेगा— क्यों? क्योंकि दिमाग ही वह सेंटर प्वाईंट है, जहां चेतना होती है और चेतना क्या है?

आत्मबोध, यानि खुद के होने का अहसास.. तो क्या इस दिमाग़ को ही आत्मा कहा जा सकता है? ज़ाहिर है कि नहीं— क्योंकि अपने आप में दिमाग खाली डिब्बा है, असल वैल्यू इसमें भरी इनफार्मेशन की है। वह इनफार्मेशन जो जीरो से, उस वक्त से शुरु होती है जब हम होश संभालते हैं। इस इनफार्मेशन के बगैर आप कुछ नहीं— जो भी है यही है, आत्मा, कांशसनेस, आत्मबोध।

भले अभी पॉसिबल न हो— पर मेरी ही एक कहानी मिरोव में (जिसका जिक्र पिछली पोस्ट में भी था) एक बायोइंजीनियरिंग कंपनी है, दो हजार बत्तीस की टाईमलाईन के हिसाब से वह थ्रीडी प्रिंटर टाईप टेक्नीक (भविष्य में यह भी आम होनी तय है) से एडवांस ह्यूमन बाॅडी बनाना शुरु करती है। मतलब आदमी मरता क्यों है.. इसका सिंपल जवाब कोशिका विभाजन में है, जिसकी एक हेफ्लिक लिमिट होती है, जिसे क्रास करते ही शरीर बूढ़ा, जर्जर और मृत हो जाता है।

अगर किसी टेक्नीक से इस विभाजन की लिमिट बढ़ा दी जाये, या असीमित कर दी जाये तो शरीर ज्यादा लंबा भी चल सकता है। इसी थ्योरी पर वह ज्यादा बेहतर कैटिगरी के इंसान लैब में बनाती है जिसे मिरोव कहा जाता है। वह ऐसे शरीर तो बना लेती है लेकिन किडनी, लीवर, हार्ट, ब्रेन जैसे अंग उतने कारगर नहीं बना पाती तो न्यूयार्क जैसे शहर में ऑपरेट करने के कारण लावारिस लाशों से यह अंग लेकर मिरोव में ट्रांसप्लांट कर देती है। फिर वह कोई रेडीमेड मेमोरी या किसी जिंदा इंसान की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके उसमें इम्प्लांट कर देती है और वह मिरोव फिर खुद को वही इंसान समझने लगता है।

वह दो तरह के मिरोव बनाती है, एक जो किसी के क्लोन होते हैं और जिनका परपज मेन मालिक के डैमेज अंग का रिप्लेसमेंट होता है, तो दूसरा यूनीक आईडी होता है, यानि जो किसी की काॅपी न हो। अब उन यूनीक मिरोव के कई तरह के प्रयोग वे मेमोरी इम्प्लांटेशन के जरिये करते हैं। सपोज एक एक्सपेरिमेंट के तहत वे हिमालयन रीजन से चार सौ साल पुरानी मगर सुरक्षित लाश की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके एक मिरोव में डालते हैं जो वर्क कर जाती है और उसके जरिये चार सौ साल पहले की एक सनसनीखेज दास्तान का रहस्य खुलता है।

यहाँ कहानी से हट के दो प्वाइंट समझिये— कि उस कंपनी की सर्विस अफोर्ड करने लायक लोग मिरोव प्रोग्राम का दो तरह से यूज़ कर सकते हैं। अपना युवावस्था का क्लोन बनवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा के उस नये जीवन को उसी आत्मबोध के साथ जी सकते हैं, एक बेहतर और ज्यादा चलने वाले शरीर में—

जहां वक्त के साथ रिटायर होता हर अंग बदलता चला जायेगा, यहाँ तक कि दिमाग भी और वह मेमोरी आगे बढ़ते हुए उसी आत्मबोध, चेतना और इतिहास को कैरी करते रहेगी। पीछे जो अंग बेकार हुए, नष्ट कर दिये गये। जो ब्रेन निकाला गया, इनफार्मेशन निकाल के उसे नष्ट कर दिया। सारी वैल्यू उस इन्फार्मेशन की ही है, दिमाग़ की कोई वैल्यू नहीं।

इस सर्विस को अफोर्ड करने लायक बंदे के पास दूसरा ऑप्शन यह भी है वह अपनी शक्ल और बाॅडी से संतुष्ट न हो तो यूनीक आईडी वाला मिरोव बनवा ले और फिर आगे का जीवन उस शरीर में जिये… या चाहे तो जब इस शरीर में बूढ़ा हो जाये तो कोई दूसरा युवा शरीर (बिकने के लिये गरीब और ज़रूरतमंद हर जगह मिल जायेंगे) खरीद ले और उसकी मेमोरी डिलीट करवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा ले और पीछे अपने बेकार शरीर को नष्ट करवा दे।

जिस्म देने वाले युवा का तो कुछ जाना नहीं, गरीबी से निकल कर अमीरी में पहुंच जायेगा। जायेगा क्या— सिर्फ उसके दिमाग में भरी वह इन्फार्मेशन, जो बचपन से तब तक बनी उसकी मेमोरी थी। यही मेमोरी भर वह था, उसकी चेतना थी, उसका आत्मबोध था.. ध्यान दीजिये कि टेक्निकली उसे मारा नहीं जायेगा, बल्कि वह शरीर पहले की तरह ही जिंदा रहेगा लेकिन हकीकत में वह मर चुकेगा और उसकी जगह उसके शरीर में कोई सक्षम अमीर जी रहा होगा, जो ऐसे ही हर बीस पच्चीस साल में शरीर बदलते हमेशा जिंदा रहेगा।

दोनों ही कंडीशन में सक्षम लोगों के पास अमर जीवन होगा— मौत जैसी कोई कंडीशन ही नहीं। मजे की बात यह है कि सेम मेमोरी अगर दस अलग-अलग लोगों में प्लांट कर दी जाये तो उनमें से हर कोई खुद को वही ओरिजनल शख़्सियत समझेगा, जैसे मेरी “मिरोव” में दो अलग लोग सेम टाईम में एक ही कैरेक्टर को जी रहे होते हैं और इतना ही नहीं, यह मेमोरी इम्प्लांटेशन इंसान का जेंडर भी चेंज कर सकता है जैसे इसी कहानी में एक लड़की, ख़ुद को मर्द के शरीर में जी रही होती है तो वहीं एक मर्द ख़ुद को एक नारी शरीर में जी रहा होता है। इस तरह के कई खेल इस इम्प्लांटेशन के ज़रिये खेले जा सकते हैं— जिनमें चार-पांच तरह के उदाहरण मैंने कहानी में ही दिये हैं।

इसी सिलसिले को वेबसीरीज “अपलोड” में वन स्टेप अहेड दिखाया गया है कि कुछ कंपनीज अपने वर्चुअल वर्ल्ड (स्वर्ग टाईप) खड़े कर देती हैं जहां कस्टमर जब रियल वर्ल्ड में अपनी लाईफ जी चुके (किसी भी एज में), तो वह या उसके परिजन उसके लिये ऑफ्टरलाईफ खरीद सकते हैं। यानि उस वयक्ति की मेमोरी एक्सट्रैक्ट करके, अपने बनाये स्वर्ग सरीखे वर्चुअल वर्ल्ड में उसके लिये बने अवतार में ट्रांसफर कर दी जाती हैं जहां जब तक पीछे से रीचार्ज होता रहेगा।

वह अपने वर्चुअल अवतार के रूप में हमेशा आगे की जिंदगी का लुत्फ उठाता रहेगा। वहां हर तरह की लग्जरियस सर्विसेज हैं, जिनके अलग से बिल पे करने होते हैं। वह वहीं से सीधे रियल वर्ल्ड में अपने अजीजों से कम्यूनिकेशन कर सकता है और उन्हें बिल पे करने के लिये मना सकता है। मरने के बाद भी उस अवतार के जरिये मानसिक तसल्ली के लिये (अपनी या पीछे छूटे पर्सन की) उनसे बतिया सकता है। उनसे फेस टु फेस बात कर सकता है, पार्टनर से सेक्स कर सकता है, झगड़ा भी करना चाहे तो वह भी कर सकते हैं।

सोचिये कैसा लगेगा कि आप अपने मरे हुए परिजन से उसके मरने के बाद भी वहां से बात कर सकते हैं, जहां वह स्वर्ग के कांसेप्ट पर जीवन के मजे ले रहा है, बशर्ते पीछे से आप पेमेंट करते रहें। पेमेंट, प्रीपेड रीचार्ज जैसी होती है, जब नहीं होती तो आपके अवतार को इकानामी क्लास में पहुंचा दिया जाता है जहां आपको कंपनी की तरफ से कुछ काईन्स मिलते हैं, जिनके इस्तेमाल से आप एक जगह बैठे सांस लेते और सोचते महीना गुजार सकते हैं।

या फिर बोल बतिया कर, रियल वर्ल्ड के किसी पर्सन से बतिया कर कुछ सेकेंड्स/मिनट्स में खर्च करके बाकी महीने के लिये फ्रीज हो सकते हैं.. यह फर्क समर्थ और असमर्थ के अंतर को बनाये रखने और लोगों को ज्यादा खर्चने को प्रेरित करने के लिये बनाया गया है। अब यह आपकी हैसियत पर डिपेंड करेगा कि आप उस स्वर्ग में मरने के बाद की जिंदगी को कैसे और कितना एंजाय कर सकते हैं।

अब हो सकता है कि यह सुनने में आपको अटपटा लगे, हंसी आये, नामुमकिन लगे लेकिन सच यह है कि यह सब हंड्रेड पर्सेंट मुमकिन है और इस पर काम चल रहा है। सौ-पचास साल के अंदर ही आप यह मेमोरी इम्प्लांटेशन का खेल होते देखेंगे। जिस दिन यह हुआ, इंसान अमरता को छू लेगा। बाकी आप इस पूरे खेल में उस आत्मा को ढूंढिये, जिसे लेकर लंबी-लंबी फंतासी आपको धर्मग्रंथों ने समझाई है। उसकी हैसियत क्या है, उसकी वैल्यू क्या है— आपके शरीर में लगभग सबकुछ रिप्लेसेबल है.. तो ऐसे में किसी आत्मा के लिये शरीर का वह कौन सा कोना बचता है जहां वह अपने मूल शरीर के साथ स्टिक रह सकती है।

नोट: स्पेसिफिक मेमोरी डिलीट करने, एक्सट्रैक्ट करके किसी और को देने, फेक मेमोरी बनाने या मेमोरी इम्प्लांटेशन से सम्बंधित जेसन बोर्न सीरीज, एटर्नल सनशाईन ऑफ द स्पाॅटलेस माइंड, ब्लेड रनर और टोटल रिकाॅल जैसी फिल्में हालिवुड ने ऑलरेडी बना रखी हैं, अगर ज्यादा बेहतर ढंग से इन संभावनाओं को परखना चाहते हैं तो इन फिल्मों को देख सकते हैं।

Written By Ashfaq Ahmad

    कास्मोलाॅजी 2

    अपने से अलग आयाम की चीज़ों को हम क्यों नहीं समझ सकते?

    पिछली पोस्ट में मैंने एक प्वाईंट लिखा था कि आदमी अपने देखे, सुने, जाने हुए यानि ज्ञात से बाहर की कल्पना भी नहीं कर सकता और यही वजह है कि ईश्वर हो या एलियन, इन्हें समझने के लिये इंसान अपनी इन्हीं कल्पनाओं को अप्लाई करता है और ईश्वर या एलियन, इंसान के ही प्रतिरूप नज़र आते हैं। यह एक तरह से सभी इंसानों पर लागू होता है लेकिन कुछ लोग इस बाउंड्री को तोड़ने में सक्षम भी होते हैं..

