प्रोग्राम्ड यूनिवर्स

दुनिया में इंसान क्यों है?

   एक बड़ा सवाल अक्सर खोजी प्रवृत्ति के लोगों को घेरे रहता है कि अब तक हुई वैज्ञानिक खोजें यह तो बता पाती हैं कि कोई चीज कैसे है— लेकिन ‘क्यों’ है, यह सवाल अभी भी अंधेरे में है। अगर आप सिर्फ अपने प्लेनेट को ही देखें तो आपको यहां लगभग सजीव, निर्जीव हर स्पीसीज अपने होने के किसी न कारण के साथ मौजूद नजर आयेगी— सिवा इंसान के।

शायद यही वजह है कि दुनिया में एक तबका ऐसा भी है जो इंसान को पृथ्वी का मूल निवासी ही नहीं मानता और इसे कहीं बाहर से ला कर रोपी गयी स्पिसीज मानता है।

  एक इंसान ही है जिसके होने का कोई औचित्य स्पष्ट नहीं होता— क्योंकि किसी भी जीव के विलुप्त होने से जहां कहीं न कहीं पृथ्वी के प्राकृतिक चक्र पर प्रभाव पड़ता नजर आता है— वहीं इंसान के लुप्त होने से प्रकृति पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ता तो नहीं दिखता, उल्टे पृथ्वी का बिगड़ता संतुलन वापस बेहतर स्थिति में आने की संभावनायें और प्रबल होती दिखती हैं।

दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस प्लेनेट पर अकेला इंसान ही ऐसा जीव है जो अपनी हरकतों से इस ग्रह के नाजुक संतुलन को बिगाड़ कर इसे नष्ट करने में अभूतपूर्व योगदान दे रहा है। अगर इस ‘इंसान क्यों है’ का जवाब धार्मिकों के एंगल से देखा जाये तो वह यह कह कर खुद को बहला लेते हैं कि अल्लाह ने इंसान को अपनी इबादत के लिये बनाया है— लेकिन यह कोई हजम होने वाला तर्क नहीं।

इबादत के लिये उसके पास फरिश्तों की कौन सी कमी थी और यह भी अजीब लगेगा आपको सिर्फ सोच कर ही, कि अगर आप एक सक्षम वैज्ञानिक हैं तो ढेर से रोबोट्स आप सिर्फ इसलिये बना डालेंगे कि वे दिन रात आपकी चापलूसी, आपकी जयकार करें और इसी से आपको आत्मसंतुष्टि मिल जायेगी।

ईश्वर शब्द ही भ्रम है..

असल में ईश्वर शब्द ही एक भ्रम है— जब इंसान इतना आधुनिक नहीं हुआ था कि प्रकृति को समझ सकता, तब उसके लिये बादल, बिजली, आंधी, तूफान, ओलावृष्टि, बंवडर, आग, भूकम्प जैसी हर प्राकृतिक आपदा एक अबूझ पहेली थी और इससे निपटने का उसके पास सिवा इस अवधारणा के कोई भी दूसरा विकल्प नहीं था कि कोई शक्ति है जो इन सभी न समझ में आने वाली घटनाओं पर प्रभावी है और इस शक्ति की एक पहचान निर्धारित की गयी थी ‘ईश्वर’ या इसके ‘यहोवा’ जैसे पर्यायवाची शब्दों में।

  फिर हमने पीढ़ी दर पीढ़ी एक महान गलती को अंजाम देते हुए विकसित होते दिमागों की खोजी प्रवृत्ति को नष्ट किया— उनके बचपन में ही उन सहज सवालों का गला अपने तराशे हुए जवाबों से घोंट दिया जिनके सहारे वे बच्चे अपने दौर में उपलब्ध ज्ञान को आधार बना कर शायद अब तक हम वर्तमान मानवों को टाईप टू सिविलाइजेशन में कनवर्ट कर चुके होते, जबकि हमें अभी टाईप वन सिविलाइजेशन की देहरी तक पंहुचने में ही सौ साल से ज्यादा लगेंगे— जो यह बताता है कि एक सुप्रीम स्पिसीज के तौर पर हमारी प्रगति की गति कितनी धीमी है और उसकी मुख्य वजह है प्रकृति को ले कर गढ़े गये वे जवाब— जिनका आधार धर्म है और जिसकी वजह से मेधावी से मेधावी बच्चे के जहन को भी बंद कर देते हैं।

  हालाँकि वर्तमान में उपलब्ध ज्ञान के हिसाब से देखा जाये तो ‘ईश्वर’ से ज्यादा ‘यूनिवर्स मेकर’ या ‘सृष्टि रचियता’ जैसा शब्द ज्यादा फिट लगता है लेकिन सदियों से धर्म के मोह में फंसे भयाक्रांत दिमागों के लिये इस रिकॉग्नाइज्ड शब्द की जकड़न से निकल पाना कोई आसान चीज नहीं— हां अगर वे अपनी अगली पीढ़ियों की वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर दें तो वे इस भ्रमजाल से निकल कर सही मायने में उस खोज की दिशा में अग्रसर हो सकती हैं, जहां वे इस यूनिवर्स मेकर या मेकर्स वाली थ्योरी को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं… अगर कोई वाकई सृष्टि रचियता है तो।

