आस्था बनाम तर्क

धर्म और तर्क एक साथ नहीं चल सकते

यह तो हुई तमाम तरह की संभावनाओं की बात… अब आइये यथार्थ में। हम जिस धर्म में पैदा होते हैं हमेशा उसे ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और किसी मुस्लिम धर्म में पैदा हुए बन्दे को लगता है कि वही ‘सही’ धर्म में पैदा हुआ है जबकि किसी हिन्दू धर्म में पैदा हुए व्यक्ति को लगता है कि वह ‘सही धर्म में पैदा हुआ है और बाकी के सारे धर्म और उनके मानने वाले गलत हैं। अलग-अलग बाड़ों में कैद लोगों की मानसिकता बस ‘अपना ही श्रेष्ठ है’ से शुरू हो कर इसी पर ख़त्म होती है। दुनिया में बहुत बड़ी तादाद ऐसे ही लोगों की है और मज़े की बात यह कि अपनी अंधभक्ति और अंध श्रद्धा के चलते वे हर तरह की इल्लोजिकल बात को बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं… ज़रा सोचिये कि कैसे वे हर तरह की शिक्षा से लैस होते हुए भी उन तमाम अतार्किक बातों पर अपनी स्वीकारोक्ति की मुहर लगा देते हैं—

आज हम किसी धार्मिक व्यक्ति के धर्म से परे की कोई अतार्किक बात कहते हैं तो वह ज़रा सा दिमाग लगाता है और उसे खारिज कर देता है लेकिन वही अतार्किक बात अगर उसे आसपास के दूसरे लोग कहें तो उस पर उस अतार्किक बात को सच मानने का दबाव बढ़ता चला जाता है और हो सकता है कि किसी मोड़ पर आ कर वह खुद उस अतार्किक बात को अपनी स्वीकारोक्ति दे बैठे… जबकि यह सभी धर्मों का एक सदियों पुराना पैटर्न है। बच्चा पैदा होता है तो उसके माँ बाप धर्म से जुडी तमाम तरह की अतार्किक बातें बचपन से उसे परोसना शुरू कर देते हैं। 

थोड़ा बड़ा होता है तो घर के बाकी लोग, रिश्तेदार वही अतार्किक बातें उसे कहते हैं, वह स्कूल कॉलेज पहुँचता है तो वहां भी वही सब बातें दोहराने वाले मिलते हैं और फिर नौकरी में जाता है तो वहां भी साथ के लोग उन्हीं बातों को दोहराते मिलते हैं और वह उन बातों को अपने अवचेतन तक में ऐसे समां लेता है कि सपने में भी उन बातों से इनकार नहीं कर सकता।

ऐसे हाल में धार्मिक दलदल से निकल पाना आसान नहीं होता और अगर कोई निकल पाता है तो ज़ाहिर है कि उसने कहीं तो इस पूरे पैटर्न के खिलाफ एक डिसीजन लिया था… सोचने का, सवाल करने का, जवाब ढूँढने का, हर धार्मिक कहानी को तर्क की कसौटी पर परखने का… और यही मंथन है जिसके परिणामस्वरूप एक इंसान का सामना आस्तिकता से परे जा कर वास्तविकता से होता है।

एक मुस्लिम के तौर पर अगर आप इस मंथन में कूदना चाहते हैं तो मेरे साथ आइये और सोचिये, समझिये कि सच क्या हो सकता है… जो बातें सहज रूप से उलझाती हैं, उन पर मनन कीजिये और किसी और से न सही तो खुद से सवाल कीजिये।

क्या खुदा का सर्वज्ञ होना इस कहानी से साबित होता है

सबसे पहले आइये कुरआन की सूरे बकरा में मौजूद एक कहानी पर… जो कि बताती है कि कैसे खुदा ने आदम को बनाया और इब्लीस समेत सभी फरिश्तों से उसे सजदा करने को कहा, लेकिन इब्लीस ने इनकार कर दिया और जिसकी परिणति उसकी शैतान के रूप में मान्यता पर हुई— इसी कहानी को अगर हम थोड़े प्रतीकात्मक तरीके से सोचें तो यह कुछ यूँ बनेगी…

मान लीजिये आप एक अंबानी टाईप कोई हस्ती हैं— सौ एकड़ में आपकी हवेली बनी हुई है, जिसमें अतिथियों के लिये रेस्ट हाऊस, पार्क, स्वीमिंग पूल जैसा सब इंतजाम है। साथ ही आप एक धर्मगुरू के तौर पर भी जाने जाते हैं और आपने दावा कर रखा है कि आपको न सिर्फ लोगों के मन की बात पता रहती है, बल्कि भविष्य में क्या होगा, वह भी आपकी जानकारी में रहता है।

आपने दो बेटे पैदा किये हैं— एक दिन आप घर के सभी नौकरों के बीच दोनों बेटों को सामने बुला कर बड़े बेटे और नौकरों से कहते हैं कि छोटे बेटे को पापा कहो… यहां बड़े बेटे या नौकरों का ‘पापा’ कहना या ‘पापा’ मान लेना महत्वपूर्ण नहीं है, आपके आदेश का पालन महत्वपूर्ण है—

लेकिन बड़े बेटे को यह गवारा नहीं होता कि वह अपने ही पिता के बेटे और अपने छोटे भाई को पापा कहे— जहां बाकी नौकर बे चूं चरां छोटे बेटे को पापा तस्लीम कर लेते हैं, वहीं बड़ा बेटा साफ इनकार कर देता है और आप खफा हो जाते हैं और अपने बड़े बेटे को ‘कुपुत्र’ करार देते हैं और उसके लिये ‘जेल’ की सजा का फैसला करते हैं। 

आपका एक कंप्यूटर है, जिसमें आपने अपनी जरूरी जानकारियाँ जुटा रखी हैं और आपने घर में सबसे कह रखा है कि घर की भले सब चीजें छूना, इस्तेमाल करना लेकिन इस कंप्यूटर को न छेड़ना। अब ‘कुपुत्र’ हो चुके बड़े बेटे ने छोटे को ऐसा उकसाया कि उसने कंप्यूटर खोल के देख लिया।

पता चलते ही आपके गुस्से की सीमा न रही और आपने दोनों सुपुत्र और कुपुत्र को हवेली से यह कहते हुए बाहर निकाल दिया कि अब उन्हें हवेली से बाहर बने रेस्ट हाऊस में रहना है— एक निश्चित वक्त तक और फिर उन्हें वापस हवेली में एंट्री मिलेगी।

छोटे बेटे ने चूँकि माफी माँग ली थी तो आपने उसे आश्वासन दिया है कि उसकी आल औलादों को फलाँ-फलाँ काम करने हैं— जिससे न सिर्फ उन्हें हवेली में वापस एंट्री मिलेगी, बल्कि इनामो इकराम से भी नवाजा जायेगा। साथ ही बड़े कुपुत्र को भी एक मौका दिया कि वह तो जेल जायेगा ही, साथ ही वह छोटे की आल औलादों में जितनों को बहका लेगा— उन सबको भी अपने साथ जेल ले जायेगा।

क्यों खुदा को हमेशा अहसान जताने की ज़रुरत है

अब वे वहां रहना शुरू करते हैं लेकिन आप बार-बार छोटे बेटे और उसकी औलादों को यह बताते हुए अहसान जताते हैं कि देखो हमने तुम्हारे लिये यह घर बनाया— यह पार्क, पानी से भरा पूल बनवाया… यह एलसीडी, केबिल, मिनिप्लेक्स, वेज और नानवेज डिशेज का इंतजाम किया— यह रेमंड, रीड एंड टेलर के कपड़े, रोलैंड वाचेस, रे बेन चश्मे, नाईकी के शूज जैसी चीजें दीं।

अब यहां कुछ उलझनें पैदा होती हैं— पहला प्रश्नचिह्न आपके सबकुछ जानने पर लग जायेगा कि आपको पता ही नहीं था कि आपके आह्वान पर बड़े बेटे का रियेक्शन क्या होगा, वर्ना पता था तो या आप ऐसा कुछ कहते नहीं जिसकी अवहेलना हो या फिर आपको इतना गुस्सा न आता कि अवहेलना करने पर बड़े बेटे को ‘कुपुत्र’ घोषित कर देते।

दूसरी उलझन यह कि बड़े बेटे का आपके आह्वान पर छोटे को ‘पापा’ मानने से मुकरना एक आकस्मिक घटना थी, जो कि बड़े बेटे के थोड़ा झुक जाने पर टल सकती थी— इसलिये रेस्टहाऊस और वहां की सुविधाओं के लिये छोटे पर आपका अहसान जताना झूठ साबित हो जायेगा… अगर बड़का ‘पापा’ मान लेता तो यह चीजें निरर्थक थीं। फिर पहले से बन चुकी चीजों के लिये, यह डायलाग कि हमने तुम्हारे लिये बनाया— स्वतः ही खारिज हो जायेगा।

तीसरी उलझन यह कि एक संभावना के तहत मान लें कि आपको सबकुछ पता था और आपने सब जानते बूझते किया था तो फिर एक बेटे को ‘कुपुत्र’ का खिताब, दोनों बेटों को हवेली से निकालने की सजा देना और कुपुत्र और उसके बहकाये में आये छोटे बेटे की औलादों के लिये जेल की सजा का ताय्युन उनके साथ ज्यादती है।

आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic

ज़ाहिर है कि खुद पर यह कहानी अप्लाई करेंगे तो आपको खुद से अपना यह व्यवहार हज़म नहीं होगा लेकिन मज़हब के नाम पर इसी कहानी को आप बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं।

अब अगर आप इस तरह के सवाल किसी धार्मिक व्यक्ति या मौलाना आदि से करते हैं तो सबसे पहली संभावना इस बात की बनती है कि आपको काफ़िर, मुनाफिक या नास्तिक का खिताब दिया जा सकता है जो कि मुसलामानों में सबसे आम रिवाज़ है, क्योंकि इस्लाम में इस तरह के सवालों को सोचने या करने की इज़ाज़त ही नहीं है। खैर… चलिये इस इलज़ाम पे बात करते हैं क्योंकि इस एक शब्द ‘नास्तिक’ पे भी बड़ा कन्फ्यूज़न रहता है।

नास्तिक का अर्थ क्या होना चाहिये

एक वह शख्स होता है— जो खुद को नास्तिक कहता तो है, जिसे आप भी नास्तिक के रूप में ही कैटेगराईज करते हैं… लेकिन वह न सिर्फ स्थापित भगवान/खुदा और उनसे जुड़ी मान्यताओं का उपहास उड़ाने में लगा रहता है— बल्कि उनमें आस्था रखने वालों को भी अपमानित करने में लगा रहता है, तो वह नास्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि उपहास उड़ाने के लिये वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार्यता दे रहा है— जब ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार रहा है तो नास्तिक होने की पहली शर्त ही नहीं पूरी कर रहा। नास्तिक वह है जिसकी कोई आस्था ही न हो… जब आस्था ही नहीं तो फिर किसी चीज का उपहास क्या उड़ाना।

अब ऐसा कोई शख्स सामने आता है तो आस्थावादी उससे सबसे पहली अपेक्षा यह करते हैं कि वह बताये कि वह खुद शादी कैसे करेगा— मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा, क्योंकि इनसे जुड़े संस्कार किसी न किसी धर्म को रिप्रजेंट करते हैं।

यह असल में एक तरह की बेवकूफी है कि जिसकी कोई आस्था ही नहीं, उससे आप रीति संस्कारों की डिमांड कर रहे हैं—  मतलब आप उससे अपेक्षा कर रहे हैं कि वह भी विवाह या अंतिम संस्कार के लिये कोई रीति संस्कार तय करें और उसके जैसी विचारधारा वाले उन्हीं के अनुसार सबकुछ करें। फिर तो यह नास्तिकत्व भी एक अलग पंथ हो जायेगा।

फिर बंदा आस्था ही तय कर लेगा तो नास्तिक का मतलब क्या रह गया— नास्तिकत्व एक व्यक्तिगत सोच, निजी जीवनशैली है न कि कोई पंथ। अगर मैं कहूँ कि मैं नास्तिक हूं तो इसकी यह शर्त कभी नहीं होगी कि मेरी पत्नी भी नास्तिक होनी चाहिये— कि मेरे माता पिता भी नास्तिक होने चाहिये। विवाह के लिये मेरी किसी कर्मकांड में मेरी आस्था भले न हो, लेकिन अगर पार्टनर की है तो मुझे उसकी आस्था से प्राब्लम क्यों होगी?

आप निकाह करवा दो, फेरे पड़वा दो, कोर्ट मैरिज करवा दो— क्या फर्क पड़ना? जिसे रिश्ता निभाना है वह बिना इन कर्मकांड के भी निभा ले जायेगा, जैसे शादी के चलन से पहले निभाते थे और जिन्हें नहीं निभाना, वह इन धार्मिक कर्मकांड के बावजूद भी नहीं निभाते, दुनिया में होने वाले लाखों तलाक इस बात के गवाह हैं।

रही बात मरने के बाद अंतिम संस्कार की तो सांस थमते ही मैं खत्म, मेरी चेतना खत्म— फिर मुझे क्या फर्क पड़ना कि मुझे जलाया गया, दफनाया गया, चील कव्वों को खिला दिया गया या मेडिकल स्टूडेंट्स को दे दिया गया…

इसकी परवाह उन्हें होती है जिन्हें मरने के बाद के जीवन की परवाह होती है। जिसकी इस चीज में आस्था ही नहीं उसे क्या फर्क पड़ना… यहां भी मरने वाले के आसपास के लोग मैटर करते हैं कि वे दाह संस्कार अपनी आस्था के हिसाब से ही करेंगे तो मुझे उनकी आस्था से एतराज क्यों हो?

एक नास्तिक की पत्नी आस्थावान हो सकती है— उसके माता पिता आस्थावान हो सकते हैं।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा फाईनल

धार्मिक विद्वान हर बात का अर्थ अपने हिसाब से ही निकालते हैं

  आपने ‘जुदाई‘ फिल्म देखी है— जहां उपासना सिंह की ‘अब्बा डब्बा जब्बा‘ का अर्थ जानी लीवर अपने अंदाज में प्रेम स्वीकृति के तौर पर निकालते हैं… आजकल इसी टाईप के धार्मिक विद्वान भी पाये जाते हैं जो सिंबोलिक भाषा में कहे गये श्लोक या आयत का अर्थ इसी अंदाज में कुछ का कुछ निकालते हैं।

  ज्यादातर धार्मिक विद्वान जानी लीवर ही हैं ‘अब्बा डब्बा जब्बा‘ का अर्थ अपने हिसाब से बताने वाले.. मान लीजिये सौ बातें कही गयी होंगी, तो अस्सी अगर गलत साबित हो गयी तो उन्हें मिट्टी डाल कर दबा देंगे लेकिन जो बीस सही साबित हो गयीं (तुक्के के रूप में) तो उनका ढोल नगाड़े बजा कर प्रचार प्रसार करेंगे।

  अच्छा एक विडंबना यह भी देखिये कि आज की तारीख में मुसलमान यहूदियों को सबसे खतरनाक कौम मानते हैं कि यह लोग जो न कर जायें कम हैं— उनके किसी भी लिखे पढ़े को सिरे से खारिज कर देंगे, लेकिन अतीत में इन्हीं यहूदियों के धर्म के नाम पे रची गढ़ी गयी लनतरानियों को खुले दिल से अपना लिया— क्योंकि वहां अपना स्वार्थ था। 

  यह आदम हव्वा, इब्राहीम, लूत, मूसा, दाऊद, सुलेमान, जबूर, तौरात जैसा सारा साहित्य उन्हीं का रचा गढ़ा था… वर्ना यह सब लोग अपने दौर में कबीला प्रमुख, और आगे के दौर में राजा थे, जो अक्सर खुद को ईश्वर का अवतार या संदेशवाहक साबित करने के लिये कहानियाँ गढ़वा कर जन जन में प्रचारित करवाते थे, ताकि उनकी सत्ता को चुनौती न मिल सके या दूसरे स्वार्थ सिद्ध हो सकें।

ज्यादातर धार्मिक साहित्य सिर्फ महिमामंडन के लिये होता है   

  भारत में भी मौर्य काल से ले कर शुंगकाल तक (धर्म से जुड़े) और खिलजी से लेकर औरंगजेब तक (निजी महिमामंडन और राजनीति से जुड़े) यही तमाशे दोहराये गये— वर्ना ईश्वर इतना पक्षपाती तो नहीं हो सकता कि भारत में अवतार भेजने के लिये एक भी अवर्ण जाति न चिन्हित करता या पश्चिम एशिया में सब बाप बेटे भाई ही पैगम्बर होते। मतलब इतनी बड़ी सभ्यताओं, आबादियों में उसे अब्राहम का घराना ही मिला था कि एक के बाद एक पैगम्बर उसी वंश में पैदा होते रहे। 

  आपको यह अजीब इत्तेफाक नहीं लगता? एसा नहीं लगता कि गांधी फैमिली की तरह पैगम्बरी भी कोई वंशवादी परंपरा की तरह चली आ रही हो कि बाप के बाद बेटा या भाई के साथ भाई ही पैगम्बर बनेगा— इब्राहीम से ले कर मुहम्मद तक लगभग सभी एक उसी वंशवादी बेल का हिस्सा हैं— आपको ईश्वर भी इंसान जैसी सीमित बुद्धि वाला लगता है?