    वे बहुत सी ऐसी चीज़ों की कल्पना कर सकते हैं जो सामान्य इंसान की क्षमता से परे हो। इस चीज को आप कुछ डिस्कवरी के प्रोग्राम्स या उन हालिवुड मूवीज से समझ सकते हैं जहां इस जानी पहचानी दुनिया से बाहर की चीजों या जीवन की कल्पना की गई है… मसलन स्टार वार्स सीरीज की फिल्में ले लीजिये या अवतार ले लीजिये।

    इनकी कामयाबी का एक बड़ा कारण यही था कि यहां लेखक, निर्देशक ने किसी ईश्वर की तरह वे चीजें गढ़ी थीं, जो अस्तित्व नहीं रखतीं। हमने ऐसा कुछ पहली बार देखा, जाना और जिसने हमें रोमांचित किया। हां, आप कह सकते हैं कि भले उनमें तमाम चीजें हमारी जानी पहचानी दुनिया से एकदम अलग थीं…

    लेकिन नियम उन पर भी वही अप्लाई किये गये जो हमारे लगभग जाने पहचाने ही हैं। मसलन अवतार का पेंडोरावासी हमसे बिलकुल अलग है लेकिन वह है हमारा ही प्रतिरूप— यानि दो-दो हाथ-पैर, कान आंख और मुंह वाला। ऐसा इसलिये भी था ताकि लोग उनसे कनेक्ट कर पायें, वर्ना एलियंस तो उन्होंने हर तरह के दिखा रखे हैं।

    मैंने एक कहानी लिखी थी, मिरोव… जिसका बेसिक प्लाट इस यूनिवर्स के उस दूसरे हिस्से और उसमें मौजूद जीवन से सम्बंधित है जिसे हम डार्क मैटर वाला शैडो यूनिवर्स कहते हैं। किसी क्रियेटर की तरह ही मैंने भी यहां ज्ञात की बाउंड्री से बाहर जा कर उस पूरे ब्रह्मांड की कल्पना की थी, जो कहीं है ही नहीं, या है तो हमसे अछूता ही है।

    अब यहां से थोड़ा ध्यान दे कर समझिये— हम जो कुछ भी इस विशाल-विकराल ब्रह्मांड में किसी भी सेंस या तकनीक से डिटेक्ट कर सकते हैं, उसे विजिबल मैटर कहते हैं और हैरानी की बात यह है कि यह बस चार पांच प्रतिशत ही है। बाकी क्या है, न हमें पता है और न हम उसे डिटेक्ट कर सकते हैं लेकिन पहचान के लिये हमने उसे एक नाम दे रखा है डार्क मैटर और डार्क एनर्जी।

    कैसा हो कि असल ब्रह्मांड वही हो जिसमें हमारा ब्रह्मांड बस एक एनाॅमली भर हो। दोनों एक साथ एग्जिस्ट कर रहे हैं लेकिन एक दूसरे के लिये डिटेक्टेबल नहीं। और ऐसा भी जरूरी नहीं कि यह बस दो ही ब्रह्माण्ड हों, बल्कि एक के अंदर एक करके भी कई ब्रह्मांड हो सकते हैं जो एक दूसरे के लिये डिटेक्टेबल ही न हों।

    क्यों? क्योंकि हर ब्रह्मांड की बनावट अलग होगी, उसका विजिबल मैटर बिलकुल अलग संरचना रखता होगा। हम जिस ब्रह्मांड से सम्बन्ध रखते हैं, उसी से कनेक्ट होते हैं— बाकी हमारे लिये कोई वजूद नहीं रखते। यह अलग-अलग ब्रह्मांड बनते और नष्ट भी होते रहते हो सकते हैं, जैसे हमारा अपना ब्रह्माण्ड एक दिन शुरू हुआ था और एक दिन खत्म भी हो जायेगा।

    अब उस दूसरे या कहें कि मुख्य ब्रह्मांड में भी अलग-अलग तरह से जीवन हो सकता है.. उसकी बनावट हमारे देखे जाने ब्रह्मांड से बिलकुल अलग हो सकती है। मैंने मिरोव में उसी अलग तरह के, हमारी ज्ञात कल्पनाओं से बाहर निकल कर एक कल्पना की है और वहां के अलग-अलग न सिर्फ जीवन बल्कि तमाम तरह की चीजों की कल्पना की है।

    अब यहां यह समझने वाली बात है कि उनसे जब हमारे इस ब्रह्मांड के लोगों का सम्पर्क होता है.. (बेशक किसी तकनीक के सहारे) तो वहां उन्हें ज्यादातर चीजें अपने हिसाब से या तो सिरे से समझ में ही नहीं आतीं या उनकी ज्ञात कल्पनाओं पर ही खरी उतरती हैं— जबकि वह सच नहीं होता।

    कहानी में ही जब वह कुछ जानी पहचानी चीजों को समझने में धोखा खाते हैं तो उन्हें समझाया जाता है कि उनके दिमाग इस लिमिटेशन से बंधे हैं कि वे बस उन चीजों को ही समझ सकते हैं, जिन्हें उन्होंने पहले देखा या जाना है— जबकि वहां हर चीज उनके अपने ब्रह्मांड से अलग है, तो होता यह है कि जो भी चीज उनका दिमाग समझ नहीं पाता—
    वहां वह अपनी जानी पहचानी कोई चीज फिट करके तस्वीर को मुकम्मल कर लेता है और उन्हें लगता है कि वे सामने मौजूद चीज को एकदम सही रूप में देख पा रहे हैं, जबकि हकीकत में कहीं वे सामने मौजूद चीज को उसके हकीकी रूप में या बस आधा अधूरा देख पा रहे होते हैं, या सिरे से गलत देख पा रहे होते हैं, जो उनका दिमाग उन्हें दिखा रहा होता है।

    तो अज्ञात को देखने समझने में यह भी एक बड़ी मुश्किल है कि मान लीजिये हम एक बीस फुट के जीव को देख रहे हैं जो छिपकली के जैसा दिख रहा है, लेकिन हकीकत में वह कोई ऐसा जीव है, जो हमारे ज्ञान से परे है, दिमाग उसे समझने में असमर्थ है— तो ऐसा तो नहीं है कि आपका दिमाग, आँखों द्वारा देखी छवि को डिकोड ही नहीं करेगा और आप कुछ देख नहीं पायेंगे, बल्कि आपका दिमाग उसे उस देखी भाली इमेज में ढाल देगा, जिससे वह सबसे ज्यादा मिलती जुलती लगेगी।

    अब आपको जो दिख रहा है, वह बस आपके दिमाग की अपनी बनाई एक इमेज भर है, हकीकत में वह बिलकुल वैसी नहीं है। ज्ञात की कल्पनाओं से इतर हम जब भी कोई चीज या जीव देखेंगे, वहां हमारा दिमाग ठीक वैसा ही धोखा देगा, जैसा अत्याधिक नशे में रस्सी के सांप दिखने में होता है।

    हमारा दिमाग अपनी क्षमता भर ही काम कर सकता है.. और आंखों देखे सभी ऑब्जेक्ट्स को उसकी एक्चुअल इमेज में देख पाना इसके लिये बस तभी तक संभव हो, जब तक वह चीज ज्ञात की बाउंड्री के अंदर की हो। बाकी दूसरी अहम चीज यह भी है कि हम एक ऐसे मैट्रिक्स में फंसे जीव हैं, जहां यूनिवर्स रूपी कई जाल एक दूसरे से हैं तो उलझे—

    लेकिन वे चूंकि अलग-अलग मटेरियल से बने हुए हैं, और हम पर सिर्फ अपने मटेरियल के जाल को देख पाने की बंदिश लागू है तो हमारे लिये बस एक जाल ही विजिबल है और हम उसे ही अकेला जाल समझ रहे हैं। तीसरी अहम बात कि कोई भी जाल स्थाई नहीं है— सभी आदि और अंत की शर्त से बंधे बन भी रहे हैं और खत्म भी हो रहे हैं। हालांकि यह थ्योरी भर है लेकिन ऐसी संभावना तो है ही।

    (समाप्त)

    Written By Ashfaq Ahmad

    कास्मोलाॅजी

    दूसरे ग्रहों पर हमसे भिन्न किस तरह का जीवन हो सकता है?

    काॅस्मोलाॅजी से सम्बंधित बातें लिखने में जो एक सबसे बड़ी परेशानी होती है, वह यह कि इस बारे में ज्यादातर लोगों की समझ बहुत कम होती है और यह विषय इतना जटिल है कि सीधे-सीधे तो चीज़ें समझाई भी नहीं जा सकतीं। अब मसलन इस सवाल को ही ले लीजिये कि क्या पृथ्वी के सिवा भी किसी अन्य ग्रह पर जीवन हो सकता है?

    आदमी जब यह सवाल पूछता है तो उसके मन में जीवन की कल्पना ठीक वैसी ही होती है, जैसा जीवन हम पृथ्वी पर देखते हैं… चाहे वह जीव-जंतुओं, पशु पक्षियों के रूप में हो, या इंसानों के रूप में। यह हमारी लिमिटेशन है कि हम देखे, सुने, जाने हुए से बाहर की कल्पना भी नहीं कर पाते, तो हमारे सवाल उन कल्पनाओं से ही जुड़े होते हैं जो हमारे लिये जानी पहचानी ही होती हैं।

    मसलन हम किन्हीं दूसरे ग्रह से आये एलियन्स की कल्पना करते हैं तो उन्हें अपनी पृथ्वी से सम्बंधित जीवों के ही अंग दे डालते हैं, चाहे वे किसी एक जानवर से सम्बंधित हों या कई जीवों का मिश्रण। इससे बाहर की चीज़ें हमारी समझ से परे हैं। यह कुछ ऐसा है कि भयानक किस्म की विविधताओं से भरे यूनिवर्स के रचियता के रूप में हम जिन ईश्वरों की कल्पना करते हैं, तो जहां वह साकार रूप में है—

    वहां उसके इंसानी रंग रूप में या कई जीवों के मिक्सचर के रूप में इमैजिन करते हैं और जहां निराकार है, वहां भी उसे डिस्क्राईब करने के लिये भी इंसानी बातों का ही सहारा लेते हैं… यहां तक कि इंसान की सारी अनुभूतियां हम उस पर अप्लाई कर देते हैं और वह किसी साधारण मनुष्य की तरह खुश भी होता है, खफा भी होता है, चापलूसी भी पसंद करता है और इंसानों जैसे ही फैसले भी करता है।

    एक सेकेंड के लिये सोचिये कि वाकई कोई रचियता है, तो उसका दिमाग़ और उसकी काबिलियत क्या होगी— क्या मामूली ब्रेन कैपेसिटी लेकर आप उसकी सोच के अरीब-करीब भी पहुंच पायेंगे? लेकिन यहां तो एक मामूली अनपढ़ और नर्सरी के आईक्यू लेवल वाला धार्मिक बंदा भी उसे अच्छी तरह समझ लेने का दावा करता है…