  इस लेख में हम उन कई संभावनाओं पर चर्चा करेंगे जिनसे यह शंकायें पैदा होती हैं कि असल में हम जिसे एक सहज रूप से चलती प्रकृति के रूप में देखते हैं, वह एक कंप्यूटराइज्ड प्रोग्राम भी हो सकता है और क्या इससे यह सब ‘होने’ की या इंसान के होने के औचित्य पर कुछ रोशनी पड़ सकती है… और अगर ऐसा है तो इस प्रोग्राम को डिजाइन करने वाला या वाले कौन हो सकते हैं, जिनके लिये सबसे उपयुक्त शब्द ‘यूनिवर्स मेकर’ ही है।

  जाहिर है कि न मैं अंतिम निर्णय पर पंहुच सकता हूँ, न अभी तक कोई वैज्ञानिक पंहुच पाया है और न आप पंहुच सकते हैं— इसलिये दावा कोई भी नहीं है। यह आप पे डिपेंड करता है कि आप इन संभावनाओं को किस तरह लेते हैं।

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आखिर क्यों एग्नोस्टिसिज्म ज़रूरी है..

 अगर हमें किसी चीज को समझना है तो हम तभी कामयाब हो सकते हैं जब हम सभी संभावनाओं के दरवाजे खुले रखें। अगर हम किसी एक भी दरवाजे को बंद कर देते हैं तो हमारा विश्लेषण शायद ही पूर्णतः तक पंहुच पाये और इस वजह से मेरा मानना है कि अगर नेचर, या कहें कि यूनिवर्स को समझना है तो एथीज्म से बेहतर रास्ता एग्नोस्टिसिज्म है क्योंकि नास्तिक के तौर पर आप एक संभावना (कि यह सब किसी क्रियेटर ने बनाया) को सिरे से खारिज कर देते हैं और आस्तिकता सबसे बदतर रास्ता है क्योंकि वहां आप एक संभावना के अतिरिक्त सारी संभावनाओं को खारिज कर देते हैं।

  जबकि हकीकत यह है कि यह यूनिवर्स, यह प्लेनेट्स, यह प्रकृति, यह जीव क्यों हैं— इसे लेकर हम जितनी भी संभावनाओं पर मनन कर सकते हैं, उनमें सबसे लचर और घटिया थ्योरी आस्तिकों वाली ही है और उसकी वजह भी है। आज हम जितनी भी थ्योरीज को सामने रख सकते हैं— वे हमारी हजारों खोजों के बाद अपने आसपास उपलब्ध ज्ञान पर निर्भर हैं जबकि आस्तिकवाद, सिविलाइजेशन के उस शुरुआती दौर से है— जिस वक्त इंसान ने ठीक से कपड़े पहन्ना, खाना खाना या घर बनाना तक नहीं सीखा था लेकिन प्रकृति के अबूझ रौद्र रूप से मुकाबला करने के लिये, अनसुलझे सवालों से जूझने के लिये, परिस्थितिजन्य या मानसिक कमजोरी से उबरने के लिये उसने एक अदद “ईश्वर” की रचना— और इंसानी जिंदगी को सुरक्षित और समाजिक व्यवस्था के संचालन के लिये एक धर्म की स्थापना जरूर कर ली थी।

  इस ईश्वर के इर्द गिर्द धारणाओं, कल्पनाओं और मान्यताओं का जो जाल अलग-अलग देश, काल, हालात में गढ़ा गया— उसे ही हम अलग-अलग धर्मों के रूप में जानते हैं, लेकिन चूँकि यह सारा गढ़न उस दौर में किया गया था जिस दौर में इस नेचर या यूनिवर्स से जुड़े किसी मामले की कोई जानकारी ही ठीक ठाक नहीं उपलब्ध थी तो ऐसे में जाहिर है कि उनमें कमियों की भरमार होनी तय थी और सभी धार्मिक कांसेप्ट में व्याप्त यह कमियां उन लोगों को, जो उस दौर में पैदा हुए जब नेचर को लेकर बहुत सारा ज्ञान हासिल किया जा चुका था— नास्तिकता के लिये प्रेरित करती हैं।

  क्योंकि उनके पास वर्तमान तक हासिल ज्ञान की बदौलत विकसित वह तर्कशक्ति है जिसकी बदौलत वे उस काल्पनिक ईश्वर और उस धार्मिक साहित्य की धज्जियां उड़ा सकते हैं जो असल ज्ञान के हिसाब से कहें तो अंधकारयुग में गढ़े गये थे लेकिन यहां पे उन्हें यह भी सोचना चाहिये कि उनकी नास्तिकता उस ईश्वर के अकार्डिंग है— जिसे अनपढ़ और ज्ञान से महरूम इंसानों ने खुद गढ़ा है, जबकि इसके बजाय एक संभावना इस बात की भी तो है कि वाकई कोई क्रियेटर (आस्तिक की मान्यता में ईश्वर) हो और वह किसी इंसान की सीमित समझ से सिरे से बाहर हो…

  लेकिन यहां वे इस मान्यता के साथ ठीक आस्तिकों की तरह ही जड़ हो जाते हैं कि नहीं— कोई नहीं है। जबकि उनके पास भी इस दावे को साबित करने के लिये कोई पुख्ता प्रमाण नहीं। इस बिंदु पर आ कर वे उल्टे आस्तिक हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने भी आस्तिकों की तरह ही यह मान्यता/आस्था बना ली है कि सबकुछ सेल्फमेड है, ऑटोमेटिक है और कोई भी इसका क्रियेटर नहीं हो सकता।

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Written by Ashfaq Ahmad

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