  किसी एक ने शुरुआती दौर में एक फार्मेट सेट किया ईश्वरीय अवतार या ईशदूत का और अगले सब उसी दुम को पकड़ कर लटकते गये। चूँकि लिखा सब ईसा के आसपास गया और उससे पहले बस जनश्रुतियों में ही जिंदा रहा तो लिखते टाईम उस कंटेंट को यहूदियों ने अपने मुआफिक एडजस्ट करके लिख दिया और आगे यह सिलसिला चलता रहे, इसलिये अगले मसीह की भविष्यवाणी कर दी— जिसे पकड़ कर ईसा लटक गये।

  यहां से ट्विस्ट यह आ गया कि अब सब लिखित इतिहास तैयार हो रहा था तो ईसा को कैसे मसीह की मान्यता दे देते— नतीजे में हाईवोल्टेज ड्रामा क्रियेट हुआ और बाद में जब ईसा के फॉलोवर्स ने अपनी बाइबिल (न्यू टेस्टामेंट) लिखी तो उसमें पुराना सब वेरिफाई कर दिया— क्यों? क्योंकि यह उनके खुद के वेरिफिकेशन के लिये जरूरी था— इसी से तो उनकी इब्राहीम वंश में पैगम्बरी साबित होनी थी। जबकि पीछे वाले (ओल्ड टेस्टामेंट) आज तक ईसा के मसीह होने से इनकार करते रहे हैं और हमेशा से उन्हें झूठा ठहराया।

  यही काम सातवीं शताब्दी में मुहम्मद साहब ने किया— खुद किया या उनके चाहने वालों ने किया, यह तो अतीत में दफन है— लेकिन जो साफ जाहिर है वह यह उन्होंने उसी सिलसिले को आगे बढ़ाया। जिन यहूदियों से तब से आज तक मुसलमान नफरत करते आये हैं, उन्हीं के कंटेंट पर वेरिफाईड की मुहर लगा दी— क्यों? क्योंकि यह खुद की प्रमाणिकता के लिये जरूरी था। पर यहां भी वही पेंच हुआ कि पीछे वालों ने (ईसाइयों यहूदियों) ने उन्हें अपने कांसेप्ट की अगली कड़ी मानने से इनकार कर दिया और एक झूठा व्यक्ति ठहराया जिसने उनके कांसेप्ट और ईशदूतों को हर लिया।

इस उधार के साहित्य में मनमाफिक एडिटिंग की गयी

  इस लेने देने में काफी एडिटिंग भी की गयी वक्त जरूरत के हिसाब से— दो संक्षिप्त उदाहरण दे रहा हूं। यहूदियों ने साफ लिखा कि यहोवा ने इब्राहीम को सपने में बेटे की कुर्बानी का आदेश दिया तो वे इसहाक (उनके कांसेप्ट में सारा पुत्र इसहाक ही पुत्र था, जबकि इस्माईल लौंडी हाजरा पुत्र) को ले के बलि के सामान सहित चल पड़े और इसहाक के पूछने पर कि हम बलि किसकी देंगे— जवाब मिला कि जिसने आदेश दिया है वह इंतजाम करेगा और बलि स्थल पर पंहुच कर इसहाक को बांध कर डाल दिया… जबकि उसी कथा को अडॉप्ट करते हुए मुसलमानों ने एक तो इसहाक की जगह इस्माईल कर दिया— फिर यह जताया कि पूछने पर इब्राहीम ने सच बात बता दी थी और इस्माईल खुद से तैयार हो गये थे। आखिर इस्माईल को महान भी साबित करना था।

  इसी तरह एनल सैक्स के दीवाने, पैगम्बर लूत के नगरवासियों को पत्थरों की बारिश से धंसा दिया (जिस जगह अब डेड सी बताते हैं) क्योंकि गुदामैथुन ईश्वर की नजर में पाप था तो इतनी कहानी तो ले ली— लेकिन आगे की कहानी डिडक्ट कर दी… क्योंकि इस कहानी का बेस नैतिकता था और आगे की कहानी में नैतिकता की धज्जियां उड़ गयी थीं जहां पुरुष संसर्ग को तरसती उनकी दोनों बेटियों ने उन्हें शराब पिला कर उनसे सहवास किया और आगे उनकी संतानें पैदा की। यानि यह कहां सूट करता कि एक पैगम्बर शराब पी कर बेटियों के साथ संसर्ग कर रहा है तो उस हिस्से को हटा ही दिया।

  बहरहाल सदियों तक दोहराई जाने वाली कहानियाँ अपने आप सच मान ली जाती हैं और फिर उन्हें सच ठहराने के लिये दसियों तरह के सबूत गढ़ लिये जाते हैं और उन कहानियों वाले ‘अब्बा डब्बा जब्बा‘ के अपनी सुविधानुसार ट्रांसलेशन तैयार कर लिये जाते हैं— अगर आप एकदम न्यूट्रल हो कर किसी भी धर्म का साहित्य पढ़ेंगे तो आपको पचासों जगह विरोधाभास और होल नजर आयेंगे, जिन्हें उस धर्म के इंजीनियर पैबन्द लगा-लगा कर आपको दिखाने की कोशिश करेंगे।

  आर्य और सेमिटिक दोनों एक ही धारा से निकले हैं लेकिन इस मामले में मैं आर्यों को डेढ़ सयाना कहूँगा कि उन्होंने ईश्वर को बड़े फिलॉस्फिकल वे में गढ़ा कि सदियों बाद भी वे हर तरह से उसे जस्टिफाई कर सकें, (वर्तमान आधुनिक हिंदू नहीं, वैदिक धर्म/आर्यसमाजी)— जबकि सेमिटिक वालों ने यहोवा के रूप में जो ईश्वर को गढ़ने की शुरुआत की, तो पहले ही कदम पे किसी महाशक्ति के बजाय कोई कार्टून बना के रख दिया। मुसलमानों ने अंतिम लाईन पर होने की वजह से उस छवि में सुधार तो किये लेकिन निराकार बताने के बाद भी आस्मान लपेटने वाले हाथ और सिंहासन बताने जैसी चूक कर गये, जिसे रफू करने के लिये इंजीनियरों को ‘अब्बा डब्बा जब्बा’ वाली पद्धति का सहारा लेना पड़ता है।

अवतारों को गुरु की नज़र से ज़रूर देख सकते हैं

  बाकी ईसा मुहम्मद को अगर समझना ही है तो उन्हें वैसे गुरू की नजर से देखना होगा जैसे सिख देखते हैं— अगर चमत्कार और दैवीय शक्तियों के मोहपाश में बंध कर उन्हें देखेंगे तो शायद कभी नहीं समझ पायेंगे। अपने वक्त के वे समाज सुधारक थे, बागी थे, क्रांतिकारी थे लेकिन बाद में लिखने वालों ने उनके महिमामंडन के लिये उनके साथ ढेरों ऐसी बातें जोड़ दीं जिससे उनकी क्रेडिब्लिटी ही संदिग्ध हो गयी— इसका दोष बाद में लिखने वालों पर है न कि उन पर। इसी तरह वे धार्मिक किताबें हैं जिन्हें पढ़ते वक्त आपको उनके मकसद पे ध्यान देना होगा न कि उनकी कहानियों पर।

  अगर आप इन महापुरुषों को गुरू की जगह रखेंगे तो आप यह समझ सकेंगे कि वे भी इंसान ही थे तो जाहिर है कि सौ खूबियों के साथ उनमें कुछ कमियां भी हो सकती हैं— या उनकी कमियों को पर फोकस करेंगे भी तो उनके परिस्थितिजन्य कारण भी समझ में आयेंगे। इसे कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं— दुनिया में अंधश्रद्धा का कोई तोड़ नहीं। हर कोई किसी अनदेखी ईश्वरीय शक्ति पर आंख बंद किये यकीन करने को तैयार बैठा है… ऐसे में आपके आसपास के लोगों की तरफ आपका ध्यान जाता है और आप पाते हैं कि वे जंगली हैं, असभ्य हैं, बर्बर हैं और हर नियम कायदे से दूर हैं— उनकी जिंदगी उनके तरीकों की वजह से ही अनिश्चित और असुरक्षित है और आप उनमें सुधार करना चाहते हैं।

  तो इतना तो आपको पता होगा कि ऐसे कोई आपकी बात नहीं सुनेगा, क्योंकि आप उन्हीं के समान उनके बीच के शख्स हैं— क्या अलग है आपमें जो वे आपकी बात सुनें? ऐसे में आप खुद के ईश्वरीय अवतार होने का दावा करके लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं— पीछे से चली आ रही कहानियों पर ‘वेरीफाईड’ की मुहर लगा कर अपनी प्रमाणिकता साबित कर सकते हैं। इससे आपको संघर्ष तो करना पड़ेगा लेकिन आपकी शख्सियत उनसे अलग हो जायेगी। यहां आपके दावे अहम नहीं, आपका मकसद अहम है जो किसी तरह की स्वार्थ सिद्धि पर नहीं टिका, बल्कि लोगों की भलाई पर टिका है। हालाँकि इसके लिये कलेजा चाहिये, क्योकि इस मकसद के लिये आपको अपने सपने, अपना भविष्य और अपने निजी जीवन से जुड़ी सब उम्मीदें कुर्बान करनी पड़ेंगी।

  और फिर उन बिगड़े लोगों को बाज रखने के लिये मान लीजिये आप उन्हें सपने दिखाते हैं कि आप जो यहां शराब पीते हैं, यह न पियें क्योंकि इससे न सिर्फ आपके बल्कि आपके परिवार पर भी नकारात्मक असर पड़ता है— यहां कंट्रोल कीजिये, स्वर्ग में आपको नदियाँ मिलेंगी शराब की। या फिर यहां जो आप यह अय्याशियां करते हो, दूसरों के घरों की बहू बेटियों को खराब करते हो— यह मत करो, और यकीन करो कि अगर यहां अपनी नफ्स पर नियंत्रण रख के पाकीजगी से जीवन गुजार लिये तो मरने के बाद जन्नत में ढेरों हूरें मिलेंगी। हो सकता है यह दावें झूठ हों, क्योंकि किसी ने इन्हें देखा नहीं लेकिन इनसे होने वाले सुधार तो जमीन पर ही देखे जा सकते हैं।

  यह तो कालांतर में अगली पीढ़ियों का दोष रहा कि वे मकसद भुला बैठीं और दावे पकड़ कर बैठ गयीं और अपने स्वार्थ के लिये (जैसे आतंकी,जिहाद के लिये शहादत, बहत्तर हूर, जन्नत का लालच) उन्हीं चीजों का प्रचार प्रसार किया। सोचिये कि नमाज का मतलब वह सलात थी कि जहां इंसान कुछ पल के लिये मेडिटेशन के सहारे अपने आसपास ब्रह्म तत्व के रूप में मौजूद ईश्वर से जुड़ सके, लेकिन फर्जी तौर पर नमाजें तहाते लोग नमाजों में नियत बांधे खड़े लोगों को, मस्जिद के पंखों और चटाइयों को देखते दुनिया भर के हिसाब किताब जोड़ते रहते हैं.. यही हाल पूजा पाठ करते, मंदिरों में घंटे बजाते हिंदुओं का है जिनके पास ध्यान की कला होते हुए भी वे फर्जी पाखंडों में फंसे हुए हैं।

धार्मिक किताबों से भी सीख ली जा सकती है 

  ऐसे ही सब किताबें थी— जिनके मकसद अपने दौर में, अपने आसपास की परिस्थितियों के हिसाब से रास्ता दिखाना था, नियम संचालन तय करना था लेकिन वे कभी असरकारक न बन पाईं— क्यों? क्योंकि लोगों ने उनके मकसद को समझने के बजाय उन्हें रट्टा मारने की चीज बना लिया। जब सभी धर्म प्यार, अमन और भाईचारे का संदेश देते हैं तो आखिर दुनिया में इतनी अफरा तफरी क्यों है? जब सभी धार्मिक किताबें आपको श्रेष्ठ आचरण की शिक्षा देती हैं तो दुनिया में इनके मानने वाले बुराइयों से भरे क्यों हैं— नफरत से भरे क्यों हैं? इस हिसाब से देखेंगे तो धर्म तो इंसान को देवतातुल्य बनाने के लिये डिजाइन किये गये थे, फिर उनसे असुरी प्रवृत्तियों वाले शैतान कैसे निकल रहे हैं?

  आखिर आज पूरी दुनिया में इतनी नफरत, इतनी हिंसा, इतनी मारकाट क्यों हैं— क्योंकि जिन धर्मों के सहारे सामाजिक व्यवस्था तय करने की उम्मीद की गयी थी— वे फेल हो गये। यां यूँ कहिये कि धर्म नहीं फेल हुए, उनके मकसद को समझने में लोग फेल हो गये और यही वजह है कि दिखावे के तौर पर लोग धार्मिक तो बने हुए हैं, दिन रात धर्म का पाखंड कर रहे हैं लेकिन फिर भी उनके जीवन में अशांति है, नफरत है, पिछड़ापन है और पश्चिम की वे आबादियां जो नास्तिक कही जाती हैं, उन्होंने धर्म के मूल को साध लिया और वे हमसे हर हाल में बेहतर जीवन जी रहे हैं।

  धर्म हर्गिज वह नहीं जो लाखों शब्दों से भरी बकैतियों के रूप में उसके ठेकेदार आपको समझाते हैं बल्कि वह है जो आपके स्वभाव में छुपा है, लेकिन जिसे आप जब तब दबाते रहते हैं क्योंकि वह आपके हित या स्वार्थ से टकराता रहता है.. और ईश्वर अगर है तो कहीं किसी जादूगर या जल्लाद की तरह आस्मान पर बैठ कर आपको देख नहीं रहा, बल्कि आपके आसपास है, आपमें है।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 9

तब पृथ्वी एक चपटे चबूतरे के सामान थी

कहने का मतलब उस वक्त आम तौर पर धारणा यही थी कि पृथ्वी चपटी चबूतरे समान थी और उसके पार समुद्र था जहां उनके हिसाब से दुनिया खत्म हो जाती थी। पृथ्वी के समुद्र में डूबने और विष्णु के वरह अवतार लेकर पृथ्वी को निकालने की कथा या हनुमान जी के सूर्य को निगल लेने की कहानी इसी अवधारणा पर थी। आस्मान एक गैसीय छत थी जहां नक्षत्र और सूर्य किसी अलौकिक चमत्कार से टिके हुए थे, जो इस जमीन की परिक्रमा करते थे— ज्योतिष इन्हीं नक्षत्रों की गणना पर आधारित था। अब ऐसे में ईश्वर या देवता इंसानों से अलग पहाड़ों पर ही रह सकते थे।

  कुरान तक आते-आते थोड़ी बुद्धि विकसित हो चुकी थी तो पुराने मसाले को अडॉप्ट करते हुए भी उन्होंने एडिट करके सबकुछ जमीन से हटा दिया— बाकी आस्मान को लेकर फिर भी उसी अवधारणा के साथ स्टिक रहे और बाकायदा मल्टी स्टोरी बिल्डिंग की तरह उसके सात तल तय कर दिये, जहां छः तक कुछ पैगम्बरों को अलॉट करके सातवें पर ईश्वर को बिठा दिया।

  जब इस नजर से कुरान की वह सब आयतें जो आस्मान को लेकर कही गयीं है, साफ तौर पर समझ में आ जायेंगी लेकिन अब जब पृथ्वी और यूनिवर्स का कांसेप्ट क्लियर हो चुका है तो उन आयतों को विज्ञानसम्मत बनाने के लिये कहीं के कुलाबे कहीं मिला दिये जाते हैं। साथ ही एडिटिंग न कर पाने की बाध्यता के चलते ब्रैकेट बना कर अपने मतलब की बात साबित कर लेते हैं— मसलन कहा यह जाता है कि सब सूरज तारे अपना सफर पूरा कर रहे हैं— यानि उसी अवधारणा के हिसाब से, लेकिन आज वालों ने बीच में ब्रैकेट लगा कर मदार/कक्ष लिख दिया, जिससे साबित हो सके कि हमने तो पहले ही बता दिया था कि तारे और ग्रह सब अपने कक्ष पर परिक्रमा कर रहे हैं।

जानिये इंसान के पृथ्वी पर सफ़र को

हदीसों की विश्वसनीयता कितनी है

  हालाँकि इसमें कई अवैज्ञानिक हदीसें (आस्मान से संबंधित,मेराज, बुर्राकसूरज के सिंहासन के पीछे छुपने, ग्रहण के टाईम डरने, विशेष नमाज पढ़ने, कयामत की निशानी मानने जैसी)— रोड़ा बनती हैं तो उनसे निपटने के लिये अब एक नया शोशा गढ़ लिये हैं कि एक कमेटी हदीसों की जांच कर रही है कि फलाँ हदीस किन किन रावियों (हदीस आगे बढ़ाने वाले) से गुजरी है और उनकी क्रेडिब्लिटी क्या है और उनका सहारा ले कर किन हदीसों/वाकयों को रद्द किया जा सकता है।

  यानि नौवीं शताब्दी में लिखी गयी हदीसों के रावियों की क्रेडिब्लिटी तब न लोगों की समझ में आई— बारह सौ साल बाद अब उनकी क्रेडिब्लिटी चेक की जा रही है।

  पृथ्वी से बाहर की दशा जानने का काम गैलीलियो के दौर में हुआ, जब लिपर्शे की साधारण दूरबीन को परिष्कृत कर के गैलीलियो ने स्पेस में झांकना शुरू किया— हालाँकि इस सिलसिले को पंद्रहवीं शताब्दी में पोलैंड के खगोल विज्ञानी निकोलस कॉपरनिकस ने शुरू किया था, जिसे आठ साल जेल में बंद रह कर और अंततः आग में जल कर ब्रूनो ने आगे बढ़ाया और आखिरकार गैलीलियो ने कॉपरनिकस की थ्योरी पर मुहर लगा दी।

  और उसके बाद से धार्मिक विद्वान (खासकर हिंदू मुस्लिम) लगातार तड़प रहे हैं कि किन कोशिशों और किन प्रतीकात्मक वाक्यों को तोड़ मरोड़ कर यह साबित कर सकें कि कॉपरनिकसब्रूनो और गैलीलियो ने तो बहुत बाद में बताया— हम तो हजारों साल पहले यह बता चुके थे।

  यहां दो मजेदार तथ्य आप और नोट कर लीजिये— बाईबिल के दोनों संस्करणों में जो आदम से ले कर अब्राहम तक वंशावली बताई है, उसके हिसाब से गणना करेंगे तो सृष्टि की रचना ज्यादा से ज्यादा दस हजार साल पहले ही हुई मिलेगी— जबकि कई लाख साल पहले तक के मानव जीवाश्म और छः करोड़ साल पहले के डायनासोर के जीवाश्म तक मिल चुके हैं..