    सच यह है कि पृथ्वी पर जितने भी ईश्वर पाये जाते हैं, वह इंसानों के अपनी जानी पहचानी कल्पना के हिसाब से खुद उसके बनाये हैं। हकीकत में ऐसा कोई रचियता है या नहीं— मुझे नहीं पता, न पता कर पाने की औकात है मेरी और न ही पता करने में कोई दिलचस्पी। यहां इस बात का अर्थ इतना भर है कि इंसान अपनी जानी पहचानी कल्पनाओं की बाउंड्री ईश्वर तक के मामले में क्रास नहीं कर पाता और यही नियम वह एलियंस पर अप्लाई करता है।

    जबकि हमारी जानी पहचानी कल्पनाओं से बाहर जीवन जाने कितने तरह का हो सकता है। जीवन मतलब लिविंग थिंग, बायोलाॅजिकल केमिस्ट्री, एक्टिव ऑर्गेनिजम.. वह एक बैक्टीरिया है तो वह भी जीवन के दायरे में आयेगा। इसके अलग-अलग तमाम ऐसे रूप हो सकते हैं जो हमारे सेंसेज से परे हों। या हम देखें तो देख कर भी न समझ पायें।

    वह सिंगल सेल ऑर्गेनिजम भी हो सकता है और हमारी तरह कोई कांपलेक्स ऑर्गेनिजम भी— जिसका ज़ाहिरी रूप हमसे बिलकुल अलग हो। उदाहरणार्थ, “डारकेस्ट ऑवर” नाम की हालिवुड मूवी में एक ऐसे एलियन की कल्पना की गई थी जो इंसानी सेंसेज से परे था और एक तरह की एनर्जी भर था। तो इसी तरह के जीवन भी हो सकते हैं।

    जीवन का मतलब इंसान जैसा सुप्रीम क्रीचर ही नहीं होता.. जैसे पृथ्वी पर होता है कि हर तरह की एक्सट्रीम कंडीशन मेें भी किसी न किसी तरह का जीवन पनप जाता है— इसी तर्ज पर हर ग्रह पर उसकी कंडीशन के हिसाब से किसी न किसी तरह का जीवन इवाॅल्व हो सकता है।

    जैसे हमारे पड़ोसी शुक्र ग्रह की कंडीशंस इतनी बदतर हैं कि हमारे हिसाब से वहां किसी भी तरह का जीवन पनप नहीं सकता लेकिन वहीं यह संभावना भी है कि किसी रूप में उसी माहौल में सर्वाईव करने लायक कोई सिंगल सेल ऑर्गेनिजम ही पनप जाये। टेक्निकली वह भी जीवन है, भले हमारे लिये उसके कोई मायने न हों।

    हमारे सौर परिवार के सबसे सुदूर प्लेनेट प्लेटों पर जाहिरी तौर पर जीवन की कोई गुंजाइश नहीं दिखती, क्योंकि वह सूरज से इतनी दूर है कि वहां तक रोशनी भी ठीक से नहीं पहुंचती। हमारे जाने पहचाने जीवन के (जिसकी भी हम कल्पना करते हैं) वहां पनपने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है—

    लेकिन फिर भी उसके अंदरूनी गर्म हिस्सों में या उसके उपग्रहों के अंदरूनी हिस्सों में कोई बैक्टीरियल लाईफ मौजूद हो सकती है— यहां तक कि उस प्लेनेट नाईन या एक्स का चक्कर काटते उसके उपग्रहों के अंदरूनी हिस्सों में भी, जो गर्म हो सकते हैं… जिस प्लेनेट को लेकर अब तक कोई पुख्ता सबूत भी हाथ नहीं लगा।

    तो जीवन होने को सभी ग्रहों पर किसी न किसी रूप में हो सकता है, बस वह हमारी परिभाषा में फिट नहीं बैठता। यह जीवन हमारे हिसाब से एकदम शुरुआती लेवल वाला सिंगल सेल ऑर्गेनिजम हो सकता है जिसे एक कांपलेक्स ऑर्गेनिजम तक पहुंचने के लिये बड़ा लंबा, पेचीदा और नाजुक सफर तय करना होता है।

    हम आज जहां दिखते हैं, वहां तक हमारे पहुंचने में जहां सबसे बड़ा हाथ हमारे ग्रह की सूटेबल पोजीशन है, वहीं तमाम तरह के ऐसे इत्तेफाक भी रहे हैं, जिनमें से एक भी न घटता तो हम न होते। यह करोड़ों मौकों से एक मौके मौके पर बनने वाले इत्तेफाक हैं, लेकिन यूनिवर्स में सोलर सिस्टम भी तो अरबों हैं। तो ऐसे में जहां भी यह स्थितियां बनी होंगी, यह इत्तेफाक घटे होंगे—

    वहां हमारे जैसा कांपलेक्स ऑर्गेनिजम वाला जीवन जरूर होगा.. वर्ना सिंगल सेल वाला तो कहीं भी हो सकता है— एक्सट्रीम कंडीशंस वाले ग्रहों पर भी। हां, यह जरूर है कि कहीं हमारी जानी पहचानी कल्पनाओं वाला भी हो सकता है तो कहीं वह भी, जो हम न देख सकें और न ही समझ सकें।

    क्रमशः

    Written By Ashfaq Ahmad

    सृष्टि सूत्र 3

    अलग आयाम की किसी भी वस्तु को हम क्यों नहीं महसूस कर सकते?

    ठीक है, आपने दो स्केल पर चीजें समझ लीं, अब तीसरे और फाईनल स्केल पर आइये। पहले आप सुपर यूनिवर्स को देख रहे थे, फिर अपने यूनिवर्स पर आये और अब अपने ग्रह पर आ जाइये। यहाँ जो चीज आपको सबसे ज्यादा उलझन में डाल रही होगी, वह यह कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे सामने कोई चीज बने और हम उसे देख या महसूस ही न कर सकें.. मतलब एटम्स में ऐसी क्या हेरफेर हो सकती है जो मैटर को इस हद तक बदल दे। अब इस चीज को थोड़े छोटे पैमाने पर अपने आसपास के वातावरण से समझिये।

    आप जिस जगह खड़े हैं, वहां से दूर दिखते किसी ऑब्जेक्ट को देखिये.. मसलन कोई पहाड़, कोई बिल्डिंग या कोई इंसान। आप उस चीज को इसलिये देख पा रहे हैं क्योंकि आपके और उस ऑब्जेक्ट के बीच में कोई अवरोध नहीं है यानि खाली जगह है। क्या कभी आप यह सोचते हैं कि असल में खाली जैसा कुछ नहीं है.. बीच में ठीक वैसे ही खरबों एटम्स मौजूद हैं जिनसे खुद आप या वह ऑब्जेक्ट बना है.. फर्क इतना है कि आप दोनों एटम्स का ठोस रूप हैं जबकि बीच में मौजूद स्पेस एटम्स का गैसीय रूप।

    मतलब जिन एटम्स से आप बने हैं, उनकी ही एक स्टेट आपके लिये अदृश्य हो जाती है.. इसी चीज को एक क्लीन ट्रांसपैरेंट ग्लास पर आजमाइये। आप उसके पार इस तरह देख पाते हैं कि जैसे बीच में उसका वजूद हो ही न। बस छूने से पता चलता है कि बीच में शीशा है, वर्ना बिना छुए वह आपके लिये है ही नहीं। अब दो ऑब्जेक्ट्स के बीच के स्पेस को या सामने दिखते दृश्य के बीच में मौजूद शीशे को आप भले देख न पायें लेकिन उसे डिटेक्ट कर सकते हैं क्योंकि यह सब उसी यूनिवर्स का हिस्सा है, जिसके खुद आप हैं।

    एक यूनिवर्स की हर चीज उस यूनिवर्स के अंदर मौजूद जीव के लिये कनेक्टिंग और किसी न किसी रूप में डिटेक्टेबल रहेगी जबकि ठीक हवा और पारदर्शी कांच की तर्ज पर किसी और यूनिवर्स की चीजें आपके लिये अदृश्य और अनडिटेक्टेबल हो सकती हैं।

    मसलन समझ लीजिये कि अपने ही यूनिवर्स में इसी तरह की रीसाईकल प्रक्रिया से बने किसी और यूनिवर्स में सारा मैटर पारदर्शी कांच या हवा के रूप में ढला हो सकता है कि उनके सभी पिंड और यहां तक कि उनकी वनस्पति और जीव तक इसी फाॅर्म में हों कि भले वे हमारे लिये छूने या किसी और तरह से डिटेक्ट करने पर जाहिर हों…

    लेकिन हमारे बीच इतनी दूरी है कि ऐसा करने के लिये हम वहां जा ही नहीं सकते और हमारी आंखें या टेलिस्कोप दूर से उन्हें देखने या डिटेक्ट करने में सक्षम नहीं। तो इस तरह से अलग-अलग आयाम में एक साथ कई यूनिवर्स एग्जिस्ट करते हो सकते हैं और सबके बनने और खत्म होने के अपने चक्र चल रहे होंगे। सबकी सीमायें भी होंगी और सबके आदि और अंत भी होंगे।

    हालांकि इस तरह की चीजें किताबों में ही लिखी जाती हैं मगर फिर भी लिख दी.. उम्मीद है कि जिस पोस्ट पर आये कमेंट्स से खीज कर यह सब लिखा है, अब आप समझ पाये होंगे कि मैं आपको उस सुपर यूनिवर्स रूपी हाॅल के बाहर ले जाने की कोशिश कर रहा था और आप उस हाॅल के अंदर गति करते सैकड़ों यूनिवर्स में से एक यूनिवर्स के अंदर मौजूद रहते सारे गणित भिड़ा रहे थे, सारी संभावनाएं टटोल रहे थे।

    अपना कैनवस बड़ा कीजिये और सोचिये कि हमारे लिये एक सीमा उस हाल की दीवारें, छत, फर्श हो सकती हैं लेकिन उसके पार क्या है। कैसा हो कि जब आप बाहर निकल कर देखें तो पता चले कि अरे, यह हाॅल तो एक ग्राउंड में बना है। ग्राउंड एक ग्रह पर है, ग्रह तो एक गैलेक्सी में है, गैलैक्सी तो एक क्लस्टर में है, क्लस्टर तो एक यूनिवर्स में है.. फिर उस यूनिवर्स के पार क्या है?

    तो अब आया समझ में? कृपया दर्शन और अध्यात्म वाला एंगल न परोसें.. हर जगह वह काम नहीं करता। बाकी जो तथाकथित ईश्वर और रचियता वाले हैं, वे समझ सकते हैं कि ऐसा कोई क्रियेटर हो सकता है जिसने इस हाॅल के अंदर वाले सिस्टम को स्विच किया (हालांकि इससे ज्यादा उसे अंदर वाले बैक्टीरिया से मतलब भी न होगा जो सब रचे गढ़े बैठे हैं), क्योंकि वह खुद इस हाॅल से बाहर है।

    लेकिन जैसे ही आप हाॅल से बाहर देखते हैं तो वह खुद ही एक रचना के रूप में नजर आता है, ठीक इसी तर्ज पर जिसका कि कोई और क्रियेटर होगा.. अब अगर आप सबसे अंतिम लेयर वाले को अपना क्रियेटर ठहराना चाहते हैं तो उसका कोई पता ठिकाना नहीं कि इस सिलसिले का अंत है कहाँ, फिर आपका सम्बंध सिर्फ अपने सर्कल वाले से ही हो सकता है जो सबकुछ होने या सर्वशक्तिमान होने जैसी कैटेगरी में कतई अनफिट है।

    (समाप्त)

    Written By Ashfaq Ahmad

      सृष्टि सूत्र 2

      कैसे जन्म लेते हैं नये ब्रह्माण्ड?

      तो जो पीछे आपने पढ़ा था वह इस हाइपोथेसिस का पहला स्केल था, अब दूसरे स्केल पर चलते हैं.. अभी तक आप उस सुपर यूनिवर्स रूपी ब्राह्मांड के बाहर खड़े हो कर चीजों को देख कर इस माॅडल को समझ रहे थे, अब इसके अंदर उतर कर आगे बढ़िये.. इनमें से किसी भी एक यूनिवर्स के अंदर, उसका ही एक पार्ट बन कर। यहां आपको लग रहा है कि यही अकेला ब्राह्मांड है.. जिस बिगबैंग से यह बना, वह पहला और अकेला बिगबैंग था और आगे यह बिग फ्रीज या बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म हो जायेगा। हकीकत यह हो सकती है कि इस शुरु होने और खत्म होने की लगातार चलती प्रक्रिया में आप कहीं बीच में खड़े हों, जहां पहले भी यह घट चुका हो और अभी आगे भी जाने कितनी बार घटना बाकी हो।

      और यह जो कुछ लोग फनी सा सवाल करते हैं कि स्पेस अगर अब फैल रहा है तो जो पहले से मौजूद है, वह क्या है या फिर यह स्पेस फैल कहाँ रहा है.. तो समझो भई, कि स्पेस जगह के रूप में पहले से ही मौजूद है और जो फैल रहा है, यह आपका वाला ब्राह्मांड है जिसका मटेरियल दूर तक छितरा रहा है.. तो उस छितराने वाले मटेरियल के अंदर बैठ कर देखोगे तो यही कहा जायेगा कि स्पेस फैल रहा है। तकनीकी रूप से स्पेस नहीं बल्कि वह यूनिवर्स जिसमें आप हैं, वह फैल रहा है जबकि इसके साथ ही ठीक इसी जगह कोई दूसरा ब्राह्मांड सिकुड़ कर बिग क्रश का शिकार हो कर खत्म भी हो रहा हो सकता है, जो आपके लिये डिटेक्टेबल नहीं।

      अब यहां से यह खत्म होने और बनने की प्रक्रिया को अपने ही यूनिवर्स से समझिये.. हम एक कई करोड़ प्रकाशवर्ष में फैले केबीसी वायड में हैं। वायड यूनिवर्स में मौजूद ऐसी खाली जगह को कहते हैं जहां नाम मात्र की गैलेक्सी हों। अब अपने आसपास के स्पेस को देख कर हमें लगता है कि यूनिवर्स में हर जगह इतनी ही दूरी पर गैलेक्सीज होती हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हम खुद यूनिवर्स के बंजर हिस्से में हैं जबकि ज्यादातर जगहों पर गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी है।

      तो चूंकि आपको पता है कि बड़े आकार का कोई तारा जब अपनी सारी हाइड्रोजन फ्यूज करके अपनी ग्रैविटी पर कोलैप्स होता है तो वह ब्लैकहोल बन जाता है। अब कल्पना कीजिये कि गैलेक्सीज की घनी मौजूदगी वाले किसी हिस्से में कोई यूवाई स्कूटी के साईज का तारा खत्म हो कर ब्लैकहोल में बदलता है। एक चीज यह भी समझिये कि ब्लैकहोल मैटर का रीसाइकिल सेंटर होते हैं और आगे फर्स्ट जनरेशन स्टार्स उस मैटर को और प्रोसेस और मोडिफाई करते हैं।

      अब हम उस नये बने ब्लैकहोल को देखते हैं जो अपने आसपास मौजूद मैटर को निगलना और ताकतवर होना शुरू कर देगा। गतिशीलता के नियम के चलते, उसके हैवी गुरुत्वाकर्षण की वजह से खुद उसकी गैलेक्सी समेत आसपास की गैलेक्सी तक उसके अंदर समाने लगेंगी और पता चलेगा कि एक मैसिव ब्लैकहोल आसपास की कई सारी गैलेक्सीज तक खा गया।

      वैज्ञानिक जो यूनिवर्स के अंत की एक थ्योरी बिग क्रश के रूप में देते हैं, वह भी कुछ यूं ही घटेगी। यह प्रक्रिया हालांकि हमारे टाईम स्केल पर करोड़ों साल में पूरी होगी पर आप मान लीजिये कि अभी आपके सामने ही उसने अपने करोड़ों साल के अस्तित्व के दौरान ढेरों गैलेक्सीज निगल चुकने के बाद अभी एक लास्ट पिंड को निगला है और अपनी सिंगुलैरिटी पर बढ़ते वजन के कारण कोलैप्स हो गया है और एक झटके से उसने अब तक निगला सारा मटेरियल रिलीज कर दिया है।

      यह हमारे अपने ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स में ही घटने वाला एक नया बिगबैंग है और इसके फेंके छितराये मैटर से एक नये ब्राह्मांड का जन्म हुआ है। वह ब्राह्मांड जो रिलीज होते ही बेतहाशा गर्म था लेकिन जैसे जैसे वह छितराते हुए दूर तक फैलता जा रहा है, वैसे-वैसे यह ठंडा होता जा रहा है और इसका उगला मैटर अब एक शक्ल ले रहा है।

      मान लीजिये कि वह शक्ल आपकी जानी पहचानी शक्ल से अलग है तो आपके सारे फिजिक्स के नियम उस नये बनते ब्राह्मांड में धराशाई हो जायेंगे और हो सकता है कि उस यूनिवर्स की तमाम चीजें आपके सेंसेज से ही परे हों.. यानि न आप उन्हें देख पायें और न समझ पायें। या हो सकता है कि वह नया ब्राह्मांड ठीक डार्क मैटर और डार्क एनर्जी की तरह आपके लिये सिरे से अनडिटेक्टेबल हो और आप बस उसके प्रभाव को ही महसूस कर पायें। वेल.. यूनिवर्स के सुदूर हिस्सों में इस तरह की प्रक्रियाएँ आलरेडी चल रही हैं।

      क्रमशः

      Written By Ashfaq Ahmad

        सृष्टि सूत्र

        क्या हमारे आसपास एक साथ कई दुनियाएं हो सकती हैं?

        सामान्यतः मैं रियेक्ट नहीं करता, पर कभी-कभी मुझे कुछ बातें बुरी तरह खीज से भर देती हैं जिनमें एक तो यह होती है कि जब मैं बात कर रहा होता हूँ प्रैक्टिकल विज्ञान की और लोग उसमें दर्शन और अध्यात्म घुसा के मोअम्मा हल करने लग जाते हैं.. ऐसा है भाई, यह आप जैसे लोगों की ही मेहरबानी है कि भारत आज पिछड़ा देश कहलाता है और अमेरिका योरप वैज्ञानिक तरक्की के नाम पर हमसे कहीं आगे हैं.. खुद तो इन बहलावों के आगे दिमाग बंद कर रखे हैं और दूसरों के चिंतनशील, खोजी दिमाग भी बंद करने में लगे रहते हैं।

        दूसरे मुझे वह स्टीरियो टाईप बातें भी खिजाती हैं जो पीछे वालों ने आपको पकड़ा दी हैं और आप रोबोट की तरह वही दोहराने में लगे हैं, उससे आगे बढ़ना नहीं चाहते.. स्पेस फैल रहा है, उसकी सीमायें अंतहीन हैं.. ब्ला-ब्ला। देखो भाई, अंतहीन जैसा कुछ नहीं होता, यह हमारी सीमित क्षमताओं के चलते सब्र करा देने लायक बस एक शब्द भर है। हर उस चीज का अंत होता है जो शुरू होती है और किसी भी चीज के अस्तित्व की शर्त शुरूआत है.. अंत उससे ऑटोमेटिक जुड़ा होता है। तो अगर कोई आपको किसी नये विचार की तरफ बढ़ा रहा है तो उस पर दिमाग लगाइये, संभावनाएं तलाशिये.. बजाय इसके कि पीछे सैकड़ों बार कही गई बातों को रोबोट की तरह दोहराते रहें।

        अब आते हैं मूल सब्जेक्ट पर.. हालांकि मैंने अपनी कहानी मिरोव में काफी कुछ नया लिखा था, पर यहाँ एक थ्योरी दे रहा हूं जो शायद ही आपने पहले पढ़ा सुना हो.. पर थोड़ी बहुत भी पृथ्वी से बाहर की दुनिया की जानकारी हो तो समझिये इसे और चिंतन कीजिये, बजाय दर्शन, अध्यात्म का चूरन परोसने के या ब्राह्मांड अंतहीन है जैसी स्टीरियोटाईप बातें करने के। हालांकि इस तरह की बातें किताब में ही ठीक रहती हैं क्योंकि यहां से तो कोई भी उड़ा कर वाॅल/ब्लाॅग/वीडियो में चेंप देता है अपनी बता कर लेकिन फिर भी…

        मैं इस पूरे सिस्टम को तीन स्केल पर समझने की कोशिश करता हूँ, जहाँ आप लगातार छोटे होते माॅडल से इसे समझिये। साईज, शेप और टाईम सबको एक मिनिमम लेवल पर संकुचित करके हम अपना एक छोटा माॅडल बनाते हैं जहां समय समझ लीजिये कि एक घंटे में एक अरब साल गुजर रहे हैं.. ध्यान रहे कि समय की अवधारणा आपके हिसाब से है.. बाहरी दुनिया में इसकी गति और परिभाषा दोनों बिलकुल अलग है तो इस पूरे माॅडल में जबरन वह प्वाइंट न घुसाइयेगा.. यह आपकी सहूलियत के लिये आपके हिसाब से समझना है।

        एक बड़ा सा हाॅल है, हर तरफ से बंद मानिये… इसमें तमाम तरह का कबाड़ पड़ा है। मान लीजिये किसी तरह से खुद बखुद या अगर कोई इस हाॅल का मालिक है तो उसने जानबूझकर इस हाॅल में किसी तरह से प्रेशर पैदा कर दिया। इस प्रेशर ने हाॅल के अंदर स्थितियों को बदल दिया और वहां पड़ा सारा कबाड़, जिसे आप मैटर कह सकते हैं.. वह गतिशील हो गया। इस गतिशीलता के चलते कई भंवर टाईप ब्लैक होल बन गये जिन्होंने अपने आसपास का मैटर खींच लिया और उसे क्रश करते एक सिंगुलैरिटी पर पहुंचा दिया। फिर इस सिंगुलैरिटी पर जमा मटेरियल ने प्रेशर के चलते बिगबैंग के रूप में खुद को उड़ा लिया और उसी कबाड़ से नये किस्म के पदार्थ का निर्माण हुआ और एक ब्राह्मांड बना।

        अब यहां दो बातें समझिये, पहली कि उस हाॅल के अंदर यह इकलौती प्रक्रिया नहीं हुई, बल्कि इस तरह की प्रक्रियाओं का सिलसिला चल पड़ा और एक साईकल बन गई। दूसरे कि अब बिखरा हुआ मटेरियल उसी हाल में दूर तक फैलता है, अपनी ग्रेविटी को लूज कर जाता है और बिग फ्रीज/रीप का शिकार हो कर खत्म हो जाता है.. जबकि इसी दौरान कोई एक और ब्लैकहोल के द्वारा उसका तमाम मटेरियल निगल लिया जाता है और वह उसकी सिंगुलैरिटी पर जमा होते-होते एक दिन फूट कर नये ब्राह्मांड की शुरुआत कर देता है। अब यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि उस ब्लैकहोल ने बस एक ही ब्राह्मांड का छितराया मटेरियल निगला हो, बल्कि उसने अपने आसपास के और भी ब्राह्मांडों का मटेरियल निगला हो सकता है और सबको क्रश करके, एटम्स को तोड़ कर, उनकी प्रापर्टी बदल कर उन्हें रिलीज किया हो। यह कुछ ऐसा खेल हुआ कि चार अलग-अलग रंगों को ले कर, उन्हें मिला कर पांचवां नया रंग बना दिया गया हो।