  और दुनिया के सारे धार्मिक ग्रंथ भले दुनिया में इंसानी सभ्यता सृष्टि की रचना के साथ शुरु हुई बताते हों लेकिन मैमथ और डायनासोर जैसे भारी भरकम जानवरों के बारे में एक लफ्ज नहीं बता पाते— जिनका कभी पृथ्वी पर एकछत्र राज था।

आखिर हमारे ग्रह से बाहर ब्रह्माण्ड में कौन कौन सी संभावनायें हैं

फिरौन की ममी और मुसलमान

  इस्लामिक वर्ल्ड में एक कहानी और भी बड़ी फेमस है, जो कि कुरान के एक चमत्कार से रिलेटेड है कि कैसे दुनिया को इबरत देने के लिये खुदा ने फिरौन की लाश को एक एग्जाम्पल बना के पेश किया।

  इसके साथ एक कहानी पेश की जाती है (इसे आगे मैं “मीम स्टोरी” के रूप में संबोधित करूँगा) कि कैसे लाल सागर के किनारे एक लाश बरामद हुई और मुसलमानों ने इस पर फिरौन का दावा करना शुरू कर दिया— फिर एक इसाई डॉक्टर/ऑथर Maurice Bucaille ने इस लाश पर परीक्षण किये और यह जान कर कि मुसलमानों के दावे में सच्चाई है, खुद मुसलमान हो गया। इस कहानी में कई तरह के मसाले लगा कर इसे पेश किया जाता है। अब इसमें कितनी सच्चाई है— आप खुद इसपे गौर कर लीजिये।

   इसमें पहला पेंच तो यही है कि फिरौन एक उपाधि है न कि नाम— कुरान या एग्जोडस (पार्ट ऑफ ओल्ड टेस्टामेंट) में बहिर्गमन या मूसा के साथ जिस फिरौन के संघर्ष का जिक्र है, उसका कोई काल या पहचान नहीं है लेकिन चूँकि मूसा का काल तीन हजार ईसा पूर्व माना जाता है और यह ममी भी उसी काल के आसपास की है तो संभावना तो बनती है, लेकिन यहां सेटी प्रथम या रेमेसिस द्वितीय, मेर्नेप्टेह में से यह कहानी किसके साथ जुड़ती है, इसका कहीं भी, कोई भी, कैसा भी सबूत उपलब्ध नहीं— जबकि यह चर्चित ममी रेमेसिस द्वितीय या मेर्नेप्टेह की है। एक्चुअली इस पूरे प्रकरण में रेमेसिस द्वितीय और मेर्नेप्टेह के बीच बड़ा कन्फ्यूजन है— बुकाय ने अपनी किताब में सारा जिक्र मेर्नेप्टेह का किया है, जबकि सारी चर्चा रेमेसिस द्वितीय की होती है।

  यहां एक दिक्कत इसमें भी है कि इतिहास में रेमेसिस द्वितीय, सेटी प्रथम के पुत्र के रूप में दर्ज है और मेर्नेप्टेहरेमेसिस के तेरहवें पुत्र के रूप में लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दोनों की कहानी में उनका अंत और ममी के साथ हुई घटनायें एक जैसी हैं। यह दिक्कत इस ममी के साथ भी है कि इतिहास में दर्ज विवरण के हिसाब से इसका चेहराMernepteh से भी मिलता है और Seti the Great से भी।

रेमेसिस का इतिहास एग्जोडस की कहानी से मेल नहीं खाता

  बहरहाल इस शख्स (रेमेसिस द्वितीय) को वैली ऑफ किंग्स के KV7 नामी मकबरे में दफनाया गया था, लेकिन वहां होती लूटपाट की वजह से उसकी ममी को वहां से हटाया गया— रीरैप्ड किया और क्वीन इनहापी के मकबरे में रख दिया… लेकिन 72 घंटे बाद ही इसे फिर हटाया गया और हाई प्रीस्टPinedjem 2nd के मकबरे (दायर अल बहरी स्थित) में सुरक्षित कर दिया गया— जहां और भी 50 से ज्यादा राजा, रानी और शाही फैमिली के लोगों की ममियां सुरक्षित थीं… यह जानकारी ममी को रैप करने वाले लिनन पर दर्ज है। यहां से उसे 1881 में जर्मन इजिप्टोलॉजिस्ट Emile Brugsch और Gaston Maspero ने इन्हें डिस्कवर किया।

  जबकि मेर्नेप्टेह को KV8में दफनाया गया था, लेकिन उसकी ममी वहां मिलने के बजाय Amenhotep 2nd के मकबरेKV35 में मिली थी, जिसे विक्टर लौरेट ने 18 दूसरी ममियों के साथ खोजा था और 1907 में, कायरो म्यूजियम में डा० जी. इलियट स्मिथ में जिसे अनरैप्ड और एग्जामिन किया।

  1974 में आर्कियोलॉजिस्ट ने अपने दौरे में पाया कि ममी की कंडीशन खराब हो रही थी और तब बाकायदा एक राजा के तौर पर उसका पासपोर्ट बना कर उसे पेरिस भेजा गया। जहां परीक्षण के दौरान यह पाया गया कि उस पर फंगस का अटैक हो रहा था, जिसका ट्रीटमेंट किया गया। फिर परीक्षण और साइंटिफिक अनैलेसिस से उसके शरीर में कुछ घाव और फ्रैक्चर्स की पुष्टि हुई। शरीर से यह स्पष्ट हुआ कि वह बुरी तरह अर्थराइटिस से पीड़ित था। हाल के अध्यन यह भी बताते हैं कि Ankylosing Spondylitis इसका कारण हो सकता है— जीवन के अंतिम दशक में वह Haunched back से भी पीड़ित था, साथ ही ही डेंटल इनफेक्शन की पुष्टि हुई और मौत का कारण इन्हीं चीजों को माना गया।

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रेमेसिस की लाश का ममिफिकेशन किया गया था

  यहां परीक्षण कर्ताओं का खास ध्यान ममी की पतली गर्दन की ओर गया— एक्सरे में पाया गया कि उसके अपर चेस्ट और सर के बीच एक लकड़ी फंसी है, जो सिर को स्थिर रखे है… इस पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि चूँकि इजिप्शन कल्चर में मृत्यु के बाद के जीवन में लोग विश्वास करते थे और खुद को ममी के रूप में सुरक्षित करवाते थे— ऐसे में उनकी मान्यता थी कि यदि कोई जाहिरी  अंग रह गया तो आत्मा मृत्यु के बाद के जीवन में एग्जिस्ट नहीं कर पायेगी… और ममीफिकेशन प्रोसेस के वक्त लाश का सर अपनी जगह से हट गया होगा तो उसे स्थिर रखने के लिये लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था।

  इसके बाद ममी को वापस कायरो पंहुचा दिया गया— जहां उसे कायरो म्युजियम में रखा गया और इजिप्शन राष्ट्रपति अनवर सादात और उनकी पत्नी ने ममी के दर्शन किये। यहां से उसे मूसा वाला फिरौन साबित करने की कोशिश शुरू हुई— जिसका मुख्य आधार ममी पर पाये जाने वाले समुद्री नमक के ट्रेसेज थे… तब इस पर कोई रिसर्च नहीं हुई कि कहीं यह नमक ममीफिकेशन प्रोसेस का हिस्सा तो नहीं। बुकाय के दिमाग में यह थ्योरी इस्लामिक विद्वान Yusuf Estes ने डाली थी, जब कायरो म्यूजियम में स्कॉलर्स के बीच बुकाय मेर्नेप्टेह की ममी पर, ममी को प्रीजर्व करने पर बात कर रहे थे।

  अब आइये मौरिस बुकाय पे— ‘मीम स्टोरी’ के हिसाब से बुकाय एक इसाई था और उसे इस्लाम या कुरान के बारे में कोई जानकारी पहले से नहीं थी (यूसुफ एस्टेस ने भी इस पर जोर दिया था)— जबकि इस रिसर्च के आसपास बुकाय सऊदी के शाह फैसल और रॉयल फैमिली के फैमिली फिजीशन थे और मिस्र के उस वक्त के शासक अनवर सादात भी उनके क्लायंट्स में थे, जिन्होंने बुकाय को शाही ममियों पर शोध के लिये विशेष छूट और सुविधा दी थी… बुकाय के निष्कर्ष से हालाँकि बाकी शोधकर्ता बिलकुल सहमत नहीं थे और उन्होंने इस पर सवाल भी उठाये थे।

 बुकाय ने फर्स्ट ऑफिशल रिपोर्ट में उसके डूब कर मरने की बात नहीं लिखी थी, लेकिन बाद में जो किताब लिखी “The Bible the Quran and Science” उसमें इस बात पर जोर दिया, जबकि फैक्ट से ज्यादा धार्मिक पूर्वाग्रह पर जोर था— हालाँकि एज यूजुअल इस्लामिक वर्ल्ड ने इस किताब को हाथों हाथ लिया, जबकि इस्लाम के बाहर इसकी तीखी आलोचना हुई। माना जाता है कि बुकाय ने इस्लाम में अपनी अलग पहचान बनाने और अनवर सादात और शाह फैसल जैसे शासकों में अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका सुलभ जान कर यह षटराग किया था और उसे वह सब हासिल भी हुआ।

मुसलामानों के दावे और तथ्य

  अब आइये ‘मीम स्टोरी’ के दावों पे— दावा है कि फिरौन की लाश रेड सी के किनारे पाई गयी, जबकि यह ममी pinedjem 2nd के मकबरे में पाई गयी थी। दावा है कि यह वही फिरौन है जो मूसा का पीछा करते समुद्र में डूब गया था— लेकिन न कुरान से यह क्लियर है न एग्जाडस से कि मूसा का संघर्ष सेटी प्रथमरेमेसिस द्वितीयमेर्नेप्टेह में से किसके साथ हुआ था, क्योंकि फिरौन या फराओ तो सभी थे और मजे की बात यह है कि इनमें से किसी की भी मौत डूबने से नहीं हुई थी।

  दावा है कि खुदा ने फिरौन की लाश नेचुरल तरीके से प्रिजर्व करके रखी, जबकि हकीकत यह है कि वह ममी है और बाकायदा ममीफिकेशन प्रोसेस से गुजर कर इस अवस्था तक पंहुची है। दावा है कि ममी पर समुद्री नमक के ट्रेसेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि उसकी मौत डूबने से हुई थी, लेकिन समुद्री नमक और बेकिंग सोडा मिक्सचर ममीफिकेशन प्रोसेस का हिस्सा थे जो और भी ममियों पर पाये गये।

  फिर मूसा वाला फिरौन मूसा का पीछा करते हुए डूब गया था, इस पर दावा है कि उसकी लाश बाद में निकाल ली गयी थी— इसे मान भी लिया जाये तो सवाल यह उठता है कि लाश को उन्होंने ऐसे ही तो असुरक्षित न छोड़ दिया होगा, जब उस दौर के आम पुजारी तक ममीफाईड हो कर सुरक्षित हो जाते थे तो अपने मृत शासक को वे क्यों न सुरक्षित करेंगे? हालाँकि इस बारे में कोई साक्ष्य नहीं मिलते कि डूबने के बाद उसकी लाश निकाली गयी थी, फिर असुरक्षित या सुरक्षित छोड़ी गयी थी— दूसरे यह कहानी भी पौराणिक है, जो एग्जाडस से निकली है और उस दौर के किसी भी शासक के साथ इस कहानी का वर्णन नहीं मिलता।

  और फिर भी अगर बुकाय समेत सारे दावों को (नेचुरल प्रिजर्व/ममीफाईड वाले हिस्से को छोड़ कर, क्योंकि वह ममी प्रूव्ड है) को मान भी लें तो कोई ममी किसी के लिये भी इबरत कैसे हो सकती है। यह तो इंसानी कारीगरी थी और प्राचीन मिस्रवासियों के लिये एक कला थी जिसके सहारे न सिर्फ शाही खानदान के लोग, रियासत के अमीर, पुजारी बल्कि आम समर्थ लोग भी अपने शरीर को सुरक्षित करवाते थे— जिसकी गवाह आज भी मौजूद ढेरों ममीज हैं— उनमें चमत्कार क्या है? इजिप्ट के अर्कियालोजी विभाग की सरकारी वेबसाईट पे रेमेसिस और बाकी दूसरी ममीज़ के बारे में पढ़ सकते हैं कि किसी की भी मौत समुद्र में डूबने से नहीं हुई थी।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 8

नूह की कश्ती और मनु की नाव

  एक और थोड़ी दिव्य घटना है जो सेमेटिक और आर्य दोनों से चिपकी हुई है— आखिर जड़ तो एक ही है दोनों की, लेकिन दोनों की कहानियों में थोड़ा विरोधाभास है। यह नूह उर्फ वैवस्वत मनु, जो सातवें मनु थे— से जुड़ी और जलप्रलय वाली कहानी है, जिसमें दोनों ने पूरे प्लेनेट को डुबा दिया था।

  विरोधाभास यह है कि जहां तौरात नूह की कश्ती को तुर्की के आरारात पर्वत पर टिका बताती है, वहीं मनु की कश्ती को गौरी शंकर चोटी (वर्तमान नाम माउंट एवरेस्ट) पर टिका बताया गया है— अब दोनों जगहें अलग हैं और दोनों कहानी एक जैसी हो कर भी एक नहीं हो सकती तो जाहिर है कि इस हिसाब से भी एक कहानी झूठी है, फिलहाल हम नूह की कहानी पर कंसन्ट्रेट करते हैं।

  तौरात के शुरुआती चैप्टर में ही इस घटना का जिक्र है जहां नूह तीन सौ हाथ लंबी, पचास हाथ चौड़ी और तीस हाथ ऊंची कश्ती बनाते हैं— नाप का खास जिक्र इसलिये कि आप समझ सकें कि किसी जहाज के लिहाज से यह बहुत छोटा साईज है। फिर नूह इसमें सभी तरह के पशु पक्षियों के जोड़े और बेटे बहुओं सहित सवार हो जाते हैं

  कहानी के हिसाब से चालीस दिन और रात लगातार पानी बरसा, और पूरी पृथ्वी पानी में डूब गयी— यह अवस्था एक सौ पचास दिन तक रही। यानि सवा छः महीने बाद पानी उतरना शुरू हुआ और कश्ती आरारात पर आ टिकी। दसवें महीने तक पहाड़ों की चोटियां दिखाई देने लगीं— चालीस दिन बाद नूह ने कौवा, और उसके सात दिन बाद कबूतर उड़ाया जिससे जमीन दिखने की पुष्टि हुई और उसके दो ढाई महीने बाद नूह वगैरह ने जमीन पर कदम रखा।

जब कश्ती जैसे एक ढाँचे की अधिकारिक खोज हुई

  अब इसमें ट्विस्ट तब आया जब दूसरे विश्व युद्ध के उपरांत 1950 में एक अमेरिकी टोही विमान ने तुर्की के आरारात पर्वत पर नांव जैसी संरचना देखी। इसके दस साल बाद ‘लाईफ‘ मैग्जीन वालों ने उसकी फोटो छापी और इसी साल अमेरिकी सेना के कैप्टन दुरिपनार ने इसकी सच्चाई जानने के लिये अभियान चलाया लेकिन उसने निगेटिव रिपोर्ट पेश की।

  13 साल बाद 1977 में अमेरिकी वैज्ञानिक रोन वाट ने और अत्याधुनिक राडार और मेटल डिटेक्टरों जैसे संसाधनों के साथ फिर कोशिश की और जैसे-तैसे यह साबित करने में कामयाब रहे कि वह नाव ही थी। इसके बाद 1986 में तुर्की ने रोन वाट की खोज को मान्यता दे दी और उसे कश्ती-ए-नूह राष्ट्रीय पार्क के रूप में संरक्षित कर दिया। 

  बहरहाल, यूँ तो एवरेस्ट पर भी घोंघे जैसे समुद्री जीवों के अवशेष पाये जा चुके हैं और चाहें तो हिंदू विद्वान भी मनु वाली जलप्रलय को प्रमाणित कर सकते हैं उनका सहारा ले कर—

  लेकिन इन्हें ले कर वैज्ञानिकों का मत था कि कभी एवरेस्ट असल में पूर्वी अफ्रीका से अलग हुए भूभाग का समुद्र में डूबा किनारा था जो आगे चल कर एशियन प्लेट से टकराया, और दोनों प्लेट्स के किनारे एक दूसरे पर दबाव डालते ऊपर उठते-उठते एवरेस्ट हो गये और आज भी ऊपर उठ रहे हैं— वहां इस तरह के अवशेष मिलना बहुत हैरत की बात नहीं।

  एक चीज यह तो हो सकती है कि किसी दौर में इस तरह की भीषण बाढ़ आई हो, और किसी ने ऐसी नाव बनाई हो— बाद में इसे ले कर यह किवदंती चल पड़ी हो… लेकिन बाकी चीजें सिरे से नाकाबिले यकीन हैं।

  तीन सौ हाथ लंबी, पचास हाथ चौड़ी, तीस हाथ ऊंची कश्ती इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि एक साल तक उसमें जीने लायक साधन जुटाये जा सकें— इतनी बड़ी फौज (चरिन्दो, परिंदों, दरिंदों की) की एक हफ्ते की खुराक ही कश्ती को भर देगी, क्योंकि जानवर तो भैंस, गैंडे, जिराफ, हाथी भी होते हैं, जिनकी खुराक बहुत ज्यादा होती है।

किसी एक वातावरण में दूसरे वातावरण का जीव सर्वाइव नहीं कर सकता

  फिर ‘सारे’ में शेर, चीते, बाघ, तेंदुए, लकड़बग्घे, सियार, भेड़िये जैसे वह गोश्तखोर भी आ जायेंगे जो साल भर में वहां मौजूद सारे जानवरों को ही खा जायेंगे— या उनकी खुराक के लिये ढेरों जानवर रखने पड़ेंगे लेकिन तब यह हर नस्ल का बस एक जोड़ा वाली बंदिश फेक साबित हो जायेगी। या फिर जबर्दस्ती मानना पड़ेगा कि उस एक साल के लिये सबने रोजा (वृत) रख लिया था।

  दूसरे इस श्रेणी में कंगारू जैसे वे खास जानवर भी आ जायेंगे जो पृथ्वी के बस कुछ खास हिस्सों में ही पाये जाते हैं। मतलब सोचना भी हास्यास्पद है कि इतने शाट टर्म में नूह आस्ट्रेलिया जा कर कंगारू पकड़ ले गये और बाढ़ उतरने के बाद खास उसी इलाके में छोड़ने भी गये जहां वे पाये जाते हैं— इस श्रेणी में ढेरों पशु पक्षी हैं, जिनके लिये यह कसरत करनी पड़ेगी।

  फिर यह भी है कि जब बात पूरी पृथ्वी की करेंगे तो आपको समझना होगा कि अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में जिंदा रहने वाले पशु पक्षी किसी एक जगह समान तापमान में सर्वाइव नहीं कर सकते। यानि आर्कटिक भालू रेगिस्तानी गर्मी में पागल हो जायेगा और रेगिस्तानी शुतुरमुर्ग आइसलैंड में दम तोड़ देगा।

  यह पशु पक्षी अपने वातावरण में ही जी सकते हैं न कि कहीं भी। यह आज इतनी एडवांस टेक्नालॉजी के होते भले संभव हो कि एयरकंडीशनरों के सहारे अलग-अलग वातावरण के जीवों को एक जगह जिंदा रख लिया जाये, लेकिन सभ्यता के एकदम शुरुआती दौर में ऐसा मुमकिन ही नहीं था।

  दूसरे उस दौर में जब सौ किलोमीटर दूर दूसरे शहर में पंहुचने को भी हफ्तों लग जाते थे, तब किसी भी एक जगह बैठ कर पूरी दुनिया के पशु पक्षी इकट्ठा कर लेना कैसे भी मुमकिन नहीं था— जबकि इसके लिये यहोवा ने सात दिन ही नूह को दिये थे।

  इसके सिवा पृथ्वी पर पशु पक्षियों की कुल मिलाकर कई लाख प्रजातियां हैं और अगर आप सोचते हैं कि इन्हें पकड़ कर आप एक जगह इकट्ठा कर लेंगे तो आप सचमुच बहुत क्यूट हैं। बस यह मान सकते हैं कि किसी जमाने में शायद इतनी विकराल बाढ़ आई हो, लेकिन उससे समूची पृथ्वी डूब जायेगी.. यह मानने का कोई आधार नहीं।

  यहां आपको एक खास बात पर ध्यान यह देना होगा कि यहूदियों ईसाइयों के लिये पूरी दुनिया का अर्थ सिर्फ योरप होता था, मुसलमानों के लिये पूरी दुनिया का अर्थ बस अरब होता था और हिंदुओं के लिये सम्पूर्ण पृथ्वी का अर्थ बस भारत भूमि ही होता था।

पुरानी सभी कहानियों में पहाड़ इतने अहम क्यों हैं

  आपने पढ़ा होगा कि मूसा की यहोवा से मुलाकात कोहे तूर या सिनाई पर्वत पर हुई— वहीं से वह दस ईश्वरीय आज्ञा जारी हुईं, लेकिन कभी सोचा है कि पहाड़ ही क्यों? यह फरिश्ते, खुदा, देवता सब के रिश्ते पहाड़ से क्यों निकलते हैं?