        बस इसी तरह एक बार स्विच होने के बाद यह शुरू होने और खत्म होने का सिलसिला लगातार चल रहा है और उस हाॅल के अंदर मौजूद सैकड़ों यूनिवर्स में हर रोज कोई एक खत्म हो रहा है तो कोई एक शुरु हो रहा है। इन्हीं में से एक यूनिवर्स के अंदर मौजूद गैलैक्सी के एक सोलर सिस्टम में मौजूद एक ग्रह पर बैठ कर हम सोच रहे हैं कि यह इस सृष्टि का इकलौता ब्राह्मांड है और यह जिस बिगबैंग से शुरू हुआ, वह बस पहली बार हुआ इकलौता बिगबैंग था।

        अपनी सीमित क्षमताओं के चलते हम बैठ कर बड़े इत्मीनान से कह लेते हैं कि ब्राह्मांड अंतहीन है, इसकी कोई सीमा नहीं है.. क्यों? क्योंकि हम अपने सबसे पड़ोस के सोलर सिस्टम में मौजूद अपने जैसे ग्रह को देख पाने की औकात नहीं रखते, अपने ही सोलर सिस्टम के सबसे आखिर में मौजूद ग्रह तक जाने की या इसकी सीमाओं को पार कर जाने की हैसियत नहीं रखते तो ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है.. लेकिन यह सच नहीं होता। यहीं पे पैदा होते ही सबकुछ ‘मान लेने’ वाला बंदा सवाल उठा देता है कि स्पेस अब फैल रहा है तो फैलने के लिये पहले से जगह कैसे मौजूद थी.. इसका मतलब बिगबैंग की थ्योरी झूठी है.. क्यों? क्योंकि वह मान चुका है, उसकी जानने में कोई दिलचस्पी नहीं तो उसे छोड़िये और आगे बढ़िये।

        अब यहां पे एक कारीगरी और समझिये कि जब ब्लैकहोल मैटर को क्रश करके वापस रिलीज करता है और शुरुआती प्रोसेस में ही मैटर की प्रापर्टी चेंज हो जाती है, तो जरूरी नहीं कि वह हर बार एक जैसा हो, बल्कि वह एक दूसरे से इतना अलग हो सकता है कि एक दूसरे के लिये अनडिटेक्टेबल हो.. यानि एक साथ चार ब्राह्मांड ठीक एक जगह एग्जिस्ट कर रहे हैं लेकिन एक दूसरे को न देख सकते हैं न फील कर सकते हैं और न ही किसी तरह डिटेक्ट कर सकते हैं।

        यानि जहां आप अपने कमरे में पड़े सो रहे हैं, ठीक उसी जगह एक ब्राह्मांड के एक ठंडे ग्रह की गुफा मौजूद है, जहां तापमान माईनस हजार डिग्री है, लेकिन उस ठंड को आप नहीं महसूस कर सकते। इसी तरह वहीं मौजूद तीसरे ब्राह्मांड के एक सोलर सिस्टम के एक तारे का कोर मौजूद है जहां का तापमान इतना ज्यादा है कि एटम तक टूट जाता है लेकिन उस भीषण तापमान का आप पर कोई असर नहीं क्योंकि आप दोनों की प्रापर्टीज ही एक दूसरे के लिये अनडिटेक्टेबल हैं। इन्हीं एक साथ एग्जिस्ट करते, पर एक दूसरे के लिये लगभग अनडिटेक्टेबल रहते ब्राह्मांडों को आप अलग-अलग आयाम के रूप में समझ सकते हैं।
        क्रमशः

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        Written By Ashfaq Ahmad

          सुपर स्टोरीज

          पढ़ें एक से बढ़ कर एक कहानियां 

          वो लड़की भोली भाली सी

          “वो लड़की भोली भाली सी” नाम सुन कर रोमांटिक कहानी लगती है, लेकिन ऐसा है नहीं… यह कहानी यूं तो थ्रिल, रोमांच और सस्पेंस से भरी है, लेकिन चूंकि पूरी कहानी एक ऐसी लड़की पर है जिसकी जिंदगी कहानी के दौरान थ्री सिक्सटी डिग्री चेंज होती है, तो बस उसी बदलाव को इंगित करते हुए शीर्षक दिया है— वो लड़की भोली भाली सी। शुरुआत तो उसके भोलेपन और उसके शोषण से ही होती है लेकिन फिर मज़बूत होने के साथ वह बदलती चली जाती है।
          अब कहानी चूंकि थोड़ी कांपलीकेटेड है तो शुरु करने से पहले सभी पाठकों के लिये कुछ बातों पर गौर करना जरूरी है, जिससे आपको सभी सिरों को समझने में मदद मिलेगी।

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          ज़रा सा इश्क

          अमूमन अपने देश में लोगों के दो क्लास मिल जायेंगे— एक वे जो ज़िंदगी को जीते हैं और दूसरे वे जो ज़िंदगी को गुज़ारते हैं। जो गुज़ारते हैं, उनकी ज़िंदगी बड़े बंधे-टके ढर्रे पर गुजरती है। रोज़ सुबह उठना, नाश्ता पानी करना, खाना लेकर बतौर दुकानदार, रेहड़ी-फड़ के कारोबारी, कारीगर, नौकरीपेशा, मजदूर काम पर निकल लेना और दिन भर अपने काम से जूझना। रात को थक-हार कर घर लौटना और खा पी कर सो जाना— अगले दिन फिर वही रूटीन। रोज़ वही रोबोट जैसी जिंदगी जीते चले जाना और फिर जब शरीर थक कर चलने से इनकार करने लगे तब थम जाना। जरा सा एडवेंचर या एंजाय, शादी या कहीं घूमने जाने के वक़्त नसीब होता है और वे सारी ज़िंदगी रियलाईज नहीं कर पाते कि वे ज़िंदगी को जी नहीं रहे, बल्कि गुज़ार रहे हैं।

          सुबोध ऐसे ही एक परिवार का लड़का है।

          दूसरे वे होते हैं जो जिंदगी को जीते हैं, क्योंकि वे हर सुख सुविधाओं से लैस होते हैं। उन्हेें जीविका कमाने के लिये दिन रात अपने काम-धंधों में, नौकरी में किसी ग़रीब की तरह खटना नहीं होता। जिनके हिस्से की मेहनत दूसरे करते हैं और जो बिजनेस और बढ़िया नौकरी के बीच भी अपने लिये एक वक़्त बचा कर रखते हैं, जहां वे अपनी ज़िंदगी को जी सकें। एंजाय कर सकें। हर किस्म के एडवेंचर का मज़ा ले सकें। उनके लिये जिंदगी कोई कोर्स नहीं होती कि बस एक ढर्रे पर उसका पालन करना है— बल्कि वह दसियों रंगों के फूलों से भरे गुलदस्ते जैसी है, जहां हर दिन एक नये फूल की सुगंध का आनंद लिया जा सकता है।

          ईशानी ऐसी ही लड़की है।

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          मिरोव

          सोचिये कि एक दिन आप नींद से जागते हैं और पाते हैं कि आप उस दुनिया में ही नहीं हैं जो आपने सोने से पहले छोड़ी थी तो आपको क्या महसूस होगा… सन दो हजार बत्तीस की एक दोपहर न्युयार्क के मैनहट्टन में एक सड़क के किनारे पड़ी बेंच पर जागे एडगर वैलेंस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था।

          वह जिस जगह को और जिस दुनिया को देख रहा था वह उसने पहले कभी नहीं देखी थी, जबकि वह अपने आईडी कार्ड के हिसाब से न्युयार्क में रहने वाला एक अमेरिकी था… उसे यह नहीं याद था कि वह अब कौन था लेकिन धीरे-धीरे उसे यह जरूर याद आता है कि वह तो भारत के एक गांव का रहने वाला था और वह भी उस वक्त का जब मुगलिया सल्तनत का दौर था और अकबर का बेटा जहांगीर तख्त नशीन था।

          उसे न सामने दिखती चीजों से कोई जान पहचान थी और न ही खुद की योग्यताओं का पता था लेकिन फिर भी सबकुछ उसे ऐसा लगता था जैसे वह हर बात का आदी रहा हो जबकि उसके दौर में तो न यह आधुनिक कपड़े पहनने वाले लोग थे, न गाड़ियां और न उस तरह की इमारतें। उसने कभी तलवार भी न उठाई थी मगर उसका शरीर मार्शल आर्ट का एक्सपर्ट था।

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          सावरी 

          यह कहानी सौमित्र बनर्जी की आत्मकथा के रूप में लिखा एक ऐसा दस्तावेज है, जो अंत में एक रोमांचक मोड़ के साथ जब अपनी परिणति पर पहुंचता है तो इस कहानी के उस मुख्य पात्र को यह पता चल पाता है कि रियलिटी में वह अपने कमरे के अंदर अपने बेड पर सोता ही रहा था, लेकिन एक वर्चुअल दुनिया में उसने एक ऐसे रहस्यमयी शख़्स सौमित्र बनर्जी के जीवन के बारे में सबकुछ जान लिया था— जो एक अभिशप्त जीवन को जीते हुए उसी के ज़रिये अपने जीवन से मुक्ति पाता है।

          कहानी में जो भी है, वह भले एक आभासी दुनिया में चलता है लेकिन कुछ अहम किरदारों का गुज़रा हुआ अतीत है— जिसमें क़दम-क़दम पर रहस्य और रोमांच की भरपूर डोज मौजूद है। सभी कैरेक्टर अपनी जगह होते तो वास्तविक हैं लेकिन वे रियलिटी में रहने के बजाय दिमाग़ के अंदर क्रियेट की गई एक वर्चुअल दुनिया में रहते हैं, जहां उनकी शक्तियां एक तरह से असीमित होती हैं।

          यह एक ऐसे मैट्रिक्स की कहानी है, जो बाहर की हकीक़ी दुनिया में नहीं चलता, बल्कि दिमाग़ के अंदर बनाई गई ऐसी दुनिया में चलता है— जहां कहानी के मुख्य ताकतवर पात्र दूसरे किरदारों को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ अपनी उस दुनिया में खींच लेते हैं, जहां वे उनके साथ रोमांस भी कर सकते हैं और उन्हें शारीरिक चोट भी पहुंचा सकते हैं। यहां तक कि वे उनकी जान भी ले सकते हैं।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

          आतशीं

          इस कहानी से सम्बंधित कुछ बातें… जो एक पाठक के तौर पर आपके लिये पहले से जानना जरूरी है ताकि आप पहले से इस उलझी हुई कहानी के लिये मानसिक रूप से तैयार हो सकें। 

          पहली चीज़ तो यह है कि यह कहानी काफी लंबी है तो इत्मीनान के साथ पढ़ें.. कोशिश करूंगा कि एक एपिसोड में ज्यादा से ज्यादा कंटेंट परोस सकूं लेकिन फिर भी मान के चलिये कि इसके सौ से ऊपर एपिसोड जायेंगे। 

          दरअसल यह एक महागाथा है इंसान और जिन्नात के बीच बनी उस कहानी की, जो जाहिरी तौर पर आपको अलग और अनकनेक्टेड लग सकती है लेकिन हकीक़त में दोनों के ही सिरे आपस में जुड़े हुए हैं। इंसान की बैकग्राउंड पख्तूनख्वा की है, जहां आप पख्तून पठानों की सामाजिक संरचना के साथ उनके आपसी संघर्ष और जिन्नातों के साथ उनके इंटरेक्शन के बारे में पढ़ेंगे और जिन्नातों की बैकग्राउंड पश्चिमी पाकिस्तान से लेकर तुर्कमेनिस्तान, सीरिया और ओमान के बीच रेगिस्तानी और सब्ज मगर बियाबान इलाकों में बसी उनकी चार अलग-अलग सल्तनतों की हैं। इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

          द ब्लडी कैसल

          ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिये टेन मिलियन डॉलर की ईनामी रकम वाला एक रियलिटी शो ‘द ब्लडी कैसल’ लांच होता है जो हॉरर थीम पर होता है। यह शो सेशेल्स के एक निजी प्रापर्टी वाले हॉगर्ड आइलैंड पर आयोजित होता है जहां हांटेड प्लेस के तौर पर मशहूर किंग्समैन कैसल में कंटेस्टेंट्स को सात दिन और सात रातें गुजारनी होती है और जो भी कंटेस्टेंट सबसे बेहतर ढंग से सामने आने वाली हर चुनौती से लड़ेगा, उस हिसाब से उसे वोट मिलेंगे… सबसे ज्यादा वोट पाने वाला विनर होगा।

          ‘द ब्लडी कैसल’ टीम कैसल या आइलैंड के डरावने माहौल के सिवा भी अपनी तरफ से विज्ञान और तकनीक के इस्तेमाल के साथ उन्हें डराने की हर मुमकिन कोशिश करेगी कि उनकी हिम्मत का सख्त इम्तिहान लिया जा सके। उनके हर पल को रिकार्ड करने के लिये कैसल समेत न सिर्फ़ पूरे आइलैंड पर बेशुमार कैमरे होंगे बल्कि ड्रोन कैमरों की मदद भी ली जायेगी और उनकी सांसों पर भी कान बनाये रखने के लिये उनके गलों में एडवांस किस्म के रेडियो कॉलर पहनाये जायेंगे। उन कंटेस्टेंट्स से टीम कोई भी डायरेक्ट संवाद नहीं करेगी, न ही उन्हें किसी तरह की मदद उपलब्ध कराई जायेगी। कंटेस्टेंट्स को यह सात दिन अपने ढंग से बिताने के लिये पूरी छूट होगी और वे चाहें तो रेप और मर्डर तक कर सकते हैं।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

          मधुरिमा

          कलंगुट बीच स्थित होटल गैब्रिएल से सुबह-सवेरे जब मधुरिमा तैयार हो कर निकली तो इरादा कुछ खास नहीं था— बस तट पर भटकने तक का ही ख्याल था… क्योंकि न उसे गोवा के बारे में कोई खास जानकारी ही थी और न उसका जीवन इस तरह का रहा था कि वह ऐसी विज़िट को लेकर कोई प्लान बना पाने में सक्षम हो। वह तो बस अपनी एक फैंटेसी पूरी करने निकली हुई थी।

          बदन पर एक ब्लैक कलर का प्लाज़ो था तो ऊपर एक छाती भर कवर करने वाला पिंक टाॅप और उसके ऊपर एक ढीली लाईट अक्वा ग्रीन कलर की शर्ट डाल ली थी, जिसके बटन तो सारे खुले थे लेकिन नीचे पेट पर दोनों पल्लों के बीच नाॅट बांध ली थी। आँखों पर स्टाइलिश गाॅगल चढ़ा था तो हाथ में एक फैंसी हैंडबैग। उसकी उम्र के साथ नार्थ इंडिया में शायद यह हुलिया सूट न करता मगर गोवा में यह सामान्य बात थी— तो कोई भी सिर्फ इस बात के पीछे नोटिस नहीं करने वाला था।
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          कसक

          “वह बात नहीं है माँ— कभी इतना लंबा सफर अकेले किया नहीं है न, तो घबराहट सी हो रही है। उनका क्या है— बैठे-बैठे फरमान जारी कर दिया कि बस पकड़ के चली आओ। अब जिसे जाना है, देखना तो उसे है… नहीं माँ, सुल्तानपुर से लखनऊ तक का ठीक है— ढाई-तीन घंटे की बात रहती है लेकिन दिल्ली? कहते तो हैं कि सात-आठ घंटे में पहुंच जायेंगे लेकिन लंबे सफर में भला कब इस बात की गारंटी रहती है। कब, कहां जाम में फंस जायें, कब रास्ते में कोई बात हो जाये…

          कसकअरे क्या माँ, शुभ-अशुभ… न बोलने वालों के साथ परेशानियां नहीं आतीं क्या? अकेले जाऊंगी तो यह सब ख्याल तो आयेंगे ही। नहीं… नहीं माँ, कहां छुट्टी मिल पा रही रवि को। वो तो कह रहे थे कि फ्लाईट से चली आओ, पैसे की चिंता नहीं है— लेकिन हम कहां हवाई जहाज पे बैठेंगे। रवि साथ होते तो बात अलग थी— अकेले तो न बाबा न। अनाड़ियों की तरह चकराते फिरेंगे… उससे तो फिर बस ही ठीक है।” वह फोन कान से लगाये अपनी ही धुन में बोले चली जा रही थी और सूटकेस को हैंडल से खींचते प्लेटफार्म से लगी बसों पर लगी स्लेट पढ़ती जा रही थी, जिन पर उनकी मंजिलें लिखी थीं।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

          वो कौन थी

          हरेक की जिंदगी में कुछ बातें, कुछ लम्हे, कुछ किस्से, कुछ घटनायें ऐसी जरूर होती हैं जो उसकी मेमोरी में हमेशा के लिये सुरक्षित हो जाती हैं। कुछ ऐसी घटनायें, जहां आखिर में लगा सवालिया निशान कभी न खत्म हो पाये— ऐसी न भुला सकने वाली स्मृतियों में अपना एक खास मकाम बना कर रखती हैं।

          अब चूंकि मैं पुलिस की नौकरी में रहा हूं, जहां पूरे कैरियर के दौरान जाने कितने अनसुलझे केस भी मेरी स्मृतियों में दर्ज हुए हैं तो ऐसा नहीं है कि मैं सवालिया निशान छोड़ जाने वाली घटनाओं में सभी को याद रख सकूं— हां, लेकिन कुछ घटनायें तो फिर भी होती हैं जो अपना अलग ही मकाम रखती हैं। ऐसी ही एक घटना है— जब भी कभी मेरे सामने भूत-प्रेत, आत्मा वगैरह की कोई बात हो, तो मेरी स्मृतियों में ऐसे हलचल मचा देती है जैसे किसी झील के शांत पानी में कोई पत्थर फेंक दिया गया हो।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

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          गुमराह

          क्षितिज पर पूरे प्रकाश के कारण गिने चुने सितारे ही बाकी रह गये हैं— चन्द्रमा की शीतल रश्मियों में नहाया वह समूचा जंगली क्षेत्र कुछ भयावह सा लग रहा है। हलकी-हलकी पुरवाई चल रही है। खामोश खड़े वृक्ष थोड़ी थोड़ी देर में हिल जाते हैं।

          यह मैलानी के एक गावं कंचनखेड़ा से जुड़ा जंगल है। गावं की सीमा से सटे तमाम खेत हैं, जहां अधपके गेहूं की फसल खड़ी है— फागुन चल रहा है। हवा में थोड़ी ठंडक है… जंगल में झींगुरों, तिलचट्टों की आवाज़ सबसे ज्यादा गूँज रही है या फिर उन नेवले के बच्चों की, जो एक खेत में खेल रहे हैं।

          गावं वालों ने खेत की सुरक्षा के लिये जंगल की ओर बबूल के कांटों की लम्बी बाड़ लगा रखी है, किन्तु सांभरों, चीतलों ने उसमे जगह जगह छेद कर लिये हैं और रात होते ही वह अपना रुख खेत की ओर कर लेते हैं। आधी रात के इस समय खेतों में कई चीतलें मौजूद हैं, जो गेहूं की हरी पत्तियां चुनने में जुटी हैं। एक ओर मोटी गर्दन और बारह सींगों वाला झाँक भी खामोश खड़ा है। वह हवा से बू लेने की कोशिश कर रहा है, या अपने कानों से सुनने की— कहा नहीं जा सकता।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

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          रोज़वेल मेंशन 

          अरुण के लिये वह जगह तो बड़ी अच्छी थी, जहां चारों तरफ हरे-भरे हरियाली से आच्छादित पहाड़ों का मनोरम नजारा था और दूर बर्फ से ढंकी चोटियां ऐसे भ्रम देती थीं जैसे आकाश पर किसी कुशल चित्रकार ने कूची फेर दी हो। मौसम उसके अनुकूल था तो हल्की ठंड से भी कोई शिकायत नहीं थी। यह जगह हिमाचल के ऊपरी इलाके में आती थी जहां पहाड़ों के एतबार से मध्यम आकार की आबादी थी और पर्यटन के नजरिये से यह जगह तेजी से विकसित हो रही थी।

          वह एक सिविल इंजीनियर था और अपनी कंपनी के काम से यहां आया था— कंपनी वहां अपना एक प्रोजेक्ट शुरू कर रही थी, जिस सिलसिले में अरुण को दिल्ली से यहां आना पड़ा था और कुछ महीनों के लिये उसे यहीं कयाम करना था।

          अब वह किसी तरह ऊना तक ट्रेन और आगे बस के सहारे यहां तक पहुंच तो गया था लेकिन यहां आकर एक समस्या खड़ी हो गई थी। अब यहां आकर एक समस्या खड़ी हो गई थी कि फिलहाल कंपनी की तरफ से उसके रहने का इंतज़ाम नहीं हो पाया था। अपनी तरफ से उन्होंने रोज़वेल मेंशन नाम की जिस जगह का चयन किया था, फर्दर इन्क्वायरी में वह जगह उसके रहने के लिहाज से ठीक नहीं निकली थी तो एक दो दिन उसे किसी तरह खुद के भरोसे गुजारने को कहा गया था कि इस बीच कोई और इंतज़ाम कर लिया जायेगा।इस कहानी के बारे में डिटेल से पढ़ने के लिये नीचे दिये आइकॉन पर क्लिक करें 

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          अतीत यात्रा फाईनल

          कौन हो सकते हैं आर्य?