  आप प्राचीन रोमन, ग्रीक, इजिप्शन कहानियाँ पढ़िये, उन लोक कथाओं पर बनी ‘लैंड ऑफ फराओज‘ गॉड्स ऑफ इजिप्ट‘ ‘क्लैश ऑफ टाईटंस‘ जैसी हालीवुड मूवीज देखिये— कहीं भी इस सृष्टि को चलाने वाले देवता, यहोवा, ईश्वर इस पृथ्वी से बाहर नहीं रहते मिलेंगे। या तो वे पहाड़ पर मिलेंगे या आस्मान पर (पृथ्वी के वायुमंडल में ही) लटके मिलेंगे— क्यों?

  यह उस अवधारणा की पुष्टि करते हैं जो पंद्रहवीं शताब्दी से पहले आम जन में प्रचलित थी। यानि भूकेंद्रित सृष्टि— आकाश को गैस से बनी लेयर वाली छत की तरह समझा जाता था तो जाहिर है कि इस सृष्टि को रचने वाले भी इस दुनिया के अंदर ही पाये जायेंगे। बस इसीलिए वे पृथ्वी की सबसे अच्छी जगह यानि पहाड़ों पे रहते थे।

यहोवा भी पृथ्वी के पहाड़ पर ही रहता था

  तौरात का शुरुआती चैप्टर लिख रहा हूँ संक्षेप में— खुद अंदाजा लगा लीजिये।

  “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की रचना की। पृथ्वी सूनी पड़ी थी और गहरे जल के ऊपर अंधियारा था— परमेश्वर ने कहा उजाला हो और उजाला हो गया। फिर उसने उजाले और अंधेरे को अलग किया। फिर जमीन और आकाश आदि बनाया। फिर पेड़ पौधे, जलचर, पशु पक्षी आदि बनाया। छः दिन में काम खत्म करके सातवें दिन उसने आराम किया और फिर मिट्टी से आदम को बनाया।

  और पूर्व की ओर अदन देश में एक वाटिका लगाई, जहां उसने सब तरह के फल लगाये और ज्ञान का पेड़ भी लगाया। फिर वहां से एक महानदी निकाली जिससे चार शाखायें पीशोन, गीहोन, हिद्देकेल और फरात निकलीं। फिर आदम के मनोरंजन के लिये उसने सारे तरह के जीव जंतु वहां ला के रखे और फिर आदम की पसली से ईव को बनाया। तब तक उन्हें भले बुरे का ज्ञान न था।

  तब वहां रहने वाले एक सर्प ने ईव को बहका कर वह फल खिला दिया, ईव ने एडम को— और दोनों की आंखे खुल गयीं कि वे नंगे हैं तो उन्होंने खुद को ढक लिया। तब यहोवा जो दिन के ठंडे समय वाटिका में फिरता था, दोनों के न दिखने पर उन्हें ढूंढने लगा और पुकारने पर जब वे सामने आये तो उन्हें ढका देख उसे क्रोध चढ़ गया। उसके पूछने पर जब दोनों ने पूरी बात बताई तो उसने इस डर से कि ज्ञान का फल खा कर वह उसके बराबर हो चुके हैं, कहीं जीवन का फल खा कर उसकी तरह अमर न हो जायें— तीनों को (सर्प समेत) श्राप दे कर वाटिका से बाहर निकाल दिया।“

  यानि यह सब नौटंकी पृथ्वी से बाहर नहीं अंदर ही हो रही थी और यहोवा मतलब एक ऐसा ईश्वर, जिसे खुद से कुछ पता नहीं था कुछ और फिर यह डर भी कि कहीं आदम उसके बराबर न हो जाये— फिर आगे चल कर आदम के कैन (खेतीधारक) और हाबिल (पशुपालक) नामी बेटे यहोवा को भेंट चढ़ाने पंहुचे— कहां पंहुचे?

यहोवा को भी शाक के बजाय मांस पसंद था

 कहीं पहाड़ पर— जहां उसे मांस वाली हाबिल की भेंट पसंद आई और कैन की भेंट उसने ठुकरा दी। जिस पर गुस्सा हो कर कैन ने वापसी में हाबिल को ठिकाने लगा दिया— यहोवा ने खबर ली तो एक वार्तालाप के बाद उसने वचन दिया कि कोई कैन से घात करेगा तो उसका सात गुना बदला लिया जायेगा और इस डर से कि कोई कैन को मार न डाले (यह लोग कहां से आ गये?), उसे एक चिन्ह दिया और आगे जब कैन की पत्नी ने हनोक को जन्म दिया तो उसने हनोक के नाम पर नगर बसाया— पता नहीं नगर के लिये लोग कहां से आ गये?

  मजे की बात यह कि आगे नूह के चैप्टर के साथ जिक्र यह है कि उन दिनों पृथ्वी पर दानव रहते थे.. सोचिये कि अब यह दानव कहां से आ गये? बहरहाल जितनी कहानियां चलती रहती हैं— पृथ्वी पर ही विचरता यहोवा कूद-कूद कर सबके पास पंहुचता रहता है— न कोई गैब्रियल उर्फ जिब्रील और न कोई सात आसमान या जन्नत दोजख। यह सब चीजें बाद में सामने आती हैं।

  ऐसे ही हिंदू शास्त्रों में आपको जो देवता मिलेंगे वे कहीं पृथ्वी से बाहर नहीं रहते थे बल्कि हिमालय के मनोरम पहाड़ों पर रहते थे। यहीं तिब्बत, उत्तराखंड, हिमाचल आदि में इन्द्र का देवलोकस्वर्ग और सबसे ऊपरी श्रेणी के पहाड़ों पर ब्रह्म प्रदेश, जहां मानसरोवर यात्रा करने जाते हैं।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 7

भ्रूण के विकास की थ्योरी

अच्छा अब आइये भ्रूण के विकास पे— मूर के मुताबिक किसी को यह जानकारी उस दौर में होना संभव नहीं था, लेकिन क्या वाकई मूर का ऐसा सोचना सही था— अब यहां पे खुद अपना दिमाग इस्तेमाल कीजिये और चलिये प्राचीन काल में। दो हजार से पांच हजार साल पहले।

  उस दौर में सभ्यतायें तीन फार्मेट में पनप रही थीं— एक वनों में रहने वाले आदिवासी, दूसरे गाँवों में रहने और कृषि और पशुपालन करने वाले और तीसरे नगरों में रहने वाले जो खाने पीने के सामान अतिरिक्त जीवन निर्वाह के लिये जरूरी वस्तुओं का क्रय विक्रय करते थे।

  इन नगरों में वेश्यावृत्ति मनोरंजन के लिये उपलब्ध एक स्वीकार्य और सम्मानित व्यवसाय हुआ करता था। बाइबिल में वेश्यावृत्ति का जिक्र है,महाभारत के अनुसार हस्तिनापुर में हजारों वेश्यायें थीं— ग्रीक सभ्यता में साइप्रस, सिसली, किंगडम ऑफ पोन्टस, कैपेडोसिआ वेश्यावृत्ति के मुख्य केन्द्र थे।

  भारत में इसके लिये बाकायदा नगरवधुयें तैयार की जाती थीं, नेपाल में देउकी रीति होती थी लड़कियों को वेश्या बनाने के लिये, जेरुसलम में कामुक गतिविधियों के लिये बाकायदा मंदिर हुआ करता था, यूनानी सभ्यता में इसे ‘पवित्र काम‘ की संज्ञा दी जाती थी।

  2000 साल पहले माउंट विसुवियस के विस्फोट में नष्ट हुए पोम्पेई को जब 1748 में खोदा गया तो शहर के साथ एक वेश्यालय भी मिला जिसमें दस कमरे और सहवास को दर्शाती पेंटिंग्स मौजूद थीं। कहते हैं इसकी शुरुआत सुमेरियाई सभ्यता में सुमेरिया के राजा और प्रेम की देवी इनान्ना के मिलन से हुई थी.. तब सेक्स किसी भी सभ्यता में वर्जित विषय नहीं था, जहां भारत में बाकायदा सेक्स की देवी रति थीं, वहीं ग्रीक सभ्यता में एफ्रोडियेट को यह सम्मान प्राप्त था।

  ज्यादातर बड़े नगर समुद्री किनारों पर आबाद थे, जहां बाहरी लोगों का व्यापार के लिये आना जाना लगा रहता था और यह वेश्यालय राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती देते थे। अब इस बात पर दिमाग खपाइये कि वेश्यावृत्ति के लिये जाने वाली महिलायें प्रजनन के लिये तो उस पेशे में गयी नहीं होंगी और उस दौर में गर्भनिरोधन के उपाय भी कुछ खास नहीं थे।

उस दौर में गर्भनिरोधन के उपाय नहीं थे

  जो थे भी वे अजीब और खतरनाक थे— मिस्री दस्तावेज बताते हैं कि डेढ़ हजार साल पहले वे महिला योनि में शुक्राणुओं का प्रवेश रोकने के लिये मगरमच्छ का मल,शहद, सोडियम बाईकार्बोनेट के घोल को भी भरते थे। मध्यकाल में महिला की जांघ पर वीजल नामी जानवर का अंडाशय और एक हड्डी बांध दी जाती थी। चीन में तो लेड और मरकरी का किसी तरह से घोल बना कर पिला देते थे, जिससे जान तक चली जाती थी। ग्रीस में महिला को वह पानी पिलाया जाता था, जिसमें लोहार अपने औजार ठंडे करता था।

  जाहिर है यह सब उपाय खतरनाक, असुरक्षित और गैरभरोसेमंद थे तो गर्भ तो रुकता ही था। अब अगर आप सोचते हैं उस दौर में चिकित्सा पद्धतियां नगण्य थीं तो आप गलत सोचते हैं। भारतीय भूभाग पर आयुर्वेद और मध्य एशिया और योरप में यूनानी चिकित्सा पद्धति बहुत पुरानी है। मिस्र में 2600 ईसा पूर्व इमहोतेप हुए, जिनके लिये सर विलियम ओसलर ने रियल फादर ऑफ मेडिशन कहा था।

  तो जब गर्भ रुकता था तो उसे गिराने के उपाय भी किये जाते थे— यह तब की बात है, आज की तारीख में भी ग्रामीण समाज में गर्भ गिराने के कई देशी नुस्खे प्रचलन में हैं।

  अब मूर साहब को दरकिनार करके खुद अपना दिमाग लगाइये कि एक हफ्ते से ले कर तीन चार या पांच महीने तक का जब गर्भ गिराया जा रहा है तो क्या वह लोगों (कम से कम गर्भ गिराने वाली महिला के तो जरूर) की नजर में आता नहीं था? वे मासिक धर्म रुकने पर क्या खुद के गर्भवती होने और फिर गिरे हुए गर्भ की अलग-अलग अवस्थाओं को जान नहीं पाती थीं कि पहले भ्रूण जोंक जैसी शक्ल में होता है और आगे क्या-क्या शेप लेता है?

  इसके सिवा एक चीज मिसकैरेज भी है जो कोई आज एकाएक प्रचलन में नहीं आया— बल्कि जब से औरत वजूद में है, तब से ही एक सामान्य प्रक्रिया के तहत होता आया है… क्या आप यह मानते हैं कि आठवीं शताब्दी से पूर्व किसी को मिसकैरेज ही नहीं होता था जो उन्हें कोख में बनने वाले भ्रूण की अलग अलग स्थितियाँ न समझ आती थीं।

  इन बातों को इस तरह भी समझिये कि तब फ्लश वाले टायलेट नहीं यूज होते थे कि भ्रूण फ्लश में बह गया… बल्कि ज्यादातर लोग खुले में जाते या इस तरह के अविकसित (शुरुआती अवस्था के) भ्रूण को फेंकते थे— तो यह कोई एसी अनजानी और अनोखी चीज नहीं थी, जो आठवीं शताब्दी में कुरान के बताने से पूर्व किसी को पता ही नहीं थी।

  यहां यह बात काबिले गौर है कि खुद कुरान इस तरह की बातें समझाने के लिये कहता है— यह चमत्कार है, ऐसा कोई दावा नहीं करता… लेकिन जब से जाकिर नाईक जैसे खुराफाती दिमाग के लोग धार्मिक किताबों में विज्ञान ढूंढने लगे हैं तब से ऐसी सामान्य बातों को भी चमत्कार बता कर ढिंढोरा पीटा जाने लगा है।

क्या वाकई में दो समन्दरों का न मिलना चमत्कार है

  कुरान से जुड़े जिस एक और चमत्कार की सबसे ज्यादा चर्चा होती है वह सूरह रहमान की 19-20 आयत से जुड़ा है, जिसमें उन दो समंदरों के मिलने का जिक्र है जो एक दूसरे में समाहित नहीं होते। यह चमत्कार दो श्रेणी में है— एक तो उसकी यह अवस्था और दूसरे यह कि जमीन पर मौजूद इस करिश्मे का पता कैसे चला।

  पहले इसके न मिलने के वैज्ञानिक कारण को समझिये— यह अनोखा मिलन जिस एक जानी पहचानी जगह (मुसलमानों द्वारा प्रचारित) होता है, वह जगह अलास्का की खाड़ी है जहां ठंडा, मीठा पानी ग्लेशियरों से पिघल कर आता है और उसके सामने होता है, प्रशांत महासागर का खारा पानी… अब चूंकि दोनों तरफ के पानी की डेंसिटी, टेम्प्रेचर आदि अलग होता है तो वह आपस में नहीं मिलता और उनके जंक्शन पर झाग की दीवार सी बन जाती है।

  सच यह है कि वह अकेली ऐसी जगह नहीं है— और भी जगहों पर जहां नदियों का (प्रदूषण रहित) मीठा साफ पानी समुद्र के खारे जल में आ कर मिलता है तो अपना अलग वजूद बनाये रखता है, लेकिन यह छोटे पैमाने पर होता है तो इसकी चर्चा नहीं होती। बाकी आप इसे अपने ही देश में संगम पर गंगा जमना के मिलन के रूप में देख सकते हैं, उत्तराखंड में कई जगहों पर ऐसे नज़ारे देख सकते हैं और बीबीसी अर्थ पर फैक्टोमेनिया प्रोग्राम देखते हैं तो इस तरह के प्रयोग खुद घर पे भी करके चेक कर सकते हैं। बाकी इसका दूसरा सच यह भी है कि यह संयोग स्थाई नहीं होता और धीरे-धीरे पानी मेल्ट हो जाता है।

ऐसा नज़ारा पानी के अलग घनत्व की वजह से होता है

  पानी के घनत्व की वजह से ऐसा होता है और इसका एक एग्जाम्पल आप जार्डन और इस्राएल के बीच मौजूद डेड सी से भी ले सकते हैं जहां की डेंसिटी इतनी ज्यादा है कि इसमें आप कभी डूब नहीं सकते। चूँकि यह कुदरत है और कुदरत को आस्तिक ईश्वर रचित मानते हैं तो उस लिहाज से यह कह सकते हैं कि ईश्वर ने बताया कि उसने ऐसा किया— बाकी इसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं और अगर यह चमत्कार है तो प्रकृति से जुड़ी हर चीज और हर अविष्कार एक चमत्कार है।

  अब इसके दूसरे पहलू पे आइये कि यह घटना कुरान में दर्ज कैसे हुई— कैसे लिखने वाले को जानकारी हुई तो आपको फिर अतीत में चलना होगा।

  रहस्य और रोमांच भरी यात्राओं की कहानियाँ हमेशा इंसानी दिलचस्पी का केन्द्र रही हैं। आज की तारीख में हम उन समुद्री यात्राओं पर बनी ‘पाइरेट्स ऑफ कैरेबियन‘, ‘मिस्टीरिअस आइलैंड‘ ‘गुलिवर‘ टाईप फिल्मों में देख सकते हैं लेकिन पहले के जमाने में यह सब कहानियाँ लिखी जाती थीं और लोग बड़े चाव से इन्हें पढ़ते थे— ‘गुलिवर’ और ‘सिंदबाद’ इसके सटीक उदाहरण हैं।

  अगर आप चालीस से ऊपर हैं तो आपको अपने बचपन में दादी नानी से सुनी कहानियाँ याद होंगी, क्योंकि तब मनोरंजन के सीमित साधन थे और स्टोरी टेलिंग एक अति प्राचीन और महत्वपूर्ण कला थी, जो सभ्यता के शुरुआती दौर से चली आ रही है।

स्टोरी टेलिंग उन दिनों आम कला हुआ करती थी 

इन स्टोरी टेलिंग के चलन से ही फोक्स टेल तैयार होती थीं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण होती थीं जहाजियों की कहानियाँ— उदाहरण के लिये आप सिंदबाद जहाजी को ले सकते हैं। उस दौर में, जब मनोरंजन के बड़े सीमित साधन थे— जहाजों से लंबी लंबी समुद्री यात्राएं करने वाले लोग सैकड़ों कहानियों से लबरेज होते थे, जिनमें से कुछ उनकी कल्पना पर आधारित होती थीं (अरेबियन नाइट्स टाईप), तो कुछ निजी अनुभवों पर और कुछ दूसरे देशों की फोक्स टेल— या यूँ कह सकते हैं कि संस्कृति का आदान प्रदान।

  वे मजमों में, शराबखानों में, होटलों में और निजी जमघटों में उन कहानियों को सुनाया करते थे और इस तरह सुदूर देशों, समुद्रों और द्वीपों से जुड़ी कहानियाँ लोगों तक पंहुचती रहती थी। ईसा से साढ़े नौ सौ साल पूर्व इस्राएल में ही सोलोमन (सुलेमान) के बसाये कुछ बंदरगाही शहर थे जिनकी वजह से काफी बड़े भूगाग से उनका व्यापारिक संपर्क बना रहता था।

  तो दो तरह की संभावनायें हो सकती हैं— किसी जहाजी ने यह नजारा देखा हो और फिर इसे दूसरों तक पंहुचाया हो, दूसरे यह कि यह भी जरूरी नहीं कि यह खास अलास्का की खाड़ी के संदर्भ में हो— कहीं और भी देखा गया हो सकता है।

  इसके साथ एक तथ्य यह भी है कि मुहम्मद साहब बचपन में ही अपने चाचा के साथ शाम (सीरिया) चले गये थे कारोबारी सिलसिले में और शाम में भी बंदरगाही शहर मुख्य व्यापारिक केन्द्र थे— बाकी गुणा भाग खुद कर लीजिये।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 6

धार्मिक चमत्कारों  के दावे और हकीकत 

देखिये हजारों साल से लोग जंगलों में रहते आ रहे हैं— अफ्रीका, अमेजॉन के वनों में आज भी सभ्य दुनिया से दूर आदिवासी जीवन जीने वाले हजारों सालों से सर्वाइव करते आ रहे हैं— सोचिये कैसे?

  न उन्हें कोई किताब मिली, न कोई डॉक्टर वैज्ञानिक पंहुचा उन तक, लेकिन फिर भी उन्हें सहज ज्ञान है कि क्या खाना है— क्या पीना है, कैसे खाना पीना है… बीमार हुए तो किस बीमारी के लिये कौन सी बूटी लेनी है। वे सदियों से इस सहज ज्ञान के साथ जी रहे हैं— अब उनमें से ही कोई इस बाहरी सभ्य दुनिया में आये और यहां की चीजों को देख कर कहे कि आप लोगों को यह चीजें अब पता चलीं— हमें तो सदियों पहले हमारे पुरखे बता गये थे। तो आप मान लेंगे कि उनके पुरखे चमत्कारी वैज्ञानिक आदि थे?

  अब थोड़ा इस वन जीवन से बाहर “आज” में आइये। कहानियाँ, लोक कथायें कैसे लिखी जाती हैं— क्या आधारभूत मटेरियल होता है उसमें? एक तो उसमें उसमें आज तक उपलब्ध ज्ञान होता है और होती हैं भविष्य से जुड़ी कल्पनायें— यह कल्पनायें वर्तमान से जुड़ी भी हो सकती हैं और भूत या भविष्य से भी।

  उदाहरणार्थ हॉलीवुड मूवीज देख लीजिये— उनके पास वर्तमान तक उपलब्ध ज्ञान और भविष्य की कल्पनाओं से ओतप्रोत ‘एटर्नल सनशाईन ऑफ स्पॉटलेस माइंड‘ है जहां नायक नायिका अपने दिमाग से वह स्मृतियाँ खुरचवा रहे हैं जो एक दूसरे से जुड़ी हों। ‘ऑफ्टर अर्थ‘ है जो पृथ्वी पर जीवन समाप्त होने के बाद की कल्पना साकार करती है। ‘डे ऑफ्टर टुमॉरो,’ ‘2012‘ हैं जो भविष्य की उन विपत्तियों की ओर इशारा करती हैं जिससे पृथ्वी पर मानव सभ्यता खत्म हो सकती है। ‘स्टार वार्स‘, और ‘अवतार‘ हैं जो पृथ्वी से बाहर एक अलग दुनिया में ले जाती हैं।

धर्म के नाम पर कल्पनाओं को भविष्यवाणी समझ लिया गया

  यह सब इंसानी दिमाग की क्षमता के अंदर की चीजें हैं लेकिन भविष्य में अगर वैसा कुछ हो जो इन फिल्मों में दिखाया गया है— और मान लीजिये इसी मेमोरी के साथ आपको भी उसी भविष्य में पंहुचा दिया जाये तो क्या आप यह मान लेंगे कि इन फिल्मों को बनाने/लिखने वाले चार्ली कफमैनविल स्मिथ, रोलैंड एमरिचजार्ज लुकास या जेम्स कैमरान दैवीय हैं और उन्हें भविष्य की जानकारी थी? या कल को ‘वर्ल्ड वार जेड‘, ‘रेजिडेंट एविल‘, ‘आई एम द लीजेंड‘ की तरह कोई वायरस संक्रमण इंसानी सभ्यता को खत्म कर दे तो आप इस पर ईमान ले आयेंगे कि इन फिल्मों को बनाने वाले लोगों को भविष्य की जानकारी थी?

  हर्गिज नहीं मानेंगे— लेकिन इसी तरह उपलब्ध ज्ञान और भविष्य की कल्पनाओं के सहारे रची गयी धार्मिक किताबों को बे चूं चरां ऐसा ही चमत्कारी मान लेते हैं। उनके लिये दावे करने बैठ जाते हैं कि साइंस ने आज प्रूव किया— हमारे यहां तो यह बातें चौदह सौ/हजारों साल पहले बता दी गयी थीं।

  फिर मुस्लिम तो बाकायदा फलाँ-फलाँ वैज्ञानिक और सेलिब्रिटी की पब्लिसिटी करेंगे कि हमारा यह चमत्कार देख कर कैसे ईमान ले आया— अच्छा वह लोग उन चमत्कारों से अभिभूत हो जाते हैं, ईमान ले आते हैं तो ऐसे खुद आप दूसरों के चमत्कार से क्यों नहीं प्रभावित होते? कुछ चमत्कार तो हिंदू धर्म में भी हैं— आयुर्वेद हजारों साल पुराना है— क्या विज्ञान इसे प्रूव नहीं करता? क्या टेस्ट ट्यूब बेबी की प्रेरणा लुईस जो ब्राउन ने कौरवों के जन्म से नहीं ली थी?

  आज हम जानते हैं कि समय की गणना अलग-अलग ग्रहों पर अलग-अलग है और अगर आप वरुण पर एक वर्ष गुजारते हैं, पृथ्वी पर 164 वर्ष गुजर जाते हैं, बुद्ध का एक दिन पृथ्वी के नब्बे दिनों के बराबर होता है— लेकिन पद्मपुराण और भागवतपुराण में एक कथा है कि इन्द्र ने मुचुकन्द को असुरों से लड़ने के लिये बुलाया था तो उनकी लगभग एक वर्ष की लड़ाई में पृथ्वी पर हजारों साल गुजर गये थे या फिर—

  दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः।

  अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम् ।।

                       मनुस्मृति-1/67

  अर्थात- मनुष्य के एक वर्ष के बराबर देवताओं का अहोरात्र (रात्रि-दिन) होता है! उत्तरायण (मकर से मिथुन राशि तक) दिन और दक्षिणायन (कर्क से धनुराशि तक) देवताओं की रात्रि होती है! ध्रुवों की खोज अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में हुई और यह ज्ञान कोई बहुत पुराना नहीं कि ध्रुवों पर छः-छः महीने के दिन रात होते हैं लेकिन मनुस्मृति में हजारों साल पहले लिख दिया गया।

  बताइये, उन्हें यह सब बातें पहले से ही पता थीं, जो वैज्ञानिकों को अब जा के पता चली हैं। तो इन चमत्कारों को सुन कर क्या ईमान डगमगाया आपका? लगा कि इन चमत्कारों पर यकीन करते हुए आप हिंदू हो सकते हैं? नहीं न— और मजे की बात है कि ऐसे ही चमत्कारों के हवाले से दूसरों को मुसलमान बना लेते हैं।

इंसान भविष्य की कल्पनायें कर सकने में सक्षम है

  भविष्य को लेकर हमेशा इंसानों ने अजब गजब कल्पनायें की हैं— हाल ही में जे के राउलिंग की ‘हैरी पोटर‘ और जेम्स कैमरॉन की ‘अवतार‘ की कल्पना ने लोगों में जबरदस्त रोमांच पैदा किया… जे के राउलिंग की कल्पना भले अद्भुत थी, लेकिन फिर भी उस नियम से बंधी थी जिससे 99.99 लोग बंधे होते हैं। यानि आपका दिमाग बस उन चीजों की कल्पना कर सकता है जिसे आपने देखा सुना हो, इस दुनिया से संबंधित हो और जो आपका ईश्वर पहले ही गढ़ चुका हो—

  जबकि इसके उलट ‘अवतार‘ (और भी कई मूवी हैं) में वह चीजें क्रियेट की गयी थीं जिनका अस्तित्व ही नहीं, जिन्हें कभी देखा सुना जाना नहीं गया— यानि ईश्वर के समकक्ष खड़े हो कर नयी चीजें गढ़ने जैसा, जो इंसानी दिमाग से बाहर की हों। फिर मान लीजिये दो तीन हजार साल बाद हम किसी और ग्रह पर वैसी ही चीजें पाते हैं तो? इसे बस एक इत्तेफाक ही कहा जा सकता है न— या जेम्स कैमरान जैसे लोगों को कोई पीर पैगम्बर घोषित कर दिया जायेगा। तो ऐसी विलक्षण प्रतिभा भी इसी प्लेनेट के इंसानों में ही है, लेकिन इससे वे दैवीय या अलौकिक नहीं हो जाते।

  देखिये, जो भी खोजें या आविष्कार होते हैं उनकी कहीं न कहीं से तो प्रेरणा ली ही जाती है— जैसे आपके धर्म में पांच हजार साल पहले लिख दिया गया कि हैरी पॉटर झाड़ू ले के उड़ता था तो चूँकि हमेशा से इंसान की दिलचस्पी उड़ने में रही है तो अथक प्रयासों के बाद अंततः उसने पैरा ग्लाइडिंग करने या विमान बनाने में सफलता पाई ही… तो यह उस शख्स या उन लोगों की कामयाबी है, इसका क्रेडिट आप अपनी हैरी पॉटर वाली चंपक कथा को नहीं दे सकते— कि उन्होंने तो आज उड़ना सीखा, हमने तो पांच हजार साल पहले ही हैरी पॉटर को उड़ा दिया था।

  खोज और आविष्कार का इन धर्म ग्रंथों से बस इतना ही नाता है कि प्रेरणा कहीं से भी ली जा सकती है— किसी रामायण, महाभारत, कुरान से भी और मुंशी प्रेमचंद या जे के राउलिंग की कहानियों से भी। अगर धार्मिक किताबों में इतना ही वैज्ञानिक ज्ञान होता तो इनके माहिर मौलाना पंडित हर खोज और आविष्कार खुद किये होते न कि दूसरों की मेहनत पर उनकी तारीफ करने के बजाय पूरी बेशर्मी से उनका क्रेडिट अपनी धार्मिक किताबों को देते।

इस्लाम और चमत्कार   

धर्म से जुड़े जिन चमत्कारों की बहुत ज्यादा चर्चा होती है, उनमें एक कुरान की सूरह मोमिनून की 12-14 आयत है, जिसमें भ्रूण के बनने का प्रोसेस है— और एक कनाडाई वैज्ञानिक कीथ मूर थे जिन्होंने इस प्रोसेस को चमत्कार माना और फिर ईमान ले आये— और इस तरह ढोल नगाड़े बजा कर पूरे मुस्लिम वर्ल्ड ने उनका स्वागत किया और वे पूरी दुनिया द्वारा पहचाने गये। सोचिये, उन्होंने ऐसा न किया होता तो क्या पहचान थी उनकी.. हजारों गुमनाम वैज्ञानिक भरे पड़े हैं दुनिया में… वह भी उन्ही में से एक होते।

  ज्यादातर लोग (वैज्ञानिक भी) मूल रूप से किसी अनदेखे ईश्वर में आस्था रखने वाले आस्तिक ही होते हैं, भले उनका प्रोफेशन विज्ञान से संबंधित हो— वे कभी विज्ञान या आधुनिक शिक्षा को अपने ऊपर अप्लाई नहीं करते, इसे भारत में ही कमिश्नर रह चुके सत्यपाल या डॉक्टर कहे जाने वाले हर्षवर्धन के बयानों से बखूबी समझा जा सकता है।

  हमारे यहां भी कलाम जैसे आस्तिक वैज्ञानिक ही होते हैं जो गीता पढ़ते थे और जीवित रहते तो ये भी हो सकता था कि कभी हिंदू ही हो जाते… ‘इसरो’ में नारियल फोड़ कर रॉकेट चलाने वाले आस्तिक ही वैज्ञानिक हैं— वे भी आस्था के मारे ही हैं, कल को कहीं और चमत्कार जैसा कुछ नजर आया तो बौद्ध, इसाई या मुस्लिम हो सकते हैं…

  ऐसे में जाहिर है कि उनका एक धर्म छोड़ दूसरे धर्म में चले जाना कोई उपलब्धि या विरल घटना नहीं। किसी के वैज्ञानिक होने का मतलब यह हर्गिज नहीं होता कि वह विज्ञान और तर्क को अपनी नौकरी या बिजनेस के साथ ही निजी जीवन में भी मान्यता देता है।

क्या एम्ब्रोयोलॉजी का ज्ञान चमत्कार हो सकता है

  अब जरा मूर की नजर से इस चमत्कार को देखते हैं— उनके मुताबिक कुरान ने यह बातें सातवीं शताब्दी में बता दीं, जबकि विज्ञान ने यह बातें बहुत बाद में बताईं तो इस चमत्कार को नमस्कार तो बनता है। अब मूर की ही मानें तो सातवीं शताब्दी से पहले अरब और आसपास के इलाकों (जिन तक उनका संपर्क था) के रहने वाले एकदम मतिमूढ़ थे— उन्हें कुछ भी नहीं पता था। हो सकता है कि वे खाना भी नाक से खाते रहे हों।

  मतलब वे इस हद तक अंजान थे कि जब कुरान ने उन्हें बताया कि हमने तुम्हें एक नुत्फे (वीर्य) से पैदा किया तब उन्हें यह पता चला, वर्ना वे भी हमारे बचपने की तरह ही यह समझते थे कि बच्चे अस्पताल से आते हैं या आस्मान से कोई फरिश्ता आ कर छोड़ जाता है। सहवास पता नहीं क्या सोच कर करते होंगे और चरमोत्कर्ष के बाद जारी वीर्य को शायद मूत्र की ही कोई वाहियात अवस्था समझते होंगे।

  और अंजान भी इतने थे कि उन्हें आसपास की भी खबर नहीं थी। भारत में ही वीर्य की महिमा हजारों साल पहले लिख दी गयी थी जहां देवताओं के जहां तहां टपके वीर्य से ऋषि मुनि पैदा हो रहे थे— द्रोणाचार्यकृपाचार्य जैसे आचार्य इस टपके वीर्य की महिमा से विकसित हो रहे थे। अफसोस कि मूर को भारतीय चमत्कार न दिखे, वर्ना बनारस के किसी घाट पर उनकी भी कुटी होती।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 5

क्रुसेड  के नाम पर पहली बार जंग में बच्चों का इस्तेमाल हुआ

चौथे क्रूसेड का आह्वान 1202 में पोप इन्नोसेंट तृतीय ने किया था जो दो भागों में बंटे इसाई समाज को एक करना चाहता था और मुसलमानों को पवित्र भूमि से निकाल देना चाहता था। इस युद्ध में भी कई राजा शामिल हुए और बेतरह खून खराबा हुआ। इसके बाद 1212 में फ्रांस में स्टीफन नाम का एक किसान हुआ, जिसने खुद को ईशदूत बता कर आह्वान किया कि उसे ईश्वर ने मुसलमानों को परास्त करने भेजा है और यह पराजय बच्चों के हाथों होगी।

  तीस और बीस हजार बच्चों के दो दल फ्रांस और जर्मनी से चले— जिसमें हजारों बच्चे समुद्र में डूब गये और बाकी सिकंदरिया में दास बना कर बेच दिये गये और हजारों वापसी के सफर में मारे गये। 1228 में एक और क्रूसेड के बाद सम्राट फ्रेडरिक ने जेरुसलम और आसपास के क्षेत्र जीत लिये  लेकिन जल्दी ही यह इलाके मुसलमानों ने फिर जीत लिये— इसके बाद 1248 और 1270 में दो क्रूसेड और लड़े गये और उनमें भी इसी तरह कत्लेआम हुआ। इन युद्धों की खास बात यह थी कि इनमें इसाई खुद भी बड़ी तादाद में मरे और हारे।