          मैक्समूलर की भारत पर आर्यों के आक्रमण वाली थ्योरी गलत हो सकती है, लेकिन उसका मतलब यह भी नहीं कि आर्य सिरे से कोई नस्ल नहीं थी या वे भारतीय भूभाग के ही लोग थे.. यह आज से चार पांच हजार साल पहले आम तौर पर होने वाला प्रवास था, जो इधर से उधर होता रहता था। किसी दौर में कैस्पियन सागर के उत्तर में (वर्तमान के रूस और कजाकिस्तान समझ लीजिये) एक कबीले के लोग रहते थे जो एंड्रोनोवो संस्कृति के रूप में विकसित हुए और अलग-अलग दिशाओं में फैले.. पहचान के लिये इन्हें ही आर्य कहा जाता है। अगर 1850 से पहले किसी ने ऐसा नहीं कहा तो वजह यह भी है कि पुरातत्व के लिहाज से खोजों का सफर भी बस डेढ़-दो सौ साल ही पुराना है। जैसे-जैसे चीजें सामने आयेंगी, वैसे ही उनके बारे में मत बनाया जायेगा।

          इस श्रंखला की पहली पोस्ट पर कुछ पाठकों ने करेक्ट करने की कोशिश की थी कि आर्य एक भाषाई परिवार को कहते हैं न कि नस्ल को, और हालांकि इसे सही ठहराने के लिये इस सम्बंध में कई उदाहरण (मैक्समूलर समेत) भी दिये जा सकते हैं लेकिन मेरा विचार यह है कि भाषाई परिवार एक अलग पहचान हुई और नस्लीय पहचान अलग.. आर्यों के सम्बन्ध में भी इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है न कि किसी संकुचित अर्थ के साथ। इसे एक महत्वपूर्ण उदाहरण के साथ समझिये।

          एक बात तो तय है कि इंसान का ओरिजिन भारत नहीं है बल्कि अब तक उपलब्ध साक्ष्यों के हिसाब से अफ्रीका है तो कभी वहां से निकल कर जब लोग छोटी-छोटी टोलियों में फैले होंगे तो वे भले एक या कुछ फैमिली ट्री से ही सम्बंधित हों लेकिन अलग-अलग उनकी पहचान निर्धारित करने से ही चीजें समझने में आसानी होती है। अब असम के वनों में आ बसी एक टोली को लीजिये.. यह समझिये कि वे एक पिता की औलाद नहीं हैं बल्कि लोगों का समूह हैं जिनमें वे भी होंगे जो अतीत में अपने मूल स्थान से चले होंगे और वे भी होंगे जो उनके प्रवास में अपने मूल दलों से अलग हो कर उनसे आ मिले होंगे। ज्यादा डीप में न जा कर बस इतना समझिये कि एक पिता की संतान न होते हुए भी वह टोली एक परिवार है जिसे हम नाम देते हैं.. नाग।

          इस नाग परिवार की अपनी ईश्वरीय मान्यता, संस्कृति और भाषा है.. अब जब इनकी आबादी उस जगह उपलब्ध संसाधनों के अनुपात में बढ़ जाती है तब परंपरा के मुताबिक उनमें से एक दल निकल कर अलग किसी जगह जा बसता है और नाग होने के साथ अपनी ‘क्राथ’ के रूप में अलग पहचान बनाता है। इसी तरह दलों में से दल निकलते रहे और चारों तरफ फैलते रहे।

          कहीं उन्हें मार कर अपने में मिला लिया गया तो कहीं उन्होंने किसी को मार कर अपने में मिला लिया, सामने वाले भी अपनी कुछ अलग पहचान लिये थे जो उनकी स्त्रियों के साथ इनमें आ घुसी। इस अंतर्भुक्तिकरण से दोनों की भाषाई पहचान और संस्कृति मिक्स भी हुई और वे अपने मूल कुनबे की एग्जेक्ट काॅपी न रहे। दूसरे शब्दों में भाषा में काफी समानता होते हुए भी उनकी खुद की भाषा भी हो गयी और जिनके साथ उनका सम्मिश्रण हुआ वे भी उस भाषाई परिवार का हिस्सा हो गये।

          अब ऐसे में आप उस मूल कबीले को और उससे जुड़े लोगों को अलग से पहचान क्या देंगे जिससे उन्हें अलग इकाई के रूप में जाना जा सके? जाहिर है कि नाग ही कहना पड़ेगा.. आगे इस परिवार को चाहे वंश कह लें, या नस्ल कह लें लेकिन अर्थ वही परिवार आयेगा.. भाषाई पहचान के सहारे उस परिवार को अलग चिन्हित करना ठीक नहीं क्योंकि इससे सही परिणाम निकल कर सामने नहीं आयेंगे।

          इसके सिवा दो बातें और भी गौर तलब हैं, जिनमें एक तो यह गर्व ग्रंथि है कि हम श्रेष्ठ और हमारा श्रेष्ठ, हम हम हैं और बाकी सब पानी कम हैं, हमने ही दुनिया को सारा ज्ञान दिया है और हमसे ही लोग दुनिया में जा कर बसे हैं जहां उन्होंने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं.. खास कर आर्यों के सम्बंध में। यह एक तरह का मनोविकार है जो इतिहास को सही नजरिये से देखने में बहुत बड़ी अड़चन पैदा करता है। आप संस्कृत को सबसे प्राचीन बताओगे, अपनी सभ्यता को सबसे प्राचीन बताओगे लेकिन साबित करने में फेल हो जाओगे। सबूतों के मद्देनजर संस्कृत से प्राचीन तमिल साबित हो जायेगी और मजे की बात यह है कि यहाँ से हजारों किलोमीटर दूर सीरिया में 1380 ईसापूर्व हुई मितन्नी संधि में संस्कृत के शब्द मिल जायेंगे लेकिन भारत में ऐसे प्राचीन प्रमाण नहीं मिलते बल्कि शिलालेखों के रूप में या हड़प्पा में जो भाषा मिलती है वह संस्कृत नहीं है।

          न पुरातात्विक महत्व का ऐसा कोई स्ट्रक्चर ही मौजूद है जो साबित कर सके कि हड़प्पा काल से पहले भारतीय भूभाग में कोई आधुनिक नगरीय सभ्यता थी जबकि मिस्र या मेसोपोटामिया में आपको आठ-दस हजार साल तक पुराने भी ऐसे स्ट्रक्चर मिल जायेंगे और हड़प्पा सभ्यता किसकी थी, यह अब तक साबित नहीं हो सका.. तो अपनी प्राचीनता या श्रेष्ठता आप साबित कैसे करोगे? सिर्फ जुबानी जमां खर्च के सहारे? आप ग्रंथों की बातों का हवाला दोगे तो वे बातें मान्य नहीं, उस ग्रंथ की कोई ऐसी काॅपी या किसी और माध्यम पर लिखे उसके श्लोक मान्य होंगे जो उसके कालखंड को ईसा से पीछे ले जा सकें.. है आपके पास ऐसा कुछ?

          दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों की इज्जत होती है, उन्हें अधिकृत इतिहास का हिस्सा बनाया जाता है लेकिन भारत इस मामले में नितांत फिसड्डी है और यहां का पुरातत्विक विभाग शायद सबसे घटिया है। यहां इस विभाग में आपको खरे धार्मिक मिलेंगे जो इस नजर से खोजें कम करते हैं कि उन्हें इतिहास जानना है बल्कि इस नजर से करते हैं कि पहले से सोचे जा चुके को उन प्रमाणों पर फिट कैसे करना है। 2005 में गुजरात के तट पर एक समुद्र में डूबे नगर जैसे कुछ अवशेष मिले थे तो यह कारीगर उसकी हकीकत जानने से ज्यादा उसे द्वारका साबित करने में इंट्रेस्टेड थे। यही वजह है कि यहां न उस स्तर की खोजें होती हैं और न उन खोजों को वह सम्मान मिलता है।

          तो यह ‘हम श्रेष्ठ हैं, हम विश्वगुरू हैं, हमसे ही दुनिया चली है’ वाले भाव से किनारा कीजिये और समझिये कि तब जमीन पर कोई राष्ट्रीय सरहद नहीं थी और नाम बस भूभाग की पहचान के लिये ही थे। उस दौर में चीन के पूर्वी तट से लेकर मेडेटेरेनियन के आसपास तक और कैस्पियन सागर से फ्रांस जर्मनी तक अलग-अलग इंसानों की हजारों टोलियाँ फैली हुई थीं और अपनी-अपनी जगह सब अपने तरीके से विकास कर रही थीं। शुरुआती दौर झगड़ों और कब्जे का भी रहा और व्यापार के बहाने मेल-मिलाप का भी रहा जिससे न सिर्फ शब्द, भाषा, संस्कृति आपस में घुसपैठ करते रहे बल्कि देवताओं का भी मिश्रण हुआ और सृष्टि की रचना वाली अवधारणाएं भी प्रभावित हुईं।

          यहां एक चीज यह भी समझिये कि भारत से भूमध्यसागर के धुर पश्चिमी किनारे तक यह जो कई धर्मों में कुछ मिलती-जुलती चीजें या नाम नजर आते हैं, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि ऐसा इनके ईश्वरीय होने की वजह से है बल्कि यह व्यापारिक मेलजोल और अंतर्भुक्तिकरण (जंग, समर्पण, विजय और समझौतों से बना मिश्रण समझिये) के कारण हैं जिसे एकदम सटीकता से रोमन और ग्रीक्स (यूनानी) के आपसी गठजोड़ से समझ सकते हैं…

          यूनानी उनसे काफी पुराने थे और उनके पास एक सशक्त ईश्वरीय अवधारणा के साथ ज्यूस, पोसाइडन, एथेना, हर्मीस जैसे ढेरों देवी देवता थे, जबकि उनके मुकाबले रोमन का कांसेप्ट थोड़ा अलग भी था और सीमित भी.. बाद में जब उन्होंने ग्रीस को कब्जाया तो उनके देवी देवताओं समेत पूरे कांसेप्ट को अडाप्ट कर लिया और अब दोनों का संयुक्त कांसेप्ट हो गया, और सारे देवी देवता मिल के एक कांसेप्ट का हिस्सा हो गये। कालांतर में यही ईसाइयों ने यहूदियों के साथ और मुसलमानों ने उन दोनों के साथ किया यानि उनके ईष्टों से लेकर उनकी प्रथा-परंपरायें सब इस्लाम का हिस्सा बन गयीं।

          Written By Ashfaq Ahmad

            अतीत यात्रा 7

            कैसे अब्राह्मिक धर्म के कांसेप्ट अस्तित्व में आये

            पिछला भाग पढने के लिये यहाँ क्लिक करें

            सेमिटिक का प्रभाव दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी पर है और इसके फाॅलोवर्स का मानना है कि इनका ईश्वरीय कांसेप्ट आदि काल से है, इनके जाने-पहचाने ईष्टों के साथ आगे बढ़ती दुनिया पहले इंसान आदम से आबादी बढ़ाती वर्तमान तक पहुंची है लेकिन सच यह है कि अगर आप कोई टाईम मशीन बना कर सिर्फ तीन हजार साल पीछे चले जायें तो इस कांसेप्ट का नामोनिशान नहीं मिलेगा। न कोई उन ईष्टों को जानने वाला मिलेगा, मोटे तौर पर फिरौन के साथ जोड़े जाने वाले मूसा को ही ले लीजिये तो मिस्र के इतिहास में कोई मूसा नजर न आयेगा.. भले मेनेस से ले कर रेमेसिस, मेर्नेप्टेह तक सबके पूरे जीवनकाल का रिकार्ड मौजूद हो।

            मतलब जैसे तीन से साढ़े तीन हजार साल पहले लावी की अरबी कविता या मितन्नी की संधि के रूप में वैदिक देवताओं के सबूत मिलते हैं, वैसा कुछ नहीं मिलेगा। कुछ राजाओं के नाम भले मिल जायेंगे जो ऑर्डिनरी पर्सन ही होंगे न कि कोई डिवाईन कैरेक्टर।इस बात को समझने के लिये तीन हजार साल पीछे के धर्मों को जब खंगालेंगे तो चार तरह के अलग-अलग कांसेप्ट नजर आयेंगे, जिनके प्रभाव बड़ी आबादियों पर पड़े और सेमेटिक कांसेप्ट इनमें कहीं नहीं था, हां छोटी-छोटी तो हजारों ईश्वरीय अवधारणायें फैली हुई थीं जिनका जिक्र पीछे किया।