  जिस येरुसलम के लिये इतना सब होता रहा— आज के मुसलमान भले उसे अपनी संम्पत्ति और यहूदियों को किरायेदार मानते समझते हों लेकिन वह जगह हमेशा से उन्हीं की थी जहां इसहाक और याकूब की संतानों ने दबदबा कायम किया था… मूसा के वक्त में मिस्र से भाग कर उनके लोगों ने इसे बाकायदा एक देश के रूप में आबाद किया था और यह भी एक सच है कि जितना कत्लेआम यहूदियों का हुआ, उतना अन्य किसी कौम का नहीं हुआ।

जेरुसलम मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों के बीच झगडे की जड़ है

जेरूसलम मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों के बीच आज तक झगड़े की जड़ रहा है। जेरुसलम में स्थित, मुसलमान जिसे मस्जिदे अक्सा कहते हैं (मक्का फतेह से पहले तक वे उसी की ओर रुख करके नमाज पढ़ते थे), उसे यहूदी दाऊद (डेविड) के बेटे सुलेमान (सोलोमन) का बनवाया माउंट टेम्पल (सिनेगॉग)… उनकी मान्यता है कि एक दिन उनके मसीह (उनके ग्रंथों में उल्लेखित, वे ईसा को मसीह नहीं मानते) आयेंगे और मुसलमानों ने उनके पवित्र स्थल को आजाद करायेंगे जबकि मुसलमान इसे आदम के वक्त बनाई मस्जिद मानते हैं।

  वे सोलवहवीं सदी ईसापूर्व में महान बहिर्गमन (ग्रेट एग्जोड्स) की घटना के बाद वहां बसे थे, लेकिन यह क्षेत्र ऐसा था जहां औपनिवेशिक काल तक लगातार लड़ाइयां चलती रहीं और यहूदी बार-बार मारे भगाये जाते और फिर बसते रहे। उनमें खुद दो बड़ी जातियों  (इजराइलों और यहूदा) का संगम था, जो खुद भी लड़ती रहती थीं। सोलोमन का काल उनके लिहाज से सुनहरा दौर था। उनकी फूट की वजह से ही उन पर ज्यादातर दूसरों का अधिपत्य बना रहता था।

  722 ईसापूर्व में शुलमानु अशरिद पंचम ने उन पर चढ़ाई करके कब्जा कर लिया। 610 ईसापूर्व में खल्दियों का अधिपत्य हो गया। इसके बाद 550 ईसापूर्व में ईरान के हखामनी साम्राज्य का दौर आया जब सम्राट कुरूश ने खल्दियों को हरा कर वहां अपना कब्जा कर लिया लेकिन ईरानी उदार विचारधारा के थे। उन्होंने न सिर्फ यहूदियों को स्वाधीनता दी बल्कि जेरुसलम के मंदिर के पूर्व पुजारी के पौत्र योशुना और दाऊद के निर्वासित वंशज जेरुब्बाबल को उनकी लूटी हुई संपत्ति दे कर जेरुसलम में बसाया और अपने खर्च से उस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।

जब जेरुसलम में बार बार यहूदियों की लाशें गिरीं   

  330 ईसापूर्व सिकंदर ने हखामनी साम्राज्य का अंत कर दिया और उसके ही सेनापति तोलेमी प्रथम ने 320 ईसापूर्व में हमला करके इजराईल और यहूदा दोनों राज्यों में कब्जा कर लिया और 198 ईसापूर्व में दूसरे यूनानी परिवार सेलुकस राजवंश का एंटिओकस चतुर्थ राजा बना— जिसने जेरुसलम में हुए बलवे से नाराज हो कर हजारों यहूदियों को कत्ल करवा दिया, मंदिर को लूट लिया और शहर की चारदीवारी ध्वस्त करा कर शहर सेना के हवाले कर दिया… जहां यहूदी धर्म ही अपराध घोषित हो गया, तौरात की जो भी प्रतियाँ मिलीं, जला दी गयीं और मंदिरों में यूनानी मूर्तियां स्थापित कर दी गयीं।

धर्म यात्रा 5

इसके बाद 141 ईसापूर्व में एक यहूदी सेनापति साइमन ने यूनानियों को हरा कर दोनों राज्यों को एक करके अपनी आजादी की घोषणा कर दी लेकिन यह आजादी बस 78-80 वर्षों तक बनी रही। फिर 66 ईसापूर्व में रोम के जनरल पांपे ने जेरुसलम के साथ पूरे देश पर अधिकार कर लिया। उस जंग में 12000 यहूदी कत्ल किये गये। इसके बाद 135 ई० में रोम सम्राट हद्रियन ने यहूदियों से रुष्ट हो कर एक-एक यहूदी को कत्ल करवा दिया— शहर की एक एक ईंट गिरवा कर जमीन पर हल चलवा दिया और उसी जमीन पर एलिया कावितोलिना नामी रोमी नगर निर्माण कराया।

  नगर के मुख्यद्वार पर रोम के प्रधानचिन्ह सुअर की मूर्ति स्थापित की गयी और घोषणा कर दी गयी कि यहां कोई यहूदी कदम नहीं रख सकता। इसके 200 साल बाद इसाई सम्राट कोंटेस्टाईन ने इसका नाम फिर जेरुसलम प्रचारित किया और यहां स्थितियों में बदलाव हुआ।

जेरुसलम में मुसलमानों का आगमन

मुसलमान इस राज्य में तब पंहुचे जब 636 में खलीफा उमर ने रोमनों को पराजित करके पूरे फिलिस्तीनजिसमें यहूदा और इज्राइल दोनों थे— पर कब्जा कर लिया। उस वक्त की एक घटना बड़ी प्रचलित है कि जब उमर अपने साथियों के साथ यहूदियों के उस प्राचीन मंदिर गये तो उसे कूड़ा करकट और गंदगी से भरे पाया। तब अपने हाथों से सफाई करके उन्होंने उसे यहूदियों को सौंपा। तब यहूदियों मुसलमानों के बीच उस प्रार्थनास्थल को लेकर विवाद नहीं था… यह विवाद उमय्यद सल्तनत के दौरान (उन्होंने इसे बनवाया था) पनपा था, जिसका लक्ष्य सत्ता विस्तार और उसकी स्वीकृति थी… तब से आज तक कायम है। तब औपनिवेशिक काल तक ज्यादातर वहां मुसलमानों की हुकूमत रही।

  इसके साथ दो प्वाइंट और गौरतलब हैं— ईसा के आगमन से पूर्व जब बौद्ध मत का प्रचार चरम पर था तब यह विचारधारा पूरे पश्चिमी एशिया तक पंहुची थी और इससे प्रभावित हो कर यहूदियों के बीच ही एस्सेनी नामक संप्रदाय की स्थापना हुई। हर एस्सेनी उन्हीं सब नियमों का पालन करता था— पशुबलि, मांसभक्षण और मदिरापान वर्जित थे और उन्हें दीक्षा के समय यह प्रार्थना करनी पड़ती थी— ‘मैं परमात्मा का भक्त रहूँगा, मनुष्य मात्र के साथ सदा न्याय का व्यवहार करूँगा, किसी को हानि नहीं पंहुचाऊंगा, न ही कभी हिंसा करूँगा। सदा मनुष्य मात्र के साथ अपने वचन का पालन करूँगा, सदा सत्य से प्रेम करूँगा।

  और इसी दौर में वैदिक हिंदू दर्शन से प्रभावित एक और विचारशैली ने जन्म लिया था जिसे क़ब्बालह कहते हैं। जिनके सिद्धांत हैं— ईश्वर, अनादि, अनंत, अपरिमित, अचिंत्य, अव्यक्त और अनिर्वचनीय है। वह अस्तित्व और चेतना से भी परे है— उस अव्यक्त से किसी प्रकार व्यक्त की और अचिंत्य से चिंत्य की उत्पत्ति हुई। मनुष्य परमेश्वर के केवल इस दूसरे रूप का ही मनन कर सकता है।

  कब्बालह की किताबों में योग की विविध श्रेणियों, शरीर के भीतर के चक्रों और अभ्यास के रहस्यों का वर्णन है। यह बताने का मकसद यह है कि जिन्हें यह लगता है कि अरब के लोगों को सबकुछ एक पैगम्बर ने बताया था— उन्हें यह पता चले कि उनके काल से भी 600 साल पहले इस तरह की चीजें और ज्ञान पूरे पश्चिमी एशिया और योरप तक फैल चुका था।

वैज्ञानिक क्रांति ने योरोप को अँधेरे से बाहर निकाला

  जब तक इसाई समाज पर पोप और चर्चों का प्रभुत्व रहा— तब तक वे कट्टर भी बहुत रहे… लेकिन कोपरनिकसब्रूनो और गैलीलियो ने उस प्रभुत्व को तोड़ दिया और वे जड़ता से निकलने में कामयाब रहे। आज की तारीख में ज्यादातर इसाई जिंदगी में कभी कभार, या बस खास मौकों पर ही चर्च जाने वाले इसाई हैं जो बाइबिल को चंपक कथा से ज्यादा नहीं मानते जिसे उन्होंने चर्चों तक सीमित कर दिया है।

  यही वजह है कि बीसवीं शताब्दी के अंत से हुए नेट के प्रचार प्रसार के साथ उस पर अपने धर्म की बड़ाई वाला कंटेंट, वीडियोज और पता नहीं किस-किस तरह की फर्जी कहानियाँ, दावे परोसते रहने वालों में इसाई/यहूदी बहुत पीछे हैं (जो बाकी सारी चीजों में बहुत आगे हैं) और मुस्लिमों का (जो बाकी चीजों में फिसड्डी हैं) नेट पे बोलबाला है, जबकि उनकी देखादेखी अब हिंदू भी (यह भी बाकी चीजों में फिसड्डी नंबर दो हैं) कंपटीशन में उतरने लगे हैं।

  अब वर्चुअल वर्ल्ड से ले कर रियल वर्ल्ड तक थोड़ा इनके दावों को परखते हैं— इनकी टैगलाईन ‘साईंस ने आज बताया है कि फलाँ काम ऐसे करने चाहिये, हमारे हुजूर साहब ने तो चौदह सौ साल पहले एसा बता दिया था’.— ‘हमारे ऋषि मुनि ने तो हजारों साल पहले बता दिया था’… इसका क्या अर्थ निकालते हैं आप? वे लोग डॉक्टर थे, इंजीनियर थे, वैज्ञानिक थे?

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 4

कुरान से क्या वाकई छेड़छाड़ हुई थी

बहरहाल कुरान पर विवाद तो थे ही जो मुसलमानों के एक गिरोह (बनी कुरैश से संबंधित) ने उस्मान के घर पर हमला कर दिया था और उनकी घेराबंदी कर ली थी— उस भीड़ के इल्जामों में एक इल्जाम कुरान में मिलावट का भी था और उन्होंने तलवारों के वारों से खलीफा उस्मान को कत्ल कर डाला था।

  इसके बाद अगली छेड़छाड़ हज्जाज बिन यूसुफ के वक्त में हुई— इस पर भी कई विवाद हैं। बावजूद इन सब सुधारों के कुरान के मूल कंटेंट में एक चीज मिसिंग है कि सूरह फातिहा (यह दुआ है जो मूल कंटेंट से नहीं हो सकती, क्योंकि खुदा खुद से तो दुआ मांगेगा नहीं) के सिवा बाकी चैप्टर्स में सीधे-सीधे संदेश हैं… यानि यह तय करना मुश्किल है कि किससे, किस विषय में, किसके लिये कहा जा रहा है तो उसमें ब्रैकेट की गुंजाइश बना ली गयी और यूं आयतों की तफसीर में भी कई जगह भेद पड़ गया।

  मतलब देवबंदियों का गिरोह इन्हीं आयतों से मजारपरस्ती को हराम करार दे लेता है और बरेलवियों का गिरोह उन्हीं आयतों से मजारपरस्तीशख्सियत परस्ती (रसूल की) को जायज करार दे लेता है— इसके सिवा भी ब्रैकेट का प्रयोग नये उपलब्ध ज्ञान और विज्ञान को समाहित करने के लिये भी किया गया।

क्या इस्लाम तलवार के जोर पर फैला

  मुसलमानों पर अक्सर एक इल्जाम आयद होता है कि इस्लाम तलवार के जोर पर फैला— यह प्रकारांतर से वैश्विक सच्चाई तो है लेकिन भारत के संदर्भ में फिट नहीं बैठती… हां भारत में भी बाकी जगहों की तरह हुकूमत जाहिर है कि तलवार के जोर पर ही हासिल की गयी थी।

  भारत में मुख्य रूप से इस्लाम फैलने के तीन कारण थे— सबसे मुख्य जातिगत शोषण, फिर सूफीज्म वाले उदार इस्लाम का प्रभाव और तीसरे मुस्लिम बादशाहों या मुगलों के शासन काल में रियायतों, सुविधाओं, पद, शक्ति और वर्चस्व का लालच। भारत के संदर्भ में यह कहना गलत है कि तलवार के जोर पे फैला।

  लेकिन बाकी जगहों में यह वैश्विक सच्चाई है। प्रोफेट के मदीने हिजरत के बाद से ही यह लड़ाइयां शुरू हो गयी थीं जो लोगों को इस्लाम के दायरे में लाने के लिये थीं और रसूल की वफात के बाद हजरत अबू बक्र ने भी अरब में इस्लाम के सिवा बाकी धर्मों के खात्मे के लिये एक अभियान चलाया था जिसमें ‘मुस्लिमा’ जैसे स्वघोषित पैगम्बर और कई छोटे-मोटे धर्म खत्म किये गये थे। बाद में ताकत आई तो इसका विस्तार अरब से ले कर सिंधु तक हुआ।

  जहां प्रोफेट के जीवन में ही अरब क्षेत्र को इस्लाममय कर लिया गया था वहीं 632 से ले कर 661 तक कायम रही रशिदुन खिलाफत (अबु बक्र, उमर, उस्मान, अली) ने अरब के बाहर आसपास के इलाकों में अपनी हुकूमत कायम कर ली थी और उनके बाद मुआविया के दौर में 661 से कायम हुई उमय्यद डायनेस्टी ने चौदह वंशानुगत शासकों के साथ 750 तक इस इस्लामिक साम्राज्य उत्तरी अफ्रीका, स्पेन से ले कर सिंधु तक, लगभग 38-39 देशों तक फैलाया।

  उनके बाद फिर एक दौर 750 से  कायम अब्बासी डायनेस्टी का रहा— जो 1257 तक कायम रहा… साथ ही 921 से 1171 के बीच अरबइजिप्ट से ले कर माल्टाइटली तक कई देशों में फातिमी शासन रहा— और उसके बाद एक दौर आया 1299 से शुरू हुए उस्मानिया साम्राज्य (ऑटोमन) का, जिसने 1923 के बीच योरप, एशिया और अफ्रीका के लगभग 48 देशों में सत्ता स्थापित की जिसका अंत औपनिवेशिक काल में हुआ।

  इस सबके बीच लाखों यहूदी, इसाई और दूसरे धर्मों के लोग मारे गये और लाखों लोग मुसलमान हुए तो तलवार के जोर वाली धारणा शायद इस वजह से फैली हो।  

हज़रत अली और  हजरत आयशा दोनों आपस में लड़ कर भी सही थे?

  बहरहाल अगर हम बात इस्लाम की करें तो एक भयंकर विरोधाभास आपको यहां मिलेगा। आम हालात में आपके सामने कोई जंग हो, जिसमें लाशों के ढेर लग जायें तो आप स्याह सफेद में से एक के पक्ष में तो खड़े होंगे— दोनों में से एक को तो गलत ठहरायेंगे, लेकिन मुसलमानों ने दोनों के पक्ष में खड़े होने का कारनामा कर के दिखाया है— यानि यह माना है कि जंग करके लाशों के ढेर लगाने के बाद भी दो लोग सच और हक पर थे।

  हजरत उस्मान की हत्या के वक्त उनकी सुरक्षा में अली के बेटे भी तैनात थे— जिससे एक इल्जाम उन पर यह भी आया कि कातिल उन्हीं के लोगों में से थे जिन्हें खलीफा बनने के बाद हजरत अली सजा देने के बजाय बचाने की कोशिश करते रहे और इसी आधार पर आगे पहले हजरत आयशा ने 656 में उनके साथ जंगे जमल (ऊंटों की लड़ाई), लड़ी… जिसमें एक अनुमान के मुताबिक तेरह हजार हजरत आयेशा की तरफ से और पांच हजार (आंकड़े अनुमानित) अली की तरफ से लोग मारे गये। अंदाजा लगाइये कि यह दोनों सास दामाद थे और सारे मरने वाले मुसलमान— लेकिन बकौल मुसलमान यह दोनों हक पर थे। एक उम्मुल मुस्लिमीन और एक इस्लामी खलीफा।

  इसके बाद फिर इसी मसले पर मुआविया ने 657 में हजरत अली से जंगे सिफ्फीन (सीरिया) लड़ी— जिसमें 65000 (पुष्टि नहीं) लोग मरे और घायल हुए… यहां भी मुसलमान दोनों में से किसी को गलत नहीं मानते और अली के बाद मुआविया खलीफा बने। इन मामलों में शिया फिर भी एक स्टैंड पर टिक कर अली के सिवा बाकी सबको गलत मानते हैं।

शुरूआती इस्लाम का इतिहास ही हिंसा से भरा हुआ है

  एक विडंबना यह भी देखिये कि रसूल की मौत को लेकर दो धारणायें हैं— एक तो यह कि उन्हें जहर दिया गया था, जिसके जेरे असर वे धीरे-धीरे मौत के मुंह तक पंहुचे… दूसरी कि वे किसी रहस्यमयी बुखार (वे लंबी बीमारी लिखते हैं) का शिकार हो कर— फिर बेटी हजरत फातमा के घर हमला हुआ, जिसका इल्जाम भी रसूल के खास साथियों पर है, जहां हजरत फातमा इस कदर घायल हुईं कि मिसकैरेज हो गया और जल्द ही उनकी भी मौत हो गयी… एक धारणा के मुताबिक यहां तक कि उन्होंने वसीयत भी की थी रसूल के उन खास साथियों को लेकर कि वे उनकी मय्यत में न आयें।

  पहले खलीफा अबू बक्र चूँकि बड़ी उम्र के थे, जल्द ही नेचुरल मौत मरे लेकिन बाद के खलीफाओं में हजरत उमर को कत्ल किया गया, हजरत उस्मान को कत्ल किया गया,हजरत अली को कत्ल किया गया… वह भी उनके घर, मस्जिद में, नमाज पढ़ते में— नवासों में हसन को जहर दे कर मारा गया,हुसैन को कुनबे समेत करबला में मारा काटा गया… यह सब खुदा के खासुलखास लोग थे लेकिन मजाल है जो खुदा ने कोई मदद की हो।

  करबला के बाद यजीद की सेना ने मक्का और मदीना पर चढ़ाई कर दी— हजारों लोग कत्ल किये गये, ढेरों सहाबी मारे गये, लिटरेचर जला दिया गया, औरतों से बलात्कार किये गये, काबे को नुकसान पंहुचाया गया, नबी की मस्जिद को ऊंटों का अस्तबल बना दिया लेकिन खुदा ने कहीं भी कोई मदद नहीं की— हां ऐसी बातों के लिये हर मौके पे फिट टेलरमेड जुमला सुन लीजिये कि खुदा की मसलहत थी, आजमाइश थी। मजे की बात यह है कि इतना सब होने के बाद भी उमय्यद सल्तनत के खिलाफ कोई बगावत न हुई, उमय्यद को इस्लाम से खारिज न किया गया और आज भी उमय्यद के पूरे काल को इस्लामिक शासन ही कहा जाता है।

  आज की तारीख में मुहम्मद साहब का कार्टून भी कोई बना दे तो चाहने वाले खून खराबा करने पंहुच जाते हैं लेकिन अतीत में उन्हीं प्रोफेट की बेटी के घर हमला हुआ— उनके दामाद को कत्ल किया गया, मुआविया ने हसन से किया करार तोड़ा, नवासे को कत्ल किया गया लेकिन मजाल है कोई बम बन कर दगने पंहुचा हो… बड़ी मासूमियत से उन घटनाओं को जस्टिफाई करने के लिये कहानियाँ बना ली गयीं और ले दे के बिल बस यजीद के नाम पर फाड़ दिया गया।

  बावजूद इसके यजीद का एक्सेप्टेंस देखिये कि जैसे आज मुसलमान यजीद के नाम पे नाक भौं सिकोड़ते हैं तब कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उसी उमय्यद सल्तनत में यजीद द्वितीय  (720-724) और यजीद तृतीय (744) भी बादशाह हुए और बाकायदा स्वीकार भी किये गये।

क्या हदीसें इस्लाम का सच्चा इतिहास हो सकती हैं

  अब अंदाजा लगाइये कि इन सब हालात के बीच दो ढाई सौ साल तक (सातवीं शताब्दी से ले कर नौवीं शताब्दी तक) जनश्रुतियों में जो उस अतीत से जुड़ी बातें तैरती रहीं (जिन्हें बाद में हदीसों में लिखा गया) वे मिलावट और झूठ से कितनी पाक साफ बची होंगी?

  जब इन बातों को नौवीं शताब्दी में कलमबद्ध किया गया तब छः लाख के लगभग ऐसी कहानियाँ थीं जो जनश्रुतियों में तैर रही थीं— ज्यादातर लोगों ने अपने किसी फायदे या स्वार्थ के लिये गढ़ रखी थीं, जिनमें से 90% से ज्यादा खारिज करके बाकी जिन्हें लिखा गया उनकी भी क्या गारंटी है कि वे मिलावट रहित और एकदम सटीक हैं?

  बहरहाल हदीस कलेक्शन के रूप में सही बुखारी (7225), सही मुस्लिम  (4000), तिर्मिजी (3891), अबू दाऊद (4800), इब्ने माजा (4000), अन नसाई (5662) मान्य ग्रंथ हैं और साथ ही एक दिलचस्प इत्तेफाक यह है जो बीवी रसूल के साथ तेईस चौबीस साल रहीं, उनकी चुनिंदा बातें हैं और जो आयेशा कुछ साल ही साथ रहीं, उनकी सबसे ज्यादा हदीसें हैं।

क्रुसेड ईसाईयों का जिहाद है

  यूँ तो खूनखराबे के लिये मुसलमान ज्यादा बदनाम हैं लेकिन ईसाइयों ने कम कत्लेआम नहीं किया। अगर इस्लाम के अवतरण से पहले योरप में मची मारकाट को दरकिनार भी कर दिया जाये तो भी धर्म के नाम पर ईसाईयों ने क्रूसेड वार्स में ही अपनों और परायों की लाशों के ढेर लगाये हैं।

  जैसे भारत में राम जन्म भूमि मुक्तिकरण के नाम पर आंदोलन चला था— वैसे ही वे चौथी शताब्दी में कौंटेस्टाईन की मां द्वारा ईसा की समाधि पर बनवाये गिरजाघर को मुसलमानों से पाने के लिये युद्ध करते थे जो रशिदुन खिलाफत में 636 से उमर द्वारा अपने कब्जे में ले लिया गया था। इसके सिवा उनके क्रूसेड (धर्मयुद्ध) का एक कारण वहां सम्राटों से शक्तिशाली पोप के प्रभुत्व स्थापित करना भी था।

  पहला क्रूसेड 1096 में हुआ जिसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया, लेकिन दो भागों में बट कर… एक समूह अतिवादी जनसाधारण की भीड़ का, जो अपनी हरकतों के कारण ज्यादातर तुर्कों के हाथों मारे गये। दूसरा दल कुशल सामंतों की सेनाओं का था जिन्होंने 1099 में जेरूसलम पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों, यहूदियों की लाशें बिछा दीं।

  1144 में मोसुल के तुर्क शासक इमादुद्दीन जंगी ने इसी क्षेत्र की एदेसा काउंटी पर फिर कब्जा कर लिया और पोप से सहायता मांगी गयी— संत बर्नार्ड ने क्रूसेड का एलान कर दिया। फ्रांस के राजा लुई सेवेंथ और जर्मनी के कोनराड थर्ड तीन लाख की सेना के साथ युद्ध के लिये निकले… अगले तीन साल तक दोनों तरफ के हजारों सैनिक गंवाने के बाद भी नाकामी हाथ लगी।

  जबकि तुर्की साम्राज्य में उभरे सलाहुद्दीन ने 1187 में जेरूसलम पर हमला करके कब्जा कर लिया— जिसके खिलाफ फिर धर्मयुद्ध का आह्वान किया और इंग्लैंड, जर्मन और फ्रांस के राजाओं ने हिस्सा लिया और कई साल चले हजारों जाने लीलने वाले इस युद्ध में भी कामयाबी न मिली।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 3

आर्य संस्कृति में श्रुति स्मृति ग्रन्थ

 मूल रूप से आर्य साकार की पूजा करने वाले नहीं थे और न ही मंदिर बनाते थे। यह चलन व्यापक हिंदू धर्म से अलग हुई शाखाओं के रूप में जैनियों और बौद्धों की देखादेखी शुरू हुआ। आज तो जो हिंदू धर्म हम अपने आसपास देखते हैं वह वैदिक धर्म तो नहीं है बल्कि कई विचारधाराओं का मिश्रण लगता है। वैदिक धर्म का पालन करने वाले आर्यसमाजी तो आज भी खुद को अलग खांचे में रखते हैं।

  बहरहाल जब भारत में हिंदू धर्म स्थापित हो गया था तो उनमें शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं),वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक समान मानते हैं) के रूप में मुख्य संप्रदाय थे जिनमें शैव, वैष्णव और शाक्त आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे और अपनी कहानियों में एक दूसरे के परमेश्वर को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे— ख़ास कर शैव और वैष्णव। इससे निपटने के लिये संतों ऋषियों ने कई तरह की कोशिश की… और काफी हद तक तो कामयाबी पाई ही।

  इस धर्म में दो तरह के ग्रंथ हैं ठीक सेमिटिक (इस्लाम के कुरान हदीस) की तरह— श्रुति और स्मृति। श्रुति मतलब ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्रह्मसूत्र व उपनिषद जो कुरान की तरह अपिरवर्तनीय हैं और स्मृति मतलब रामायण, महाभारत, भगवत गीता, पुराण, मनुस्मृति,धर्म शास्त्र और धर्म सूत्र और आगम शास्त्र जिनमें देश कालानुसार बदलाव हो सकता है।

  अब यहां से खेल समझिये— स्मृति ग्रंथों में कथायें हैं कल्पना और रूपकों से भरी। आपको यहां अपनी बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करना होगा और तर्क की कसौटी पर परख कर समझना होगा कि क्या सत्य है और क्या कल्पना और रूपकों के सहारे कहा गया कोई गूढ़ संदेश… क्यों रामायण में उत्तर का नायक और दक्षिण का खलनायक था— या कहीं इन रामायण महाभारत में चरित्रों, रूपकों के सहारे मन की अच्छी बुरी अवस्थाओं को ही तो नहीं परिभाषित किया गया?

अजीबोगरीब रूप वाले देवी देवता कहीं रूपक तो नहीं

  या हो सकता है कि जैसे हम प्रकृति से जुड़ी शक्तियों को मानते थे और शेर या हाथी को शक्ति का सूचक मानते थे तो हो सकता है कि किसी काल में स्थानीय संस्कृति में किसी कबीले का मुखिया या बाहुबली टाईप राजा हुआ हो जो बहुत बहादुर हो और जैसे ‘अलेग्जेंडर’ मूवी में अपने को शेर साबित करने के लिये शेर के चेहरे वाला मास्क लगा कर नायक खुद को पेश करता है— ठीक उसी तर्ज पर वह व्यक्ति खुद, शक्ति के एक और प्रतीक हाथी के रूप में पेश करता रहा हो और उसके फालोवर्स में उसकी मान्यता देवता जैसी हो— तो हो सकता है उस चरित्र को अपने लिटरेचर में समाहित करने के लिये गणेश जी का गढ़न हुआ हो… वर्ना मैल से बालक, इंसानी शिशू और हाथी के सर का व्यास, गर्दन की मांसपेशियों और ब्लड ग्रुप के बीच भला कोई सामंजस्य है?

  स्मृति ग्रंथों की तरह ही इस्लाम में हदीसें हैं जिनमें कुछ भी लिखा है लेकिन सबसे बड़ा फर्क उनमें यह है कि रूपकों का कोई सहारा नहीं लिया गया और पात्र भी काल्पनिक नहीं— लेकिन जो बातें उनमें उकेरी गयी हैं उनकी सटीकता की रत्ती भर भी गारंटी नहीं। जो वाक्यात उनमें दर्ज हैं वह जिस वक्त घटित हुए थे उस वक्त कोई लिखित इतिहास तैयार नहीं किया गया। जो थोड़ा बहुत था भी वह नष्ट हो गया और बातें जुबान दर जुबान आगे बढ़ती रहीं और उनमें भेद पड़ते रहे।

  नौवीं शताब्दी में जब इन्हें कलमबद्ध किया गया तब सुन्नी कुछ कह रहे थे, शिया मत के लोग कुछ और इतिहास के स्कॉलर कुछ। दावे सबके हैं कि हमारा वाला डेटा गॉड अप्रूव्ड है लेकिन सच तीन तो नहीं होते— ठीक स्मृति ग्रंथों की तरह यहां भी आपको अपनी बुद्धि और विवेक से ही काम लेना पड़ेगा।

क्या वेद ईश्वरीय ग्रन्थ हैं

वेदों के बारे में एक धारणा है कि यह वह ज्ञान है कि जो स्वयं ईश्वर ने ऋषियों को दिया था और कालांतर में वे सीना ब सीना आगे बढ़ाते रहे और तब लिखे गये जब लिखने की कला और तकनीक सहज उपलब्ध हो गयी। जाहिर है कि इतनी मोटी मोटी किताबें ताम्र पत्रों, रेशमी कपड़े, बांस, शिलाओं, चमड़े पर उकेरना संभव नहीं था और कागज का आविष्कार 200 ईसापूर्व हुआ था— बाईबिल (पुराना नियम-नया नियम) से ले कर वेद तक लिखे सब उसके बाद ही गये, दावे कोई कुछ भी करता रहे।

  अब इतने वक्त में वही हजारों साल पुराना ज्ञान जूं का तूं लिखना मुश्किल है, तो जाहिर है तब तक उपलब्ध ज्ञान, खोज और उसके अनुकूल कल्पनाओं को उसमें सहेजा जरूर गया था और यह चतुराई श्रुति स्मृति सभी ग्रंथों में मिलती है— पुराण तो अट्ठारहवीं शताब्दी तक लिखे गये और उनमें जो भविष्यवाणियां लिखी हैं, वे घटित होने के बाद दर्ज की गयीं… जिसके बारे में पहले कभी मैंने ही लिखा भी था कि देवता, निशानियों समेत राजा भोज को पैशाचधर्म (इस्लाम) के बारे में बताता है, जिसे वह उत्पन्न करेगा।

  यहां तक कि अकबर के आभामंडल का प्रभाव था कि उसे भी पूर्वजन्म का मुकुन्द ब्राह्मण घोषित कर दिया था जो दूध के साथ गाय का रोयां पी गया था और शापित हो कर अकबर म्लेच्छ के रूप में पैदा हुआ था। तो किताबें लिखी जातीं रहीं और नये उपलब्ध ज्ञान के अनुसार चीजें उनमें समाहित की जाती रहीं।

  पता चला मूल ग्रंथ बीस हजार श्लोक का था, लेखक को गुजरे जमाना हो गया लेकिन श्लोक बढ़ते-बढ़ते लाख की संख्या पार कर गये। ऐसा कारनामा सभी धर्मों की धार्मिक किताबों में मिलेगा। कुरान हाफिजे की प्रतिबद्धता के कारण इस मिलावट से तो बच गया लेकिन उस पर भी कई इल्जाम हैं और उसमें भी नये उपलब्ध ज्ञान के अनुसार ‘ब्रैकेट’ का सम्मिश्रण किया गया।

अध्यात्म की अवधारणा

  ऋषियों मुनियों ने बहुत पहले योग, ध्यान, साधना के द्वारा उस केन्द्रीय ऊर्जा, या कहें तो परम ब्रह्म को जान लिया था जिसके लिये अगर उनके ही नज़रिये से ही देखें तो कह सकते हैं कि ‘वह’ ही जगत का सार, जगत की आत्मा है, आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति भी होती है और नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है, वह विश्वातीत भी है, विश्व से परे भी।

  यूँ समझिये कि मेडिटेशन द्वारा मन के मंथन से उपजा अमृत, जो कालातीत, नित्य और शाश्वत है— अद्वैत वेदांत के अनुसार जब मानव मन से ईश्वर को जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, इसी को आप कण-कण में ईश्वर के रूप में देख सकते है। यह ध्यान योग की कला भारत से ही दूर दराज के दूसरे देशों तक पंहुची थी।

  तो इसी तरह इस्लाम के स्थापनापुरुष मुहम्मद साहब और कुरान को लेकर भी दो तरह की धारणायें हैं। एक तो सीधे सीधे उन्हें ईशदूत घोषित करती है जिनके पास जिब्रील नामी फरिश्ते खुदा के संदेश के रूप में आयतें लाते रहे और सिलसिला तेईस साल तक चलता रहा— गारे हिरा से शुरू हुआ सफर आखिरी पड़ाव तक चलता रहा, लेकिन संदेशवाहक जिब्रील कभी भी किसी दूसरी शख्सियत द्वारा नोटिस न किये गये।

  वहीं एक धारणा कहती है कि वे एक समाज सुधारक और गुरू थे, जिन्होंने गारे हिरा जा-जा कर ध्यान कला विकसित कर ली थी और मेडिशन द्वारा उन्होंने ब्रह्म तत्व को पाया था। किसी इंसानी जीवन में आने वाले हर पड़ाव, हर समस्या और हर उलझावे पर वे अपने साथियों के साथ विचार विमर्श करते थे, उस पर मनन करते थे और फिर मेडीटेशन द्वारा उसका हल एक आयत के रूप में निकालते थे।

  इस धारणा के साथ आप उन सहाबियों के मशवरे से नाजिल हुई आयतों को जस्टिफाई कर सकते हैं, वर्ना प्रथम दृष्टया यह अजीब लगता है कि खुदा जैसी सर्वज्ञ शक्ति को भी सहाबियों के किसी मश्वरे की जरूरत थी कि वह उनके कहे अनुसार आयतें नाजिल करता था।

नमाज़ भी एक तरह का योग ही है

  इस धारणा के साथ आप कुरान में इस्तेमाल हुए शब्द ‘सलात’ को भी जस्टिफाई कर सकते हैं जिसका अर्थ ही जोड़ना, कनेक्ट करना (ब्रह्म तत्व के साथ) होता है, जिसे ‘कायम’ करने को कहा गया है, वर्ना नमाज तो ‘पढ़ी’ जाती है और सलात का अर्थ नमाज ही होता है तो जो कुरान हर मसले पर व्यापक मश्वरे देती नजर आती है वह नमाज जैसे इस्लाम के सबसे अहम स्तून पर कोई भी व्याख्या नहीं करती कि इसे किस अवस्था में, कैसे और कितनी बार पढ़ना है।

 नमाज भी योग ही तो है— जहां मेडिटेशन एक लंबी प्रक्रिया है, वहीं हो सकता है कि नमाज को वे मेडिटेशन के छोटे शुरुआती स्टेप के रूप में पढ़ते पढ़ाते रहे हों। आखिर इंटेंशन तो वही है कि नमाज द्वारा शेष दुनिया से हट कर खुद को खुदा से जोड़ना— लेकिन लोग चूँकि इसे एक इबादती क्रिया समझ के कर बस दोहराये जा रहे हैं तो वे मेडीटेशन को छू भी नहीं पाते।

  नमाज की जिस हालत में नमाजी को बाकी जमाने से कट जाना चाहिये— वहीं लोग चटाई, अगली सफ के लोगों को, छत से लटके पंखों आदि को देखते हुए कहीं दुकान का हिसाब किताब जोड़ते हैं… कहीं दोस्त, लड़की, बॉस या किसी समस्या के बारे में सोचते रहते हैं— असल में यह ‘सलात’ शब्द का पहले ही कदम पे फेलुअर है।