            बड़े कांसेप्ट में दो आर्यों की दो शाखाओं के थे, एक तो जरथुस्ट्र की चलाई शाखा जो फारस में प्रभुत्त्व रखती थी जिसे पारसी धर्म (जोरोआस्ट्रियनिज्म) कह सकते हैं और दूसरी जो भारत की तरफ प्रभुत्व रखती थी जिसे वैदिक धर्म कह लीजिये। दोनों के दर्शन उलट थे.. जोरोआस्ट्रियनिज्म में अहुर मज्दा के रूप में अच्छी शक्ति को और अंगीरा माइन्यू के रूप में बुरी शक्ति को मान्यता दी गयी थी। असुर वहां हीरो थे और वहीं वे वैदिक धर्म में खलनायक थे, जो इसी शाखा का दूसरा बड़ा धर्म था। दोनों के कांसेप्ट में विरोधाभास था लेकिन ढेरों समानतायें भी थीं जो पूजा पद्धति से ले कर दोनों के ग्रंथों तक में मिलती हैं।

            इसी तरह दो बड़े कांसेप्ट भूमध्यसागर के किनारों पर मौजूद था, एक ग्रीस में था जिसमें ज्यूस मुख्य देवता था (वेदों में इंद्र के पिता द्यौस थे और संभवता यह दोनों एक ही चरित्र थे) और दूसरे कामों के लिये दूसरे कई देवी देवता थे। दूसरा मिस्र में था जिसमें रा-एटेन, ओसायरिस, होरस के रूप में ढेरों देवी देवता थे, हालांकि भारत की तरह वहां भी टाॅटेम अवधारणायें ढेरों थीं लेकिन अगर तीन हजार साल पहले की बात करें तो यही मुख्य कांसेप्ट बन चुका था। ईसा से पहले के दो हजार सालों में देखेंगे तो सबसे पहले पारसी धर्म का सत्ता के साथ विस्तार हुआ और यह खूब फला फूला, फिर मिस्रियों ने भी सत्ता विस्तार किया और उनका कांसेप्ट फैला जो मेडेटेरेनियन के आसपास सब जगह गया.. तत्पश्चात ग्रीक्स ने अपना वर्चस्व स्थापित किया लेकिन उनके कमजोर होने और रोम के सशक्त होने के बाद दोनों के कांसेप्ट एक हो गये और फिर उनका धर्म फारस से ले कर योरप तक फैला।

            इस बीच सेमिटिक कैसे वजूद में आया.. तो अतीत में हुए एक राजा या मुखिया, जो भी समझिये.. जेकब/याकूब उर्फ इस्राएल ने मिस्र से निकल कर कनान (अब का इज्राएल/फिलिस्तीन) में अपने समूह को बसाया और यही लोग इज्राएली कहलाये। आगे यह डेविड और खासकर सोलोमन के दौर में एक बड़े राज्य के रूप में ढले और सोलोमन के बाद दो अलग राज्यों में बंट गये। इस्राइल की मुख्य आबादी तब तक पवित्र ठहराये जा चुके शहर जेरुसलम में रहती थी जिसे 587 ईसापूर्व बेबीलोन के राजा नेबुचेडनेजार ने जीत लिया और शहर को ध्वस्त करके बचे हुए लोगों को दास बना कर बेबीलोन ले आया जहां यह अगले पचास साल रहे। यहां इन गुलामों ने कुछ ऐसा किया जिसने आगे चल कर पूरी दुनिया बदल दी।

            यहां इन्होंने अपने राजाओं, मुखियाओं और महापुरुषों को ईश्वरीय शेड देते (यह उस वक्त का रिवाज था, भारतियों के देवता भी ऐसे ही बने हैं) अपना इतिहास लिखा जो मुकम्मल तौर पर दुनिया की शुरुआत से तब तक के इतिहास को ईश्वरीय पुट देने वाला एक कांसेप्ट था। यह कई किताबों की शक्ल में था, जिनमें सबसे मुख्य तोरह और जबूर कह सकते हैं, जिन्हें ईश्वरीय किताब माना जाता है। फिर फारस के सबसे ताकतवर हुए सुल्तान सायरस ने 539 ईसापूर्व बेबीलोन को जीत लिया और उन यहूदियों को उस गुलामी से आजादी दे दी, जिसे वे कई दशकों से भुगत रहे थे।

            उन्हें इस बात की इजाजत भी मिल गयी कि वे अपना रचा गढ़ा सब मटेरियल साथ ले जा सकते थे और इस तरह वे वापस जेरुसलम आ कर बसे। फले फूले, कई बार उजाड़े गये, वापस बसे और आसपास के मुल्कों तक फैले.. तब आज के जैसे मुल्क तो थे नहीं तो कोई रोक भी नहीं थी। हां उनका मुख्य पुजारी वर्ग जेरुसलम में ही टिका रहा। फिर कोंटेस्टाईन का दौर आया। तब तक योरप में हर तरफ रोमन धर्म का ही प्रभुत्व था.. ईसा की एक्चुअल कहानी क्या थी, इस विषय से किनारा करते यह समझिये कि उनके वक्त के काफी बाद (लगभग 300 साल) रोमन सम्राट कोंटेस्टाईन ने क्रिश्चैनिटी को स्थापित किया था और इसके जो भी कारण रहे हों पर धीरे-धीरे इसका प्रभाव योरप से मिडिल ईस्ट तक हो गया।

            क्रिश्चियनिटी रोमन+ग्रीक धर्म को ओवरटेक करती चली गई और चर्च के प्रभुत्व के साथ उस कांसेप्ट को शैतानी कांसेप्ट बना दिया गया। क्रिश्चियनैटी में भी कई किताबें लिखी गयी थीं जिनमें मुख्य इंजील कह सकते हैं जो तीसरी ईश्वरीय किताब थी। यहूदियों वाली किताबों को मिला कर ओल्ड टेस्टामेंट और बाद वाली सब किताबें मिला कर न्यू टेस्टामेंट बना। ध्यान रहे कि इन्होंने अपने से पीछे का वही सब लिया था जो ओल्ड टेस्टामेंट में था लेकिन कई चीजें आउटडेटेड लगीं, या समय के साथ एडजस्ट करती न लगीं तो उन्हें एडिट कर दिया गया.. उदाहरण के लिये लिलिथ का किरदार ले लीजिये या द वाॅचर नाम के एंजेल्स ले लीजिये। इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। रोमनों ने सत्ता के सहारे क्रिश्चियनैटी अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में पहुंचाई और बाद के औपनिवेशिक काल में वह पूरी दुनिया तक फैली।

            कोंटेस्टाईन के चार सौ साल बाद इस्लाम की शुरुआत हुई और चौथी ईश्वरीय किताब वजूद में आई, ईसाइयों ने यहूदियों का कांसेप्ट अडाॅप्ट किया था उनके कंटेंट को एडिट करते हुए। इन्होंने न्यु टेस्टामेंट के कंटेंट को एडिट करते हुए वह पूरा कंटेंट ले लिया.. नये जमाने की नैतिकता को सूट न करने वाली बातें हटा दी गयीं, मसलन इसाई लिख सकते थे कि पैगम्बर लूत की बेटियों ने उनके साथ संभोग करके प्रजनन किया लेकिन यह अब उस चीज को नहीं लिख सकते थे क्योंकि यह तब की नैतिकता के खिलाफ हो जाता।

            पैगम्बर की मौत के बाद पहले खलीफा ने इस्लाम को अरब भर में फैलाया और बाद के खलीफाओं ने आसपास के देशों तक फैलाया जबकि बाद में तुर्कों के ऑटोमन साम्राज्य के साथ दूर दराज के देशों तक इस्लाम फैला.. कैसे फैला? जाहिर है कि सत्ता के सहारे।
            अब कुछ बातों पर गौर कीजिये.. इस कंटेंट को कहां लिखा गया? बेबीलोनिया में.. उस वक्त बेबीलोन पर मिस्र से ले कर ग्रीक्स और फारस तक का प्रभाव मौजूद था। पीछे अरब के 17 सौ ईसापूर्व हुए कवि का उदाहरण देखा था जिसे वेदों के बारे में पता था, 14 सौ ईसापूर्व में उसी लोकेशन के आसपास मितन्नी राजवंश स्थापित था जो अपनी संधि में वैदिक देवताओं को साक्षी बनाता था। पास के मिस्री कल्चर में एटेन के रूप में एकेश्वरीय अवधारणा भी प्रचलन में आई थी और उनके पूर्व में फारस भर में दुनिया का पहला प्राचीन एकेश्वरवादी धर्म फैला हुआ था, जिसे एक पैगम्बर जरथुस्ट्र ने चलाया था और सबको अहुरमज्दा का संदेश दिया था।

            जाहिर है कि जो बेबीलोन में बैठ कर वह धार्मिक साहित्य गढ़ रहे थे, उन्हें आसपास की दुनिया के नामों, ईष्टों, अवधारणाओं, कहानियों और परंपराओं की जानकारी थी.. वे कोई अंजान लोग नहीं थे तो उनकी कहानियों में असली किरदार ढूंढने के बजाय दूसरी अवधारणाओं के चरित्रों से साम्य ढूंढिये। ढूंढिये ब्रह्म और अब्राहम के बीच की समानता को, ढूंढिये नोआ और मनू के बीच के साम्य को और ढूंढिये सर्वव्यापी बाढ़ जैसी कहानियां जो दोनों तरफ मिलती हों और ढूंढिये कि कहीं फारसी भी तो नमाज नहीं पढ़ते थे या उनके पैगम्बर भी तो कहीं किसी उड़ने वाले जीव पर बैठ कर आस्मानों की सैर पर नहीं गये थे। या मुसलमानों का अल्लाह सीरियन के चंद्र देवता के परिवार से तो नहीं आया। हो सकता है कि आपको एकदम से बहुत कुछ समझ में आ जाये.. पुरानी लीक से हट कर कुछ खोजने की कोशिश तो कीजिये।

            चलिये एक कथा मैं सुना देता हूँ.. अशूर्बनिपाल के संग्रहालय में एक गिलगमेश नाम का ग्रंथ है जो पत्थर की ईंटो पर सुमेरियन में उकेरा गया था जिसमें 3000 ईसापूर्व हुए इसी नाम के राजा से सम्बंधित कथा है जो अपने आखिरी वक्त में उस पूर्वज जियुसुद्दु से मिलता है जिन्होंने ईश्वर की तरफ से बाढ़ की चेतावनी मिलने पर एक बड़ी नाव बनाई और पशु-पक्षी, इंसान समेत सबके जोड़ों को उसमें सुरक्षित करके सर्व-व्यापी जल प्रलय से बचाया था।

            अब समझिये, एक कथा उरूक की है और एक कथा बेबीलोन में लिखी गयी, दोनों मेसोपोटामिया के प्राचीन नगर हैं, तीसरी कथा मनु के साथ लिखी गयी जिसे लिखने वाले उसी परिवार का हिस्सा रहे हो सकते हैं जिन्होंने जियुसुद्दु की कथा लिखी.. क्या कुछ मिक्स मैच नहीं लगता? तो जब आप पुराने धर्मों, उनके अतीत को खंगालने बैठेंगे तो आपको नाम, परंपरायें, आस्था और कहानियां, बहुत कुछ आपस में मिलता, एक दूसरे से लिया नजर आयेगा.. मसलन कहीं गाय वैतरणी पार करायेगी तो कहीं बकरा पुल सरात पार करायेगा।

            क्रमशः

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            Written By Ashfaq Ahmad