क्या कुरान वाकई मुकम्मल है

  बहरहाल कुरान को लेकर भी दो तीन तरह की धारणायें हैं कि जो आयतें नाजिल होती थीं वह मुहम्मद साहब लिखवा (हड्डी, लकड़ी, झिल्ली, चमड़े, पत्ते, छाल पर) लेते थे (जैद और अली से) और उन्हीं सब आयतों को खलीफा उस्मान के दौर में संकलित करके जिल्दबंद किया गया। इसकी जरूरत क्यों पड़ी— एक धारणा के अनुसार उसी दौर में कुरान के पठन में भेद पड़ने लगे थे तो उसे जिल्दबंद करा के सुरक्षित कराया गया। इसके साथ ही जितना भी बाकी मूल कंटेंट था वह सब का सब नष्ट करा दिया गया।

इस धारणा के साथ एक इल्जाम यह भी है कि जो आयतें नाजिल होती थीं वह मुहम्मद साहब फातिमा के पास सुरक्षित रखते थे, जिसे ‘मुसहफ ए फातमा’ कहा गया और यही असली कुरान था जिसमें शियों के इमाम जफर सादिक के अनुसार 17000 हजार आयतें थीं जबकि मौजूदा कुरान में 6666 आयतें हैं (उसूले काफी)

  इसके सिवा इसके कंपलीशन पर सवाल उठाती एक चीज और भी है जो हदीसों में कई जगह मिलती है कि रसूल अक्सर भूल जाते थे आयतों को, और इस तरह सूरह अहजाब की कई आयतें गुम हो गयी। एक ‘रज्म” की भी आयत थी जो तौरात से ली गयी थी (बलात्कार या व्याभिचार की सजा के तौर पर संगसार करके खत्म करना), जिसे रसूल रजः कबीरः कहते थे— वह भी कुरान में शामिल होने से रह गयी थी, लेकिन इसे शरीयत में शामिल किया गया और आज भी यह सजा के तौर पर कायम है।

  जबकि इससे इतर एक धारणा यह भी है (सूफिज्म से जुड़ी) कि कुरान की आयतों को कभी लिखाया नहीं गया— यह तो वह मंथन से मिला अमृत रूपी ज्ञान था जो सीना ब सीना मुहम्मद साहब ने अली को ट्रांसफर किया था और इसी बिना पर उन्हें बोलता कुरान की संज्ञा दी थी। फिर आगे इसे अली ने पंहुचाया था।

Written by Ashfaq Ahmad

धर्म यात्रा 2

धर्म की एक आवश्यकता बड़े समाजों के संचालन को लेकर भी थी

धर्म की एक वजह इस मानव जीवन को अनिश्चित्ता और असुरक्षा से निकालने की भी थी, जहां इसके पीछे ही कई नियम तय किये गये जिससे संगठित धर्मों में व्यवस्था संचालन निर्धारित किया जा सके और जिसकी परिणति आगे चल कर ‘हम्मुराबी संहिता’ ‘मनुस्मृति’ और ‘शरा’ के रूप में हुई।

  और तब की अगर बात करें तो धर्म या यूँ कहें कि आज के आधुनिक दौर के हिसाब से अंधविश्वास का एक शुरुआती प्रयोग किया गया था— जिसका मकसद लोगों को डरा कर काबू में रखना भी था। तब कबीलों में ओझा की हैसियत के लोग होते थे— जो इस सिलसिले के सूत्रधार होते थे और तब के भगवानपैगम्बर ज्यादातर कबीलों के मुखिया, राजा जैसे प्रमुख लोग होते थे जो एग्जिस्ट करते थे और वह भी होते थे जो काल्पनिक होते थे, जिनकी बस कहानियाँ सुना कर उनकी मूर्ति स्थापित कर के उनकी पूजा वगैरह कराई जाती थी… जैसे इब्राहीम से ले कर इस्लाम के अवतरण काल तक अरब के अलग-अलग सभी कबीलों के अपने ईष्ट हुआ करते थे— जिनकी उन्होंने मूर्तियां स्थापित कर रखी थीं।

  आप इंका, माया, सुमेरिया, मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं का अध्ययन करेंगे तो उनमें भी इसी तरह के ईष्ट और इसी तरह का चलन पायेंगे— या अपने देश के ही आदिवासियों का प्राचीन इतिहास टटोलिये… सबकुछ आपको इसी अंदाज में मिलेगा।

  तब उस दौर में (खास कर मिस्री सभ्यता में, जो विज्ञान में भी काफी उन्नत थी) पिरामिड टाईप विशाल निर्माण के लिये जुटाये गये मजदूरों की चेतना पर भी इसी धार्मिक चाबुक का इस्तेमाल किया जाता था, जिससे वे बे चूं चरा उसे ईश्वर की इच्छा मान कर करते रहें— वर्ना कल्पना कीजिये कि पिरामिड जैसे विशाल निर्माण बिना भारी भरकम मशीनरी के सपोर्ट के आज भी कितने मुमकिन हैं। हालाँकि इसका एक मज़बूत कारण शाषक की ताक़त और धन भी हो सकता है कई मामलों में।

 इस दौर तक सभ्यता को पंहुचने में धर्म में डर के साथ लालच का भी मिश्रण किया गया और कई तरह के कर्मकांड भी किये जाने लगे— जिसमें पूजा अर्चना के साथ यज्ञ और बलि जैसी प्रथायें भी थीं। उस दौर में कई छोटे-छोटे धर्म तो अस्तित्व में आये लेकिन यूरेशियाई रीज़न में मुख्य पहचान अगर हम सीमित शब्दों में परिभाषित करें तो पगान और इब्राहीमी धर्म को मिली। पगानिज्म जहां बहुदेववाद और मूर्ति पूजा पर आधारित था वहीं इब्राहीमी मूर्ति पूजा का विरोधी और एकेश्वरवाद पर आधारित था।

पगान और इब्राहिमी धर्म एक दूसरे के विरोधी हो कर भी सामानांतर थे

  पगान धर्म के कर्मकांडों में बहुत कुछ आज के भारतीय धर्म से सिमिलर मिलेगा, बल्कि पूजा अर्चना, यज्ञ, बलि सब सेमेटिक धर्मों के हिसाब से देखें तो विरीधाभासी तौर पर इब्राहीम से ले कर इस्लाम के अवतरण तक चलती रही और मक्का विजय के बाद अरब में मौजूद न सिर्फ सारी मूर्तियाँ तोड़ी गयीं— बल्कि मंदिर भी ध्वस्त किये गये और खुद को पिछली रवायतों से काफी हद तक अलग किया गया, लेकिन फिर भी हज, कुर्बानीखतना जैसी रवायतें वहीं से अडॉप्ट की।

  पगान का मूल आधार मूर्ति पूजाप्रकृति पूजा और बहुदेववाद था, इसे आप हिंदुओं का पौराणिक पार्ट कह सकते हैं— इसका उद्गम स्थल तो आज के जर्मन को कहा जाता है पर यह उस वक्त योरप और अरब आदि में संक्रमण की तरह फैला था। जो अब्राहमिक नहीं था वह पगानी था— हालाँकि इनके जो भी ग्रंथ आदि थे वह जला दिये गये थे। इस बारे में दावे से नहीं कहा जा सकता लेकिन अनुमानतः वैदिक संस्कृति और आर्य आगे ज़रथुस्त्रवाद के नाम पे फैले इसी सेक्ट की देन थे। बाकी बोलचाल के अंदाज से ले कर प्रतीक चिन्हों की जर्मनों/ज़रथुस्त्रवादियों से सिमिलैरिटी आप खुद भी निकाल सकते हैं।

  देखिये, समझ में न आने वाली चीजों को चमत्कार समझने और प्रकृति की विध्वंसकारी शक्तियों के पीछे ‘कोई है’ समझने की भावना तो शायद इंसानी सफर के शुरुआती दौर से रही है लेकिन इसके पीछे वे एकदम किसी आस्मानी ईश्वर को मान्यता देते थे, यह कहना सिरे से गलत होगा क्योंकि बाद के इतिहास में कई विरोधाभासी चीजें मिलती हैं।

  बहरहाल एक व्यापक पहचान के रूप में उभरे पगानियों और इब्राहीमियों में से पगानियों से जरथुस्त्र की विचारधारा मैच करती मिलेगी और जरथुस्त्र का सारा अवेस्ता साहित्य आपको वैदिक ज्ञान से ओतप्रोत मिलेगा। वे खुद को आर्य कहते थे और अपने सिवा बाकियों को (खास सेमिटिक वाले) अनार्य।

  पगानियों का प्रकृति पूजामूर्तिपूजा और बहुदेववाद तो आज के आधुनिक हिंदुत्व के समान था लेकिन जरथुस्त्र का सिद्धांत वैदिक समान मिलेगा जो एक निराकार ईश्वर को तो मानता है लेकिन उसके प्राकृतिक रूपों को भी मान्यता देता है— वे आग की पूजा इसी रूप में करते थे और जनेऊधारी थे। जरथुस्त्र के अवेस्ता साहित्य और वैदिक संस्कृत में आपको गहरी समानता मिलेगी जिससे आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि इनका आपसी संबंध क्या रहा होगा।

पगानियों और इब्रहिमियों का विरोधाभास

  एक अजीब विरोधाभास आपको यह मिलेगा कि जहां पगानी बहुदेववाद में यकीन रखते थे और ईश्वरीय शक्ति के प्राकृतिक रूपों को भी मानते थे वहीं इब्राहीमी कांसेप्ट सारी शक्तियों के एक केन्द्र के रूप में एकेश्वरवाद को मान्यता देता था— लेकिन बदले दौर में जहां पगानियों से ही विस्तार पाये आर्यों के मूल में एकेश्वरवाद स्थापित हुआ वहीं इब्राहीमियों ने कुछ सौ सालों में ही बहुदेववाद में यकीन बना लिया।

  हालाँकि इब्राहीमियों से मूसा के काल में एक शाखा अलग हुई— जिसने एकेश्वरवाद का सिद्धांत, उसके दूतों को अवतार, नबी, पैगम्बर ठहराते हुए बनाये रखा और बाद में इसी पदचिन्ह पर उनसे ईसा के काल में एक और शाखा अलग हुई और उसने एकेश्वरवाद को थोड़े अजीब अंदाज में अपनाया… अपने संदेष्टा को ईश्वर का बेटा ठहरा कर।

  जबकि अरब जगत में अलग-अलग कबीलों के इसी तरह के प्रकृति से जुड़े काल्पनिक देवता हुआ करते थे जिनकी मूर्तियां काबे के बाहरी सिरे में स्थापित थीं और अंदर बाकायदा सीरियन के चंद्र देवता हबल और अल इलातअल मनात, अल उज्जा के रूप में उसका परिवार स्थापित था और बाकायदा उनकी पूजा अर्चना होती थी।

  यह सीधे तौर पर बहुदेववाद था— फिर मुहम्मद साहब के मक्का विजय के बाद भले कई पिछली (हज कुर्बानी जैसी) परंपरायें ले ली गयीं पर सीधे तौर पर एकेश्वरवाद की वापसी हुई जो मुसलमानों में अब तक चली आ रही है, यानि इब्राहीमी विचारधारा के लोग अपने मूल पर लौट आये।

  फिर आगे चल कर फारस (ईरान) भी उनके अधीन हो गया तो जरथुस्त्रवाद  भी एक तरह से लगभग खत्म हो गया। इसके मानने वाले नाम के बचे— लेकिन इब्राहीमी विचारधारा वाले भले चौदह सौ सालों से नाम से मुसलमान ही रहे हों लेकिन उनमें भी सुन्नी शिया अहमदिया, देवबंदी, बरेलवी जैसे ढेरों मत विभाजन हुए।

  जबकि ईसा से शायद दो हजार साल पहले उन आर्यों ने सिंधू के रास्ते भारत में प्रवेश किया था और कालांतर में पूरी भारत भूमि पर फैल गये। उनके पास दिमाग था, साधन थे— उन्हें स्थापित होने में उतनी कठिनाई न हुई। उन्होंने अपनी संस्कृति को स्थानीय संस्कृति के साथ मिक्स कर दिया। जैसे उदाहरण के लिये कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में शिव का मुख्य स्थान था, और खरे शब्दों में कहा जाये तो कभी शिवलिंग उपासकों की हंसी उड़ाने वालों ने शिव को ही हाईजैक कर लिया।

आर्य संस्कृति का भाषाई संपर्क

  खुद को आर्य कहने वाले पश्चिम की तरफ से आये थे— यह दावा करना बड़ा मुश्किल है लेकिन अगर हम इसका भाषाई संपर्क खोजें तो इतिहासकारों और भाषाविज्ञानियों के मुताबिक संस्कृत का सबसे प्राचीन रूप, जिसे हम ऋग्वैदिक संस्कृत कहते हैं— के सबसे पहले उपयोग का लिखित साक्ष्य उत्तर सीरिया में मिलता है। इतिहासकार बताते हैं कि 1500 से 1350 ईसा पूर्व के दौरान यूफ्रेटस और टिगरिस नदी घाटी के ऊपरी इलाके में मितन्नी नाम का एक राजवंश हुआ करता था जिसके हर राजा का नाम संस्कृत में हुआ करता था। यह इलाका आज के सीरिया, ईराक और तुर्की में बंटा हुआ है। पुरुष, दुश्रत, सुवर्दत्त, सुबंधु जैसे नाम इनके राजाओं और स्थानीय सामंतों के हुआ करते थे। वसुकन्नी अर्थात वसुखन्नी इनके राज्य की राजधानी थी।

वैदिक सभ्यता की तरह मितन्नी संस्कृति में भी रथ युद्ध एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और इन रथों में जुटने वाले घोड़ों के प्रशिक्षण पर इस संस्कृति का ग्रन्थ दुनिया में सबसे पुराना दस्तावेज माना जाता है। मज़े की बात यह है कि वेदों से भी प्राचीन माने वाले इस ग्रन्थ में एक, त्रय और अश्व जैसे उन शब्दों का उल्लेख मिलता है जो संस्कृत के हैं ये जिन देवताओं को मानते थे उनमे कुछ स्थानीय देवताओं के अलावा इंद्र, मित्रवरुण और नासत्य (अश्विनी कुमार) भी शामिल थे— जिनका ज़िक्र 1380 ईसा पूर्व की एक प्रतिद्वंद्वी राजा के साथ की गयी मितान्नियों की एक संधि में भी मिलता है। इसी आधार पर लेखक डेविड एंथनी अपनी किताब ‘द हार्स, द व्हील एंड लैंग्वेज’ में कहते हैं न केवल ऋग्वैदिक संस्कृत पश्चिमोत्तर भारत में ऋग्वेद की रचना से पहले अस्तित्व में थी बल्कि जिन धार्मिक देवताओं का उल्लेख है, वे भी पहले ही अस्तित्व में आ चुके थे।

  इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि संस्कृत दरअसल जिस भाषा परिवार से निकली है उसका आधार प्रोटो इंडो यूरोपियन नाम की एक आदिम भाषा थी। समय के साथ इस भाषा ने प्रोटो इंडो इरानियन नाम की एक और भाषा को जन्म दिया— इसके नाम से ही जाहिर है कि यह उत्तरी भारत और ईरान के इलाके में विकसित हुई। एक मान्यता के मुताबिक ईसा से करीब दो हजार साल पहले प्रोटो इंडो इरानियन भाषा को बोलने वाले शुरुआती लोग आज के कजाकस्तान और इसके आसपास के इलाके में रहा करते थे। मध्य एशिया के इस क्षेत्र में बसने वाले इन लोगों के समाज से धीरे-धीरे एक शाखा अलग हुई जिसने प्रोटो इंडो इरानियन छोड़कर शुरुआती संस्कृत में बोलना शुरू किया। इनमें से कुछ लोग तो पश्चिम की तरफ उस इलाके में आ गये— जो आज सीरिया है और कुछ लोग पूर्व की तरफ बढ़ते हुए पंजाब के इलाके में पहुंच गये।

पूरब की तरफ बढ़े संस्कृत वाचक ही आर्य कहलाये

  डेविड एंथनी के मुताबिक जो लोग पश्चिम की तरफ बढ़े— उन्हें शायद सीरिया के क्षेत्र में राज कर रही सत्ता ने अपना सहयोगी बना लिया। रथकला में निपुण ये लोग वही भाषा बोलते थे जो उनके समुदाय के दूसरे साथी पूर्व की तरफ बोल रहे थे और जो बाद में ऋगवेद में दिखाई दी। इन योद्धाओं को मर्य कहा जाता था— यही शब्द इंद्र के सहयोगी योद्धाओं के लिए ऋगवेद में भी मिलता है। माना जाता है कि ऋगवैदिक संस्कृत बोलने वाले इन लोगों ने बाद में विद्रोह कर दिया और मितन्नी राजवंश की स्थापना की। धीरे-धीरे वे स्थानीय संस्कृति में रच बस गये… वे हर्रियन नाम की भाषा बोलने लगे। लेकिन कुछ राजसी नाम, रथ शास्त्र से जुड़ी तकनीकी शब्दावलियां और इंद्र, वरुण, मित्र और नासत्य जैसे देवता उनके जीवन में महत्वपूर्ण बने रहे।

  उधर जो समूह पूरब की तरफ बढ़ा था और जिसने बाद में ऋगवेद की रचना की— उसे अपनी संस्कृति को बचाये रखने में सफलता मिली। जिस भाषा और धर्म को वे इस महाद्वीप में लाये, उसने जड़ें पकड़ लीं… और समय के साथ ये जड़ें इतनी मजबूत हो गईं कि संस्कृत इस भूभाग के बड़े हिस्से में बोली जाने लगी। 

 एक तरह से इन्हीं लोगों के लिये हम आर्य शब्द प्रयुक्त करते हैं। इन्हें उत्तर भारत की आदिवासी आबादी के साथ समायोजित करने में तो खास कठिनाई न पेश आई लेकिन दक्षिण भारत के लोगों के साथ एक लंबे काल तक उनका युद्ध चला है और उनके बीच का मतभेद आपको आज भी लिंगायत जैसे विवादों में मिल जायेगा।

  फिर भी विवादों सहित वे पूर्वी देशों तक फले फूले लेकिन आगे चल कर उनके सिद्धांतों से एडजस्ट न कर पाने की वजह से ही जैन, बौद्ध और सिख अलग शाखाओं में बंटे… जिनमें से बौद्ध धर्म काफी फला फूला और आज भी पूर्वी एशिया में मुख्य धर्म है।

Written by Ashfaq Ahmad